कानपुर टु कालापानी / भाग 12 / रूपसिंह चंदेल
जब सरजू गोमती के निकट पहुँचा, शाम ढलने को थी। कुछ विलंब हो चुका था। लेकिन सूर्यास्त होने में देर थी। वह सीधे कुदिया घाट पहुँचा। लखनऊ में गोमती किनारे यह अति प्राचीन घाट है। उसने सुना था कि ऋषि कौण्डिल्य ने उस स्थान पर अपना आश्रम बनाया था। प्रारंभ में उस घाट का नाम कौण्डिल्य घाट पड़ा जो बाद में बिगड़कर कुदिया घाट कहा जाने लगा। वह एक सुन्दर घाट था। छतरियाँ और स्नान के लिए अनेक सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। इस घाट का धार्मिक महत्त्व भी था, जो घाट पर रहने वाले एक संत ने उसे बताया था।
घाट पर पहुँच सरजू ने एक चबूतरे पर, जिससे सीढि़याँ नीचे स्नान करने के लिए बनी हुई थीं, अपना थैला रखा। कपड़े उतारे और लुंगी पहने हुए स्नान के लिए सीढ़ियों से नीचे उतर गया। वह तब तक स्नान करता रहा जब तक सूर्य अस्त नहीं हो गया। अस्त होते सूर्य की लाल रोशनी ने नदी के जल को रक्ताभ कर दिया था। यह दृश्य सरजू को मोहित करता था। नदी से बाहर आकर सीढ़ी पर खड़ा हो उसने शरीर का पानी निचुड़ जाने दिया। लुंगी के पानी को स्वयं निचोड़ा और ऊपर चढ़कर थैले के पास पहुँचा। थैला उठा वह एक छतरी में गया और वहाँ आड़ लेकर उसने अपनी लुंगी बदली। कुर्ता पहना और उन्हीं संत की कुटिया की ओर चल पड़ा जहाँ वह हर बार जाता था। संत का नाम तारकनाथ था। उनकी कुटी तट से कुछ दूर पर थी। सूर्यास्त हो चुका था। नदी में अँधेरा उतरने लगा था। दूर नदी में कुछ दीपक टिमटिमाते तैरते दिखाई दिए सरजू को।
संत तारकनाथ सरजू को पहचानते थे। उस समय वह भक्तों के आने के लिए अपने एक शिष्य से दरी बिछवा रहे थे। कुटी के बाहर खुला मैदान था। मिट्टी में रेत का प्रभाव था। उस खुले स्थान को संत के एक धनी भक्त ने, जो लखनऊ का एक व्यवसायी था, ईंटों से घिरवा दिया था। दीवार चार फुट ऊँची थी। दीवार के साथ और खुले स्थान में उसने आम, नीम आदि के पेड़ लगवा दिए थे। संत तारकनाथ ने स्वयं कुछ वनस्पतियों के पौधे लगाए थे, वे पौधे जो अनेक रोगों के उपचार में काम आते थे।
तारकनाथ की कुटी से सटी एक और कोठरी थी, जिसमें उनके दो शिष्य रहते थे, जिनकी आयु बीस से पचीस वर्ष के लगभग थी। जब सरजू संत के उस खुले मैदान में प्रविष्ट हुआ, उनके दोनों शिष्य उसे बुहार रहे थे। मौसम साफ़ था और गर्मी थी, लेकिन कम। यह होली के बाद का मौसम था। हवा में ठंडक थी, लेकिन हवा इतनी भी ठंडी न थी कि खुले आसमान के नीचे बैठा न जा सके. लखनऊ के लोगों में उसे तारकनाथ का आश्रम कहा जाता था। सरजू भी उसे आश्रम ही मानता था।
