कागभाखा / एस. आर. हरनोट
कौआ जानता है, दादी कब उठती है। वह रोज सुबह आंगन के उस पार बीऊल के पेड पर आकर बैठा रहता। दादी बाहर निकलती तो उसके हाथ में रात के बचे रोटियों के टुकडे होते।वह उन्हें हथेलियों के बीच बारीक मसलती और आंगन में एक ओर पत्थर पर रख देती। जैसे ही वह भीतर आती, कौआ उडक़र उन्हें निगल जाता। फिर काफी देर पेड पर बैठा रहता चुपचाप।
दादी जिस पत्थर पर रोटी रखती थी, वह काफी चौडा था। वह उसे रोज पानी से धोया करती। सप्ताह में दो बार तो असंख्य कौए दादी के घर के इर्द - गिर्द घूमते रहते। दादी उन्हें भी रोटी के टुकडे देती। कभी वह मोटे मोटे रोट पकाती, जो कुछ मीठे होते तो कुछ नमकीन। आंगन में आकर उन्हें एक तरफ रखती। थोडा पानी ले आती कडछी में दो चार आग के अंगारे और उंगलियों में थोडा ताजा मक्खन लगा कर अंगारों के ऊपर डाल देती। फिर देवता को एकाग्रता से धूप देती, जल चढाती और रोट के टुकडे - टुकडे क़रके चारों तरफ फेंकती। कभी - कभार कोई कौआ आस - पास नहीं दिखता। दादी उन्हें जोर जोर से पुकारती, आओ कागा आओ!
कौए जहां कहीं भी हों, उडक़र झटपट चले आते मानो उन्होंने दादी का बुलावा सुन लिया हो।
कौओं से दादी का गहरा स्नेह गांव वालों को बराबर सकते में डाल दिया करता। तरह तरह की चर्चाएं गांव में होतीं। दादी के हमउम्र लोग जानते, दादी का मन जल की तरह निर्मल है। साफ है। उस पर दैवी कृपा है। लेकिन नई बहू - बेटियों, जवान लडक़ों इत्यादि के लिये दादी अच्छी नहीं थी। वह समझते, दादी जरूर कुछ जानती है। जरूर किसी को जादू टोना करती होगी। कुछ औरतें तो दादी को डायन कहते भी नहीं लजातीं।
पर दादी के लिये इसके कोई मायने नहीं थे। कोई कुछ बोले, कुछ कहे, कुछ समझे, पर दादी की दिनचर्या में कोई अन्तर नहीं आता। कोई भी गांव का अच्छा - बुरा काम दादी के बगैर सम्पन्न न होता। जहां किसी के घर बेटा जन रहा हो वहां दादी, जहां किसी के घर कथा हो रही हो वहां दादी, किसी का ब्याह - शादी वहां दादी और किसी के घर गमी हो तो वहां भी दादी।
बच्चे स्कूल से जाते तो दादी का आंगन पाठशाला बन जाती। वह कभी दादी से बुरा सलूक नहीं करते। दादी बच्चों की तरह खुश हो जाती। सोचती सारा घर उन पर लुटा दे। मौसमी फल न हों तो गुड क़ी डलियां तो बराबर बच्चों में बंटती रहतीं। फिर बच्चे दादी को तंग करते कि कोई कहानी सुनाए। दादी बाहर भीतर के काम से फारिग होती तो कई तरह की कहानियां बच्चों को सुनाती। और बच्चे खुशी - खुशी अपने अपने घर चले जाते।
दादी की उम्र पैंसठ से चार महीने ऊपर थी। लेकिन वह अभी सठियाई नहीं थी। चौकस फुर्तीली, एक गबरू की तरह चुस्त। दो तीन गाय, सात बकरियां, तीन भेडें और एक छोटा बच्छू दादी के ओबारे में थे। परिवार ज्यादा बडा नहीं। एक बेटा था। जो दोघरी में ब्याहने के बाद चला गया। बहू को दादी अच्छी नहीं लगी। बहू जब भी बीमार होती या जुकाम तक भी आ जाता तो बजाय इसके दवा दारु करे, दादी पर ही इल्जाम लगते - इस बुढिया के पास भूत है। दादी सुन कर चुप रहती। इधर - उधर