काकी / कृष्णकांत
काकी कहा करती थीं कि लोग मर जाते हैं लेकिन वास्तव में वे मरते नहीं हैं। बस चोला बदल जाता है। तुम्हारे काका भी मरे नहीं हैं। यहां उनका समय पूरा हो गया था, दाना पानी उठ गया था, इसलिए चले गये। हमें भी साथ ही जाना था, लेकिन हमारा टिकट कहीं खो गया है। दूत लोग ढूंढ रहे होंगे। मिलेगा तैसे ही हमें भी जाना है। ये हां इंतजार कर रहे होंगे। तुम्हारे काका हमसे कहे थे कि हम चल रहे हैं तुम आना।
काकी की इस तरह की बातें सुन-सुन कर बच्चे हंसते और सयाने हैरान होते और काकी हरदम अजीब भाव में रहतीं।
काका के जाने के बाद काकी ऐसे हो गयीं जसे जलते दिये का तेल खतम हो गया हो और अब बुझना ही चाह रहा हो। जो काकी थकती नहीं थीं, अब थकान कभी उतरती नहीं। जिस घर में कभी उदासी नहीं फटकती थी, ह घर जसे उदासी का स्थाई बसेरा हो गया। एक खंडहर, जिसमें काकी किसी आत्मा की तरह भटकने लगीं।
काका की मृत्यु आकस्मिक नहीं थी, कई महीनों से वे बीमार थे। काका चारपाई पर लेटे रहते और काकी उनके आगे-पीछे मंडराती रहतीं। खाना, पानी, दवा वगैरह पूछती रहतीं। कभी सिरहाने बैठकर सर पे हाथ फिरातीं, तो कभी पैताने बैठकर पांव दबातीं। काका ने पूरे जीन काकी से कभी पांव नहीं दबाया था। काकी जब कभी पांव दबाने लगतीं, तो वे इशारे में मना करते। काकी कहतीं-अरे जवानी की बात और थी। तब हाथ-पांव काम करता था। देह में जान थी। नहीं दबावाया, न सही। अब तो जो करूं, करने दो। इतने से क्या जाता है तुम्हारा। जानती हूं कि समय आएगा तो कोई रोक नहीं पाएगा, बस मुझे थोड़ा संतोष हो जाता है। नहीं ले जा सकती तुम्हें बड़-बड़े अस्पतालों में, कोई बात नहीं। जो कर सकती हूं, उसके लिए तो न रोको।
काका चुपचाप पड़े-पड़े उन्हें देखते रहते। जब वे किसी काम से वहां से खिसकतीं तो चुपचाप आंखों के कोर भिगोते और गमछे से सुखा लेते। काका को जैसे अंदेशा हो गया था कि अब वे जहाने-फानी से कूच करने वाले हैं।
पूरे गांव में यह जोड़ी अनोखी थी। उनके जीने का सलीका एकदम अलग था। उनके पास कुछ नहीं था लेकिन वे प्रेम से भरे थे और इसलिए शायद उनके पास सबकुछ था।
वे दोनों के जवानी के दिन थे जब अचानक एक जगह वे मिल गए थे। उन्होंने पाया कि उन दोनों की दुनिया बिल्कुल एक जैसी है। दोनों अलग-थलग। दोनों बेसहारा। दोनों उदास। दोनों प्यासे। उन्होंने एक-दूसरे की ज़रूरतों को पहचान लिया। एक-दूसरे को संबल दिया और साथ-साथ चल पड़े।
लेकिन अब जब काकी अकेली रह गयीं, तो जीना मुश्किल लगने लगा। अब उनके पास काका के साथ जी गई जिंदगी के स्याह-सफेद निशानों के अलावा काका की छोड़ी हुई कुछ संपत्ति रह गयी- मसलन, एक कमरे का मिट्टी का घर, उसमें एक कोने में लगा हुआ काका का पुराना बिस्तर, एक जोड़ी हुक्का, एक पीतल का लोटा, घरेलू उपयोग की कुछ छोटी-मोटी स्तुएं और एक गाय बछड़ा। ये सारी चीजें काकी की जान से बढ़ कर थीं। वे अपने बचे जीवन के बजाय इन सामानों की ज्यादा चिंता करतीं। इस्तेमाल करें न करें, लोटे को दिन में कई बार धुलतीं। एक दिन लोटा मांजते हुए उसकी पेंदी में जरा सा छेद हो गया। काकी की आंखें भर आयीं। काका को जैसे सुनाते हुए बोलीं- खुद तो चले गये, यही सब टीन-टांगड़ी बचा है, उसको भी किसी की नजर लग गयी है। सब से हाथ धोना पड़ेगा? बुदबुदाते हुए उन्होंने काका का बिस्तर ठीक किया और जाकर चौखट पे बैठ गयीं।
