काचू की टोपी / गोविंद शर्मा
हर साल सर्दी आती है। सर्दी आते ही पहाड़ों पर ठंड बढ जाती है। काचू इस ठंड से उतना परेशान नहीं होता, जितना सर्दी की वजह से काम-धंधों के बंद होने से। वह मेहनत-मजदूरी करके गुजारा करने वाला इन्सान है। इसलिए हर साल सर्दी के मौसम में पहाड़ पर स्थित अपना गाँव छोड़कर मैदान में आ जाता। वह मजदूरी कर अपना घर चलाने के लिए कमाई करता। वैसे पहाड़ की एक जैसी ठंड के बजाय मैदान की कभी गरमी, कभी सर्दी, कभी तीखी हवाएँ उसे ज्यादा परेशान करती हैं। पर मैदान में उसे काम मिल जाता है। इसलिए हर साल मैदान के गाँव-शहर चला आता है। इस बार भी मैदान के लिए चला। चलते समय उसकी पत्नी ने अपने हाथ से बुनी एक गरम टोपी उसे दी। नई टोपी देखकर काचू बहुत खुश हुआ। काचू ने वह टोपी अपने थैले में रख ली। मैदान के शहर में आते-आते वह बहुत थक गया था। उसका यहाँ कोई ठिकाना नहीं था। वह पार्क में सीमेंट के ठंडे बेंच पर बैठ गया।
घर से लाया नाश्ता उसने अभी किया ही था कि उसे ठंड महसूस हुई। उसने थैले में से नई टोपी निकाली और अपने सिर पर पहन ली। जैसे जादू हो गया हो। काचू को ठंड लगना बंद हो गया। "यह तो खूब गरम है," उसने अभी सोचा ही था कि टोपी की गरमी से उसे नींद आ गई। थका हुआ भी था। पता नहीं वह कितनी देर सोता रहा। उसकी आँख खुली तो उसे ठंड महसूस होने लगी। वह मन ही मन सोचने लगा, क्या टोपी में इतनी ही देर के लिए गरमी थी? मैंने एक ही बार में टोपी की सारी गरमी खर्च कर दी? सोचते-सोचते उसने अपने सिर पर हाथ रखा तो पाया कि वहाँ टोपी नहीं है। कहाँ गई? क्या हवा उड़ा ले गई? उसने अपने आसपास सब जगह देखा। टोपी कहीं दिखाई नहीं दी। लगता है, जब मैं सो रहा था, तब किसी ने मेरी टोपी को चुरा लिया। मुझे टोपी और चोर को ढूँढ़ना चाहिए। पार्क काफी बड़ा था। उसमें कई बेंच थे। सभी बेंचों पर कोई न कोई बैठा था। वह सभी को बड़े ध्यान से देख रहा था।
अचानक उसने एक बेंच पर सोया हुआ एक आदमी देखा। उसके सिर पर वैसी ही टोपी थी। वैसी क्या, वही थी। काचू लड़ने-झगड़ने में विश्वास नहीं करता था। वह सोचने लगा कि अपनी टोपी कैसे वापस लूँ। यदि मैं नींद से जगा दूँगा तो हो सकता है, यह टोपी के साथ भाग जाए। यह चोर है। यह टोपी मेरी है। टोपी मेरे पास ही होनी चाहिए। जिस तरह इसने मेरे सोते समय मेरे सिर से टोपी उतार ली थी, क्यों न मैं भी उसी तरह अपनी टोपी ले लूँ।
वह काफी देर तक सोचता रहा। फिर हिम्मत करके, उस चोर को बिना जगाए, उसने टोपी ले ली। टोपी लेकर वह जल्दी से अपनी पहले वाली बेंच पर आ बैठा। ठंड से बचने के लिए उसने टोपी अपने सिर पर पहन ली। यह क्या? टोपी वही है, फिर भी गरमी क्यों नहीं दे रही है? वह कुछ देर परेशान होता रहा। फिर उसने सोचा - हो न हो, टोपी से गरमी न मिलने का एक ही कारण है। मैंने इसे उस आदमी के सिर पर से उसे बिना बताए लिया है। यह चोरी की है। मुझे यह टोपी उसे वापस कर देनी चाहिए। उससे माँग कर लेनी चाहिए। टोपी वापस करने के लिए वह फिर उस बेंच के पास आया। लेकिन अब उस बेंच पर कोई नहीं बैठा था। उसने पार्क के सभी बेंचों को देखना शुरू किया। वहाँ घूम रहे लोगों को देखा। पर वह आदमी उसे कहीं नहीं मिला। वह परेशान हो गया। उसे याद आया। किसी ने बताया था कि यदि कोई समस्या हो या शिकायत हो तो थाने में जाकर कहना चाहिए।
इससे पहले वह कभी किसी थाने में नहीं गया था। ढूँढते-ढूँढते वह एक थाने में चला ही गया। वहाँ एक थानेदार बैठे थे। उन्होंने काचू को देखकर कहा - क्या है? समस्या या शिकायत?
