कानपुर टु कालापानी / भाग 14 / रूपसिंह चंदेल
कानपुर में स्वदेशी कॉटन मिल बन चुकी थी। सरजू खेती के काम से कतराता नहीं था, लेकिन उसका मन करता कि वह कहीं नौकरी करे। उसने पिता को नौकरी करते देखा था और चाहता था कि वह भी पुलिस में भर्ती हो लेकिन वहाँ से असफल लौटने के बाद वह कहीं और नौकरी के विषय में सोच रहा था। मार्च 1912 में जब वह रानीघाट के अपने मकान में गया तब उसने मिल में जाकर अपना भाग्य आज़मा ने का विचार किया। चार दिन बाद होली थी होली यानी रंग—यानी धुलेंडी. वह 3 मार्च की तारीख थी और दिन था रविवार। कानपुर की होली पूरे देश में प्रसिद्ध है। उन दिनों एक माह पहले लोग रंग खेलना शुरू कर देते थे और होली के बाद भी आठ दिनों तक लोगों में होली का उत्साह बना रहता था। आठवें दिन गंगा मेला का आयोजन होता था और आज भी होता है। उस दिन लोग दोपहर तक रंग खेलते और उसके बाद गंगा स्नान के लिए जाते।
रानी घाट के मकान में पहुँच सरजू ने सोचा कि वह गंगा मेला के बाद स्वदेशी कॉटन मिल जाए, लेकिन जसवंत ने चलते समय उसे कहा था कि सरसों पकने को तैयार है और उसके बाद चना काटना होगा, इसलिए सरजू जल्दी लौट आएगा। सरजू ने दूसरे दिन ही मिल जाने का निर्णय किया। उसने सोचा कि भले ही उसे मज़दूर की नौकरी मिले, लेकिन मिल जाए. वह बहनोई पर निर्भरता समाप्त करना चाहता था। उनके साथ रहने का अर्थ था कि उनके अनुसार चलना। यदि वह कुछ वर्ष भी वहाँ रहा तो उसका अपना निजी व्यक्तित्व समाप्त हो जाएगा। वह इस मामले बेहद जागरूक था और एक स्वतंत्र और निजी जीवन जीना चाहता था। उसे संत समाज के साथ सत्संग पसंद था, लेकिन गाँव में वह संभव न था। गाँव के आसपास टिका कोई साधु-संत उसके विचारों को संतुष्ट नहीं कर पाता था।
अगले दिन सुबह दस बजे के लगभग वह स्वदेशी कॉटन मिल के गेट पर पहुँच गया। गेट पर तैनात दरबान ने पूछा, “किसलिए इधर?”
“नौकरी के लिए” संक्षिप्त उत्तर दिया सरजू ने।
“उमिर का है?”
“चौदह साल।”
“बबुआ अबहीं तुम बहुत छोट हौ चार साल बाद आयो।”
“उम्र से क्या मुझमें ताकत की कमी नहीं। हज़ार दण्ड और हज़ार बैठक मारता हूँ। मुग्दर भांजता हूँ और पहलवानी करता हूँ।”
तभी एक दूसरा दरबान आ पहुँचा। “का हौ तिवारी जी?”
“बालक है राठौर जी, नौकरी पावैं खातिर आवा है।” पहले वाला दरबान, जिसे दूसरे ने तिवारी कहा था बोला।
दूसरा दरबान, जिसे पहले दरबान ने राठौर कहा था, सरजू के निकट पहुँचा और बोला, “कितनी उमर है?”
सरजू के बोलने से पहले ही तिवारी बोला, “चौदह साल। कहत है कि एक हज़ार दण्ड और एक हज़ार बैठक मारि लेत है। मुग्दर भांजि लेत है और पहलवानी भी करत है। पर उमिर तो छिप न रही। मार्टिन साहब तो देखतै भगा देहैं।”
राठौर सरजू के निकट गया और बोला, “क्या नाम है?”
“सरजू सिंह”
“कहाँ से हो?”
सरजू ने बताया।
“चाय पिओगे?”
“पी लूंगा।” सरजू ने घर से निकलते समय कुछ न खाया था और न पिया था।
’आओ.” राठौर सरजू को अपने पीछे आने के लिए कहकर मिल के अंदर की एक छोटी-सी दुकान में ले गया।मजदूरों के लिए तब तक वहाँ कोई कैण्टीन नहीं बनी थी। शहर के रामनारायण गुप्ता को मजदूरों के चाय और भोजन की व्यवस्था के लिए प्रबन्धकों की ओर ठेका दिया गया था। दुकान टीन शेड के नीचे थी। ठंड में टीन ठंडाता और गर्मी में तपता। उस दिन मौसम ठंडा ही था, हालांकि वह जाती हुई ठंड का दिन था और उस समय अच्छी धूप निकली हुई थी।
“आओ राठौर साहब।” राठौर जिनका नाम जयराम सिंह राठौर था, को देखते ही रामनारायण गुप्ता बोला। राठौर लंबा –तगड़ा व्यक्ति था। सभी दरबानों का वह इंचार्ज था और सभी दरबानों पर उसका रौब था।
“गुप्ता जी, दो कड़क चाय और एक प्लेट में मठरी देना।”
“अबहीं लेव भइया” गुप्ता बोला और अंगीठी में चाय का पानी रख एक पत्तल में चार मठरी ले आया।
पास पड़े पत्थर पर बैठते हुए सामने के पत्थर पर सरजू को बैठने का इशारा किया राठौर ने। “मठरी लो बबुआ।” राठौर ने एक मठरी उठाते हुए सरजू से कहा।
सरजू ने मठरी उठा ली और कुतरने लगा।
“तो तुम मिल में नौकरी के लिए आए हो?” राठौर ने सरजू से पूछा।
“जी.”