काकी हरदम इस तरह का व्यहार करतीं, जैसे कि काका जीवित हैं और वहीं आसपास हैं। जो कह रही हैं, सब सुन रहे हैं। वे रोज ही उनका बिस्तर ठीक करतीं, लोटा धुलती थीं। उन्हें सुनाकर बड़बड़ातीं। सब कहते कि कि काकी पागल हो गयी हैं।
तीस साल की उम्र तक काका की शादी नहीं हुई थी। घर में दूसरा कोई नहीं था। काका की बेतरतीब जिंदगी अपने ढंग से चल रही थी कि उन्हें काकी मिल गयीं। काका ने काकी से व्याह कर लिया। लेकिन मुश्किल यह हुई कि काका अपनी जाति से ब्राह्मण थे और काकी अपनी पैदाइश के कारण ब्राह्मण समाज के लिए वर्ज्य। समाज ने उनका हुक्का-पानी बंद कर दिया। किसी के यहां आना-जाना खाना-पीना सब बंद।
अब उनकी दुनिया एक कच्चे घर में सिमट गयी, जहां सिर्फ ही दोनों थे। लेकिन अपने में मगन। लोगों के बहिष्कार का उन पर कोई असर नहीं हुआ। काका कहते- लोग मेरे यहां आते जाते थे तो क्या, मेरी परेशानी तो किसी ने कम नहीं कर दी। मेरा घर नहीं बसेगा तो जमाना मेरे काम आएगा क्या? उन्होंने जमाने की फिक्र करनी बंद कर दी।
कोई आमदनी न होने से अक्सर अभाग्रस्तता रहती थी। खेती बस इतनी थी कि थोड़ा-बहुत गेहूं या धान उगा लेते थे। गंवई जीवन में पेट पालने का जो सबसे अच्छा जुगाड हो सकता था, वही काका ने भी कर लिया था। उन्होंने बंटाई पर एक गाय ले ली। बंटाई की शर्त थी कि काका गाय को खिलाएंगे। आधा दूध गाय मालिक का। आधा का का। गाय जो बच्चे देगी, वे काका को ही मिलेंगे।
इस तरह कुछ एक सालों में काका का घर जानरों से भर गया। अब एक न एक गाय हमेशा दूध देती रहती थी। बहुत बार जब घर में अनाज नहीं होता तो दूध-दही के सहारे ही दिन कट जाते। कभी-कभी थोड़े में ही काम चला लिया जाता और दूध बेंच कर कुछ पैसे मिल जाते, जिससे दूसरी जरूरतें पूरी हो जातीं।
काका अपने जानरों को बहुत प्यार करते। वे पैदा होते ही हर एक का नामकरण कर देते। जो मंगलार को पैदा हुआ, उसका नाम मंगरू। जो शुक्रावार को पैदा हुआ, उसका नाम सुकई। किसी का गुड्डू तो किसी का नाम बिड्डू। वे उन्हें बच्चों की तरह पालते। उनके और जानरों के बीच जो समझ थी, वह लोगों के बीच क्या होगी? काका उन्हें जो निर्देश देते, वे उसका अनुसरण करते। कोई जानवर किसी तरफ जा रहा हो और काका उसको पुकारते तो वह लौट पड़ता। गायें उन्हें देखते ही चिल्लाने लगतीं, मगर जसे वे चुप रहने को कहते, वे चुप हो जातीं। वे चारा लेकर आते तो गायें खाने को लपकतीं। काका कहते- रुको अभी और गायें झट से सावधान मुद्रा में खड़ी हो जातीं। गायों से काका की बातचीत देखकर लोग दंग रह जाते। काका कहते थे कि वे अपनी गायों की भाषा समझते हैं। वे खूंटे से बंधी छटपटा रही होतीं और काका पहुंच कर उनकी गर्दन से अपनी गर्दन लगाकर उन्हें पुचकार देते तो वे मान जातीं। कुछ लोग कहते कि काका के बाल-बच्चे नहीं हैं इसलिए वे जानरों को बच्चों की तरह प्यार करते हैं। इस पर काका बछड़े को दुलारते हुए कहते- किस बच्चे से कम है यह मेरा प्यारा-सा गुड्डू।
