काग़ज़ की नावें चांदी के बाल / सूर्यबाला

Gadya Kosh से
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मैं बहुत छोटी हूँ। वैसा ही वह भी। सिर्फ़ दो दर्ज़े ऊपरवाली क्लास में। अपनी कोठी की घुमावदार सीढ़ियों पर बैठी मैं रंग-बिरंगे चित्रोंवाली क़िताब से 'सुनहरे बालोंवाली राजकुमारी' की कहानी ज़ोर-ज़ोर से पढ़ रही हूँ-- वह ठोढ़ी पर हाथ धरे सुन रहा है।

एक थी राजकुमारी। वह बहुत सुन्दर थी। उसके बाल सुनहले थे। जब वह हँसती थी तो केतकी के फूल झरते थे और जब रोती थी ढुर-ढुर मोती। एक दिन राजकुमारी नदी में नहा रही थी। उसका एक सुनहला बाल टूट गया। राजकुमारी ने उस बाल को पत्तों के एक दोने में रखा और नदी की धारा में बहा दिया। धार में बहते-बहते दोना बहुत दूर निकल गया; जहाँ एक राजकुमार शिकार खेलने आया था। थके-मांदे राजकुमार को प्यास लगी तो वह नदी के किनारे आया। राजकुमार अंजली में भरकर पानी पीने ही जा रहा था कि उसे बहते हुए दोने में सुनहला बाल दिखा। राजकुमार ने बाल निकाल लिया और महल लौटकर हठ कर बैठा राजा से कि पिताजी! मुझे तो सुनहले बालोंवाली राजकुमारी चाहिए।

-- ' तूने किसी राजा का राजमहल देखा है?' अचानक वह ठोढ़ी से हाथ हटाकर पूछता है।

-- ' नहीं तो, लेकिन एक बार पिताजी एक जागीरदार साहब की हवेली में ले गए थे, ख़ूब बड़ी हवेली थी उनकी...'

-- ' तुम्हारी कोठी से भी? ख़ूब बड़ी?'

-- ' हाँ...बहोत। '

-- ' और राजा लोगों के महल उससे भी कहीं ज़्यादा बड़े! न!'

-- ' और नहीं तो क्या तुम्हारी पंचकुठरिया जितने...?'

वह ठिलठिलाकर हँस पड़ा। मैं ख़ुद भी। उसकी पंचकुठरिया और राजमहल की आमने-सामने कल्पना ही इतनी हास्यास्पद थी कि हम दोनों को हँसा-हँसाकर लोटपोट किए दे रही थी। और बाक़ी आसपास कामकाज में लगे हुए छोटे-बड़े लोग हमें अजीब बेवकूफ़ी-भरी और नागवार नज़रों से घूरे जा रहे थे।

पंचकुठरिया हमारी कोठी के सामने बंजर मैदान में बनी एक अधफूटी-सी इमारत थी; जिसमें एक सीधी कतार में किसी ने सिर्फ़ पाँच कोठरियाँ और पाँच दालान किराए पर उठा देने की गरज से बनवा दिए थे। इन्हीं में से एक कोठरी में वह अपने माँ-बाप और छोटे भाई-बहनों के साथ रहता था।

हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे। वह दो दर्ज़ा ऊपर मैं दो दर्ज़ा नीचे। मैं तांगे से स्कूल जाती, वह पैदल। लेकिन तब भी हम घर से एक ही टाइम पर निकलते और एक ही टाइम लौटते थे क्योंकि वह पैदल-पैदल गली, मैदान और छोटी पगडंडियों के सहारे फलांगता-फलांगता जल्दी पहुँच जाता; जबकि मेरा तांगा चौड़ी तारकोली सड़क से 'हटो... बच्चों' पुकारता खदराता हुआ जाता। वह चप्पलें पहनता मैं बक्सुए वाली सैंडलें। अक्सर जब मैं स्कूल से लौटकर तांगे से उतर रही होती तो वह भी मैदान के बीचोबीच से रास्ता काटकर हाथ के बस्ते को चरखी की तरह घुमाता, उछलता-कूदता लौट रहा होता। फिर हम दोनों ख़ूब बातें करते कि आज हमें यह पढ़ाया गया और हमें यह। हमें इस कविता की यह ट्यून बताई गई, हमें यह। हम अपनी सीखी कविताएँ भी गाकर एक-दूसरे को बताते और उस दिन के सीखे पहाड़े दुहराते। फिर वह अपनी पंचकुठरिया में चला जाता, मैं अपनी कोठी में।