निकल जाती। या पेड क़े नीचे सिर घुटनों के बीच धर खूब रोया करती। तभी वह कौआ आत कांव - कांव करता और दादी को न चाहते हुए भी उसे दोबारा रोटी देनी पडती। जैस वह दादी के भीतर के दुख को बांटने चला आया हो। वह रोटी नहीं चुगता, जोर जोर से कांव - कांव करता रहता। बहू भीतर से आती उसे पत्थर मारती। पर वह बच बचा कर फिर उसी पेड पर बैठ जाता। चीखता - चिल्लाता। बहू बिदक जाती, जरूर कोई बुरा वक्त आने वाला है। इस मरे को भी कर्ड - कर्ड मेरे ही घर के सामने करना है।फिर पत्थर मारती।
दादी बेबस होकर बहू को समझाती, बहू! पगशी किसी का बुरा नहीं करते। तू बजाय पत्थर मारने के इसे टुकडा फेंका कर। पुन्न होगा बेटा पुन्न। बहू चिढ ज़ाती, कौए को कौन पाले है सास जी। कौआ तो गृहा के आस - पास होना ही नहीं चाहिये। आपका तो भगवान ही जाने। अब नासमझ को दादी कैसे समझाए? कैसे विश्वास दिलाए कि कौआ भी और पक्षियों की तरह है। फर्क इतना जरूर है कि वह सबसे ज्यादा चालाक और समझदार है।
कौन जाने दादी को कौए की भाषा किसने पढाई होगी? पर दादी को इस बात में महारत हासिल थी। वह कभी कभार बोला करती थी - कौआ पूरे गांव और परगने की खबर रखता है। अच्छे बुरे की पहचान इसे होती है। कोई इसकी बोली समझे तो विपत्ति आने से पहले ही टल जाये। पर ऐसा समझना सभी के बस की बात न थी। लोगों के लिये यह कोरा मजाक था। लेकिन जब कभी दादी किसी अनहोनी या अच्छे बुरे की खबर पहले दे देती तो लोग हैरान रह जाते।
दादी को कई बरस हो गये अकेले रहते। बेटा कभी कभार दिन - दिन को आ जाया करता है। हाल चाल पुछ लेता है। पर दादी घास पत्ती को आते - जाते पोते - पोतुओं को हांक दे ही लेती है।
दादी का घर छोटा सा है। बहुत पुराना होगा। पूर्व की तरफ दरवाजे हैं। निचली मंजिल में पशु रहते हैं। उसके ऊपर एक कमरा सोने - बैठने के लिये और उसी के साथ रसोई है। आंगन से रसोई तक के लिये पत्थर की सीढियां बनी हैं। ऊपर नीचे बरामदा है। घर की छत मोटे अनघडे चौडे पत्थरों से छवाई गई है। ऐसे ही पत्थर पूरे आंगन में बिछे हुए हैं।
दादी अपने बुजुर्गों की कई कहानियां आज भी सुनाया करती थी। बच्चे उस एक कहानी को बार बार सुनते। दादी सुनाती तो लगता कि जैसे उसी युग में चली गई हो।
दादी के पडदादा की बात थी। वह बहुत गुणी था। कई मंत्र जानता था। पंडताई में माहिर हुआ करता। एक दिन वह सुबह आंगन में नहाने चला गया। अभी कपडे उतारे ही थे कि एक कौआ आंगन के पेड पर बतियाने लगा। पडदादा चुपचाप उसकी तरफ देख रहा था। एकदम कपडे पहने और पानी ज्यूं का त्यूं छोड क़र भाग लिये। घरवाले हैरान कि इन्हें क्या हो गया। तकरीबन दस मील का सफर तय करने के बाद एक गांव पहुंचे। बरसात के दिन थे। वहां मक्कियों की गुडाई थी। दोपहर की रोटी खिलाई जा रही थी। उसमें सभी को लस्सी और सत्तू दिये जा रहे थे। अभी लस्सी घडे से बर्तनों को उल्टाई ही थी कि पडदादा ने घर के ऊपर से हांक लगाई - रुक जाओ रे, मत खाओ छाछ। लोगों ने आवाज सुनी तो सहम गये। किसी ने कहा यह बूढा पागल तो नहीं हो गया?
