कानपुर टु कालापानी / भाग 10 / रूपसिंह चंदेल

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सरजू उन्नाव से लगभग आठ- नौ मील निकल गया था। सड़क के किनारे एक घने बरगद के पेड़ के नीचे हरी घास का गद्दा उसे दिखाई दिया। उसने कुछ देर विश्राम कर लेने का विचार किया। सिर के नीचे कपड़ों का थैला रखकर लेट गया। आंखें बंद कर लीं। निकट अतीत ने उसे पुनः आ घेरा।

सौतेली माँ और नन्हकू के जाने के बाद घर में अकेले उसका दम घुटने लगा था।जीवन का कोई सहारा भी नहीं था। पैसे भी नहीं थे कि वह कोई काम शुरू कर लेता। पिता की सारी कमाई और ज़ेवर आदि कीमती सामान लछिमी साथ मायके ले गयी थी। घर खाली था। कुछ बरतन और कुछ दिनों के लिए आनाज बचा हुआ था। एक दिन उसने मसवानपुर जाकर रहने का विचार किया। ’वह घर मेरे बाप-दादा का भी है और खेत भी हैं बापू के. दादा ने दुर्गा और शिव चाचा के बच्चों को दे दिया तो क्या मेरा अधिकार तो तो उन्हें मानना ही होगा।’ उसने सोचा और घर को ताला बंद करके वह मसवानपुर जा पहुँचा। उसे आया देख सभी प्रसन्न हुए. उसने उस कोठरी में अड्डा जमाया जिसमें उसके दादा महीपन रहते थे।

“क्या सोचा बेटा तुमने?” एक दिन सुजान सिंह ने उसे पास बैठाकर पूछा।

“दादा, समझ नहीं आ रहा क्या करूं। रानी घाट का घर काटने को दौड़ता है इसलिए यहाँ आ गया। सोच रहा हूँ कि दादा जी के खेतों में काम करूं।”

“हूँह” इतना ही बोले सुजान सिंह और गंभीर हो गए.

सरजू सुजान सिंह के चेहरे की ओर देखता रहा देर तक। बोला, “दादा जी, मैं यह भी सोच रहा हूँ कि एक बीघा खेत बेचकर एक गोई बना लूं और ।”

उसकी बात बीच में काट बोले सुजान सिंह, “अरे, तुम्हारी उमिर ही का है बेटा। किसानी बहुत ही कठिन काम है। कोई हंसीखेल न है। तुम देखते हो न अपने दोनों चाचाओं को किस प्रकार रात दिन लगे रहते हैं। तुम्हारी उम्र अभी खाने खेलने की है, लेकिन भगवान को वह सब मंजूर नहीं था। अच्छा खासा परिवार उजाड़ दिया। “ इतना कहकर वह चुप हो गए.

सरजू सुजान सिंह के चेहरे की ओर देर तक देखता रहा, फिर बोला, “दादा जी, आप ही बताओ मुझे क्या करना चाहिए!”

“चाहो तो यहाँ रहते हुए दुर्गा और शिव के साथ कुछ खेती का काम संभालो और चाहो तो रानी के यहाँ जाकर उनकी मदद करो। जसवंत अकेले हैं। उनके पास खेत भी बहुत हैं उन्हें शायद तुम्हारी अधिक ज़रूरत होगी।”

“जसवंत को शायद तुम्हारी अधिक ज़रूरत होगी” सुजान सिंह के इन शब्दों से सरजू अवाक उनके चेहरे की ओर देखने लगा। सुजान सिंह का चेहरा भावहीन था। वह समझ नहीं पाया कि उसके दादा के छोटे भाई कहना क्या चाहते थे। तभी वहाँ दुर्गा प्रसाद आ पहुँचे।

“आप दोनों किस मसले पर चेहरों पर गंभीरता ओढ़े हुए हैं?” दुर्गा ने बैलों को खूंटों से बाँधते हुए पूछा।

दोनों ही चुप रहे।

बैलों को बाँध उनकी पीठ पर हाथ फेर दुर्गा भी पास आ बैठे। “क्या गुफ़्तगू हो रही है दादा-पोते में?”

