काजल / पद्मजा शर्मा
वे अक्सर मिलते रहते थे और जब भी मिलते थे उसकी आँख का काजल बाहर निकलकर आसपास फैल जाता था। यह कौतुक उन्हें अच्छा लगता था। तब वे एक दूसरे की आँखों में आँखें डालकर बैठे रहते थे। इस विषय पर घंटों बातें कर सकते थे। करते भी थे। वह कहता-'यह काजल बाहर क्यों आ जाता है?'
वह कहती-'वैसे तो कभी नहीं आता। बस तुम्हाने आने पर ही बाहर आता है।' और शरमा जाती।
वह बाहर आए काजल को पौंछना चाहती। वह रोक देता। कहता-'मेरे जाने के बाद पौंछना। मैं जानता हूँ तुम्हें काजल पसंद नहीं है। सिर्फ़ मेरी खातिर लगाती हो। तुम्हें साड़ी पसंद नहीं पर मेरे लिए डालती हो। तुम्हें रंग-बिरंगी चूडिय़ाँ पसंद नहीं पर मेरे खातिर पहनती हो। मैं यह भी जानता हूँ कि ऑफिस में कभी-कभी इस सबके कारण तुम्हें प्रश्नवाचक निगाहों से भी देखा जाता है। पर सच कहूँ ये छोटी-छोटी बातें ही हैं जो मुझे तुम्हारी ओर खींचती रहती हैं। ये बताती हैं कि हम किसी का कितना ख्याल रखते हैं।'
वह उन काजल फैली, प्यार भरी आँखों में डूबकर कहता ही रहता-'तुम्हारी आँखों में काजल का होना और हमारे मिलने पर इसका बाहर निकलकर फैल जाना ही प्यार है, संजना।' और वह उसके प्यार में खोई उसे सुनती रहती।
एक दिन वह आया। देखा, संजना की आँखों का काजल बाहर फैला हुआ था।
जाने क्या सोचकर वह उन्हीं पाँवों लौट गया और फिर कभी नहीं आया।