मुझे कोठी के बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी, उसे कोठी के अन्दर आने की। यह कभी किसी ने कहा नहीं, बस, एक समझी, स्वीकारी हुई बात थी। उसके आने की कोई मनाही नहीं थी। वह आता... हम दोनों बाहर सायबान या अगल-बगल अपने आहते में उछल-कूद लेते और साथ-साथ ढेर सारी रंग-बिरंगी कहानियाँ पढ़ लेते। वह कौतुक से पूछता -- ' राजा लोगों के महल कितने बड़े होंगे आखिर?'

या फिर

-- ' राजकुमारियाँ कितनी सुन्दर होती होंगी?'

मैं ईर्ष्या से हुमककर कहती-- ' हुँह, सोने-चाँदी के बाल होंगे तो सुन्दर दिखेंगी ही...है कि नहीं?'

एकाएक वह खिलखिलाकर हँस पड़ा। मैने पूछा, क्यूँ हँसा? तो बोला

-- ' मैं सोच रहा हूँ, अगर तेरे बाल सुनहले हो जाएं तो कैसी दीखेगी?'

यकायक अपने लिए इतनी ज़बर्दस्त कल्पना मैं नहीं कर पाई। अचकचाकर बोली

-- ' अरे बुद्धु! मेरे बाल सोने के कहाँ से हो जाएंगे...मैं कोई राजकुमारी हूँ?'

-- ' अच्छा तो चांदी के ही सही, रुपहले-रुपहले बाल...'

एकाएक मुझे याद आया, रुपहले बाल तो बूढ़ी बुआजी के हैं...

-- ' अरे, तब तो मैं बूढ़ी हो जाऊंगी। बिल्कुल बूढ़ी-सी... अच्छी क्या ख़ाक दीखूंगी? '

-- ' वाह! क्यूँ नहीं दीखेगी? ख़ूब अच्छी दीखेगी...खूब अच्छी। जैसी अभी दीखती है, उससे भी ज़्यादा अच्छी, चांदी के तारों जैसे बालों में।'

वह मेरी 'बूढ़ी' की कल्पना के करीब फटके बिना वैसा ही मगन हँसता हुआ कहे जा रहा था। बेहद हँसोड़ था वह। नकलें भी बड़ी बढ़िया उतारता। स्कूल के टीचरों के डपटने, चपरासी के हड़काने और प्रार्थना वाले पंडित जी के नकनकाने की; हम जब भी इकठ्ठे होते, वह एक के बाद एक नकलें उतारता जाता, मैं खिलखिलाती जाती। फिर आदत ऐसी पड़ गई कि वह आसपास न भी होता तो भी मैं उसकी किसी नकलवाली मुद्रा को सोचकर ही खिलखिला पड़ती।

तब आसपास वाले फिर हमें हैरत से देखने लगते...। यह एक बहुत पुराना सिलसिला अभी तक, अधेड़ होने तक चला आता है। जाने-अनजाने प्रसंगों के बीच अचानक उसकी कोई बात याद आ पड़ती है और मैं बरबस मुसकरा पड़ती हूँ। ध्यान तब आता है जब मेरे पति या बच्चे मुझे टोककर होश में आने के लिए कहते हैं। और क्षण भर के लिए मैं एक अनाम अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती हूँ। लेकिन चूँकि ऐसा बहुत कम ही होता है जबकि मैं पति बच्चों से घिरी रहती होऊँ, इसलिए मौक़ा पाते ही 'वह' खिड़की से अन्दर फलाँग लेता है और हमारी बेबात की हँसी-ठिठोली शुरु हो जाती है। कभी-कभी गंभीर वार्तालाप भी...

