काई / रांगेय राघव

Gadya Kosh से
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पति का चुनाव करने के लिए दुनिया की आम बातों को जानने की जरूरत होती है। -डॉक्टर लक्ष्मण का यह कहना सुधा को बहुत जंचा। डॉक्टर लक्ष्मण अभी अपनी प्रैक्टिस जमाने की ही कोशिश कर रहे थे। उनको अक्सर शिकायत रहती थी कि वे इंग्लैंड नहीं जा सके। लड़ाई ने उनके सब अरमानों को एक धांय से, एक गरज से बिल्कुल नेस्तनाबूद कर दिया था। और अब वे कहते, समाज का सुधार करना पुरूषों के हाथ में उतना नहीं है, जितना स्त्रियों के। स्त्रियों की अंगरेजी अच्छी होनी चाहिए। जैसे हंसने की बजाए मुस्कराने से औरतों की खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं, हिन्दी की बजाए अंगरेजी से वही काम निकलता है।

वे कहा करते-आज हिंदुस्तान में जो ज्वार आया है, उसमें नारी ने भी अपनी चूड़ियों में बेड़ियों की झनकार सुनी है। यह समझना भूल है कि वह आदम और हव्वा की तरह ईश्वर की पहली रचना है, वह भी क्रमागत विकास का एक स्वरूप है। -फिर वे जोश में आकर कहते-नारी को एक देवी समझता है, एक राक्षसी! ठाकुर ने उसे अर्द्धनारी-अर्द्धस्वर्गीय माना है। नारी के मुंह पर एक हंसी रहती है लेकिन भीतर एक अंधड़ और रहस्य। वह आज तक नहीं समझी जा सकी।

और नतीजा निकालकर वे कहते थे-आदमी बेवकूफ है, औरत पागल।

इसको सुनकर सब अचरज से देखते थे और सब हंसते थे, लेकिन डॉक्टर अपने विचारों पर दृढ़ थे।

सुधा ने डॉक्टर को परले सिरे का पहुंचा माना और अंगरेजी का अखबार पढ़ने लगी। एक से शुरू किया और नौबत यहां तक पहुंची कि लाइब्रेरी में जाकर वक्त को पूरा करने के लिए दर्जनों पर नजर गिरने लगी।

पब्लिक पार्क की बाईं तरफ के अर्द्धचंद्रकार पेड़ों के पीछे रंग के उस पुराने जमाने के गिरजे-जैसे पुस्तकालय में उसके आने-जाने से पहले के मुकाबिले में रौनक बढ़ गई।

सुधा पढ़ती, और फिर शब्दों से लड़ती। पहले ही दिन चलते वक्त लाइब्रेरियन ने नम्र शब्दों में निवेदन किया-कृपया अखबारों में निशान न लगाया कीजिए। आपको अपनी पसंद दूसरों पर जताने की इच्छा हो तो मुझे मुंहजबानी बता दिया करें। हो सकता है जो खबर या बात आप बहुत महत्त्वपूर्ण समझें वह वास्तव में ऐसी न हो।

सुधा ने आंखों को संकुचित करके घूरा और ‘माफ कीजिए, मुझे मालूम नहीं था’ कहकर अपना चमड़े का बैग उठा लिया और बाहर चली आई।

किंतु अखबारों का पढ़ना जारी रहा। डॉक्टर लक्ष्मण अपनी राय बताते हुए कहते कि रूमानिया का तेल ही इस लड़ाई का असली कारण है। न रूमानिया में तेल होता न हिटलर ऑस्ट्रिया पर हमला करता, न अंगरेजों से निकल जाने पर रूस जोर देता।

‘तेल!’ वे गंभीर होकर कहते-तेल दुनिया की एक नायब चीज है। जो चीज चिकनी हो या आग पकड़ ले, वही तेल है। तेल कई तरह का होता है, मगर तेल नहीं तो कुछ भी नहीं। तेल से ही दुनिया चलती है, तेल ही से आपका बदन काम करता है...

तब इंटर की विद्यार्थिनी सुधा मन में विस्मय करती कि डॉक्टर कहां से बात शुरू करता है कहां उसका अंत होगा यह कोई नहीं समझ पाता, लेकिन ऊपर से कहती-डॉक्टर, तेल न कहिए सत कहिए तो कुछ हर्ज होगा?

नहीं; लेकिन-डॉक्टर ने बात काटकर कहा-सत तो स्वयं कोई वस्तु नहीं, तुम असल में शक्ति और चालन में सुविधा देने वाली वस्तु में भेद कर रही हो...

नहीं, डॉक्टर!-वह कह उठी-मैं आपका मतलब समझ गई। आपने ठीक कहा है। मैं तो उसी को सरल शब्दों में समझने की कोशिश कर रही थी।

तब डॉक्टर संतुष्ट-से कह उठे-तब तो तुम ठीक कहती हो। तुम बिल्कुल ठीक हो।

और लंबे चेहरे का हरिश्चंद्र, जो अपने को सबसे ज्यादा अक्लमंद समझता, दोनों की बातें सुन-सुनकर मुस्कराता। वह कम बोलता और वास्तव में इस मौन ने उसे समाज में काफी स्थिरता दे दी थी। वह दिल में सवाल-जबाव करता था और सोच लेता कि इस बात का यह सबसे अच्छा उत्तर है लेकिन ‘यह’ बात हमेशा उसे बाद में सूझती और गाड़ी छूटने के बाद कौन नहीं चाहता कि वह भी मदरास चला जाए, खास तौर पर अगर वहीं तक का टिकट भी हो।

