काका हाथरसी और बंधक कवि / शिवजी श्रीवास्तव
बात बहुत पुरानी है,शायद वर्ष 1980 या 81 की। तब मुझे कविता सुनाने का नया-नया जुनून था और हर गोष्ठी या सम्मेलन में मैं कविता सुनाने पहुँच जाता था। उन्हीं दिनों झाँसी से एक 'अखिल भारतीय कवि सम्मेलन' का आमंत्रण पत्र मिला। आमंत्रण इसलिए नहीं मिला कि मैं कोई चर्चित कवि था बल्कि इसलिए मिला क्योंकि आयोजक महोदय मेरे परिचित थे। झाँसी मेरा गृह जनपद है,मेरे पिता भगवतीशरण ‘दास’ की गणना वहाँ के सम्मानित कवियों में होती थी अतः वहाँ के समस्त कवियों का घर में आना-जाना रहता था। झाँसी में गोष्ठियों और नुक्कड़ कवि सम्मेलनों की बड़ी समृद्ध परंपरा थी। प्रायः सायंकाल बाजार-बंदी के समय आठ बजे के लगभग बाजार के किसी भी नुक्कड़ पर या सड़क किनारे दरियाँ बिछा दी जातीं सामने तख्त डाल कर मंच बना दिया जाता माइक लग जाता और स्थानीय कवि एकत्र होकर काव्य-पाठ प्रारंभ कर देते।आधी रात तक ये सम्मेलन चलता रहता । प्रारंभ में तो मैं इन सम्मेलनों में एक श्रोता के रूप में सम्मिलित होता रहा बाद में जब कुछ तुकबंदी शुरू कर दी तो इन सम्मेलनों में काव्य-पाठ भी करने लगा। कहीं कोई गोष्ठी होती तो वहाँ भी मैं पूज्य पिताश्री के साथ जाता । मैनपुरी में आने के पश्चात भी जब-जब झाँसी जाता तो एक-दो गोष्ठियों या नुक्कड़-सम्मेलनों में सम्मिलित हो जाता था। इस प्रकार झाँसी के कवि समाज में मुझे भी कवि के रूप में पहचान मिल गई थी। ऐसे ही एक नुक्कड़ कवि सम्मेलन में झाँसी के एक प्रसिद्ध हास्य-कवि से भेंट हुई वे प्रायः बाहर मंचों पर काव्य-पाठ हेतु जाया करते थे। उन्होंने मेरी कविताओं कि प्रशंसा करते हुए वायदा किया कि शीघ्र ही झाँसी में वे एक बड़ा कवि सम्मेलन का आयोजन करने वाले हैं जिसमे मुझे आमंत्रित करेंगे।
अपने वायदे के अनुसार दो महीने बाद ही उन्होंने मुझे एक पत्र भेजा जिसमे झाँसी में होने वाले एक ‘अखिल भारतीय कवि सम्मेलन’ के आयोजन में काव्य-पाठ हेतु मुझे आमंत्रित करते हुए स्वीकृति मांगी थी। किसी भी बड़े सम्मेलन हेतु यह मेरा प्रथम आमंत्रण था; अतः मेरा प्रसन्न होना स्वाभाविक था। महत्त्वपूर्ण यह भी था कि कवि सम्मेलन की अध्यक्षता काका हाथरसी जी करने वाले थे। आयोजक जी ने सम्मानपूर्वक आमंत्रण देते हुए 200 रुपये मानदेय देने की बात भी लिखी थी.....मानदेय न भी मिलता, तो भी मैं अवश्य जाता आखिर पहली बार 'अखिल भारतीय कवि सम्मेलन' के मंच पर देश के प्रसिद्ध कवियों के मध्य काव्य-पाठ का अवसर मिलना मेरे लिए किसी सौभाग्य से कम न था। मैंने झटपट सहर्ष स्वीकृति भेज दी।
कवि सम्मेलन की निश्चित तिथि से एक दिन पूर्व ही मैं घर पहुँच गया। झाँसी स्टेशन से बाहर निकलते ही कार्यक्रम की सूचना देता हुआ एक बहुत बड़ा होर्डिंग लगा दिखा जिसमे काका हाथरसी के साथ अनेक कवियों के नाम छपे थे साथ ही आयोजन स्थल भी लिखा हुआ था। आयोजन रेलवे के सीनियर इस्टीट्यूट मैदान में होना था। मुझे ऐसा लगा जैसे वह होर्डिंग मेरे ही नगर में मेरा स्वागत कर रहा हो। पूरे नगर में बड़े-बड़े पोस्टर लगे थे। मेरा उत्साह चरम पर था। आयोजक महोदय पत्र में ही सूचित कर चुके थे कि बाहर से पधारने वाले कुछ विशिष्ट कवियों के ठहरने की व्यवस्था ‘सेंट्रल होटल’ में की गई है, अन्य कवि भी वहीं एकत्र होंगे। सारे कवियों को वहीं से वाहन द्वारा सभा-स्थल