"दोनों हैं, साहब," काचू ने डरते हुए कहा।
"बहुत अच्छा। कई दिन हो गए हमें खाली बैठे। जल्दी बताओ, क्या मामला है। अभी हल करता हूँ।" थानेदार ने कहा।
काचू ने बताया - साहब, मैं अपनी बीवी की दी हुई टोपी सिर पर पहन कर पार्क के एक बेंच पर सोया हुआ था। किसी ने उसे चुरा लिया। मैंने पार्क में तलाश की तो एक जगह वही टोपी लगाए वह चोर सो रहा था। मैंने उसको बिना बताए उसके सिर से टोपी उतार ली। साहब, पहले उसने मेरी टोपी चुराई। फिर मैंने उसे वापस चुरा लिया।
"फिर समस्या या शिकायत क्या है? तुम्हारी टोपी वापस तुम्हारे पास आ ही गई है।"
"साहब, यह मेरे पास चोरी से आई है। मेरी ही सही, पर है तो चोरी की।"
थानेदार ने आश्चर्य से काचू को देखा। फिर पूछा - जब तुम इस तरह की ईमानदारी या सच्चाई की बात करते हो तो लोग तुम्हें बुद्धू या बावला नहीं कहते हैं?
काचू को ध्यान आया - हाँ, कहते हैं। जब वह इस तरह की बात करता है तो उसे बहुत कुछ कहते हैं। "समझदार" कोई नहीं कहता ।
तो क्या समझदार कहलाने के लिए झूठा और बेईमान बनना पड़ता है? नही नहीं, मुझे नहीं बनना "समझदार"...।
"क्या सोच रहे हो?" थानेदार ने टोका तो वह सोच की दुनिया से बाहर आया। बोला, "साहिब, मैं चाहता हूँ कि मेरे द्वारा चोरी की गई यह टोपी आप थाने में जमा कर लें, इस चोरी की मुझे सजा भी दें और मेरी टोपी जो चोरी हो गई थी, उसे तलाश कर मुझे दें।"
थानेदार को हँसी आ गई। पहले ऐसा कोई मामला थाने में नहीं आया था। थानेदार ने अपनी मूँछों पर ताव देते हुए रोबीली आवाज में कहा - चोरी की टोपी रखते हो? इसे तुरन्त थाने में जमा कराओ।
काचू ने तेजी से वह टोपी थानेदर की मेज पर रख दी। थानेदार ने टोपी को उलट-पुलट कर देखा और फिर कहा - काचू, यह लो, तुम्हारी टोपी मिल गई है। तुम इसे ले जा सकते हो।
काचू के चेहरे पर खु्शी झलक आई। उसने टोपी ली और उसे अपने सिर पर पहन लिया। यह क्या? टोपी में पहली वाली गरमी मौजूद थी। उसे नींद-सी आने लगी तो वह एक खाली कुर्सी पर बैठ गया।
काचू बोला, "साहब, आपने मेरी टोपी की तलाश की, इसके लिए धन्यवाद। पर मैंने चोरी भी की थी। उसकी सजा भी दीजिए।"
थानेदार को भी इस खेल में मजा आने लगा था। उन्होंने कहा - तुम्हारी सजा यही है कि तुम टोपी पहन कर...।
पर सजा की पूरी बात सुनने से पहले ही काचू को नींद आ गई थी । काफी देर बाद उसकी आँख खुली । उसने देखा, थानेदार और कुछ सिपाही उसकी बात करके हँस रहे हैं। उसने थानेदार से कहा - साहब, सजा की बात सुनने से पहले ही मुझे नींद आ गई थी। आपने मुझे क्या सजा दी थी?
हँसते हुए थानेदार बोले, "तुमने सजा पूरी कर ली है। मैंने तुम्हें टोपी पहन कर दो घंटे सोने की सजा दी थी।"
"नहीं साहब नहीं, मैंने सजा के रूप में नींद नहीं ली थी। मुझे तो यूँ ही नींद आ गई थी। आपने जो सजा दी थी, उसे पूरी करने के लिए मैं अब सो रहा हूं...।
काचू फिर सो गया। उसे सोते देख थानेदार और सिपाही फिर हँस पड़े। काचू को क्या, उसकी टोपी में बीवी के प्यार, सच्चाई और ईमानदारी की गरमी थी। उसे यही चाहिए। दो घंटे बाद काचू अपने आप जाग गया या थानेदार ने उसे जगाया, यह हमें नहीं मालूम।