वह आंगन में पगलाया हांफता हुआ पहुंचा। पसीने से तर - ब - तर। सीधा रसोई में घुसा और लस्सी के घडे क़ो उठा कर आंगन में ले आया। फिर घर की बुढिया को बुलाया, बोला - घडे क़ी सारी छाछ फेंक दो। इसमें सांप मर गया है। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। लेकिन पडदादा तो पुरोहित भी था, उसको सभी आदर - सम्मान भी देते थे। वैसा ही किया गया। लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही जब घडे में सांप मरा देखा।लोगों ने खा ली होती तो एक भी जिन्दा न बचता।
बच्चे पूछते, दादी , तुम्हारे पडदादा को कैसे पता चला कि घडे में सांप मर गया है? दादी समझाती, पडदादा गुणी थे। कौए की बोली जानते थे। बच्चे हैरान रह जाते । कौआ भी ऐसा बताता है। दादी को छेड देते - दादी, तू भी समझती है कौए की बोली? दादी मुस्कुरा देती। कहती कुछ नहीं।
आज का समां देख कर दादी भीतर ही भीतर कुढती है, जलती है, फुंकती है। जैस गांव ही बदल गया। पहले जैसे लोग नहीं रहे। दया - धर्म खत्म हो गया। ममता नहीं रही। एक दूसरे के लिये सरीक बन गये। छोटी - छोटी बातों पर लडते - झगडते रहते हैं। मारपीट करते हैं। भला - बुरा बोलते हैं। पहले कितना प्यार था। मिलजुल कर लोग आपस में रहते। एक दूसरे के दुख - सुख में आते - जाते रहते - जैसे एक ही घर हो एक ही परिवार हो । अब तो कोई बच्चा भी इधर नहीं निकलता। शायद सभी समझते होंगे, दादी डायन है।
दादी जब सोचती तो बीडी क़े आठ दस कश एक साथ लगा जाती। जैसे भीतर के बवाल को धुएं से दबा रही हो। आंखें लाल हो जातीं। सिकुडे ग़ाल फरकने लगते। कभी दादी आंगन में बंधी गाय के पास बैठ जाती। उसका गला खुरकते - खुरकते नींद आ जाती और अपने पुराने जमाने में पहुंच जाती।
गांव जब सहर जैसा नहीं हुआ था। लोग परम्पराओं के रहते संस्कार निभाते थे। कहीं ब्याह होता तो दादी को औरतें घेर लेतीं। कहतीं - दादी ब्याह के गीत गाओ न। दादी इस अनुनय को नहीं टाल पाती, गाने लग जाती - हरीए नी रसभरिये खजूरे, किने बे लाए ठण्डे बाग बे। देख लैणा बापू जी दा देश बे, बापू तो तेरा धीए गढ दिल्लिया दा राजा, अम्मा तेरी धीए गढ दिल्लिया दी रानी, उन पर दिती बेटी दूर बे।
दादी जानती किस वक्त कौनसा सुहाग गाना है। लडक़ी की शादी में कौनसा और लडक़े की शादी में कैसा । पर आज की औरतों को क्या पता। दादी को दुख होता कि अब ब्याह में बधावा नहीं गया जाता, सुहाग नहीं गाये जाते और सीठणी नहीं दी जाती। अब उनकी जगह फिल्मी गाने, जिनका न सिर न पैर।दादी तो गांव परगने में गिध्दे की माहिर थी। जहां रिश्तेदारी नहीं होती, वहां के लिये भी दादी को विशेष आमंत्रण आता। अब कौन गाए गिध्दे। बन्दरों की तरह उछलते हैं, घोडे क़ी तरह कूदते हैं। दादी मन ही मन गाली देती है, ये नाच पाया इना रे फशके रा!