काकी कहतीं- उन्हें बच्चे इसलिए नहीं हुए कि अभी काका के साथ कई जनम बाकी है। हम दोनों दोबारा जनम लेंगे, तब बच्चे भी होंगे।
ऐसा था काका-काकी का सपनीला सा संसार। काका के जाने बाद काकी कई दिनों तक तो बिल्कुल खामोश रहीं। कोई कुछ पूछता तो जवाब नहीं देतीं। बस चुपचाप देखती रहतीं। लोग डर जाते। अपने को सम्हालने की उन्होंने हर संभव कोशिश की, लेकिन एक तो काका की कमी, ऊपर से बुढ़ापा। काकी अपने को हर मोड़ पर कमजोर पाती गयीं। उनकी जिंदगी धीरे-धीरे अपने हाथ-पांव समेटने लगी। उन्होंने सोचा कि खेती खुद सम्हालें, मगर उनसे नहीं हो सका तो अगले सीजन खेत बंटाई पर उठा दिया। हालांकि, काका के रहते खेती का भी ज्यादातर काम वे खुद करती थीं।
अब उनके जिम्मे सबसे बड़ा काम रह गया- गाय-बछड़े की परवरिश करना। यह काम उनकी क्षमता से बड़ा था। लोगों ने जानवरों को बेचने की सलाह दी, इस पर काकी ने कहा कि हमारे बुरे दिनों पर ये जानवर ही तो थे, जिन्होंने हमें भूखों नहीं मरने दिया। जब तक देह में जान है, इनकी परवरिश करेंगे।
वे सारा दिन गाय-बछड़े के लिए चारे के इंतजाम में लगी रहतीं। घास का बोझ लेकर चल नहीं पातीं थीं, इसलिए थोड़ी-थोड़ी घास कांख में दबाकर सारा दिन ढोतीं रहतीं। लोग उन्हें झिड़कते- क्या मर रही हो बुढ़ापे में? गाय किसी और को सौंप दो, पर वे अपनी जिद पर थीं। कहतीं- दूध मिले न मिले, गौ सेवा से परलोक भी तो सुधर रहा है।
वैसे गाय तो काकी की तरह ढलती उम्र में थी इसलिए शांत थी, मगर बछड़ा उन्हें काफी तंग करता था। काकी लेकर चलतीं उसे बांधने के लिए तो वह खींच कर भाग जाता और गांव भर में दौड़ाता रहता। आगे-आगे चौकड़ी भरता हुआ बछड़ा और पीछे-पीछे झुकी कमर पर लुढ़कती हुई काकी। वह जाकर किसी के खेत में खाने लगता तो काकी को भला-बुरा भी सुनना पड़ता। आखिरकार यह मुसीबत तभी टलती, जब कोई उसे पकड़कर काकी के दराजे पर बांध जाता। काकी को इसके बहुत बार भला-बुरा सुनना भी पड़ता।
जब घास ला पाना संभव नहीं हो पाता, तो गाय-बछड़े दोनों बाग में ले जाकर लंबी रस्सी में बांध दिया करतीं और दोनों घास चर के अपना पेट भर लिया करते। एक रोज काकी बछड़े को बांधने जा रही थीं कि वह खींच कर भागा और काकी रस्सी में फंस कर कुछ दूर तक घिसट गयीं। घुटना छिल गया। कई रोज तक मरहम-पट्टी करती रहीं।
आखिरकार काकी ने सोचा कि इसे किसी न किसी को दे देना चाहिए। वे चाहती थीं कि बछड़े को गांव का ही कोई आदमी ले ले, ताकि यह मेरे आंख के सामने रहे। लेकिन गांव में कोई उसे लेने को तैयार न हुआ। अब ज्यादातर लोग बैल से हल नहीं चलाते सो कोई लेकर करे भी क्या? एक कसाई अलबत्ता एक रोज आ धमका, लेकिन काकी ने उसे खदेड़ दिया। बोलीं- यह तो मेरे जीते जी नहीं होगा। हम इसे कसाई को तो नहीं देंगे चाहे घसीट कर मार ही डाले मुझे। वे कहतीं- अगर इसे सही ठिकाने न भेजा तो काका की आत्मा दुखी होगी। मगर जब कोई उसे लेने को तैयार न हुआ तो हार कर उन्होंने उसे पशु बाजार में बेचने का फैसला किया।