हरिश्चंद्र गोरा और सजीला युवक था। उसे सदा ही बिल्कुल नपे-तुले फैशन से लैस देखकर लोग उसे एक धनी नवयुवक समझते थे। वह कौन था, यह बहुत कम को ज्ञात था। जिस दिन सुधा उसके बंगले पर गई थी उस दिन केवल उसकी मां ने उसका स्वागत किया था। एक बड़ी बहन थी, लड़ाई में ‘बैकआई’ बन गई थी और हरिश्चंद्र उसकी बात कहकर हंस उठा था। सुधा कुछ भी नहीं समझी थी। उसने विस्मय से देखकर कुछ सोचा था किंतु फिर डूबते सूरज की सुनहली किरणों में जब पेड़ों की लंबी-लंबी छायाओं से घिरे वे चाय पी रहे थे क्षण भर को सुधा ठिठक गई थी। उसने पहली बार देखा था कि हरिश्चंद्र देखने में आकर्षक था। इससे अधिक उसने कुछ नहीं सोचा। रात को जब वह बहुत देर तक पढ़ती, उसने देखा अवश्य था कि कैसे उसके घर के सामने जो स्कूल की अविवाहिता मास्टरनी रहती थी, बत्ती बुझाकर अंधेरे में टहला करती थी, अकेली-अकेली-सी और कभी-कभी कोई उसके पास रात के एक बजे आ जाता था। सुधा सोचती, एक बजे तक प्रतीक्षा! और जैसे उसके जीवन में वह पहलू नहीं था, वह झट खिड़की से हट जाती और उसकी निगाह अखबार पर जा पड़ती। दुनिया का हरेक देश अपनी स्वतंत्रता के लिए युद्ध कर रहा है। और हिंदुस्तान में अभी तक ये मास्टरनी? तभी उसे डॉक्टर की बात याद आती कि कोई भी देश तभी तक गुलाम रहता है, जब तक उसके रहने वाले स्वयं पूरी तरह से आजाद होने के योग्य नहीं हो जाते। बात उसके दिमाग में गूंजती और फिर डॉक्टर का अकेला जीवन उसके सामने चलने लगता। डॉक्टर का छोटा-सा मकान, जिसका वह पंद्रह रुपया किराया देता था! मकानदार की चौबीसों घंटे की-लड़ाई-लड़ाई तक की-ईश्वर से केवल एक प्रार्थना थी कि डॉक्टर कूच कर जाएं और वह महंगाई और जगह की कमी का फायदा उठाकर मकान को कम-से-कम चालीस रुपए में उठा दे, जो अपनी तरफ से वह करने में असमर्थ था-चूंकि सरकार के भारत-रक्षा कानून में वही एक बात जनता के लिए फायदेमंद साबित हो सकी थी। सुधा घृणा से नाक सिकोड़ लेती। कैसे हैं ये लोग जो अपनी नीचता को अच्छे शब्दों में सजाकर कहने से बाज नहीं आते! और घड़ी में दो घंटे बजते, उनकी प्रतिध्वनि बनकर जेल का घंटा बजता, जिसकी गूंज के समाप्त होने के पहले कहीं और से ढन-ढन की आवाज आती और क्षण भर लहर से जैसे घंटे ही घंटे बजे और सुधा पैरों पर से लिहाफ गले तक खींचकर आंखें-बंद कर लेती। तारे रात में ठंड से सिकुड़कर कांपने लगते, ठंडी-ठंडी हवा बहती रहती और थोड़ी देर बाद जमीन और आसमान दोनों पलकों की तरह मिलकर अंधकार, महाअंधकार में लय हो जाते।

2

‘दुनिया कभी सत्य को नहीं पहचान सकती, क्योंकि अपने-अपने स्वार्थो में पड़े मनुष्य कभी भी अपने दायरों के बाहर की बात नहीं सोच सकते।’ डॉक्टर ने धूप में कुर्सी खींचकर बैठते हुए कहा।

हरिश्चंद्र सिगरेट का धुआं उगलते-उगलते कह उठा, ‘क्या मतलब? जरा स्पष्ट करिएगा डॉक्टर!’

डॉक्टर की आंखों के नीचे गड्ढ़े पढ़ गए। उनका सुनहरी फ्रेम का चश्मा जो अर्द्धगालों की एक नुमाइश थी, उनकी आंखों के ऊपर एक अपने ही ढंग की चीज थी। उन्होंने शाल अच्छी तरह ओढ़कर उत्तर दिया, ‘मनुष्य संकुचित है क्योंकि वह अपनी सत्ता को बनाए रखने के काम में अच्छा-बुरा छोड़कर लगा रहता है।’

सुघा चुप बैठी रही। आज इतवार था। वह फुर्सत में थी। लॉन पर ओस झलक रही थी। फूटती किरणें पेड़ों के बीच में से ओस को पकड़ने के लिए झुकी आ रही थीं। दूर क्षितिज पर अब भी कोहरा जमा हुआ था, नीला-सा, ऊदा-ऊदा-सा। हरिश्चंद्र के बंगले का यह बरामदा सड़क की तरफ था।

डॉक्टर कहता रहा, ‘जानते हो न इस पंजाबी होमियोपैथ डॉक्टर को? हजारों में खेलता है। क्विनीन को होमियोपैथिक दवा बताकर बांटता है। एम. बी. 693 का पाउडर बनाकर उसे अपना चूरन बता-बताकर देता है, और लोग उसके पीछे भागते हैं। जब से मेडीकल स्कूल कॉलेज हो गया है, डॉक्टर मरीजों की, लोगों की बिल्कुल परवाह नहीं करते और फिर भी लोग उन्हीं के पीछे दौड़ते हैं। हमलोगों के पास कोई नहीं आता।’

डॉक्टर एक शुष्क व्यंग्य की हंसी हंसा। सुधा ओवरकोट की जेब में हाथ डाले बैठी रही। हरिश्चंद्र ने कहा, ‘लेकिन डॉक्टर, आपके पास आना न आना सत्य से क्या संबंध रखता है।’

डॉक्टर चिहुंककर बोल उठे, ‘ठीक पूछा है तुमने हरिश्चंद्र, ठीक पूछा है। क्या जरूरत है लोगों को उनलोगों के पीछे भागने की, जो रुपए के सामने आदमी की परवाह नहीं करते?’