प्रतिदिन उस खुले मैदान में शाम होने के बाद संत के भक्त एकत्रित होते थे। उनमें कुछ शहर से आते तो कुछ आसपास के गांवों से। यहाँ तक कि कुछ नदी पार के गाँव से नाव द्वारा वहाँ आते थे और नियमित आते थे। रात देर तक तारकनाथ उन्हें धार्मिक प्रवचन दिया करते। कुटी के बड़े से आले में कड़वा तेल की ढिबरी जलती रहती, जिससे लोग कठिनाई से एक दूसरे के चेहरे देख पाते थे।
सरजू को देख तारकनाथ मुस्कराए, “आज फिर तुम्हें गोमती माँ ने बुलाया।”
संत के चरणों में प्रणाम कर सरजू बोला, “जी महाराज। आपके प्रवचन सुनने के लिए भी आया।”
संत ने सिर हिलाया। कुछ देर सोचने के बाद अपने एक शिष्य को आवाज़ दी। शिष्य के निकट आने के बाद उससे बोले, “ यह बालक, सरजू कानपुर से चलकर आया है इसके लिए भी भोजन की व्यवस्था करना है।”
“जी महाराज।”
“जाओ, बेटा उस कोठरी में थोड़ा विश्राम कर लो। भक्तों के आने में कुछ समय है। तुम थके होगे।”
“नहीं, महाराज गोमती में स्नान करते और आपके दर्शन पाते ही थकान दूर हो गयी है।”
संत तारकनाथ सरजू का उत्तर सुन मुस्कराए और सोचा, ’बालक बुद्धिमान है और वाक्पपटु भी।’
“फिर भी जब तक ये मैदान को साफ़ करके दरियाँ बिछाते हैं तुम आराम कर लो।”
“जी महाराज।” संत की आज्ञा को टालना उचित न समझ सरजू कोठरी की ओर चला गया।
सरजू को संत तारकनाथ को सुनना बहुत पसंद था। गोमती में स्नान करने जाने का एक और बड़ा कारण यह भी था। संत का प्रवचन रात दस बजे के लगभग समाप्त होता था। संत रात भोजन नहीं करते थे, केवल दूध सेवन करते थे। प्रवचन समाप्त होने के उपरांत आश्रम में रुकने वालों को भोजन करवाया जाता। इस सबकी व्यवस्था तारकनाथ के शहर के भक्त करते थे। गावों के भक्त किसान भी जब तब आटा और दालें दे जाया करते थे। मौसमी फल और सब्जियाँ भी कुछ किसान अपने साथ लाते। उस दिन तारकनाथ ने घोषणा की कि अगले माह की पूर्णिमा के दिन वह एक भंडारा करना चाहते हैं। उसके लिए उन्होंने शहर के भक्तों को कह दिया है। “आप भक्त भी यथाशक्ति भण्डारा के लिए जो दे सकते हैं दें।” संत की इस घोषणा के उपरांत वहाँ एकत्रित लोगों ने एक स्वर से कहा, “महाराज, आपने हमारे मन की बात की हम अपने गांवों में भण्डारे के लिए धन और अन्न एकत्रित करेंगे।”
प्रवचन समाप्त होने के उपरान्त वहाँ रुके लोगों ने भोजन किया। सरजू ने भी उनके साथ दरी पर बैठकर पत्तल में भोजन किया। भोजन के बाद दो भक्तों को छोड़कर शेष सभी प्रस्थान कर गए. वे दो भक्त दूर गाँव से आए थे और वे नियमित आने वालों में न थे। जब भी वे किसी काम से शहर आते, संत के आश्रम में रात बिताया करते। प्रवचन का आनन्द भी लेते।