पशु बाजार गांव से करीब आठ किमी दूर था। काकी बछड़े को लेकर चल पड़ीं। सड़क पर पहुंचते ही बछड़े को ट्रक दिखा और वह डर कर भागा। काकी ने उसका पगहा हाथ में लपेट रखा था। वे बछड़े के पीछे दूर तक घिसटती गयीं। जब तक हाथ से पगहा छूटता, काकी काफी चोट खा गयीं। बछड़ा भागते-भागते काफी दूर निकल गया और ओझल हो गया। काफी खोजबीन के बाद बहुत दूर जाकर किसी के खेत में खाते हुए दिखा। काकी ने कुछ लड़कों की मदद से उसे पकड़ा। लेकिन वह फिर खींच कर भाग गया। आखिरकार गांव के कुछ नौजान और रास्ते में मिल गये जो अपने-अपने बैल-बछड़े बेचने ले जा रहे थे। उन्हीं में से एक ने अपना बूढ़ा बैल काकी को पकड़ाया और बछड़े को अपनी हिरासत में लिया।
बाजार पहुंच कर सबने अपने अपने जानरों को पेड़ की जड़ों में बांध दिया। काकी भी अपने बछड़े को एक जगह बांध कर बैठ गयीं। वे बहुत थक गयीं थीं। पोर-पोर दुखने लगा था। उन्हें काका की याद आ गयी- अगर वे होते तो यह मुसीबत मेरे सर क्यों आती? ये जानवर उनके पाले हुए न होते तो हम अपनी जान इनमें क्यों फंसाये रखते? चलो आज आखिरकार छुटकारा मिल जायेगी। औने-पौने गाय भी बेच देंगे, बस फुर्सत।
काकी बड़बड़ा रही थीं, तभी किसी ने पूछा- अरे माई, अकेले किससे बतिया रही हैं? ये बछड़ा आप ही का है न? कितने में बैठेगा? दूसरे ने कहा- अरे बैठना क्या है पहले देखो तो सही, किसी काम हो तब न! तीसरे ने कहा- यह टिड्डा तो किसी काम का नहीं है। क्या करेंगे इसे लेकर? काकी बोलीं-भैया जो मन आये दे दो और ले जाओ। कुछ देर आगे पीछे से बछड़े का निरीक्षण करने के बाद तीनों ने मिलकर 20 कज निकाला और चलते बने। इसी तरह दिन भर लोग आते रहे, साल पर साल पूछते रहे। पर ले कोई नहीं गया।
शाम होने को हो आयी। लोग अपने घर लौटने लगे। जिनके जानवर बिक गये थे और मन मुताबिक दाम मिल गया, वे खुश थे। जिनका सौदा थोड़ा घाटे में गया वे थोड़ा मायूस थे। जिनके नहीं बिके वे निराश होकर लौटने की तैयारी करने लगे। काकी कह रही थीं कि इसे यहीं छोड़ जाती लेकिन जाने कौन ले जाये, क्या करे? कुछ समझ में नहीं आता क्या करूं? बछड़े को लेकरोपस लौटना भी उनका जी लरज रहा था।
साथ आये लोगों में भी किसी का कुछ नहीं बिका। जो लड़का काकी का बछड़ा लाया था उसके बैल भी नहीं बिके थे। उसने काकी से कहा- काकी, आप मेरे बैल ले चलिए, मैं आपका बछड़ा ले चलता हूं। लौटने की पूरी तैयारी हो गयी थी कि दो आदमी टहलते हुए उधर आये। एक ने काकी से पूछा- बछड़ा आपका है? कितने में पड़ेगा? काकी ने वही वाक्य दोहरा दिया जो सुबह से दोहरा रही थीं- जो देना हो भैया दे दो, ले जाओ। उसने खीस निपोरते हुए पूछा- पक्का जो देना हो दे दें?