हरिश्चंद्र कह उठा, ‘बच्चे जरूर सवालों को लेकर अभ्यास किया करते हैं, लेकिन जान का, जान जैसी चीज पर अभ्यास करना लोग जरा कम पसंद करते हैं।’

डॉक्टर को लगा जैसे हरिश्चंद्र के मुंह से बड़ा कड़वा धुआं निकल कर फैल गया। वह सुधा की ओर देखकर कहने लगा, ‘देखा सुधा, हरिश्चंद्र हर चीज को खेल समझते हैं। एक बात बताऊं, किसी से कहोगे तो नहीं?’

दोनों ने आश्वासन भरे नयनों से देखा। डॉक्टर ने कहा, ‘कल शाम मेरे पास सुधा के घर के सामने रहने वाली मास्टरनी आई थी। वह दवा चाहती है कि समाज उसे ठीक समझता रहे। उसके कार्य पाप न होते हुए भी समाज को ज्ञात हो जाने पर जो पाप हो जाएंगे, इसीलिए वह उनको मिटा देना चाहती है?’

‘क्या बात?’ सुधा ने नासमझी से पूछा, ‘क्या हुआ उसको?’

डॉक्टर जोर से हंसकर बोले, ‘अभी तुम नहीं समझोगी। क्योंकि तुमने अभी दुनिया नहीं देखी। मास्टरनी गर्भवती हो गई है और गर्भ से छुटकारा पाने के लिए मुझसे दवा चाहती है, जैसे मैंने गर्भ गिराने की ही दवाएं सीखी है और कोई भला काम मैं नहीं कर सकता। और इसके लिए उसके प्रेमी एक सेठ के लड़के ने पांच सौ रुपए मुझे देने को कबूल किया है, क्योंकि मास्टरनी के पास लड़के के प्रेम-पत्र हैं, जिनके बल पर वह उससे शादी कर सकती है। किंतु वह सेठ के लड़के से अपना सच्चा प्रेम बताती है और कहती है कि सेठ के लड़के में उतना साहस नहीं है कि मुझसे शादी कर ले। यदि मैं जोर दूंगी तो उसकी कमजोरी का नाजायज फायदा उठाना होगा, इसलिए मौजूदा हालात में भ्रूण-हत्या सबसे ज्यादा ठीक रहेगी।’

डॉक्टर एक जंगली तरीके से हंस उठा। सुधा ने पूछा, ‘और डॉक्टर, आप उसे मदद देंगे?’ डॉक्टर गंभीर होकर बोले, ‘मैं नहीं जानता मैं क्या करूंगा। हरिश्चंद्र, तुम्हारी इस विषय में क्या राय है?’

हरिश्चंद्र चुप बैठा था। उसने एक बार लॉन की ओर देखा, सड़क की ओर देखा, राह चलतों पर नजर डाली, जैसे वह सबकी राय ले रहा हो, और खांसकर उसने कहा, ‘डॉक्टर, मैं नहीं जानता कि आप मेरे उत्तर से मुझे कैसा आदमी समझेंगे।’

डॉक्टर ने उसे ऐसे देखा जैसे उससे क्या, तुम्हें जो कहना हो कहो।

हरिश्चंद्र ने ऊपर देखते हुए कहा, ‘बात असल में एक है, और वह है मास्टरनी का भविष्य। बच्चे समाज में इतने होते हैं कि हिंदुस्तानी उनमें से बहुतों को नहीं चाहता। ऐसी दशा में संतान का प्रश्न बेकार है। अगर भ्रूण-हत्या नहीं होती तो मास्टरनी या तो सेठ पर जोर डालकर शादी करती और सदा के लिए जीवन की कोमलता खो जाती है या फिर वह बदनाम होती है, नौकरी से निकाल दी जाकर भिखारिन हो जाती है। एक पाप करने से अनेक विषमताओं का अंत होता है, अतः वह काम भी बुरा नहीं रहता। अगर आप मेरी बात मानें तो आप जरूर उसे कोई दवा देकर इस परेशानी से उबार दें।’

डॉक्टर के दिमाग में सौ-सौ करके पांच चोटें पड़ीं और सुधा फट पड़ी, ‘तो उसके इस काम के लिए क्या सजा है?’

हरिश्चंद्र अविचलित स्वर में बोला, ‘क्या यह काम सचमुच सजा देने लायक है? आप कहेंगी, यह दुराचार है। मैं मानता हूं, लेकिन भूखा और पिंजरे में बंद क्या नहीं करता। जरा-सा दरवाजा खुला नहीं कि उड़ने के लिए झपटा। और नतीजे में खटका गिरने पर टांग के बल घंटों लटकता है। और मेरे विचार में एक औरत के लिए सबसे बड़ी सजा है कि वह जब मां बनने वाली हो उसे स्वयं अपने ही बच्चे का खून करना पड़े।’

उसने तीखे नयनों से सुधा की ओर दृष्टि फेंकी। सुधा ने पढ़ा जैसे वह कह रहा हो कि यदि तुम उस जगह होतीं तो क्या करतीं? और क्षण भर में ही परिस्थिति की गंभीरता समझकर चुप हो गई।

डॉक्टर सोचते रहे। फिर बोले, ‘लेकिन यह करने के बाद भी तुमलोग यह न सोचना कि मैंने अपनी परेशानियों से तंग आकर पांच सौ रुपयों के लिए ऐसे ही एक मनुष्य को मार डाला।’