“तिवारी ने बताया कि तुम पहलवानी करते हो।”
“सही कहा।”
“लेकिन उम्र छिपती नहीं लाला। तुम छोटे दिख रहे हो और यहाँ का लेबर अफसर मार्टिन बड़े लोगों को रखता है,जिससे जमकर काम लिया जा सके. यहाँ के लिए तुम्हें चार पांच साल इंतज़ार करना होगा और अगर तुम्हें छोटे-मोटे कामों के लिए यानी अंग्रेज अफसरों को गर्मी से निजात दिलाने के लिए पंखा झलने या खस की टट्टियों में पानी डालने के लिए रख भी लिया जाता है तो समझो कि तुम्हारी ज़िन्दगी वही काम करते बीत जाएगी। मौसम बदलते ही ऎसे लोगों को काम से निकाल दिया जाता है। इसलिए मैं कहूँगा कि तुम पढ़ो—पहलवानी करो और अपना शरीर बनाओ.” कुछ रुककर राठौर बोला, “लेकिन तुम्हें नौकरी की ज़रूरत क्यों आ पड़ी। लड़का तो तुम भले घर के लगते हो।”
सरजू चुप रहा।
देर तक दोनों के बीच चुप्पी रही। गुप्ता चाय दे गया।
“लो चाय पियो” सरजू की ओर चाय बढ़ाते हुए राठौर बोला, “लगता है मैंने तुम्हें दुखी कर दिया।तुम्हारे बारे में जानने की इच्छा बलवती हो उठी है। अपना ही समझो। इस उम्र में तुम नौकरी के लिए निकले हो तो कुछ तो ख़ास है ही।”
“है तो ख़ास ही। वर्ना खेलने की उम्र में नौकरी कौन खोजता है।”
“मैंने भी तुम्हारी उम्र में ही नौकरी खोजी थी। बहुत ही बुरे दिन देखे मैंने भाई” राठौर पचीस साल का युवक ही था, लेकिन उसके शरीर और कद-काठी को देखकर मार्टिन ने उसे दरबानों का इंचार्ज बना दिया था।
“आप ?” सरजू केवल इतना ही कह सका।
“पहले अपनी बताओ.”
सरजू ने संक्षेप में अपने बारे में बताया और राठौर की ओर देखने लगा।
जयराम सिंह राठौर देर तक चुप रहा। सरजू को लगा कि वह आप बीती बताने का साहस जुटा रहा है। काफ़ी देर बाद बोला, “बबुआ, अपनी कहानी भी कुछ ऎसी ही है। अंतर इतना ही है कि तुम्हें संभालने वाले बहन-बहनोई हैं, जबकि मेरे कोई नहीं था।” राठौर कुछ देर फिर चुप रहा फिर बोला, “ मेरा घर जूही में है। मां-पिता, छोटा भाई और छोटी बहन थे। भरा-पूरा ख़ुशहाल परिवार था। पिता लाला रामदीन, मशहूर मसाला वाले लाला रामदीन के यहाँ नौकरी करते थे। मुंशी थे। लाला उन्हें बहुत मानते थे। 1901 में शहर में फ्लेग फैला ऎसा प्लेग कि हजारों घरों को तबाह कर गया।”
“मुझे याद है मैं बहुत छोटा था, लेकिन याद है मेरा गाँव भी खाली करवा दिया गया था और लोगों को खेतों में रहने के लिए मजबूर होना पड़ा था।”
“ठीक तब मैं चौदह साल का था । अंग्रेज अफसर और उनके कर्मचारी लोगों को घर खाली करके शहर से बाहर तंबुओं में जाकर रहने के लिए समझा रहे थे। बीच शहर का हाल और भी बुरा था। लोग पटापट मर रहे थे। अर्थियाँ उठ रहीं थी।गंगा घाटों में अर्थी लाने वालों की लाइनें लगी हुई थीं तो दूसरी ओर मुसलमानों के जनाजों पर जनाजे उठ रहे थे। सरकारी कर्मचारी लोगों को घरों से जाने के लिए समझाकर थके जा रहे थे, लेकिन शहर में यह अफवाह फैली हुई थी कि यह बीमारी अंग्रेजों ने जान-बूझकर पैदा की थी। वे बुकनू जैसी कोई चीज मोहल्लों में छिड़ककर प्लेग फैला रहे थे, जिससे हिन्दू मुसलमानों की आबादी समाप्त हो जाए और शहर में केवल अंग्रेज रहें।”
“फिर ?”