काकी बोलीं- दे दो भैया जो देना हो दे दो, न देना हो कुछ न दो मुला इसे ले जाओ। उसने अपनी जेब में हाथ डाला और कुछ सिक्के निकालकर काकी की ओर बढ़ाते हुए बोला- लो इतना ही है, रख लो और दे दो। काकी ने अपनी कांपती हथेली उसकी ओर बढ़ा दी और उसने सिक्के काकी के हाथ पर रख दिये। काकी ने पूछा- कितने हैं? उसने कहा- गिन लो। काकी ने कहा- क्या गिनें? सोलह-बीस आने जो भी होंगे ठीक है, बस इसे ले जाओ। पर हां, एक काम करना कि इसे कसाई को मत देना। वह आंख चमकाते हुए बोला- अरे माई! क्या बात करती हैं? पाप करूं तो नरक में भी जगह न मिले। काकी ने पैसे कमीज की जेब में डाल लिये। उसने कहा- अरे माई गिन तो लो। काकी ने कहा- जाओ ले जाओ। ले जाओ इसे। जितना होगा सब ठीक है। उन्होंने बछड़े का पगहा खोलकर उन्हें पकड़ा दिया। वे लोग लेकर चल दिये। वे लोग चलने लगे तो बछड़ा पलट कर काकी की ओर भागा। लेकिन लगाम ने उसका मुंह फिर अपनी ओर खींच लिया। काकी के चेहरे की शिकन और उभर आयी। वे बछड़े को जाते देखती रहीं और आंचल से अपनी आंखें पोंछती रहीं। बछड़ा बार-बार पलट कर पीछे देखता रहा। पास खड़े लड़के ने पूछा- काकी तुम्हारी अकल मारी गयी है क्या? क्यों दे दिया ऐसे? अरे गिनो तो, वे पैसे ज्यादा नहीं हैं। तुम्हें ठग ले गये वे लोग। दस पांच रुपये होंगे। काकी बोलीं- उस बछड़े का कोई मोल नहीं है बाबू! उसे ले जाने दो। उसका दाम मांगूगी तो इस दुनिया में कोई नहीं दे पाएगा। इतना कह कर काकी उठीं और घर की ओर चल दीं। वे बदहासी में चली जा रहीं थी। रास्ते में कहीं रुकी भी नहीं।
वे घर पहुंची तो रात के दस बज चुके थे। वे चूर हो चुकी थीं। दिन भर की भूख थकान की आग में घी का काम कर रही थी। उन्होंने लोटा भर कर पानी पिया और जाकर बिस्तर पर लुढ़क गयीं।
वे सो कर उठीं तो सुबह के आठ बज रहे थे। बीता हुआ दिन उनकी आंखों में तैर गया। धीरे से उन्होंने जेब में हाथ डाला और सिक्के निकाल कर गिने- साढ़े सोलह रुपये थे। काकी ने उन पैसों को एक पुराने कपड़े में बांधा और काका के बिस्तर के नीचे सिरहाने की ओर छुपा दिया।