तक ले जाने की व्यवस्था की गई है। मेरा घर सेंट्रल होटल से अधिक दूर नहीं था; अतः सायंकाल 7 बजे मैं भी होटल पहुँच गया। होटल में बड़ी गहमा-गहमी थी। बाहर से आए हुए कवि अपने-अपने कमरों में तैयार हो रहे थे। कुछ स्थानीय और कुछ नवोदित कवि होटल की लॉबी में चहलकदमी कर रहे थे। काका के कमरे के आस-पास अधिक ही जमावड़ा था। लॉबी में मेरी भेंट भोपाल से आए अपनी ही उम्र के एक नवोदित कवि से हुई। उनका भी इतने बड़े मंच पर पढ़ने का प्रथम अवसर था। हम दोनों ही समवयस्क थे और दोनों ही सबसे अपरिचित थे; अतः मित्रवत् बातें करने लगे। उनको इस कवि सम्मेलन से बड़ी आशाएँ थीं। वे बेरोजगार थे, उनके परिवार वालों को उनका कविता करना बिल्कुल पसंद नहीं था। उनके अभिभावक चाहते थे कि वे कविता छोड़कर नौकरी ढूँढे। घर वालों की नजरों में कविता करना फालतू का काम और समय की बर्बादी के अलावा कुछ न था। उससे कुछ नही मिलना था। सबको यही लगता था कि कविता के चक्कर में ये गंभीर होकर नौकरी की तलाश नहीं कर रहे; इसीलिए जब इस आयोजन का पत्र मिला, तो उन्होंने घर वालों को दिखाया विशेषकर मानदेय की बात से उन्होंने अपने परिवार वालों के सम्मुख स्वयं की और कविता की महत्ता सिद्ध करने करने का प्रयास करते हुए झाँसी आने की अनुमति ली थी। यात्रा-हेतु वे बड़े भाई से ही रुपये उधार लेकर कवि सम्मेलन में आए थे। रुपये इसी शर्त पर मिले थे कि लौटकर तुरन्त ही वापस करने होंगे। हम लोग बहुत देर तक बातें करते रहे। समय बीतता जा रहा था, पर कवियों को लेने कोई वाहन नहीं भेजा गया।
आठ बजे तक वाहन भेजने का वायदा आयोजक जी कर गए थे; पर नौ बज चुके थे, न तो आयोजक जी आए और न ही कोई वाहन भेजा गया। सभी व्याकुल हो रहे थे, कुछ कवि बार-बार मैनेजर के पास आकर जानकारी लेते और खीझते हुए यहाँ -वहाँ टहलने लगते ..उन दिनों मोबाइल होते नहीं थे, फोन भी सम्पन्न घरों में होते थे, अंततः कुछ कवियों ने मैनेजर से निवेदन किया कि यदि सभास्थल से या आयोजक जी से किसी प्रकार संपर्क हो सकता हो, वह कुछ पता लगवाएँ । मैनेजर ने दो-तीन जगह फोन किया, फिर जो भी बताया वह बहुत विस्फोटक था, सुनते ही लोगों के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं । दरअसल आयोजक जी ने सभा-स्थल यह कहकर बुक किया था कि कवि-सम्मेलन शुरू होने के पहले सारा भुगतान कर दिया जाएगा। यही वायदा उन्होंने टेंट-हाउस वालों से भी किया था। कवि सम्मेलन के लिए नगर में चंदा भी लिया गया था और बड़े स्तर पर टिकटों की बिक्री भी की गई थी। सभा-स्थल श्रोताओं से भर गया था; पर आयोजक महोदय लापता थे। टेंट वाले, माइकवाले सभी उन्हें तलाश रहे थे। श्रोताओं में असंतोष बढ़ रहा था। धीरे-धीरे बढ़ता हुआ असंतोष उग्र हो गया। कुर्सियाँ तोड़ी जाने लगीं, मंच की ओर पत्थर उछाले जाने लगे। पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा। भगदड़ मची और सब कुछ अस्त-व्यस्त हो गया। प्रशासन ने आयोजन रद्द करने की घोषणा कर दी थी। आयोजक के विरुद्ध रिपोर्ट भी दर्ज हो गई थी। यह जानकारी मिलते ही कवियों में मायूसी छा गई। सबके रुप्ये फँसे थे। कॉरिडोर में फुसफुसाहटें तेज होने लगीं। भोपाल वाले युवा कवि एक कोने में जाकर फूट-फूटकर रोने लगे। मैंने उनके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना देने की कोशिश की, तो उनका दर्द बाहर आ गया,बोले- “भाई साहब, घर वाले वैसे ही मुझे नाकारा समझते हैं, किराए के लिए भी भैया से रुपये उधार लेके आया था, अब क्या मुँह दिखाऊँगा।”