सभी के सोने की व्यवस्था कोठरी के बाहर छावन के नीचे दरी बिछाकर की गयी। देर तक सरजू को नींद नहीं आयी। वह सोचता रहा कि उसे भी भंडारे के लिए कुछ व्यवस्था अवश्य करना चाहिए. उसने मन में निर्णय किया कि वह दो मन गेहूँ और दो पसेरी दाल देगा, लेकिन उसका अपना तो कुछ नहीं। वह बहनोई और उनके पिता शंकर सिंह की अनुमति के बिना एक सेर आनाज भी नहीं ला सकता और लाएगा भी कैसे उतना आनाज। फिर उसने संकल्प किया कि वह आनाज लाएगा अवश्य। यदि बहनोई मना करेगें तब वह उस गाँव और आसपास के गांवों में जाकर भंडारे के लिए दान मांगेगा। गाँव वाले ऎसे मामले में दिल खोलकर देते हैं। यदि बापू (वह शंकर सिंह को बापू कहता था) ने हाँ कह दी तब नकद धन के लिए वह दूसरे गांवों में जाएगा अवश्य।
अगले दिन सुबह पांच बजे गोमती स्नान करके और संत तारकनाथ को प्रणाम करके उसने लखनऊ छोड़ दिया।
जब सरजू रानी घाट पहुँचा शाम के छः नहीं बजे थे। समय का अनुमान वह सूर्य के पश्चिम की ओर जाने के आधार पर लगाया करता था। वह सीधे घाट की ओर गया। स्नान करने के बाद घर आया और भोजन के विषय में सोचने लगा। उसे बहुत तेज भूख लगी हुई थी। दिनभर उसने कुछ भी नहीं खाया था। रास्ते भर वह भंडारे के विषय में ही सोचता रहा था। भंडारे के विषय में उसे उसके पिता ने एक बार बताया था, जब वह उनके साथ रावतपुर में भण्डारा खाने गया था कि ऎसे आयोजनों का उद्देश्य लोगों में आपसी भाईचारा पैदा करना होता है। लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। उस समय आपसी भेदभाव और ऊँच-नीच का भाव नहीं रहता लोगों के मन में। न जाति पांत और न ही सम्प्रदाय का भाव।
“यह सम्प्रदाय क्या हुआ बापू?” बहुत ही भोले पन के साथ सरजू ने तब पूछा था।
“सम्प्रदाय माने न कोई हिन्दू होता है वहाँ और न मुसलमान, न सिख और न ईसाई सब एक पंगत में एक साथ बैठते हैं।”
संत तारकनाथ के होने वाले भण्डारे के लिए कुछ करने का भाव उसके मन में कुलांचे मारने लगा था। उसने तय किया कि उस दौरान वह पहले ही आश्रम में जाकर रहेगा और सारा काम समाप्त होने के बाद कानपुर लौटेगा।
उसे गंगा स्नान करके लौटते हुए रामरिख सिंह की पत्नी ने देखा था।वह समझ गयी थीं कि बालक को भोजन की समस्या होगी। घर में पता नहीं कुछ है भी कि नहीं। कुछ देर बाद सरजू के दरवाज़े पर दस्तक हुई. उस समय वह खटोली पर लेटकर दिनभर की थकान मिटा रहा था। सरजू ने दरवाज़ा खोला और सामने रामरिख की पत्नी को पाकर बोला, “चाची आप ।” और आगे बढ़कर उसने उनके पैर छुए. वह इतना ही कह पाया था कि चाची बोलीं,”सरजू तुम्हारे लिए खाना मेरे घर बन रहा है बेटा मैं छोटू को भेजकर तुम्हें बुलवा लूंगी।”
“चाची, आपको कैसे पता चला कि मैं आ गया हूँ”
“चाची सरबबापी हैं सब जानती हैं कि तू कब आया और भूखा है”
“चाची, आप बिना मतलब तकलीफ कर रही हैं। मैं कुछ बना लेता”
“ठीक है बनाना जब चाची न रहेंगी”
“चाची, आप सौ साल रहेंगीं”
चाची मुस्करा दीं, “तुझे बातें बनाना आ गया है।” घर की ओर मुड़ीं और चलते हुए बोलीं, “मैं छोटू को भेजूंगी।”