गांव कहीं भी जाये। कैसा भी करे। दादी के अपने नियम थे। संक्रात आती तो दादी सबसे पहले गांव में देवता के मंदिर के पास पहुंच जाती। एक बर्तन में गाय का गांच और एक ठाकरी रोट ले जाती। पुजारी को थमा कर मन से देवता को माथा टेकती। फिर पुजारी रोट चढा कर दादी को रक्षा के फूल और चावल देता। दादी तब तक बैठी रहती जब तक देवता की पंची खत्म नहीं हो जाती।
दादी यह देखकर हैरान होती कि अब न तो पंच पूरे आते हैं और न ही गांव के लोग इकट्ठे होते हैं। सब कुछ नाम का होता है। कितने दिन हो गये, कितने साल गुजर गये, न देवता का भडेरा ही हुआ और न देवता की चेरशी ही किसी ने दी। वरना हर छठे महीने भडेरा और तीसरे साल चेरशी होती। चेरशी में पूरा परगना ही जैसे उमड पडता। देवता के रथ - छतर सजाये जाते। पूरी परम्परा से देवता का मेला लगता। पंची - पंचायत होती। सभी देव थलों के लिये पूजाएं दी जातीं। जहां बकरे की बलि लगती वहां बकरा काटा जाता। जहां नारियल लगता, वहां उसे काटा जाता।
दादी परेशान होती है कि अब तो पुजारी ने देवता की कितनी जगह पर अपना कब्जा जमा लिया है। जिन पेडों की टहनी भी तोडना दोष समझा जाता था, उसका प्रयोग अब जलाने के लिये किया जाने लगा है। दादी देवता को हाथ जोडती - रक्षा करना देवा! रक्षा करना।
गांव में लडाई झगडा, दुश्मनी और हारी बीमारी का कारण यही है, दादी अकसर कहती। अब तो बाघ ने सीमा लांग ली है। रोज किसी न किसी ओबरे से बकरी या भेड ले जाता। पुजारी की तो गाय तक नहीं छोडी दादी ने कई बार सोचा कि गांव के लोगों को इकट्ठा करके समझाए पर दादी की मानेगा कौन? नए लोग, नई बातें। दादी के वश में क्या रह गया है यह सोच कर मन ही मन जहर का घूंट पी जाती।
कुछ दिनों में दादी कई ऐसी बातें बताने लगीं, जिन पर विश्वास कौन करे? एक दिन दादी ने गांव की एक बहू को बताया कि परधान ने मंगलू का खून कर दिया। पर गांव में यह विश्वास हो गया था कि मंगलू पेड से गिरकर मरा है। उसकी लाश गांव से कुछ दूर चूली के पेड क़े नीचे थी। एक तरफ दराट पडा था। सभी ने सोचा वह पत्तियां लेने पेड पर चढा होगा और गिर कर मर गया।
दादी जानती थी कि उसका खून हुआ है। जहां यह हादसा हुआ वह जगह दादी के घर से एक फर्लांग दूरी पर थी। कौवा अचानक जब आधी रात को बाहर बोला तो दादी तत्काल उठ गई। हल्की चांदनी थी। चुपचाप उसकी बाणी सुनी और भीतर आकर बूट पहने, शाल ओढी और हाथ में दराट लेकर उसी तरफ निकल गई। पेड क़े पास उसे खुसर पुसर सुनाई दी। वह चुपचाप झाडियों की ओट में छिपी रही। यह देखकर हैरान रह गई कि परधान के आदमियों ने मंगलू का मृत शरीर बोरी से वहां फेंक दिया। साथ उसका दराट और एक आदमी ने पेड पर चढक़र कुछ पत्तियां भी काट डालीं।