हरिचंद्र बोल उठा, ‘आप भी कैसी बातें करते हैं, डॉक्टर! सजा वही देता है जो अपने को अपराधी से अच्छा समझता हो। जिस समाज में आदमी भूख से मार डाले जाएं, वहां एक अनजाने मांस के लौंदे को मिटा डालना कोई बड़ी बात नहीं है। अगर पता चल जाने पर समाज मां और बालक दोनों को ही सजा के अतिरिक्त कुछ नहीं दे सकता तो क्यों न एक ही जिंदगी सुधारने का प्रयत्न किया जाए। मैं आपसे अपने दिल की कसम खाकर कहता हूं कि आपकी इज्जत मेरे दिल में फिर भी बनी रहेगी। और आप ही बताइए कौन-सा वह इज्जतदार डॉक्टर जिसने इन्हीं कामों के बूते पर शुरू में अपनी प्रैक्टिस स्थापित नहीं की? एक बार नस पकड़ ली, फौरन वहां, ‘फैमिली डॉक्टर’ बन गए और फिर चलती का नाम गाड़ी है।’

हरिश्चंद्र ने दूसरी सिगरेट जला ली। सुधा खोई-सी बैठी रही। डॉक्टर सोचते रहे और सूखी डाल पर काली चिड़िया गर्दन मटकाकर गाती रही। एक उत्तरहीन अभावपूर्ण सन्नाटा घहराकर धूप में सुबकने लगा।


3

जब शाम को सुधा इतवार को पुस्तकालय बंद होने के कारण घर पर ही बैठकर जी बहलाने लगी, उसके दिमाग में तरह-तरह के विचार दौड़ने लगे। धीरे-धीरे एक-धुआं-सा कोहरा सांस के साथ भीतर-बाहर छा गया और चारों ओर अंधकार ही अंधकार का बहरापन आकाश से एक कशमकश करता बरसने लगा। वह चुपचाप बैठी खिड़की से देखती रही। दूर दोतल्ले पर बिजली के प्रकाश में कुछ दर्जी लड़ाई की वर्दियां सी रहे थे। वह प्रायः चौबीसों घंटे काम करते और सुधा यही अचरज करती कि आदमी कैसे स्वयं एक मशीन हो जाता है। अब तो खैर जाड़े हैं, मगर गर्मी, बरसात सब में वे उस ही कमरे में बंद रहकर काम करते और करते...

सुधा ने देखा दूर और दूर बिजली के खंभे के नीचे कुछ भिखारी टाट में लिपटे बैठे थे और उसे मालूम था रात होने पर वे वहीं टाट के लिपटे लुढ़क जाएंगे, सो जाएंगे, सुबह उठकर फिर गंदे मुंह, बदन से भीख मांगने और रात और दिन की ठंड खाकर भी उनका शरीर नहीं अकड़ता। जैसे कुत्ता बहुत ठंड होने पर कूं-कूं करके फिर मिट्टी में सिमटकर सो रहता है और एक बार चांद को देखकर जब अपनी छाया से उसे डर लगता है तो जोर से रो उठता है।

सुधा उन्मन होकर आसमान की तरफ देखने लगी। कुछ नहीं केवल कुछ तारे निकल आए थे। पृथ्वी घूमती है, वे राह पर आते हैं, दिखते हैं फिर ऐसे नहीं दिखते और सुधा ने दृष्टि नीची कर ली। लालटेन की लौ तेज करके सामने वाली दुकान के हलवाई ने कुछ आवाज लगाई और सुधा ने देखा, वही बूढ़ा भिखारी और वही औरत खड़े थे। चुपचाप; जैसे कोई मतलब नहीं। सुधा अक्सर उन्हें देखती और उसे उनमें कुछ कौतूहल होता था। औरत बिल्कुल पागल-सी थी। बूढ़ा कभी-कभी किसी से बात कर लेता था और एक सुबह उसने देखा था, बूढ़े की गोद में सिर रखकर सड़क के किनारे ही औरत सोती रही। बूढ़ा कभी उसके शरीर पर झुककर भयंकरता से खांसता और कभी ऊंघने लगता। औरत फिर भी न जागी, बूढ़ा फिर भी न हटा, और आसमान से चिल्ला गिरता रहा, किंतु सुबह भी मरे नहीं थे, उनका ध्वंस नहीं हो सका था। बूढ़ा उसे लेकर चल पड़ा था। ऊंचे उठे कंधे और लटकी गर्दन, छोटा-सा कद, और स्त्री जो बगराती, सतराती और कदम-कदम पर ठोकर खाती।

सुधा ने व्यथा से भरकर एक लंबी सांस ली और आंखों को ढंककर हाथों से मसल दिया और अंधकार में कमरे में कुछ देखने लगी। क्या हक है हमें इस तरह ठंड से बचकर रहने का जब इतने आदमी न सो-पाते हैं, न जिनको जगना है; न जिनका सोना उनका जागना एक हाहाकार है, जिनकी नींद एक मूर्छा है...

वह सोचने लगी। मन में अपने-आप भावना उठी कि क्या यह जीवित रहना तो पाप है? क्या हमें भी सब कुछ खोकर वैसा ही हो जाना है? जब सुख है तभी दुख, लेकिन यदि दुख ही है तो न कोई ईर्ष्या करने वाला है, न कोई दूसरों के लिए आहत होने वाला। ये जो स्वयं पीडि़त हैं, ये किसी और की चिंता नहीं करते, केवल अपना ही ध्यान, अपने पेट का भयानक ध्यान भर रहता है।

किसी के सीढ़ी चढ़ने की आवाज हुई और सुधा ने प्राकृतिक रूप से ही पुकारा, ‘कौन? भइया?’

‘अरे, अंधेरे में क्यों बैठी है?’ कहते हुए एक युवक ने स्विच दबा दिया। एकाएक उजाला हो जाने से सुधा की आंखें पल भर को बंद हो गई और जब उसने आंखें खोलकर देखा तो भइया बिछे हुए बिस्तर पर बैठे पैर हिलाते हुए सिगरेट जलाए हुए थे। दोनों एक दूसरे को देखकर व्यर्थ मुस्कुराए और भइया ने एक बार धुआं छोड़कर कहा, ‘तूने सुना सुधा, मैंने नौकरी छोड़ दी?’