“जी चाची”
बारामऊ लौटकर सरजू कई दिनों तक इस उहा-पोह में रहा कि वह शंकर सिंह से भंडारे का ज़िक्र करे या जसवंत से। अंततः किसी निष्कर्ष पर न पहुँचकर उसने बहन से चर्चा की। बहन ने सुझाव दिया कि वह बापू से इस बारे में चर्चा करे। वह खुले विचारों के व्यक्ति हैं और ऎसे मामलों में उदार हैं। वह उसकी मदद करेंगे। हो सकता है गल्ले के अलावा उसे पैसों के लिए भी दूसरे गाँव न जाना होगा शायद।
एक दिन वह उस समय चौपाल में पहुँचा जब शंकर सिंह रामचरित मानस का पाठ कर रहे थे।उन्होंने इतना अक्षर ज्ञान पाया हुआ था कि रुक रुककर रामचरित मानस बांच लेते थे। वह किसी विद्यालय नहीं गए थे संगत में उन्होंने अक्षर ज्ञान पाया था।
सरजू के पास आ बैठने से उन्हें लगा कि वह कुछ कहना चाह रहा था। पूछने पर सरजू ने मन की बात कह दी। सुनकर शंकर सिंह कुछ देर चुप रहे फिर बोले, “तुमने जसवंत से बात की?”
“नहीं आपकी बात जीजा भी मानेंगे।”
“ठीक है मैं कहूँगा उसे। तुम क्या देना चाहते हो वहाँ?”
“कुछ नकद और दो मन गेहूँ और दो पसेरी दाल।”
“हूँ”
क्षणभर तक पुस्तक पर नजरें गड़ाए रहने के बाद शंकर सिंह बोले, “लखनऊ पहुँचाओगे कैसे यह सब।”
“जीजा से बैलगाड़ी भी मांगनी होगी।”
“हूँ”
उसी रात शंकर सिंह ने बेटे से सरजू की बात पर चर्चा की। जसवंत पिता के सामने कम ही बोलते थे। वह पिता को सुनते रहे फिर धीमी आवाज़ में बोले, “बापू आप जो चाहो दे दो।” फिर उससे भी धीमे स्वर में कहा, “लेकिन सरजू कहीं यह सिलसिला न बना ले।”
“मैं सरजू को समझा दूंगा।” शंकरसिंह ने बेटे से कहा, “पहला मौका है। धार्मिक काज है। लेकिन तुम्हारी बात भी ठीक है कि यह सिलसिला नहीं बनना चाहिए. हमारी भी तो सीमाएँ हैं।”
एक सप्ताह बाद सरजू ने बैलगाड़ी में दो मन गेहूँ, दो पसेरी अरहर की दाल और पचास रुपए नगद लेकर लखनऊ के लिए सुबह चार बजे ही निकल पड़ा। शाम होने से काफ़ी पहले वह आश्रम पहुँच गया।
“वाह सरजू!” संत तारकनाथ बोले।
सरजू ने रात आश्रम में बितायी और अगले दिन दोपहर बाद बारामऊ लौट गया। भण्डारे की निर्धारित तिथि से दो दिन पहले वह तारकनाथ के आश्रम पहुँच गया और भण्डारा समाप्त होने के दो दिन बाद लौटा था। भण्डारे में उमड़े जन समूह को देखकर वह अचंभित था। हर जाति,धर्म और वर्ग के लोग थे एक साथ भोजन कर रहे थे। सरजू भोजन परोसने वालों में था। दोपहर बारह बजे से प्रारंभ हुआ भण्डारा रात दस बजे के बाद तक चलता रहा था। कोई भी भूखा नहीं लौटा था। कई हज़ार स्त्री-पुरुषों और बच्चों ने भोजन किया था। सरजू इससे बहुत प्रभावित होकर बारामऊ लौटा था।
भण्डारे के लिए जाने या उससे पहले गंगा और गोमती स्नान के लिए जाने के बीच के समय वह जसवंत के साथ खेतों में काम करता रहा था और नियमित अखाड़ा जाता रहा था।