कानपुर टु कालापानी / भाग 11 / रूपसिंह चंदेल

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सरजू से दादा सुजान सिंह और दुर्गा प्रसाद चाचा की बातें सुनने के बाद रानी बोली, “तुम्हें अब कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। यहीं रहो। इन्हें (उसका आभिप्राय पति से था) भी सहारा होगा और मेरा भी मन लगा रहेगा।” अपने बेटे की ओर इशारा करके बोली, “कल्लू भी तुम्हें देखकर देखो कितना ख़ुश होता है। हिल जाएगा तो तुम्हें छोड़ेगा नहीं।”

रानी का बेटा सांवला था, जबकि रानी गोरी थी। लेकिन जसवंत सिंह का रंग दबा हुआ था। इसलिए बच्चे को घर में सभी कलुआ या कल्लू बुलाने लगे थे ।

सरजू ने कल्लू को गोद में उठा लिया और उसे प्यार करते हुए बोला, “मैं भी यही सोचता हूँ। महीना-पन्द्रह दिनों में रानी घाट चला जाया करूंगा जिससे मकान की देखभाल होती रहेगी। कभी तुम भी चल दिया करना और हम हफ्ता दस दिन रहकर लौट आया करेंगे।”

“मैं“ रानी कुछ सोचती रही, “तुम देख रहो हो न कि यहाँ किसानी का कितना काम है। गाय और दो भैंसे हैं। उनके लिए इन्होंने मज़दूर रखा हुआ है, लेकिन जब तक मैं न देखूं तब तक कुछ न हो। वह गोबर फेंकता है। जानवरों के नीचे सफ़ाई कर देता है और चारे का इंतज़ाम करता है। उस बेचारे को भी बहुत काम होता है। दिन चढ़ने के साथ उसे इनके साथ खेतों में काम करने जाना होता है। “

“कोई नहीं मैं आ गया हूँ संभाल लूंगा।”

“मेरी शादी के बाद से इन्होंने बप्पा को काम करने से रोक दिया है। वह अब केवल खेतों के चक्कर लगा आते हैं।”

“बूढ़े हो चुके हैं –कब तक काम करेंगे बप्पा” सरजू बोला और कल्लू को लेकर बाहर निकल गया।

सरजू ने जसवंत के खेतों का बहुत-सा काम संभाल लिया। बैलों,गाय और भैंसों की सानी-पानी से लेकर खेतों में मजदूर, जिसे हलवाहा कहते थे, के साथ वह काम करने लगा था। सरजू के हाथ बटानें से जसवंत ने भी हाथ ढीले कर दिए और धीरे-धीरे ऎसी स्थिति बन गयी कि सरजू का अधिकांश समय खेतों में बीतने लगा। उसने बहनोई से कहकर उनके चार बीघे खेतों में स्वयं फ़सल बोने और उसे संभालने का जिम्मा लिया। गाँव के चलन के अनुसार ऎसी स्थिति में तिहाई हिस्सा जोतने,बोने और सहेजने वाले को मिलता था और यदि बोने का आनाज खेत मालिक देता और खाद का पैसा भी तब फ़सल तैयार होने पर वह उससे उसकी भरपाई कर लेता था। लेकिन सरजू जसवंत का साला था इसलिए शंकर सिंह ने कहा, “इस बहाने सरजू तुम हिलगे रहोगे और जो भी फ़सल होगी उसमें से आधा भाग तुम लेना। मैं चाहता हूँ कि इस प्रकार फसल-दर फ़सल तुम मेहनत करके इन चार बीघे खोतों में काम करते रहो और अपना हिस्सा संभाल कर रखते रहो , जो अपनी गृहस्थी बसाने के समय तुम्हारे काम आएगा।”

शंकर सिंह की बातें सुनकर सरजू प्रसन्न था। वह कर्मठ किशोर था। भैंसों और गाय की जिम्मेदारी उसने संभाल रखी थी इसलिए सुबह शाम एक सेर से लेकर डेढ़ सेर दूघ उसे मिलता था। शंकर सिंह के घर दूध बेचा नहीं जाता था। उनकी एक भैंस और गाय दूध देती थीं। जब तक एक भैंस दूध देना बंद करने वाली होती दूसरी देने के लिए तैयार हो जाती थी। इस प्रकार उस घर में दूध का ड्योढ़ा बना रहता था।

दूघ-घी मिलने और शारीरिक श्रम करने से सरजू का शरीर मज़बूत होने लगा था। उसका शरीर गठीला था। गाँव में रहमत पहलवान का अखाड़ा था। गाँव के कई युवक रहमत की शागिर्दी में पहलवानी करते थे। वे सुबह शाम अखाड़ा में पहुँच जाते और दण्ड बैठक, मुग्दर भांजने से लेकर अन्य व्यायाम करते और कुश्ती लड़ना सीखते। सरजू ने शंकर सिंह से अखाड़ा जाने की अनुमति मांगी। सुनकर बोले शंकर सिंह, “इसमें पूछने की क्या बात सरजू बेटा। मैं ख़ुद चलकर रहमत को बोलूंगा।” और उसी दिन शाम सरजू को लेकर वह रहमत खां के पास गए थे।

रहमत और शंकरसिंह कभी एक ही अखाड़े के पहलवान रहे थे। वह अखाड़ा था रहमत के पिता सलामत खां का। अखाड़ा वही था। रहमत खां के पुरखों के समय से उस अखाड़े में पहलवान तैयार किए जाते रहे थे। यह उस परिवार का शौक था। रहमत के परिवार के पास अच्छी खेती थी और घर में काम करने वाले दस हाथ थे। वे लोग जमकर परिश्रम करते। अच्छी पैदावार होती। पीढ़ियों से उस घर में दूघ-घी की कमी नहीं रही थी। यही कारण था कि पुरखों से घर के नौजवान कुश्ती लड़ने-लड़ाने-सिखाने का शौक पाले हुए थे।