‘छोड़ दी? क्यों? कैसे? कब?’ सुधा ने घबराकर सवालों की बाढ़ मचा दी। उसके दिमाग में एक उथल-पुथल मच उठी।

भइया ने नीची दृष्टि करके कहा, ‘कल मुझे तुझसे कहने का वक्त ही न मिला। सेठ हरनारायण के लड़के ने कल साढ़े छह सौ की नौकरी से इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वे मेरे पीछे लड़ गए थे। एक अंग्रेज ने मुझे बहुत बुरी गालियां दी थीं और जब रिपोर्ट की गई तो सब बड़े अंग्रेज अफसर उस ही की तरफ बोलने लगे। उनके छोड़ने के कारण मैंने भी छोड़ दी।’

बात खत्म हो गई, किंतु फिर भी इसलिए खत्म नहीं हुई, क्योंकि बात का समाप्त हो जाना आगे के जीवन का हल किसी तरह भी नहीं निकाल सकता था। सुधा ने धीरे से कहा, ‘अंग्रेजों का बर्त्ताव तुम्हीं से बुरा था या सबसे?’

‘सबसे। किंतु मैं इसे सह न सका।’ आज भइया के आदर्श त्याग का महत्त्व सुधा की समझ में नहीं आया। वह स्त्री थी और उसे अपनेपन का कहीं अधिक ख्याल था। अंग्रेज कौन सी ऐसी बात कर रहे हैं, जिसमें हिंदुस्तानियों की इज्जत बढ़ रही थी! जब आदमी नौकरी करने जाता है, पेट के लिए, तब इज्जत तो वह पहले ही छोड़ आता है। या तो खुलकर बगावत करे, या करे ही नहीं। सब एक-दूसरे से हुजूर कहते हैं, क्योंकि कहना पड़ता है।

और उसने भइया की ओर देखा जो ऐसे बैठे थे जैसे मैंने जो किया है उसके लिए बिल्कुल लज्जित नहीं हूं। मैं कुत्ता नहीं हूं जो टुकड़ों के लिए ठोकर खाता फिरूं। दोनों ने एक दूसरे को देखा और दोनों ने एक-दूसरे के विचारों को आंखों से ही पढ़ लिया।

सुधा को उस पर दया-सी हो आई और भइया को एक उलझी-सी झुंझलाहट। सुधा ने कहा, ‘मुझे कल दो महीने की फीस दाखिल करनी है।’

भइया ने हंसकर कहा, ‘अरी कल तक मैं हंसता था कि घर में अखबार लेकर तू पुस्तकालय जाती है, मगर शायद जल्द ही अब तुझे पुस्तकालय में ही अखबार पढ़ने पर मजबूर होना पड़ेगा।’

सुधा थोड़ी देर चुप रही। उसने कहा, ‘अब?’

भइया बोले, ‘अबके अमरीकनों में कोशिश करूंगा। जल्दी ही मिलेगी। सौ न सही, पचास ही सही-दौ सौ तो अब क्या मिलेंगे-मगर मिलेंगे तो! सुनते हैं अमरीकन अंग्रेजों के मुकाबले में अच्छे हैं।’

सुधा को विश्वास नहीं हुआ। होंगे भी तो मुकाबिले में ही हो सकते हैं। वैसे तो जो नौकरी देगा वह जरूर दाबाना चाहेगा, तब तक जब तक नौकर-मालिक का फर्क न मिट जाए।

भैया हंस पड़े। बोल उठे, ‘अरी क्यों घबराती है पगली। सोचती होगी सेठजी के लड़के ने ठोकर मारी तो उनका दूसरा पैर भी मजबूत था, यहां तो झनझनाहट से ही गिर गए। तेरा तो ब्याह मैं कर ही दूंगा कहीं अच्छी-सी जगह और फिर की फिर देखी जाएगी। अकेले की क्या है? मगर तू न कहेगी, अपनी पसंद से करूंगी मैं तो...पढ़ी-लिखी जो है न?’ और भइया ठठाकर हंस पड़े। सुधा लाज से मुस्करा उठी। मजबूरियों में भावी सुख की ये कल्पनाएं जो कभी पास नहीं आतीं, और जीवन सरकता चला जाता है! कैसी मृगतृष्णा! कैसी मरीचिका! अनंत अंधकार, आकाश में धू-धू जलता निर्धूम उन्माद, या पागलपन...

4

डॉक्टर ने सुधा की दो महीने की, तथा इंतहान की फीस, शीघ्र वापिस मिल जाने के वायदे पर तकल्लुफ दिखाते हुए दे दी और उस दिन सुधा ने पत्थरों के नीचे दबे दिल में पहली बार एक चोट महसूस की, जिसमें बंधनों की पीड़ा का वेग होता है। वह थोड़ी देर देखती रही और डॉक्टरों ने उसकी ओर न देखते हुए, अपनी सिगरेट जलाकर चुपचाप एक लंबी सांस ली।

सुधा ने अपने होठों पर जीभ फेरी और एकाएक पूछ बैठी, ‘डॉक्टर, मनुष्य सुखी कब होता है?’

डॉक्टर जैसे तैयार नहीं थे। उन्होंने चौंककर उसकी ओर देखा और वे धीरे से कह उठे, ‘जब मनुष्य कुछ नहीं चाहता, जब उसे कोई चिंता नहीं रहती।’

‘यानी जब आदमी मर जाता है।’

डॉक्टर फिर चौंके। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। वह उसे घूरते रहे, जैसे क्या मतलब,

सुधा ने उनका मतलब समझकर झिझकते-झिझकते कहा, ‘डॉक्टर, मनुष्य सदा चिंतित रहता है। आप मनुष्य के शरीर की सारी बनावट जानते हैं, इसी से आपसे पूछती हूं। आदमी कभी चैन से नहीं रहता। वह क्यों कुछ करना चाहता है?’

