कानपुर टु कालापानी / भाग 13 / रूपसिंह चंदेल

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रहमत खां ने सरजू के दण्ड-बैठकों की संख्या क्रमशः बढ़ाते हुए कुछ माह में ही एक हजारकरवा दी थी। रहमत खां यह देखकर हैरान भी थे। बड़े बड़े पहलवानों का दम उतने में फूल जाता था। लेकिन सरजू उस कम आयु में दम साध सब कर लेता था। रहमत खां ने स्वयं उसे पहलवानी के दांव-पेंच सिखाने शुरू किए. अपने साथ उसे लड़ाने लगे। कुछ महत्त्वपूर्ण दांव-पेंच सिखाने के बाद उन्होंने अपने अन्य शागिर्दों के साथ उसे लड़ने के लिए छो़ड़ दिया और उन्हें निर्देश दिया कि वे उसे एक कुशल पहलवान बनने में साथ दें।

इतने कठिन अभ्यास के लिए सरजू के लिए पौष्टिक आहार और सुबह और शाम दो सेर भैंस के दूध और आध पाव घी की आवश्यकता थी। उन दिनों शंकर सिंह के यहाँ एक ही भैंस दूध दे रही थी। भैंस सुबह शाम चार-चार सेर दूध देती थी। दूध पीने वाले पांच थे। रानी का बेटा भी बड़ा हो रहा था। शंकर सिंह सरजू को रहमत खां के यहाँ पहलवानी के लिए ले तो गए थे और दिल से चाहते थे कि वह अच्छा पहलवान बने। उसे लेकर उनकी अपनी भावी योजना थी। उनके पास चालीस बीघा खेत थे और सभी बहुत ही उपजाऊ। जसवंत के वश में नहीं था उस काश्त को अकेले संभालना। उन्हें खेतों में काम करने वाला एक ताकतवर युवक की आवश्यकता थी और सरजू से अच्छा कौन हो सकता था। अखाड़ा में उतरने के बाद सरजू एक कद्दावर और बलिष्ठ युवक बनकर निकलने वाला था। लेकिन समस्या उसकी खूराक की थी। दूसरी भैंस ब्याने में छः माह थे। इस समस्या का समाधान कैसे हो यह अहम प्रश्न था। इसके समाधान के लिए शंकर सिंह ने बेटे से बात की। जसवंत सरजू को लंबे समय तक साथ रखने के पक्ष में नहीं था, लेकिन स्पष्ट रूप से वह कुछ कहना नहीं चाहता था। पिता की बात सुनकर जसवंत बोला, “बापू, सरजू ज़िन्दगी भर तो यहाँ नहीं रहेगा उसका अपना घर है। बड़ा हो रहा है। आप उसके लिए इतना सब कर रहे हैं। लेकिन कब तक वह यहाँ रहेगा। आख़िर एक दिन उसकी अपनी दुनिया होगी और अपनी गृहस्थी होगी। साल –दो साल रहे और हमसे जो हो रहा है वह हम कर रहे हैं, लेकिन केवल उसके लिए मैं एक नई भैंस खरीद लाउं इसका कोई मतलब नहीं है।”

“मुझे लगता है कि तुम एक बार इस बात पर विचार करो कि तुम्हें घर के ही दो और मज़बूत हाथ चाहिए कि नहीं। मैं अब इस काबिल नहीं रहा।”

“उसकी चिन्ता आप न करें बापू। मैं सब संभाल लूंगा।”

“वह तुम्हारा साला है जसवंत” धीमे स्वर में शंकर सिंह बोले, “मसवान पुर के उसके चचेरे चाचाओं ने उसकी ज़मीन हथिया ली है। आज उसके पास रानी घाट के मकान के अलावा कुछ नहीं है। पास पैसा भी नहीं कि वह कुछ छोटा-मोटा काम कर सके. इसलिए मैं चाहता था कि वह तुम्हारे साथ ।”

