कादम्बरी मेहरा का संग्रह "पथ के फूल"

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यथार्थ के धरातल पर मार्मिकता
समीक्षक:डॉ0 गिरीश कुमार वर्मा
कहानी संग्रह मुक्त होती औरत


आधुनिक बोध एवं मानवीय संवेदनाओं को यथार्थ के धरातल पर मार्मिकता के साथ प्रस्‍तुत करने वाली कथाकार कादंबरी मेहरा का दूसरा कहानी-संग्रह ‘पथ के फूल' 14 दिसंबंर-2009 को उ0प्र0 हिंदी संस्‍थान, लखनऊ स्‍थित यशपाल सभागार में लोकार्पित हुआ। इस कहानी-संग्रह में ‘हिजड़ा', ‘एक और परिणीता', ‘धर्मपरायण बुर्जुग', ‘जैटी की सैर', ‘काली मुन्‍नी', ‘हीरे-पन्‍ने का हार', ‘पेशा, भाग्‍य अपना-अपना', ‘टेप का फायदा', ‘मंथर हत्‍या, केंचुली', ‘समझौता' तथा ‘इंकार' शीर्षक से कुल तेरह कहानियाँ संग्रहित हैं। कादंबरी मेहरा का दृष्‍टि का फलक विस्‍तृत है। भारतीय और पाश्‍चात्‍य परिवेश को इन्‍होंने निकट से देखा और समझा है। इस आधार पर इनकी कहानियों का सामाजिक परिवेश बड़ा विस्‍तृत है, जिसे इन्‍होंने अपनी कहानियों में बाखूबी सहेजा है। इन कहानियों की कथावस्‍तु उसी परिवेश की देन हैं। कहानियों के पात्र सत्‍य -असत्‍य, न्‍याय-अन्‍याय, सफलता-असफलता, आस्‍था-अनास्‍था, हास्‍य-रुदन, नैतिकता- अनैतिकता, आदि नाना प्रकार सरोकारों से वे संधर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। अपने आस-पास के परिवेश से चरित्र खोजना और उसे व्‍यापक सामाजिकता के अंर्तनिहित द्वंद्व में प्रकट करना इनकी विशेषता है।

‘हिजड़ा' एक ऐसी कुरूप, कानी, और बेसहारा तथा पारिवारिक संतापों से त्र.स्‍त लड़की की कहानी है जो नैराश्‍य, कुठा, घुटन, उत्‍पीडन सहते हुए हिजड़ा का पेशा अपना जीवन यापन करती है। कॉलेज के दिनों में एक सहेली द्वारा उसकी बेवशी का मखौल उड़ाया जाता है तो उसकी अंर्तव्‍यथा और गाढ़ी हो जाती है। उस मार्मिकता की व्‍यंजना शब्‍दों में द्रष्‍टव्‍य है-‘‘रागनी की घायल और पनीली हो गई कानी आँख उसे असहाय उपालंब देती हुई घूर रही थी। मुझे अचानक अपनी गाय की याद आ गई जिसकी पूंछ के नीचे कीड़े पड़ गए थे और वह दर्द के कारण मक्‍खियों व पक्षियों को उड़ा नहीं पाती थी। उसकी आँखों की मूक वेदना रागनी की आँखों में उतर आई थी। मुझे दोनों की बेचारगी और छटपटाहट एक जैसी लगी।

पाश्‍चात्‍य देशों के युवावर्ग में व्‍याप्‍त उस भटकाव की ओर ‘पेशा' नामक कहानी लक्ष्‍य करती है जहोँं चमक-दमक, पद-प्रतिष्‍ठा की शर्तों पर जीवन-मूल्‍यों की कोई परवाह नहीं रहती है। रॉनी एक ऐसा ही व्‍यवसायी है जिसकी चारित्रिक झलक उसके सहपाठी आलोक और उसकी माँ के मध्‍य हुए संवादों में आँकी जा सकती है-

‘‘चलिए मै आपको ‘हैपी होम' दिखा लाऊँ। ‘‘तुम जा सकते हो उसमें? मैं और डैडी जा सकते हैं आप नहीं।‘‘ ‘‘क्‍या मतलब ? ‘जो' मुझे इशारे से समझाते हैं वह समलैंगिक जोड़ों के लिए बना क्‍लब है।‘‘ ‘‘ मैं अपने अंदाज में भड़ककर आलोक को डाटती हूँ ‘‘तो तुम क्‍यों गए उसमें? मुझे तो न्‍योता दिया था किसी ने वहाँ मिलने का।‘‘ मेरी जिज्ञासा का पारावार नहीं रहा। ‘‘ऐसा कौन था कंबख्‍त? ‘‘अपना रेहान! ‘‘एक स्‍कैंडिनेवियन के संग नाच रहा था, जिसने लिपिस्‍टिक लगाई हुई थी।