‘क्योंकि वह रहना चाहता है?’

‘लेकिन क्यों?’

‘क्यों? क्योंकि वह पैदा होता है।’ जैसे डॉक्टर ने सारी समस्या सुलझा दी।

‘यही तो पूछती हूं डॉक्टर’, सुधा ने दृढ़ता से कहा, ‘वह पैदा क्यों होता है?’

‘क्यों होता है?’ डॉक्टर हंस पड़े। उन्होंने कहा, ‘यह तो मैं नहीं बता सकता कि क्यों होता है। डॉक्टर होने की हैसियत से यह जरूर बता सकता हूं कि कैसे होता है। और यह ‘कैसे’ ही वास्तव में ‘क्यों’ का पहलू अपने में छिपाए है। यह ‘कैसे’ ही ‘क्यों’ का असली उत्तर है। बिना ‘कैसे’ के ‘क्यों’ कभी सामने नहीं आता, क्योंकि केवल ‘क्यों’ एक दुस्वप्न की घुटती पुकार है जिसका जबाव आइंस्टाइन जैसे वैज्ञानिक भी नहीं निकाल सके और वे अब भी ‘कैसे’ में ही उलझ रहे हैं। ‘क्यों’ का उत्तर बहुतों ने दिया है, किंतु आगे वाले ने उन्हें ही काट दिया और ‘क्यों’ का उत्तर सारहीन हाहाकार-मात्र रह सका।’

सुधा देखती रही। डॉक्टर का जादू आज उस पर असर करने में असफल हो गया। उसके मन को तृप्ति नहीं हुई। मनुष्य जो चाहता है वही नहीं हो पाता, जहां वह घास समझकर पैर रखता है, वहीं कीचड़ निकलती है। और उसका पैर आगे बढ़ने की बजाए धंसा रह जाता है।

डॉक्टर ने सिगरेट फेंककर यूरोपियन ढंग से कुछ अशरफ जंभाइयां लीं और दोनों हाथों को सीधा किया और उद्विग्न-से कमरे में टहलने लगे। कभी-कभी वे सुधा को देखते थे और जैसे कुछ कहना चाहते थे किंतु शब्द न मिलने के कारण परेशान थे।

सुधा ने ही मौन तोड़ा। उसने पूछा, ‘डॉक्टर, मास्टरनी का क्या हुआ?’

‘होता क्या?’ उन्होंने मेज पर टिककर कहा, ‘जो होना था वही हुआ।’

‘यानी?’ घड़ी के आलारम की तरह सुधा की बात टनटना उठी।

‘यानी दवा ने उसके पाप को धो दिया, लेकिन आज ही सुबह ऑपरेशन करके मुझे एक और काम करना पड़ा। वे दवाएं गलत तौर पर पी गई और जहर ने गर्भाशय में प्रवेश कर लिया। इसलिए मुझे उसकी चीरा-फाड़ी करनी पड़ी और अब वह कभी भी मां नहीं बन सकेगी, चाहे तो भी नहीं। इसके लिए सेठ के लड़के ने मुझे पांच सौ की जगह कुल तीन सौ रुपए दिए हैं। ज्योंही उसे मालूम पड़ा कि बच्चा नहीं रहा उसने मास्टरनी से कुछ कहा। ऑपरेशन के बाद जब कोई भी डॉक्टर उसकी देख-रेख कर सकता था। उसने मुझे कुल तीन सौ रुपए दिए और वह मास्टरनी एकदम चुप हो गई। दोनों ने मुझ पर जुर्म लगाया और मास्टरनी ने कहा कि मेरी ही गलती की वजह से वह अब औरत नहीं रही।’

डॉक्टर पराजित-से हंस पड़े। फिर कह उठे, ‘रुपए मैं जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य नहीं समझता। मैंने उनके भले के लिए किया था वह सब, लेकिन...’

सुधा ने बात काटकर कहा, ‘तो भला तो आप कर चुके न? फिर कैसा अफसोस? कर्म करना ही तो आपके अधिकार में था। फल न मिला, न सही।’

डॉक्टर तिमिला उठा। इस समय वह चाहता था कि कोई उसकी प्रशंसा करे और उसी की एक शिष्या के समान लड़की ने उसके मर्म पर ऐसी चोट की थी। उसने आहत स्वर में कहा, ‘यह रुपया नहीं था, मेरी मेहनत का फल और उनकी ईमानदारी की परख थी।’

सुघा निराश हो गई। उसका व्याकुल हृदय भीतर-ही-भीतर चिल्ला उठा, ‘यह सब झूठ है। यह सब झूठ है।’ किंतु फिर कॉलेज की फीस जेब में पुकार उठी-चुप! चुप!

5

भइया की नौकरी सचमुच लग गई। वे सुबह साढ़े छह बजे के कड़कते जाड़े में घर से चल देते और शाम के पांच-साढ़े पांच बजे लौटते। एक सौ बीस रुपए की तनख्वाह बुरी नहीं होती। तीन ही दिन में ये कहीं से रुपए ले आए और डॉक्टर को सुधा ने बड़े-बड़े धन्यवाद देते हुए लौटा दिए। सुधा ने अपनी एक पुरानी जरसी उधेड़कर उनके लिए दस्ताने बना दिए ताकि साइकिल पर जाते वक्त हाथ न ठिठुर जाए और रात के परांठे लेकर वे गए कि फिर शाम तक की गई। मगर हालत बदस्तूर गिरी रही। पूरा महीना बिना पैसे चलाना था। घर में आटा था, मगर इधर सब्जी के बड़े दामों पर पैसा डालना कठिन था, दूध-दही सपना हो रहे थे। दरिद्रता की यह छाया सुधा के मन पर वैसी ही चढ़ी जैसे चूल्हे पर चढ़े बर्तन के तले पर कालिमा। अखबार बंद कर दिया गया। पहले जो दो सौ रुपए आते थे उनमें पाई-भर भी बचाना हराम था। रसोई करने वाली निकाल दी गई और वह भार सुधा पर ही आ पड़ा। घर और बाहर के बोझ की कशमकश में उसकी आत्मा अबरुद्ध-सी छटपटा उठी। शाम को वह भइया को खाना खिलाकर पुस्तकालय जाने लगी और इस कारण लौटते में कभी-कभी अंधेरा भी हो जाता किंतु अब अखबार पढ़ने में उसे सांत्वना-सी मिलती जैसे यह सब एक महान संग्राम था जिसका परिणाम मुक्ति है, मनुष्य की मुक्ति।

किंतु हरिश्चंद्र धीरे से मुस्करा उठा। उसने कहा, ‘तुम समझती हो सोवियत में सब सुखी हैं?’