दादी इस दृश्य को देख कर पगला - सी गई। मंगलू अधेड उम्र का था। उसका एक बेटा था जो शहर डाकखाने में नौकर था। मंगलू घर में अकेला रहता। उसके पास जमीन काफी थी। परधान उससे कई दिनों से कुछ जमीन मांग रहा था। इसीलिय पिरधान ने जमीन के कागजातों पर जबरदस्ती अंगूठा लगवा कर उसे मार दिया।
गांव में परधान के सामने मजाल जो कोई जुबान खोले। कोई कुछ बोले तो आ बैल मुझे मार देने वाली बात थी। पर दादी बौखला गई कि करे तो क्या करे। मंगलू का बेटा भी परेशान था। बापू कैसे मर गया? दादी ने एक दिन उसे सारी बात बता दी। रिपोर्ट थाने तक चली गयी। मंगलू की रिश्तेदारी में भी कुछ हलचल होने लगी। थाना पुलिस तो परधान के जेब की चीजें थीं, ऐसा कौन नहीं जानता। पर छानबीन तो करनी ही थी।
पुलिस गांव पहुंच गई। लोगों को बुलाया गया। थानेदार ने बारी बारी से पूछा लेकिन किसी ने मुंह न खोला। मान लिया मंगलू गिर कर मरा है। दादी एक ओर चुपचाप बैठी है। लेकिन भीतर एक तूफान मचा था। दादी ने जेब से बीडी निकाली, सुलगाई और जोर जोर से दम लेने लगी। किनारे से धुंआ जब थानेदार तक पहुंचा तो बुढिया पर नजर पडी, तिलमिला गया थानेदार। हांक मारी - ये रे बुढिया। पूछ रहा हूं तैनें तो कुछ नहीं कहना।
दादी ने बीडी नीचे फेंकी। जूते से मसल दी। बोली, बेटा, तेरी मां जैसी हूं। दादी जैसी हूं। फिर तू तो बडा अफसर है। क्या अफसरी में तमीज नहीं सिखाई जाती। अदब नहीं सिखाया जाता कि अपने बुजुर्गों से कैसे बोलते हैं। घर में अपनी मां - दादी से ऐसे ही बोलता है क्या। दादी पुलिस के आगे इतना बोलेगी, कौन जानता था। कई पल सन्नाटा छाया रहा। थानेदार का दर्प जैसे भीतर ही भीतर झुलस गया। मूंछे फडफ़डाती रहीं। सोचता होगा, कोई मर्द ऐसी बदतमीजी करता तो बेंत से साले की हड्डी पसली एक कर देता। पर ये साले बुढिया?
दादी ने ही चुप्पी तोडी थी, मंगलू को मारा गया थानेदार। तहकीकात ठीक से क्यों नहीं करते। थानेदार के हाथ से बेंत इस तरह खिसका कि सांप ने डंक मार दिया हो। पास बैठा परधान उछल गया और लोग हैरान - परेशान। ये पागल बुढिया है आप इसकी बातों का विश्वास मत करो थानेदार साहब।मत करो। थानेदार ने एक नजर परधान की तरफ डाली और दूसरी बुढिया की तरफ। कुर्सी छोडी और दादी तक चला आया। आप कैसे कहती हैं माताजी कि मंगलू का खून हुआ है!
थानेदार की थानेदारी गायब थी। अब वह दादी के सामने आदमी हो गया था। दादी ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा। गुर्राई - अपने परधान से क्यों नहीं पूछते, जिसके घर रातभर मांस - दारू गटकते रहे हो। इन कुत्तों से क्यों नहीं पूछते जो मंगलू के टब्बर के हैं पर जुबान नहीं खोलते। पूछो थानेदार इनसे कि जिस दिन मंगलू को मारा गया, यही तो लोग थे जो बोरी में भरकर उसकी लाश को चूली के पेड क़े नीचे फेंक गये थे।