“फिर क्या, लोग अपने घर खाली करने को तैयार नहीं थे। बल्कि सरकारी कर्मचारियों से वे भिड़ रहे थे। बलवा हो गया। हिन्दू –मुसलमान एक हो गए थे। दोनों सम्प्रदायों के लोगों ने तय किया कि वे घरों को खाली नहीं करेंगे और दोनों ने सरकारी अमलों और पुलिस पर हमला कर दिया। फिर क्या था हजारों हिन्दू –मुसलमान मारे गए. कितने ही घायल हुए और सैकड़ों को बलवा करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया। बाद में उनमें से कई को दंगे के आरोप में फांसी दी गई. गोली चलने और लोगों के मरने के बाद आख़िर लोगों को अपने घरों को खाली करके तंबुओं में जाना पड़ा था।”
“ओह!” सरजू के मुंह से निकला “मेरे गाँव के भी बहुत से लोग मरे थे लेकिन लोगों ने ख़ुद ही घरों को छोड़ दिया था।”
“समझदार थे” राठौर चुप हो गया। कुछ देर बाद बोला, “मेरे घर से भी चार लाशें निकलीं थीं। पहले माँ गयीं, फिर भाई, फिर बहन। मैं और पिता जब तक माँ की अंत्येष्टि करके घर लौटे बहन जा चुकी थी। अगले दिन भाई. हम घर छोड़कर तंबुओं में जाने की सोच ही रहे थे कि पिता भी चले गए. मैं अकेला रह गया। पिता की अंत्येष्टि करने के बाद मुझे सरकारी बाबुओं ने तंबू में पहुँचा दिया। प्लेग ख़त्म हुआ तो घर लौटा, लेकिन घर काटने को दौड़ने लगा। फिर भी जीना तो था। जीने के लिए कुछ करना था और मैं काम की तलाश में भटकने लगा था। दिल में परिवार के खोए लोगों की यादें समेटे महीनों भटका। कोई भी रिश्तेदार पूछने नहीं आया। मैं भी यह सोचकर उनके यहाँ नहीं गया कि उन्हें यह न लगे कि मैं कुछ मांगने गया था।”
“एक दिन एक नया बन रहे मकान में ईंट गारा ढोने का काम मिला। तब से यहाँ आने तक मैं ईंटे और गारा ही ढोने का काम करता रहा।पूरे दस साल ईंट गारा ढोया। आखीर में जिस मकान के लिए काम कर रहा था वह एक सेठ का था। मार्टिन की उस सेठ से मित्रता है। सेठ से मैंने अनुरोध किया कि वह इस नयी मिल में मेरी नौकरी लगवा दे और सेठ की सिफ़ारिश पर मैं यहाँ आ गया। लेकिन अगर मैं छोटा होता तब यह मार्टिन कदापि सेठ की बात नहीं मानता। मार्टिन मुझे मानता तो है लेकिन वह कभी भी नाबालिगों को नौकरी नहीं देता।”
“ आपकी कहानी मुझसे कम पीड़ादायक नहीं” सरजू बोला “तो मुझे यहाँ नौकरी पाने के लिए अभी और इंतज़ार करना होगा।”
“सो तो करना ही होगा लाला। मेरी सलाह तो यह है कि तब तक तुम अपने जीजा के साथ काम करो पहलवानी करते हुए अपना शरीर बनाओ और फिर मुझसे मिलना मैं तब मार्टिन साहब से तुम्हारी सिफ़ारिश करूंगा और तब वह मना नहीं करेगा। मेरी एक सलाह यह भी है कि कुछ अक्षर ज्ञान भी पा लो तब तक अच्छी नौकरी मिल जाएगी। मैं पढ़ा होता तो दरबानी नहीं बाबूगिरी कर रहा होता।”
सरजू कुछ नहीं बोला। उठ खड़ा हुआ और जयराम सिंह ग़ौर के पैर छूता हुआ बोला, “जब भी शहर आया करूंगा—आपसे मिलने आया करूंगा।”
“तुम जूही के मेरे घर भी आ सकते हो।” अपना पता बताते हुए राठौर बोला, “लेकिन मैं कभी रात ड्यूटी पर होता हूँ कभी दिन में और घर में अभी अकेला ही हूँ। तो तुम इधर ही आ जाया करना।”
“जी.” सरजू ने पुनः राठौर के पैर छुए और मिल के गेट से बाहर निकल आया।
राठौर उसे गेट के बाहर तक छोड़ने गया। सरजू के गेट से बाहर निकलते हुए राठौर बोला,”बबुआ मिलते रहना। कहीं कुछ बना तो मैं बताउंगा। पहली मुलाकात में ही तुम मुझे अपने लगने लगे हो।”
“जी, आता रहूँगा।” सरजू बोला और गेट से बाहर निकल गया।