‘मैं नहीं जानती, मगर तुम सुख कहते किसे हो?’ उसने पूछा।

‘मैं?’ हरिश्चंद्र ने उत्तर दिया। ‘सुख और दुख को केवल संसर्ग से उठानेवाली प्रतिक्रिया समझता हूं। साथ-साथ हैं तो यह है, वह है; दूर-दूर हैं तो न यह है, न वह है...और यह-वह कुछ स्वार्थ की सिद्धि सफल है तो सुख है, नहीं है तो दुख है।’

सुधा को यह उत्तर अच्छा लगा। एक बार मन में आया अपने घरेलू कष्टों का उससे बखान करके जी हल्का कर ले। किंतु फिर सहसा ही हिम्मत नहीं हुई कि कहीं इसमें कोई अपना अपमान न हो, कहीं हरिश्चंद्र उसे गरीब न समझ ले। हरिश्चंद्र बकता रहा, ‘संसर्ग ही सब कष्टों की जड़ है। मैं एक जमींदार हूं, छोटा-मोटा। कभी अपनी जमीन देखने तक नहीं जाता। जो आज गरीब किसान है उसे कभी यह मालूम नहीं होता कि एक मिस्टर हरिश्चंद्र भी होंगे जो मेरी मेहनत के बूते पर सिगरेट पी रहे होंगे। मगर जो है सो तो है ही। वह सब भी ठीक है।’ पैसा है तो सब कुछ है, नहीं तो कुछ नहीं।

सुधा ने उसकी ओर देखा। अनजान में ही उसकी दृष्टि में एक स्नेह छलछला उठा था। नारी के मन की अनजानी वेदना को निर्दोष रूप में प्रकट कर देने वाला पुरुष कम-से-कम एक प्यार भरी दृष्टि का उत्तराधिकारी अवश्य होता है। हरिश्चंद्र ने निर्भय स्वर में कहा, ‘मेरे मना करने पर भी मेरी बहिन ‘बैंक आई’ है और मैं जानता हूं उसकी टॉमियों से दोस्ती है, लेकिन क्या कर सकता हूं मैं? वह मुझसे पैसा नहीं चाहती, कुछ नहीं मांगती, किस तरह दबा सकता हूं उसे?

इतनी बड़ी बात कहकर भी उसे संकोच नहीं था। उसने बात को समाप्त करते हुए कहा, ‘मैं उसका भाई अवश्य हूं, किंतु उससे घृणा करता हूं क्योंकि वह मुझसे घृणा करती है, वह पुरुषों की ओर खिंचती है। जिस आदमी से वह प्रेम करती थी, वह एक अंग्रेज था, जिसने उसे एक ठोकर मार दी थी, और एक बच्चे की मां बनने के लिए छोड़ गया था। वह मां नहीं हुई, लेकिन पुरुषों पर उसने कभी विश्वास नहीं किया और मैं कोशिश करके भी उसे चाह नहीं सका।’

सुधा निस्तब्ध बैठी सुनती रही। कैसे हैं ये लोग! कोई-एक-दूसरे से प्यार नहीं करता! केवल अविश्वास, केवल घृणा! और परस्पर का व्यवहार केवल एक धोखा या फिर अत्याचार! पार्क में उस दिन चांदनी फैल हुई थी। दोनों बेंच पर बैठे बातें कर रहे थे। मादक हवा चल रही थी। बात करते-करते हरिश्चंद्र ने सुधा का हाथ पकड़कर कहा, ‘एक बात बतलाओ सुधा, क्या तुम बहुत सुखी हो? मैंने तुम्हें सदा एक जिज्ञासु के रूप में देखा है। तुम हो, तुम्हारे भइया हैं। मैं धन को बहुत बड़ी चीज मानता हूं। आज जो अविद्या, गंवारपन, कमीनापन और जाने क्या-क्या है यह सब धनहीनता के कारण है। सब धन के भेद हैं। मैं नहीं जानता मैं कहां तक सही हूं; किंतु तुम सदा मुझे सुखी दिखती हो।’

सुधा एकाएक हंस पड़ी। कैसा भोला है यह युवक जो हां-ना का फरक सुनकर नहीं पहचान सकता। उसने अपने सामने एक बालक देखा। अनजाने ही उसके कंधे पर हाथ रखकर वह बोल उठी, ‘अरे हमलोग असल में गरीब आदमी हैं, गरीब आदमी। सुखी हम कहां? सुख की बातें तो तुमलोगों को करनी चाहिए, जो जमींदार हैं, बड़े लोग हैं। हम तो जिंदे हैं, जिंदे!’

‘मैं जमींदार?’ और हरिश्चंद्र ठठाकर हंस पड़ा, ‘बड़ा आदमी? शायद कपड़े देखकर लोग ऐसे ही गलत ख्यालों में पड़े रहते हैं? बंगले में रहता हूं जो! और सब, सब कर्जे से लदा है, गले तक कर्जा है, कर्जा, कमीने सेठों ने छोड़ा ही क्या है...?’