पिता की बात बीच में काटकर जसवंत बोला, “बापू, आपने यह कैसे सोचा कि वह सारी ज़िन्दगी इसी घर में रहेगा। कल को आपके पोता-पोती होंगे, वे यह स्वीकार कर लेंगे कि कोई उनके यहाँ पड़ा हुआ है। आप इसे इस रूप में सोचें कि शादी के बाद सरजू के भी बच्चे होंगे तब ?उनके बारे में सोचें।”

सोच में पड़ गए बेटे की बात सुनकर शंकर सिंह।

“तुम बहुत आगे की बात सोचते हो जसवंत, मैंने इतनी दूर की बात नहीं सोची थी।”

“आप भावुक होकर सोचते हैं, जबकि हमें वह सब देखने की ज़रूरत है कि सरजू की ज़िन्दगी को कुछ स्थायित्व मिले। उसके बच्चे सुखी और सम्मान की ज़िन्दगी जी सकें।” जसवंत बोला।

देर तक सोचते रहे शंकर सिंह फिर बोले, “एक काम हो सकता है। हमारे खेतों के साथ जो चरीदा ज़मीन है। ज़मीन किसी की नहीं उसे क्यों न सरजू खेती लायक तैयार कर ले।”

“वह सरकारी ज़मीन है बापू। जमींदार को पता चलेगा तो वह अपने सिपाहियों को भेजकर सरजू की दुर्गति बनवा देगा और वह है सरकार भक्त लंबी जेल होगी सरजू को।”

“जमींदार मुझे जानता है। बहुत ही धूर्त और बदमाश आदमी है, लेकिन गर्ज में गधे को भी दादा कहा जाता है। कहो तो मैं किसी दिन जाकर उससे बात करूं।”

“करने में कोई हर्ज नहीं। ज़मीन बेकार है। लोगों के जानवर चरते हैं और अपने गाँव के ही नहीं भौंती के लोगों के भी आ जाते हैं। उससे मेरे खेतों को नुक़सान होता है। कब तक कोई वहाँ रहकर देखभाल करे। जानवर मेरे खेतों में खुस आते हैं और उन्हें भी चरीदा समझ खाते और रौंदते हैं।”

“कम से कम दस बीघा तो होगी ही।”

“मैंने एक दिन पटवारी से पूछा था, उसने पूरा दस बीघा दस बिस्वा बताया था।”

“फिर किसी दिन जाउंगा जमींदार से मिलने।”

“इतना याद रखेंगे कि जमींदार मंगत सिंह बहुत हरामखोर आदमी है। बहुत ही लालची। आप उसके पास खाली हाथ न जाएँ।”

“फिर?

“जाना, तब मुझे बता देना।”

“ठीक”

लेकिन शंकर सिंह का मंगत सिंह से मिलने जाना टलता रहा और टलता रहा नई भैंस लाना और सरजू की अखाड़े बाजी बदस्तूर चलती रही और चलता रहा हर माह रानी घाट जाना और गंगा-गोमती स्नान का क्रम। सरजू को इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं अनुभव हो रहा था कि उसे पीने के लिए कितना दूध मिल रहा था। एक जुनून की भांति वह घर,खेत और अखाड़ा के लिए समर्पित था।

जसवंत के जिन खेतों को उसने तिहाई में जोता-बोया था, उनमें अच्छी फ़सल हुई थी और उसने उसे कुठिला में भरवा दिया था। ख़ास रूप से उसने कोचिला मिट्टी में गोबर और भूसा मिलाकर स्वयं के लिए दो बड़े कुठिला बनाए थे। एक में जौ-चना, जिसे वहाँ बेझर कहते थे और दूसरे में गेहूँ भरा था। चार मन बेझर था और उतना ही गेहूँ। जसवंत ने उसे सलाह दी थी कि फ़सल के बाद जब आनाज की कीमतें बढ़ें तब वह उस आनाज को बेच देगा और पैसे रानी के पास जमा कर देगा।

“नगद पैसों का मैं क्या करूंगा?” एक दिन सरजू ने पूछा था।

“बहुत काम आएगा। तुम अपना कोई काम कर सकोगे और नहीं भी करोगे तो तुम्हारे विवाह के समय यह सब काम आएगा।”

शरमा गया था सरजू।