जैसे एक-दूसरे के डब्बे का टिफिन खाते हुए।

मैं कहती हूँ-- ' तुम्हारे डब्बे की रोटियाँ ख़ूब नरम होती हैं न!'

-- ' हाँ, मेरी माँ उनमें घर का ताज़ा मक्खन चुपड़ती है। बहुत थोड़ी-सी शक्कर भी... तुम भी अपनी माँ से मक्खन चुपड़ने को कह दो... '

मैं कहती हूँ-- ' मेरी माँ नहीं है...'

और उसक चेहरा हैरत से उतरता चला जाता है-- ' तो तुम्हें टिफ़िन कौन देता है?'

-- ' मिसरानी... '

-- ' तुम्हारी चोटियाँ कौन गूँथता है?'

-- ' बड़ी बुआजी...'

-- ' और बीमार पड़ने पर दवा कौन देता है?'

-- ' कभी पिताजी, कभी मिसरानी, कभी चमेली...'

-- ' और ग़लती करने पर चाँटे कौन लगाता है?'

-- ' कोई नहीं...'

यह उसके लिए बेहद अजूबी बात थी। वह थोड़ी देर गुमसुम सुनता रहा, जैसे कहीं फटाफट नोट करता जा रहा हो... फिर जैसे एकदम पूछ गया :

-- ' तुम्हें रात में कभी डर नहीं लगता?'

प्रश्न इतना छोटा नहीं था। इससे लम्बा था और इससे बहुत गहरा भी... कि तब तुम क्या करती हो?

-- ' ऐसे ही बड़ी बुआजी को बुलाने लगती हूँ...

-- ' पर उन्हें तो कम सुनाई पड़ता है न...

-- ' तो चमेली... -- ' लेकिन वह भी थकी होती है। उनींदी आवाज़ में कहती है... अरे कहाँ... कुछ भी तो नहीं बिटिया... या फिर हनुमान चालीसा पढ़ने को कहकर करवट बदल ख़ुद सो जाती है।'

फिर मैं उससे पूछती हूँ-- ' तुम्हारी माँ हैं?... कैसी हैं?'

वह उसी तरह खिलखिलाकर हँस पड़ा-- ' मेरी माँ? तुम देखोगी तो ख़ूब हँसोगी... वह तुम्हारी बुआजी की तरह सफ़ेद झक साड़ी थोड़ी न, एकदम लुगड़ी-फुगड़ी-सी साड़ी पहनती है और सिन्दूर का टीका लगाए, चूल्हे में गोल-गोल रोटियाँ फुलाती रहती है। क्रीम-पाउडर नहीं है उसके पास; लेकिन वह सिर्फ आधा सेर दूध में ही छाछ, दही मक्खन सब कर लेती है और फिर उन्ही उँगलियों से हाथ-मुँह सब चिकना कर लेती है और पैरों में ढेर सारा महावर लगा लेती है।'

-- ' तुम मुझे अपनी माँ को दिखाओगे?'

-- 'हाँ-हाँ,चलना; लेकिन कैसे?'

ऐसे ही एक दिन मैं दोपहरी को चुपके से खिड़की फलांग गई थी और बेतहाशा उसका हाथ पकड़े हाँफते-हाँफते पंचकुठरिया पहुँच गई थी।

उसकी माँ और बहनें मुझे देखकर चकित-चमत्कृत थीं... जैसे वह कोई वर्जित, लेकिन साहसिक काम कर गुज़रा हो, कुछ बेहद दुर्लभ-सी चीज़ उठा लाया हो...