और वह जोर से हंस पड़ा। उसकी भर्राई हंसी में उसका आहत अभिमान टुकड़े-टुकड़े होकर शीशे की तरह चांदनी में चमक उठा था। वह फिर कह उठा, ‘सोचती होगी जान-जानकर और क्यों फंसते हो? मगर जिसके मुंह में खून लग चुका हो वह घास नहीं खा सकता। यह रोगी तपेदिक से मरकर ही चैन ले सकता है, इसका इलाज असंभव है। बिल्ली दूध पी नहीं पाती तो लुढ़काए बिना उसे चैन कब मिलता है। एक खानदान की इज्जत भी तो होती है न? मां तो अभी भी अपनी ऐंठन उसी पर कायम रख सकी हैं।’

और वह फिर वही जहरीली हंसी उगल उठा। सुधा निस्पंद सुनती रही। किला धप से मिट्टी में बैठ गया था। चारों ओर धूल ही धूल उड़ रही थी। वैभव को अंधकर ने डस लिया था।

6

दूसरे दिन सुबह ही सुधा डॉक्टर के घर की तरफ चल पड़ी। डॉक्टर बैठे कुछ सोच रहे थे। इतनी सुबह सुधा को देखकर उन्हें कुछ भी अचरज नहीं हुआ। सुधा को रात भर नींद ठीक न आ सकने के कारण उसकी पलकें भारी हो रही थीं, डॉक्टर के संदेह की इस बात ने पुष्टि कर दी। वह अप्रसन्न-सा मुख लिए बैठ रहा। सुधा अपने आप कुर्सी खींचकर बैठ रही।

डॉक्टर ने देखा-कैसी सीधी बनकर बैठी है। लेकिन कल शाम को सीधी न थी, जब पार्क में चांदनी में हरिश्चंद्र के साथ हाथ में हाथ डाले बैठी थी। अनजाने ही डॉक्टर की इस नारी के प्रति दबी वासनाएं इस अचानक पराजय पर भड़ककर ठोस विद्रोह और प्रतिहिंसा बनकर खड़ी हो गईं, जैसे आज वह कुछ सुनने को तैयार न था। सुधा चुपचाप बाहर देखती रही। उसने कहा, ‘डॉक्टर, जीवन कितना कठिन है!’

डॉक्टर के मुंह पर व्यंग्य की एक मुस्कान खेल गई। उन्होंने कहा, ‘परिस्थितियों की उलझन को सुलझन बना देना ही मनुष्य का सुख होता है सुधा देवी! ठीक है न?’

सुधा ने चौंककर डॉक्टर की ओर घूरा। किंतु डॉक्टर बेताब होकर उठ खड़ा हुआ। मेज की दूसरी ओर धीरे-धीरे जाकर हाथ बांधकर वह खड़ा हो गया। सुधा ने सुना, वह कह रहा था, ‘जान-जानकर गलती करने वाले को कोई क्षमा नहीं कर सकता। मैं सब जानता हूं। सब देख चूका हूं, दवा लेने आई हो सुधा? मैं नहीं दे सकता। तुम भले ही मुझे कुछ कह लो। मेरे लिए एक बार की भूल काफी है, बहुत काफी है। मैं बार-बार वैसी गलती नहीं दुहरा सकता। मुझे तुमसे कोई हमदर्दी नहीं है। यदि तुम पाप करते हुए नहीं हिचक सकती, तो समाज को तुम्हें दंड देने का पूरा अधिकार है।’

सुधा कुछ नहीं समझी। वह बोल उठी, ‘कैसा दंड? कैसी दवा? क्या जानते हैं आप डॉक्टर?’

‘तुम मेरी आंखों को नहीं झुठला सकतीं सुधादेवी! मैंने आंखों से तुम्हें हरिश्चंद्र के साथ पार्क में कल रात देर तक बैठे देखा है। अगर चांदनी का दोष है तो मैं कोई दवा कैसे दे सकता हूं? है तुम्हारे पास पांच सौ रुपया? डॉक्टर लक्ष्मण तुम्हारे कृपा कटाक्षों का न भिखारी था, न है, न रहेगा, जाओ, मैं तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।’

‘ओह समझी, तो आप मेरी कोई मदद नहीं कर सकते?’ सुधा एकदम उठकर हंस पड़ी। निर्दोष कभी किसी से नहीं दबता। ‘तब तो आप बड़े समझदार हैं। डॉक्टर, तुम्हारा भेजा सड़ गया है और तुम उसकी बदबू से परेशान होकर समझते हो कि सारा संसार सड़ गया है। बेवकूफ, तुम्हारे समाज में हरेक पाप का न्याय देने की ठौर है, और इसीलिए आज सत्ता के लिए विषमताओं के इस कारागार में पाप ही पुण्य हो गया है। इतिहास इसके लिए कभी भी क्षमा नहीं कर सकेगा।’ वह अपने अपमान से विक्षुब्ध-सी फुफकार उठी थी। डॉक्टर हतबुद्धि-सा देखता रहा। सुधा तेजी से उसके घर से निकल गई। बाहर हवा ठंडी थी, तेज थी। राह के लोग कपड़ों की कमी के कारण सिसकारी भरते चल रहे थे। ढाल के किनारे ताल पर कुछ बच्चे ढेले फेंक रहे थे, ढेला गिरते ही काई फट जाती थी, फिर उसके डूबने पर जुड़ जाती थी। बच्चों के ढेले कभी उस ताल की काई नहीं फाड़ सके। और ताल की काई पर मच्छर रहते हैं, भनभनाते हैं-जहर के छोटे-छोटे कातिल टुकड़े, लेकिन दूर से ताल कितना सुंदर लगता है, कितना मोहक...जो भीतर ही भीतर सड़ चुका है...गल चुका है...दुर्गंध और घृणा की एक दलदल-सा, जीवन की कलुषित पराजय-सा...निर्वीर्य...निर्जीव...


- सन् 1947 से पूर्व