दादी का चेहरा लाल हो गया था। थानेदार को कुछ सूझ नहीं रहा था। उधर परधान बराबर कह रहा था कि यह बुढिया पगला गई है। थानेदार ने चारों तरफ देखा। अब दादी से आंखें मिलाने की हिम्मत उसमें नहीं रही थी। उसने मेज पर से कागज समेटे। हौलदार को पकडाए और चलने लगा फिर कुछ सोच कर मुड ग़या, आपको थाने में बयान देना होगा। यह कह कर वह चला गया। दादी वहीं थी। चुपचाप। परधान ने एक नजर दादी की तरफ दी। बुदबुदाया, बुढिया! तुझे देख लूंगातुझे देख लूंगा।
वहां खडे लोगों ने जब दादी की तरफ देखा तो वह हंस रही थी। बिलकुल सहज। मानो कुछ नहीं हुआ हो। जैसे आंगन में आए बच्चों को गुडत्त् बांट रही हो। भीतर का गुस्सा एकाएक कहीं चला गया। कितना हल्कापन महसूस कर रही थी दादी। मन पर से जैसे हजारों मन बोझ उतरा हो। लोग सोच रहे थे कि दादी उन्हें कुछ कहेगी। पर उसने कुछ नहीं कहा वह घर लौट आई।
गांव परगने में यही चर्चा थी कि दादी ने थनेदार के सामने प्रधान पर खून का इल्जाम लगाया है। इस बात को लेकर सभी हैरान थे। पर दादी यह सब कुछ कैसे देखा इसका किसी को क्या मालूम।
कई दिन बीत गये। कहीं कुछ नहीं हुआ। न परधान कहीं दिखा और न उसके लोग। थाने से भी कोई खबर नहीं आई। इस मध्य चुनाव का ऐलान हो गया। फिर लोग उसमें उलझने लगे। हालांकि गांव में चुनाव का इतना असर नहीं था जितना कि शहरों में होता है। पर दादी जानती थी कि गांव में लोगों को बेवकूफ बना कर कैसे वोटें ली जाती हैं। गांव की तरक्की की बात सभी कर जाते थे, पर दादी जानती थी कि पांच साल फिर कोई नहीं आएगा। सारी स्कीमें परधान के घरों के इर्द - गिर्द घूमेंगी।
एक दिन दादी भीतर का काम निपटा कर जैसे ही आंगन में उतरी, कुछ लोग आते दिखाई दिये। उनके हाथ में लाल - हरे झण्डे थे। आंगन में पहुंचते ही उन्होंने तीन चार झंडे दादी के छत में ठूंस दिये। बीच में परधान भी था। दादी ने आदतन उसे नमस्कार किया। जैसे कभी कुछ घटा ही न हो।एक आदमी जो शायद बाहर से था, दादी को समझाने लगा - माताजी, आज के नौंवे दिन वोट पडने हैं। इस बार हमारी पार्टी पर मेहरबानी रखना। इस निशान पर मोहर लगाना। हमारी पार्टी हिन्दुओं के लिये लड रही है। राम के लिये लड रही है। इस बार हम अयोध्या में मंदिर अवश्य बनाएंगे।
दादी के चेहरे की मुस्कान उड ग़ई। गुस्से में बोली - भगवान के लिये तुम बनवाओगे मंदिर। बेटा वह तो सबको घर देता है। सबका रखवाला है। तुम उसको क्या दोगे? पर इस परधान से पूछती हूं, राम का मंदिर तो बनाओगे, पर कभी अपने गांव के देवता के बारे में सोचा? उसके मंदिर की क्या हालत है? कोठी के ऊपर की छत उड ग़ई है। पानी भीतर जाता है। चीजें सड रही हैं। कहते हैं पैसे नहीं हैं। कैसे मरम्मत होगी। सोना चांदी था वह पुजारी उडा ले गया। दो चार पुरानी मूर्तियां थीं, उन्हें लाखों में बेच दिया। सत्यानाश! झूठ बोलूं तो परधान से पूछो न। जब तुम लोग अपने गांव के देवता को नहीं बचा सके तो उस परमेश्वर को क्या दोगे?