'यह... यह राजी है... कोठीवालों की लड़की... राजरानी... '

उसकी माँ मुझे किसी बड़ी प्यारी, कोमल और कीमती वस्त्र की तरह मुग्ध दृष्टि से देखे जा रही थी।

-- ' तुम्हारी मक्खन और शक्कर चुपड़ी रोटी रोज़ यही खाती है... इसे अपनी मिसरानी के तेल बोथे पराँठे, सब्जी और अचार बिल्कुल नहीं भाते। मोहनथाल और इमरतियाँ भी नहीं।' वह प्रशंसा के भाव से बिल्कुल नहीं, सिर्फ़ हक़ीक़त के तौर पर बयान करता जा रहा था।

उसका छोटा भाई मेरी रेशमी फ्रॉक पर आराम से हाथ फेरता जा रहा था और उसकी बहनें मेरी बक्सुए वाली सैंडलें आँखें बचा-बचाकर देखे जा रही थीं... मैं उन सबकी उस दिन की उपलब्धि थी।

अचानक वह कह बैठा :

-- ' इसके 'माँ' ही नहीं हैं!' (दुःख, सहानुभूति नहीं यहाँ भी। मात्र हकीकत बयानी।)

और तड़ाक... जैसे हर किसी के चमत्कृत से दीखते चेहरों पर सनसनाकर कुछ बैठ गया हो। सबके चेहरे अवाक्... तब वह जैसे सबको जगाता सा बोला :

-- ' लेकिन इसके घर मिसरानी, चमेली दरबान और बड़ी बुआ जी हैं। भोंपूवाला ग्रामोफोन और बघर्रे की खालें भी... इसके दरबान के पास भी कोट है और पिता के पास विलायती हैट!...' जैसे किसी दूसरे लोक की अज़ीबो-गरीब बातें बता-सुना रहा हो।

ख़ुद मैंने ही क्या कुछ कम अजूबी बातें देखीं उसके यहाँ! मेरी फ्रॉक और बक्सुएदार सैंडलों का सम्मोहन तो बहुत थोड़ी ही देर रहा। उसके बाद तो उसकी एक बहन मेरे दोनों हाथ पकड़ तेज़-तेज़ चकरी घूमने लगी और दूसरी घर के सामने इकड़ी-दुकड़ी खींचने लगी। छोटा भाई और बहन सड़क से गुज़रते रंग-बिरंगे गुब्बारों और पिपहरी के लिए माँ के कन्धों पर झूलकर ठुनकने लगे। भाई तो इतना जिदियाया कि उसकी पीठ पर एक भरपूर धौल भी पड़ा, धप्प से। इससे बाक़ी सारे खिलखिलाकर हँसने लगे और भाई पैर फैलाकर चीखने लगा। तब तक बन्दर के नाचवाला आ गया और सब बच्चों के साथ भाई भी रोना भूलकर नाच देखने के लिए भागा। लेकिन चूँकि उसका छुटका भाई बड़े बच्चों के बराबर तेज़ भाग नहीं सकता था, इसलिए बड़ी बहन ने उसे अपनी गोद में लाद-सा लिया।

नाच देखकर लौटे तो उसकी माँ ने पीतल की एक तश्तरी में तुरत-फुरत चूल्हे पर सिंकी और ज़रा-सी मक्खन चुपड़ी ख़ूब नरम-सी रोटी मुझे खाने को दी।

फिर बड़े प्यार से पूछा:

-- 'तुम्हें अच्छी लगती है न?'

मैने खाते-खाते 'हाँ' में गरदन हिलाई।

' मैने अभी ही ज़रा-सा मक्खन निकाल लिया... ये सब तो रोज़ ही खाते हैं।'

वह हँसा-- ' इसका मतलब हम सब कल रूखी रोटी और नमक खाएंगे न!'

-- ' तो क्या?'

उसका छोटा भाई बड़े भोलेपन से बोला-- ' जो यह रोज़ आएगी तो हम रोज़ रूखी रोटी खाएंगे?'