“आओ ठाकुर साहब, बहुत दिन बाद इधर आए!” शंकर सिंह को देखते ही रहमत बोले, जो उन दिनों पचास साल के लगभग हो रहे थे। शंकर सिह उम्र में रहमत से चार-पांच साल ही बड़े थे।

“आज इधर रास्ता कैसे भूल गए?” कोई उत्तर न पाकर रहमत बोले।

“आप सच कहते हैं रहमत भाई. गाँव के इस ओर आना ही नहीं हो पाता।”

“छोटा गाँव है ठाकुर साहब। आध घण्टा में पूरा गाँव घूमा जा सकता है। लेकिन होता है ऎसा आदमी गृहस्थी में फंस जाता है तो समय नहीं निकाल पाता।”

“जब से जसवंत की शादी की गृहस्थी के कामों से अपने को अलग कर लिया। बहू बहुत अच्छी है आते ही घर संभाल लिया। खेती का काम पहले भी जसवंत देखता था। अब यह बालक भी उसका हाथ बटाने लगा है।”

“यह?”

“यह जसवंत का साला है सरजू”

“बैठो लाला” सरजू तब तक खड़ा हुआ था जबकि अपने लिए बिछाई गई चारपाई में शंकर सिंह बैठ गए थे।

सरजू चारपाई पर शंकर सिंह के पायताने बैठ गया। वह भी गाँव के पश्चिम छोर की ओर कभी नहीं गया था। उस गाँव में रहमत खां का घर अकेला मुस्लिम घर था। उनके खेत गाँव के पश्चिम छोर पर गाँव के किनारे से शुरू होते थे और दूर तक फैले हुए थे। खेतों के बीच लगभग पांच बीघे में फैला उनका बाग़ भी था, जो घर से साफ़ दिखाई देता था। घर से कुछ हटकर खेतों के निकट रहमत खां का अखाड़ा और जानवरों का बाड़ा था। उस समय वह अखाड़े के बाहर चारपाई डाले धूप सेंक रहे थे। पौष का माह था और मौसम में खासी ठंडक थी। वहाँ ठंड इसलिए भी अधिक थी क्योंकि उनके खेतों में पुराही से सिंचाई की गई थी।

“रहमत भाई, मैं चाहता हूँ कि आपकी शागिर्दी में सरजू पहलवानी सीखे। सुबह तो नहीं आ पाया करेगा शाम आप इसकी ओर ध्यान दें।”

“मेरी ख़ुशनसीबी ठाकुर साहब कि मैं इस बच्चे को किसी काबिल बना सकूं। मैंने जसवंत के लिए भी आपको कहा था, लेकिन ”

“घर के हालात ऎसे थे कि मैं उसे आपकी शागिर्दी में नहीं ला सका। उसकी माँ की मृत्यु के बाद हम ही दोनों घर में रह गए थे। माँ थीं तो वह घर भी देखती थीं और मेरे साथ खेतों की चिन्ता भी कर लेती थीं। खेतों में काम नहीं करना होता था, लेकिन काम कर रहे मजदूरों के साथ रहना भी ज़रूरी होता है भाई.”

“मैं जानता हूँ ठाकुर साहब। बहुत नेक दिल थीं बेचारी। लेकिन ख़ुदा के सामने किसका वश चलता है। मुझे जानकारी है कि आपका बेटा भी आप दोनों के नक़्शेकदम पर है। गाँव में उसकी तारीफ ही सुनता हूँ।”

“ आप मित्रो की दुआएँ रहमत भाई.”

“इस बेटा के अब्बा क्या करते हैं?”

“अब्बा नहीं रहे रहमत भाई. सौतेली माँ और सौतेला भाई था, लेकिन वह भी इसे अकेला छोड़कर अपने मायके चली गयीं। आप समझें कि मेरे लिए सरजू और जसवंत में कोई अंतर नहीं है।”

“जैसी ख़ुदा की मर्जी भाई.” रहमत ने दोनों हाथों को बाँधा और आसमान की ओर उठाकर कहा, फिर सरजू की ओर उन्मुख होकर बोले, “बेटा, आज शाम से ही आ जाओ अखाड़े में मैं यहीं मिलूंगा।”

“जी चाचा।” सरजू बोला और झुककर रहमत खां के पैर छू लिए.

“अरे लाला।” रहमत इतना ही कह सके.

“आप इसके गुरु हुए –उस्ताद “

मुस्करा दिए रहमत खां।

उस दिन के बाद सरजू नियमित शाम उस्ताद रहमत खां के अखाड़े में जाने लगा था। शुरू में पचास दण्ड और पचास बैठकों से शुरू हुआ उसका प्रशिक्षण समय के साथ धीरे धीरे बढ़कर एक हज़ार तक पहुँच गया था।

सरजू माह में एक बार तीन-चार दिनों के लिए रानी घाट वाले घर अवश्य जाता था। तभी एक दिन उसने गंगा में स्नान करके उसी शाम लखनऊ जाकर गोमती में शाम स्नान करने और अगले दिन गोमती में स्नान करके फिर शाम गंगा स्नान करने का निर्णय किया था। इस प्रकार वह पैदल चलने का अभ्यास करना चाहता था और ऎसा करते हुए उसने कभी अपने को थका हुआ नहीं पाया। इस प्रकार वह अपनी शारीरिक क्षमता को आंकता था।