इसी बीच मैनेजर ने एक और विस्फोट किया, उसने सबको सुनाते हुए कहा- “भाई साहब, आप जो लोग भी यहाँ ठहरे हैं, उसका किराया भी ड्यू है...मुझे भी एडवांस में कुछ नही दिया गया था। अब आप लोग मेरा भी हिसाब कर दीजिए।” कवियों के लिए यह एक और नया संकट था। अनेक लोगों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। कुछ लोग लड़ने की मुद्रा में आ गए। एक कवि भड़क गए– “मैं क्यों हिसाब करूँ, जिसने बुक किया उससे लीजिएगा।” मैनेजर धीमे स्वर में बोला- “जब तक मेरा किराया नहीं मिलेगा कोई होटल नहीं छोड़ सकता।”..... किसी ने कहा- “इसका मतलब, आप हमें बंधक बना रहे है।”
मैनेजर बोला- “अब आप कुछ भी समझिए साहब, हम भी व्यापार कर रहे हैं, कमरे आप सबके नाम से ही बुक हैं, किराया तो देना ही पड़ेगा।”
तकरार बढ़ती जा रही थी हल नहीं निकल रहा था...मैं अब सिर्फ एक तमाशबीन था...कुछ देर बाद मैनेजर बोला—“देखिए, आप लोग नहीं मानेंगे, तो मुझे पुलिस बुलानी होगी।”
तभी सबने देखा- सीढ़ियों से काका हाथरसी दो कवियों के साथ शांत भाव से उतरते हुए आ रहे हैं, चेहरे पर चिर-परिचित मुस्कान थी...काका को देखकर कुछ क्षण को सन्नाटा- सा छा गया ...काका को देखकर मैनेजर ने अपने काउंटर से बाहर निकलकर उनके पैर छुए। काका ने वात्सल्य-भाव से उसकी पीठ थपथपाते हुए कहा- “तो, मुझे पहचानते हो?”
मैनेजर श्रद्धा भाव से बोला- “आपको कौन नही पहचानता काका जी, आपकी फुलझड़ियाँ तो बहुत बढ़िया होती हैं, हम लोग खूब पढ़ते हैं।” काका मुस्कराए – “अच्छा, तो आज मैं तुम्हे अपनी कविताएँ सुनाता हूँ।”...काका ने संकेत किया सब उनके आसपास इकट्ठे हो गए, काका बोले- “सुनो भाई, कवि सम्मेलन तो हुआ नहीं, हम सब यहीं एक गोष्ठी कर लेते हैं।”...मैनेजर खुश होकर बोला- “अरे काकाजी यहाँ नहीं, अभी हम एक कमरे में सारी व्यवस्था कर देते हैं।”
काका बोले- “ठीक है लल्लू; पर पहले दो-चार तो यहीं सुन ले।” काका ने वहीं खड़े-खड़े दो कुंडलियाँ सुनाईं....मैनेजर ने फिर विनम्रता प्रदर्शित की- “काकाजी, कमरे में चलिए।”
काका बोले-“ठीक है बेटा, पर पहले इस होटल के मालिक को भी बुला लो ।”.....मैनेजर विनम्रता से बोला- “यह हमारा ही होटल है काका जी।”
काका बोले- “अच्छा, तो तुझे ये पता है कि मैं एक कवि सम्मेलन के कितने रुपये लेता हूँ?..और ये जितने भी कवि हैं कोई मुफ्त में कविता नही सुनाते ...तू बता, तू कितने रुपये दे पाएगा?”
मैनेजर समझ गया कि काका क्या चाहते हैं, वह मुस्कराया और हाथ जोड़कर बोला- “काका जी हम आप लोगों को क्या दे पाएँगे? हमें किसी कवि से कोई किराया नहीं चाहिए। आप सब आराम से रहिए। जिनकी जब वापसी-ट्रेन हो, तब होटल से स्टेशन तक भेजने की भी जिम्मेदारी होटल की होगी। यह तो हमारे होटल का सौभाग्य होगा कि आप जैसे कवि यहाँ गोष्ठी करें।”
वातावरण में आह्लाद भर गया था। कवियों के चेहरे का तनाव कम हो गया था। काका जी कुछ कवियों के साथ गोष्ठी के लिए कमरे की ओर बढ़ने लगे। मैं चुपचाप घर वापसी के लिए होटल से बाहर निकल आया।.मैंने देखा भोपाल वाला युवा कवि होटल के बाहर उदास खड़ा ऑटोरिक्शा का इंतज़ार कर रहा था।
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