“सरजू की समस्या है। यह कुछ करना चाहता है, लेकिन उम्र इतनी नहीं कि कोई बड़ा काम कर सके.” सुजान सिंह ने चेहरे पर भावहीनता ओढ़े हुए ही कहा।

“क्या करना चाहते हो सरजू?” दुर्गा ने पूछा।

“सोच रहा हूँ कि अपना एक बीघा खेत बेचकर गोईं बना लूं और अपने खेतों में किसानी शुरू करूं।”

“क्या बे सिरपैर की बातें सोचते हो तुम। अरे तुम्हारी उम्र अभी इस लायक नहीं है।” सुजान सिंह के स्वर में खीज स्पष्ट थी।

देर तक वहाँ सन्नाटा छाया रहा। अंततः दुर्गा बोले, “सरजू, तुम्हें शायद पता होगा और नहीं है तो बता दूं कि तुम्हारे दादा जी और बिपिन भइया ने अपने हिस्से के या कहूँ तुम्हारे हिस्से के खेत हम दोनों भाइयों को दे दिए थे। उनकी दाखिल खारिज भी हो चुकी है। अर्थात वे खेत अब हम दोनों भाइयों के नाम हैं। उससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता । वे अभी भी तुम्हारे ही हैं, लेकिन असली बात यह है कि तुम अलग गोईं बाँधों और खेतों में हल चलाओ इससे इस घर की नाक कटेगी,क्योंकि तुम्हारी उम्र कम है। बस जानवरों की साज-संभाल लायक है। गाँव वालों को हम क्या उत्तर देंगे। इसलिए यह विचार तो तुम त्याग ही दो।” क्षणभर के लिए रुके दुर्गा प्रसाद , “बाकी यह न सोचना कि हम तुम्हारे दादा के खेतों में कब्जा करने के उद्देश्य से यह कह रहे हैं। दाखिल खारिज हो गई तो क्या?। लेकिन अभी तुम इस झंझट में मत पड़ो। खाओ और जो तुमसे बन पड़े घर के कामकाज में हाथ बंटा दो। निराई-गुड़ाई कर दो, जानवरों के लिए सानी-पानी कर दो बस। जब सत्रह –अठारह के हो जाना तब सोचा जाएगा कि तुम्हे क्या करना है।”

दुर्गा प्रसाद सिंह की बात को गंभीरता से सुनता रहा सरजू। बोला कुछ नहीं। वह उनके भाव समझ रहा था। वह स्पष्ट कर चुके थे कि उन खेतों में अब उसका कोई अधिकार नहीं है।

“मैंने इसे सुझाव दिया है कि जसवंत के पास बहुत खेत हैं। यदि खेती करने का ही शौक है तो जसवंत का हाथ बंटाए. बहन को भी आसरा मिलेगा। पिता के जाने से वह भी दुखी होगी।”

दुर्गा चुप रहे। लेकिन सरजू ने अपने दादा के छोटे भाई के बदले रुख को समझने में देर नहीं की। वह एक शब्द नहीं बोला और उसने उस क्षण निर्णय किया कि उसे उसी क्षण बहन के यहाँ के लिए प्रस्थान कर देना चाहिए. वह कोठरी में गया। अपने कपड़े थैले में भरे और बाहर निकल सुजान सिंह और दुर्गा प्रसाद सिंह के पैर छुए और सड़क पर आ गया।

“अरे, खाना तो खा लेता कबूतर।” दुर्गा ने कहा।

“भूख नहीं चाचा” बिना मुड़े हुए ही सरजू ने उत्तर दिया और आगे बढ़ गया।

“जाने दो दुर्गा। बाप के विपरीत स्वभाव पाया है इसने। बड़ों के प्रति इसके मन में कोई इज़्ज़त नहीं।” सुजान सिंह बोले, “हमने कोई ग़लत सलाह दी?” गली में मुड़ते हुए सरजू ने सुना और वह तेजी से बारामऊ की ओर बढ़ गया।

सरजू ने शंकर सिंह के पैर छुए तो उन्होंने मुड़कर देखा,”अरे तुम!” उस समय शंकर सिंह घर के बाहर बनी चार-दीवार पर बैठे सामने खड़े गाँव के एक व्यक्ति से जमींदार के बारे में चर्चा कर रहे थे। जमींदार पड़ोसी गाँव समयपुर में रहता था।

“बैठो बबुआ और घर जाना चाहो तो अंदर चले जाओ बहू घर में है।” शंकर सिंह विधुर थे। उनकी पत्नी की मृत्यु जसवंत की शादी से तीन साल पहले हो चुकी थी। प्रायः वह लुंगी पर बंडी पहनते थे और उस समय भी उन्हीं कपड़ों में थे।

