कागज़ की कश्ती / शैलजा सक्सेना
माँ गाँव के खुले आँगन से बेटे के शहर के बंद फ्लैट में आईं थीं। माँ गाँव में ही रहना चाहती थीं, अपने रहने से वो पुराने रिश्तों को बचा लेना चाहती है, हल्दी-अक्षत वाले त्यौहार बचा लेना चाहती हैं, अपने पेड़-पौधों के बीच रहना चाहती थीं, बेटा माँ को बार-बार देखने जाने में समय बचाना चाहता है, पैसा बचाना चाहता है, अपने और अपने बच्चों के बीच रखना चाहता है। वैसे भी गर्मियों की छुट्टियाँ! बच्चों को अकेले छोड़ना ठीक नहीं! माँ बच्चों को गाँव ले जाना चाहती थीं, वहाँ आम, अमरूद के पेड़ों के बीच झूला झुलाना चाहती थीं। दोनों की अलग-अलग सोच और अलग-अलग फिक्र!
माँ बच्चों को पुरानी कहानियाँ सुनाती हैं, रात उनके सिर पर तेल मल देती हैं और बहू के दफ्तर चले जाने पर उनके मन के पसंद की चीज़ें खिलाती, और कभी ताश तो कभी गिट्टे खेलना सिखाती। बहू को लगता कि माँ बच्चों को बिगाड़ रही हैं। वह मुँह बनाती और बच्चों को रोकती, बच्चे न सुनते तो पति को कहती। उसे लगता ऐसे बच्चों का मन पढ़ने से हट जायेगा, ऐसे में उनका भविष्य क्या होगा? वह गंभीर चिन्ता में पड़ कर घबरा उठती।
पिछले तीन दिनों से बारिश हो रही थी। इतना पानी गाँव में पड़ता तो ज़मीन पानी पी कर लहलहा उठती पर यहाँ शहर में कंक्रीट पानी पीती नहीं, केवल जमा करती है और सड़कों पर जाम लगवा देती है। पूरा शहर बारिश के मारे परेशान था। बेटा-बहू झींकते हुये जाते और झींकते हुये आते। माँ को गाँव के झूले और सावन के गीत याद आ रहे थे। आज शाम बेटा लौटा तो घर खाली लगा। पत्नी से पूछा तो वह पता लगा कि वह भी अभी आई है और उसे भी घर खाली मिला। तेज़ न सही पर बूँदा-बाँदी अभी भी हो रही थी, ऐसे में माँ बच्चों को लेकर कहाँ गई होंगी। दोनों परेशान हो गये। पत्नी को चिन्ता थी कि पानी जमा होने से जो मच्छर-कीड़े पैदा हो गये हैं, उनके काटे से छोटे बच्चे बीमार न पड़ जायें फिर छुट्टी लेकर घर बैठना पड़ेगा, क्या मुसीबत है। दोनों छाता लेकर निकल पड़े। कॉलोनी के पीछे ही एक बाग है, सोचा पहले वहीं जा कर देखॆं। वाकई में दूर से ही एक पेड़ के नीचे तीनों घास पर उकडू बैठे दिखाई दिये। ’कर क्या रहे हैं ये लोग?’ सोच कर दोनों ने तेज़ी से कदम बढ़ाये तो देखा कि पाइप डालने के लिये जो लंबीं खुदाई करके मज़दूर डाल गये थे, वह जगह पानी से लबालब भरी थी और माँ बच्चों के साथ उसमें कागज़ की नाव तैरा रहीं थीं, बच्चे नाव के हिलते-डुलते आगे बढ़ने को मुग्ध होकर देख रहे थे और माँ होंठों ही होंठों में कुछ गुनगुना रहीं थीं। पत्नी एकबार को घबरा गय़ी थीं कि बच्चे कहीं उस खड्ड में गिर न जायें, उसने शिकायत और गुस्से की कड़ी निगाहों से पति को देखा, पति मुग्ध भाव से तीनों को देख रहा था, कितने मगन, कितने निश्चिन्त, कितने खुश! बूँदा-बाँदी की फिक्र से परे, घड़ी के समय की सोच के बाहर! उसे अपना बचपन याद आया जब माँ उसके साथ कागज़ की नाव बना कर तैराती थीं। माँ वहीं थीं, बच्चे बदल गये थे।
उसने अपनी छतरी नीचे रखी और माँ के पास धीरे से जाकर बैठ गया। माँ ने चौंक कर उसे देखा, एक पल हड़बड़ायी जैसे कुछ गलत करते पकड़ ली गयी हो फिर बेटे के चेहरे में पुरानी परछाईं देख सहज हो आयी, पलट कर देखा तो बहू स्तब्ध सी खड़ी थी, उसके शहरी संस्कार शायद पाँव रोक रहे थे। माँ ने सहज हाथ बढाकर उसे बुलाया, तब तक बच्चे भी माँ को देख खुशी से उस से लिपट गये और वह अनायास ही उनके नन्हें हाथों के खिचाँव पर साथ आ बैठी, पानी पर कागज़ की कुछ नन्हीं कश्तियाँ हिलती डुलती चली जा रहीं थीं, बूँदा-बाँदी और घड़ी की टिक-टिक से बाहर! उन्हें ताकती कई जोड़ी आँखों में बचपन का उल्लास तैर रहा था।