‘‘क्‍या? वो शादीशुदा, चार बच्‍चों का बाप? ‘‘जी! चार बच्‍चों का बाप भी और यह भी? धंधा तो धंधा है। इसमें तो माडलिंग से ज्‍यादा कमाता होगा। सबसे पुरान पेशा ठहरा। प्रोफेशनल तो बन ही गया। आम आदमी के पक्ष को सुने बगैर बल पूर्वक अपराध कबुलवाने और मानवाधिकारों को हनन करने का पुलिसिया ढ़र्रा विकसित देशों में भी व्‍याप्‍त है। इस प्रवृत्ति पर ‘समझौता' नामक कहानी का ताना-बाना बुना गया है। टैक्‍सी ड्राइवर सतवंत सिंह की गाड़ी में कुछ पुलिस वाले बिना भाड़ा दिए यात्रा करते है। वह भाड़ा माँगता है तो अपमानित कर भगा दिया जाता हैं। उदि्‌दग्‍न मन से घर आकर वह एक कटग्‍लास की ऐश ट्रे को जमीन पर पटक देता है जिससे उसकी पत्‍नी ‘जैग' धायल हो जाती है। इस कृत्‍य पर पुलिस उसे पकड़ ले जाती है। जहाँ शारीरिक प्रताड़ना से पुलिस हिरासत में उसकी जब मौत हो जाती है। फलस्‍वरूप खुद को निर्दोष साबित करने के लिए तुच्‍छ हथकंड़े अपना कर वह परिवार के लोगों से समझौता कर लेती है।

सतवंत सिंह के अंतिम संस्‍कार पर पुलिस का उसके और उसके परिवार के प्रति बिरती गई दिखावटी हमदर्दी का नाटक द्रष्‍टव्‍य है-‘‘सतवंत सिंह की अर्थी पुलिस बैंड के साथ गुरुद्वारे लाई गई। पूरी हाई स्‍ट्रीट में एक घंटे के लिए ट्राफिक जाम हो गया, जिसका संचालन ट्राफिक पुलिस ने किया। करीब सौ वर्दीधारी पुलिस कर्मचारी अर्थी को घेर कर चल रहे थे। अर्थी को पुलिस की विश्‍ोष काले घोड़े वाली बग्‍घी में रखा गया था। उसके पीछे काली रोल्‍स रॉयस गाड़ी में छिंदो, जैग, मौली और मक्‍खन सिंह बैठे थे। चार और काली गाड़ियाँ साथ लगी थी जिनमें सीनियर पुलिस अफसर बैठे थे। इस प्रकार इस कहानी में कथाकार ने पुलिस के चेहरे पर चढ़े हुए मुखौटे की पर्त दर पर्त को उकेरा है। यहाँ कथाकार व्‍यंग्‍यकार की भूमिका में आकर समाज विरोधी तत्त्वों की भर्त्‍सना करती है। इसके अतिरिक्‍त नियमों-कानूनों का पालन बिना किसी भेदभाव के सभी पर समान रूप से किया जाना चाहिए इसकी बात की इस कहानी में व्‍यंजना हैं।

संकलन की अन्‍य भी कहानियाँ देश, काल और परिस्‍थिति के अनुकूल घटना-क्रम का ताना-बाना बुनती हैं। इनमें व्‍याप्‍त स्‍वाभाविकता, सजीवता और मार्मिकता पाठकों के मन-मस्‍तिष्‍क पर गहरा प्रभाव छोड़ने में सक्षम है। इनकी भाषा सरल और मुहावरेदार है। भावों के अनुकूल वाक्‍य यात्रा करते हुए कहीं छोटे हैं तो कही लम्‍बे हैं। वाक्‍यों में यथास्‍थान प्रयुक्‍त वाग्‍वैदग्‍ध्‍य विषय को पैना और प्रभावकारी बनाते हैं। संवादों में पात्रों के मनोंभावों के अनुकूल देशज एवं तद्‌भव शब्‍द यथा-गोरू, बेर, बियाही, किन्‍ने, टटपुंजियों, कड़ियल, मरजाना, मुए आदि स्‍वाभाविकता की अविवृद्धि में सहायक है। ‘पथ के फूल' की कहानियाँ न तो सुधारवादी है और न आदर्शवादी। वस्‍तुतः ये कहानियाँ यथार्थ टेढ़े-मेढ़ी राह पर निर्गमन कर विसंगतियों भरे जीवन के कच्‍चे चिठ्‌ठों को उद्‌धाटित करने में सफल हुई हैं। आशा है ‘पथ के फूल' का साहित्‍य-जगत्‌ में स्‍वागत होगा और कथाकार कादंबरी मेहरा को यशः-कीर्ति का भागीदार बनाएगा।

--- संपर्क ः 1/388-विकास नगर, लखनऊ-226922 सचलभाष - 09336089753

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