“बप्पा, मैं भी यहीं बैठ लूं?” सरजू ने ससंकोच पूछा।

“बैठो, हम जमींदार के बारे बातें कर रहे थे।”

सरजू चुप रहा।

“तो ठाकुर साहब, इस हरामी जमींदार मंगत सिंह ने उसे इतना मारा कि वह अधमरा हो गया। उसे खटोली में लादकर सचेंड़ी के डॉक्टर के पास ले गए. लेकिन वह रास्ते में ही चल बसा।” गाँव के उस व्यक्ति ने कहा।

“बात क्या थी?”

“बड़ी शर्मनाक बात है कछवाह साहब।”

“बताओ भी”

शंकर सिंह और गाँव के उस व्यक्ति को बात करता देख शंकर सिंह का पड़ोसी भी बिना कांछ की लुंगी पर बनियायन पहने आ खड़ा हुआ। “का हुआ?” आते ही उसने पूछा, लेकिन न शंकर सिंह ने उसकी बात का उत्तर दिया और न ही उस व्यक्ति ने। पड़ोसी चार-दीवार पर दाहिना पैर रखकर खड़ा हो गया।

“हुआ यह कि समयपुर के चतुरी कोरी की चार दिन पहले शादी हुई थी। आप तो जानते ही हैं इन हरामखोर जमींदारों को जमींदार ही क्यों इनके मुंशियों को भी इनका आतंक कितना है हम जैसे ठाकुर बाम्हनों पर तो जिन्हें समाज ने नीचे दर्जे पर रखा है उनके बारे में तो कहना ही क्या। उन्हें तो ये सब जानवर से कम नहीं मानते।”

बीच में टोका उस आदमी को शंकर सिंह ने और बोले, “जमींदार और उनके दीवान-मुंशी ही क्यों अपने को ऊँचा समझने वाले हम लोगों ने भी क्या कभी उन लोगों को इंसान का दर्जा दिया? उनके साथ कभी अपनत्व के दो शब्द बोले। उन लोगों को इस देश के ऊँची जातिवालों ने गुलाम से कम नहीं समझा। सुना था कि कभी इस देश में भी गुलाम हुआ करते थे। अब तो सारा देश ही गुलाम है इन अंग्रेजों का लेकिन तब जिन्हें आप नीची जाति कह रहे हैं उन्हें हम ऊँची जाति वाले गुलाम मानते थे। आज वे तिहरे गुलाम हैं। अंग्रेजों के गुलाम तो हैं ही इन जमींदारों और बाक़ी ऊँची जाति वालों के भी गुलाम हैं।” क्षणभर के लिए रुके शंकर सिंह फिर बोले, “और उन्हें यहाँ तक पहुँचाने का षडयंत्र ब्राम्हणों ने किया। ब्राम्हणों ने देश को केवल अपने हितों के लिए जाति-पांत में बांटा। सभी को नीचा समझा “

शंकर सिंह की बात पूरी होने से पहले ही उनका पड़ोसी, जो एक ब्राम्हण था, बोला, “ कछवाह साहब, यह सब आपके दिमाग़ की उपज है। जो हम ब्राम्हणों ने नहीं किया वह यह सब कहकर आप कर रहे हैं।”

“पंडित जी, सच बहुत कड़वा होता है। मैं तो नहीं रहूँगा, लेकिन यह तय मानें कि देश एक दिन ज़रूर आज़ाद होगा और तब जिन्हें हमारे समाज ने, खासकर आप पंडितों ने घूर समझ वैसा ही व्यवहार किया आप यक़ीन मानें वे एक दिन ऊँच जाति वालों को उनकी औक़ात ज़रूर बताएगें।”

“तो आप उनके साथ अपना रिश्ता क्यों नहीं जोड़ते। क्यों नहीं आपने जसवंत का विवाह इन नीचों की किसी लड़की के साथ किया था?” खिसियाकर पड़ोसी ने अपना दाहिना पैर दीवार से हटाया और बुदबुदाता अपनी चौपाल की ओर बढ़ने लगा, “चले हैं समाज सुधारने पहले हग कर सही ढंग से सौंचना तो सीख लो ठाकुरो फिर बोलना कुफ्र ब्राम्हणों के खिलाफ। अरे न तुम्हारा कभी उद्धार होगा और न उन नीच जातियों का जिनकी तरफदारी कर रहे हो कान खोलकर सुन लो ठाकुर। ब्राम्हण सदा ऊँचे रहे हैं –सदा पूजे जाते रहे हैं और पूजे जाते रहेंगे।”

शंकर सिंह मुस्कराते रहे, फिर धीरे से बोले,”पंडित नाराज हो गया। लेकिन जो सच है वही कहा मैंने ऎसे में चुन्ने तो लगेंगे ही। खैर तुम कहो क्या किया उस मंगत हरामखोर ने?”