एक पल चुप्पी रही। परधान खिसकना चाहता था। तभी उस आदमी ने बात पलटी, माता जी आपको हम वृध्दावस्था पेंशन लगवा देंगे। दादी अब सहज थी। जोर से हंसी बोली - बेटा मेरी पिनशन तो पिछले पांच सालों से लगी है। वह खुश हो गया, देखा न हमारी सरकार ने ही तो। बिलकुल बेटा। पर मुझे नहीं मिलती वह पिनशन। औरों ने इस बात को गंभीरता से न लिया हो परंतु परधान को सांप सूंघ गया था। उसने फिर पूछा - फिर कहां जाती है माता जी? दादी तमतमा गई परधान को ऐसे देखा जैसे कोई शेर अपने शिकार को देखता है। अपने परधान से क्यों नहीं पूछते। वह पेंशन मेरे नाम से अपनी जनानी को लगा रखी है। सभी के पांव उखड ग़ये। चुपचाप खिसक लिये। दादी अपने काम में जुट गई। कई दूसरी पार्टियां आईं पर उसके बाद दादी कभी घर पर नहीं मिली।
उधर परधान की पार्टी हार गई।उसकी परेशानियां बढने लगीं। पुराने मामले खुलने लगे। मंगलू का केस, वृध्दा पेंशन और मूर्तियों की चोरी जैसी बातें उसे घेरे रखतीं। अपने राज में उसने क्या कुछ नहीं किया? यहां तक कि अपने देवता तक को नहीं छोडा। गांव का मंदिर काफी पुराना था। परगने में कई ऐसे ही और मंदिर भी थे जिन्हें लोग पांडवों के समय का मानते थे। बडे - बूढे क़हते, इतनी भारी लकडियां और पत्थर तो भीम जैसा बली ही ला सकता है। पर अब तो भीतर खाली है। परधान शहर में मूर्ति चोरों तक यहां से मूर्तियां अपने लोगों के जरिये पहुंचाता । दादी जानती थी कि यहां ही नहीं; बाहर भी इसका धन्धा फला - फूला है। करोडाें की मूर्तियां परधान जैसे लोगों की मिलीभगत से कहां से कहां पहुंच गईं। अब अनर्थ नहीं होगा तो और क्या होगा?
परधान परेशान था। दादी को और भी बहुत कुछ पता होगा। वह कैसे जानती है। इस बुढिया के पास ऐसी क्या चीज है जिसका इसे सब कुछ पहले से पता होता है?
एक दिन दादी गहरी नींद सोई थी। अचानक कौआ बोला। उसी पड पर। दादी तत्काल उठ गई। उनींदी सी बरामदे में आई। कांव - कांव सुनी। घबरा गई। भीतर नहीं मुडी। न सिर पर ओढनी, न पांव में जूते। झटपट ओबरे से अपनी गाय, बकरियां और भेडें ख़ोल दीं। जैसे - तैसे बाहर निकालीं। दरवाजा बन्द कर दिया ताकि पुन: भीतर न चली जायें। अकेली, असहाय दादी भला दुनिया का मुकाबला कैसे करती?
पल भर में दादी का घर आग की लपटों में घिर गया। किसी को कानों कान खबर नहीं लगी।
दादी भाग कर दोघरी पहुंची। अपने बेटे के सान्निध्य में। दरवाजा खडख़डाया। शायद बेटा घर पर नहीं था। बहू ने नींद में ऊंघते हुए पूछा - कौन है इस वक्त ? मैं हूं बहू, मैं। जल्दी से दरवाजा खोलो बहू। बहू पहचान गई। उसकी सास, जिससे वह नफरत करती है। आवाज सुनकर बच्चे भी उठ गये। बडी लडक़ी ने पूछा, अम्मा कौन है? दरवाजा खोलूं? नही नहीं मत खोलना। वह डायन है। दादी ने सुना तो भीतर तक टूट गई। पता नहीं कितनी देर दरवाजे के पास अंधेरे में रोती रही। घर के जलने की रोशनी यहां तक उजाला कर रही थी। बच्चे, औरतें और सभी बडे - बूढे रो रहे थे कि दादी भीतर जिन्दा जल गई होगी। परधान और उसके आदमी भीड क़े बीच थे। न जाने क्यों इस दृश्य को देखकर उनकी आंखें भी नम हो आईं।
पेड पर कौआ जोर जोर से कांव - कांव कर रहा था। कोई कागभाखा समझता तो जानता पिछली रात क्या घटा? पर गांव में दादी जैसा कौन?
उसके बाद दादी कहां चली गई किसी को नहीं मालूम। पर परधान दिनों दिनसूखता जा रहा है। अब वह कैसे बताये कि दादी को आधी रात के बाद कई बार उसने अपने आंगन की मुंडेर पर बीडी पीते देखा है।