सबके सब ज़ोर से हँस पड़े।

माँ बोली-- ' रोज़ इसे आने ही कौन देगा? अब इसे जल्दी से पहुँचाओ। नहीं तो डाँट पड़ेगी।'

उसकी माँ ने ठीक कहा था।

लौटने पर पिता की कड़कदार आवाज़ गूँजी और उसी के साथ एक भरपूर चाँटा। बुआजी जल्दी से खींचकर ले गईं और मेरे गालों पर उबरी ललछौंही कतारों पर मरहम मलने लगीं। मरहम मलते-मलते बुआजी समझाए जा रही थीं--'अपनी खानदानी इज़्ज़त और साख समझा कर बेटी। तेरे पिताजी की इससे तौहीन होती है न!... तुझे क्या पता , वे कोरट में कितने मुकदमे की पेशियाँ, कितना पैसा पानी की तरह बहाने के बाद तुझे तेरी माँ से जीत कर लाए हैं।

उस दिन मैने एक ख़बर की तरह जाना कि मेरी भी माँ है। ...उतनी छोटी मुझे, ख़ानदान, कोठी, दबदबा जैसे शब्द साफ़-साफ़ समझ में नहीं आ रहे थे, लेकिन 'तौहिनी' का मतलब समझते वक्त अचानक मेरी आँखों में गरम रोटी पर धरी एक छोटी-सी मक्खन की डली पिघलने लगी, बस। बड़े होने पर जाना कि चूँकि मेरे पिता मुझे ख़ानदानी इज़्ज़त के रूप में, अपने दबदबे के बल पर कोर्ट से जीतकर लाए थे, इसलिए कहीं-न-कहीं यह ज़रूर चाहते थे कि मैं उनकी बेटी की तरह रहूँ... अपनी माँ की बेटी की तरह नहीं। मेरी माँ और मेरे पिता की यह कहानी मेरी ज़िन्दगी के हर छोटे बड़े मोड़ पर मुझ से उलझती, ठोकरें लगाती रही। सारे मान-सम्मान और समाज में बाइज़्ज़त हाथों-हाथ ली जाती हुई मैं अलग हो गई माँ और अलग हो गए पिता की बेटी के दयनीय सच के साथ हमेशा जोड़ी गई। ससुराल में भी। बेटी-बेटों के सामने भी... सिर्फ़ चर्चा भर ही। मेरी बुराई, आलोचना कुछ नहीं।

उस दिन के बाद फिर कभी नहीं गई उसके घर। हफ़्ते-दस दिनों बुख़ार में पड़ी रही। अच्छी होने पर भी नौकरों को मेरी हर सुख-सुविधा के लिए मिले निर्देशों की कड़ी निगरानी में... कोठी में ही आंगन, दालान, बारजों, बरसातियों में टहलती-भटकती रही।

अचानक एक दिन देखा... एक ठेले पर कुछ खाट-खटोली, गद्दे-गद्दियों और चूल्हे चौके के मर्तबानों सहित, सारा सामान लदा चला जा रहा है, वे सब भी उसी ठेले के पीछे-पीछे जा रहे हैं; उसी शहर में कहीं और रहने।

मैं अब भी उसी शहर में हूँ। पिता मुकदमे में जीती हुई अपनी बेटी को इस कोठी सहित सारी ज़मीन-जायदाद दे गए हैं। मेरे पति-बच्चे सब कुछ संभाल रहे हैं।

लेकिन मैं एक असंभव-सी प्रतीक्षा कर रही हूँ। अक्सर अन्दर एक हलकोर-सी उठती है... जब लगता है कि वे सब-के-सब भी इसी शहर में कहीं होंगे।

वह सब-कुछ उस उम्र के साथ ही क्यों नहीं ख़त्म हो गया? क्यों एक कचोट-सी अभी तक बाकी है... और किस बात की? क्यों वह उम्र की सारी सीढ़ियाँ फलांगता इन उतरती सीढ़ियों पर भी मुझ से पहले ही बैठा ठिलठिलाकर हँसता नज़र आता है?...