“किस्सा पुराना है। ये इन जातियों की नयी ब्याहताओं पर पहले अपना अधिकार चाहते हैं। वही कहा उस कोरी युवक से। लड़की ब्याहकर घर आयी ही थी कि मंगत का एक गुण्डा उसके घर पहुँचा और बोला, “जमींदार साहब ने उसे याद किया है। लड़के के बाप को समझते देर न लगी। बोला, मैं चलता हूँ। अभी दुल्हन और दूल्हें के कुछ नेकचार बाक़ी हैं।”

“मालिक ने आपके बेटे को बुलाया है उसी को भेजो मेरे साथ। गाँव में रहना है तो जाना ही पड़ेगा।”

लड़का मंगत सिंह के सामने हाज़िर हुआ।

“शादी करके आया है?” मंगत ने मूंछे ऎंठते हुए पूछा।

“जी मालिक”

“अपनी बहू के लिए लिए ये साड़ी और यह मिठाई ले जा। मुझे ख़ुशी हुई तेरी शादी से। मेरी ओर से उसे यह साड़ी देना।” मंगत सिंह ने गुण्डे की ओर इशारा किया कि वह साड़ी और मिठाई उस युवक को दे दे। गुण्डे ने आज्ञा का पालन किया। युवक ने नीचे झुककर जोहार की और साड़ी और पोटली में बंधी मिठाई लेकर चलने को हुआ कि मंगत सिंह की गरजती आवाज़ उसे सुनाई दी, “घरवाली को यह साड़ी पहनाकर रात हवेली में छोड़ जाना।”

युवक का खून खौल उठा। मिठाई की पोटली और साड़ी मंगत सिंह की ओर उछालकर फेंकते हुए चीखकर बोला, “बहुत हुआ जमींदार साहब आपने हम लोगों पर बहुत ज़ुल्म कर लिया। लेकिन अब नहीं। वह मेरी पत्नी है और वह यहाँ नहीं आएगी।”

युवक की बात सुनना था कि मंगत सिंह ने अपने गुण्डे की ओर इशारा किया और बस उसने युवक पर ताबड़-तोड़ लाठिया भांजना शुरू कर दिया। युवक चीखता रहा। लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था। लोग अपने दरवाज़े खड़े तमाशा देखते रहे, लेकिन उसे बचाने कोई नहीं आया। उसे अधमरा जान खटोली में डाल मंगत के दो गुण्डे उसे उसके दरवाज़े पटक आए. घर में कोहराम मच गया और फिर आगे की बात बता ही चुका हूँ।”

“अंग्रेजों के टुकड़ों पर पलने वाले इन लोगों का सत्यानाश हो।” क्रोध से कांपते हुए शंकर सिंह बोले और दीवार से उतर पड़े। “मन कसैला हो उठा शिवचरन। चलो तुम भी ।” पीछे मुड़कर उन्होंने सरजू की ओर देखा और ऊँची आवाज़ में बोले, “अरे सरजू, तू रो रहा है मेरे बच्चे।”

सरजू ने आंखें पोंछ लीं और बोला, “बप्पा जो सुना उससे आंसू अपने आप बह आए. उस नयी ब्याहता को क्या मिला। इतना ज़ुल्म कब तक ई अंग्रेज और जमींदार हम सबको लूटते रहेंगे!”

“बेटा कभी न कभी अंत तो होगा ही। कंस का अंत एक दिन हुआ था न तो इनका भी तय है।”

“पता नहीं।” सरजू अपना थैला लेकर उठ खड़ा हुआ।

“चल घर के अंदर चल। बहू को तेरे आने की ख़बर ज़रूर हो गयी होगी।” शंकर सिंह चौपाल की ओर बढ़ गए और सरजू ड्योढ़ी लांघ घर के अंदर दाखिल हुआ।