जब भी उदास होती हूँ... वैसा ही खिलखिलाता, मैदान पार की पगडंडियों से दौड़ता वह मेरी खिड़की के रास्ते उचककर अंदर फलांग जाता है। मेरी साड़ी तब चुन्नटदार फ्राकों में बदल जाती है... और पाँवों में बक्सुए वाली सैंडलें...

-- 'राजी! आओ चलें...'

-- ' कहाँ?'

-- 'जंगली बेरों की भीटों पर...या फिर तुम्हारी कोठी के ही पिछवाड़े, झाड़-झंखाड़ों के बीच लाल घुंघरुओं वाली घुंघचियां तोड़ने... पीपल की पत्तियों को पान बनाकर बीड़े लगाने और सूखी चिलबिलों से चिरौंजियां निकालने।'

अरे, इसे कैसे मालूम कि सचमुच मेरा मन कोठी की पुरानी दीवालों की दरारों में उग आए पीपल के पत्तों के पान बनाने को करता है। लाल घुँघचियाँ और सूखी चिलबिल बीनने का भी...

-- ' लेकिन मेरे पति, बच्चे, उनका नाश्ता खाना...'

-- ' उन सबसे कोई रोकता थोड़ी है तुम्हें... सब सलटाकर या उन्ही के बीचोबीच...'

---' सचमुच?'

जैसे अभी; अचानक शीशे के सामने खड़े होकर माथे के दाहिने किनारे से उठती सफ़ेद बालों की एकमुश्त कतार दीखी है, मन अनजाने अवसाद में डूबा है कि पीछे से वह ठिलठिलाकर हँस पड़ा है-- 'मैं कहता था न कि तू ख़ूब अच्छी दीखेगी, खूब अच्छी। चांदी के तारों जैसे बालों में।

बस, मैं पूर्ण विश्वस्त, परम निश्चिन्तता से मुड़ गई हूँ। जैसे माथे पर चांदी का 'ताज' पहना हो।

बाहर धाराधार बारिश हो रही है और दूर मैदान के बीचोबीच चिलबिल का पेड़ भीग रहा है।

मैं अचानक मुड़ी हूँ और चमकीले काग़ज़ोंवाली पुरानी पत्रिकाओं से चिकने, मोटे काग़ज़ निकालकर ढेर सारी रंग-बिरंगी नावें बनाने लगी हूँ।

मेरा समझदार, बड़ा हो गया बेटा हैरत से टोकता है-- मम्मी, यह... यह क्या?

-- ' नावें... ' मैं ख़शीु से किलकती हुई कहती हूँ-- 'चलो, इन्हें सड़क के किनारे तेज़ी से बहते पानी में बहाते हैं... थोड़ी नावें तू भी पकड़ तो...'

हतबुद्धि-सा वह पहले अचकचाता है, फिर बाकई बची नावें उठा लेता है... नावें हथेलियों में दुबकी चिड़िया-सी दीखती हैं।

और बरसाती बूंदों में, मेरा हठ रखने को ही, मेरे पीछे-पीछे होकर, ढाल पर इकठ्ठा हो तेज़ी से बहते पानी की धारा में एक के बाद एक नावें बहा देता है।

मैं माथे का पानी निचोड़ती मुग्ध, उत्फुल्ल देखती हूँ... नावें चली जा रही हैं, नाचती, थिरकती, अटकती, फिर बहती---तेज़-तेज़ ढलान की धार में...

और अचानक एक सपना-सा देखती हूँ मैं। ...बरसाती बरसात का यह हलकोरता पानी ढलानों से बहता हुआ एक कोठरी के दरवाज़े से जा लगा है। वहाँ एक छोटा-सा बच्चा चहककर एक नाव उठा लेता है और कुतूहल से देखता है... उसमें रखा एक रुपहला चांदी के रेशे-सा बाल...