कानपुर टु कालापानी / भाग 15 / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहन-बहनोई के यहाँ सरजू बहुत सुबह से लेकर रात गहराने तक काम करता। दोपहर कुछ देर के लिए चौपाल में कभी तो कभी खेतों के बीच बनी मड़ैया में आराम करता। जब वह खेतों की मड़ैया में आराम करता तब दोपहर का भोजन जसवंत उसे पहुँचा देता। जिस दिन वह न जाता उस दिन रानी जाती। खेत घर से एक मील की दूरी पर थे। खेतों के बीच ही कुंआ था, जिनसे पुरों द्वारा सिंचाई होती थी। पुराही के दौरान हलवाहा पूरे समय वहाँ मौजूद रहता। वह न होता तो उसकी पत्नी या उसका कोई बेटा होता। हालांकि पानी से भरा भारी-भरकम पुर खींचकर पत्थरों पर उलटकर खाली करना और फिर उसे कुंआ में लटकाकर बैलों को हाँककर कुंआ तक लाना और पुर को रस्सी पकड़ ऊपर नीचे खींचकर पानी से भरना आसान काम नहीं था। उसके लिए ताकतवर व्यक्ति की आवश्यकता थी। इसलिए जब हलवाहा किसी दूसरे काम में व्यस्त होता तब इस काम को सरजू या जसवंत संभालते। हलवाहा की पत्नी या उसके किसी बच्चे को तभी लगाते जब इनमें से कोई भी उपलब्ध न होता।

शाम मुंह अँधेरा होते ही सरजू घर लौट आता। भैंसों के लिए सानी तैयार करता और अखाड़े के लिए निकल जाता। देर रात लौटता और भोजन करके घोड़े बेच गहरी नींद सो जाता।

लगातार कई वर्षों से एक जैसी ज़िन्दगी जीते सरजू का मन उकता गया था। कितने ही दिन ऎसे बीते कि घर जाने के लिए समय होते हुए भी घर न जाकर मड़ैया में खाली पड़ा रहता रहा। उसके घर न पहुँचने पर रानी दोपहर का खाना दे जाती या हलवाहे से भेजवा देती। काम कुछ भी न होता और वह खटोली पर सोचता रहता, ’इस तरह कैसे कटेगी ज़िन्दगी सरजू। कब तक रानी की रोटी तोड़ता रहूँगा। माना कि वह बहन है और बहुत प्यार करती है। उसने कभी इस बात का एहसास होने दिया कि वह उन पर बोझ है, लेकिन ज़िन्दगी बहुत बड़ी है और ढंग से जीने के लिए कुछ करना ही होगा। वर्ना बहन-बहनोई के भरॊसे जीना होगा और कभी किसी बात पर कुछ टुन्न-फुन्न ही हो गया तब ?’ और यह”तब’ एक बड़े प्रश्न का रूप ग्रहण करता ’मुझे करना क्या चाहिए! पैसे पास नहीं। केवल खाना, कपड़ा और कुछ जेब ख़र्च लेता हूँ। बहन-बहनोई से कुछ लिया जाता है कभी परम्परा कुछ न कुछ देने की है। लेकिन मैं दे क्या सकता हूँ। देने की स्थिति नहीं। होती, यदि बाबा और बापू ने अपने हिस्से के खेत उदारता में दुर्गा और शिव चाचा को न दे दिए होते। एक बार अधिकार मांग कर देख लिया। दोबारा मांगने जाना दुश्मनी करना होगा। वैसे भी उन्होंने सरकारी महकमे को खिला-पिलाकर खेत अपने नाम लिखवा लिए हैं। मेरा कोई हक़ नहीं। रानी घाट का मकान है लेकिन वह किस काम काम। वहाँ कोई रोजगार किए बिना नहीं रहा जा सकता। उसे बेचने से भी क्या मिलने वाला है। कल को यहाँ से दाना-पानी रूठ जाए और ऎसा कभी भी हो सकता है तब ?सिर छुपाने के लिए वह घर है न!’

सरजू जितना ही सोचता उतना उलझता जाता। ’पुलिस में नौकरी पाने की कोशिश बेकार रही। अठारह तक होने तक इंतज़ार करना होगा। मिल की नौकरी न मिली। क्या एक बार फिर जयराम सिंह राठौर से मिलूं? लेकिन स्वदेशी में तो नौकरी मिलने से रही हो सकता है वह कहीं और जुगाड़ बना दें। लेकिन कहाँ? किसी लाला के यहाँ काम करना सही न होगा। व्यापारी मजदूरों का खून चूस लेते हैं। फिर ?’ वह इससे आगे कुछ सोच नहीं पाता।

चैत का महीना था। खलियान उठ चुके थे। घर आनाज से पटा पड़ा था। दालानों में एक ओर गेहूँ, दूसरी ओर सरसों,लाही दूसरी कोठरी में बेझर और अरहर। एक मन अलसी भी थी। लगभग चालीस मन आनाज आंगन में पड़ा हुआ था। आंगन में ही एक कोने में मटर भी थी। घर में आनाज की गंध समायी हुई थी। यह वह आनाज था जिसे बेचा जाना था। पूरे वर्ष इस्तेमाल करने के लिए और बोने के लिए कुठिलों में भरा जा चुका था। उन दिनों सुबह का चबेना न करके सरजू कुछ देर से भोजन करता और खेत की मड़ैया की ओर निकल जाता। शाम ढलने तक वहाँ रहता। तेज गर्म हवा चल रही होती, ठुंठिआए खेतों में तेज धूप इस प्रकार लहराती दिखाई देती मानों आग लपकती आगे बढ़ रही हो। ऎसी तपती दोपहर भर सरजू ने पूरा महीना खेतों में बिताया और अपने भविष्य के विषय में सोचता रहा। एक दिन उसे रानी के ससुर शंकर सिंह की बात याद आयी। उन्होंने जसवंत से बातचीत के दौरान कहा था कि उनके खेतों के साथ जो चरीदा पड़ा हुआ है उसे सरजू जोत के योग्य तैयार कर ले। उसने तय किया कि वह वैसा करेगा।

उस दिन शाम उसने शंकर सिंह को अपनी बात बतायी। सुनकर वह बोले, “जमींदार के यहाँ जाना था। जा नहीं पाया। मैं पटवारी से बात करूंगा।”

यह संयोग ही था कि दो दिन बाद पटवारी उनके यहाँ आया। वह जब भी गाँव आता, उनके यहाँ अवश्य आता था। वह भला आदमी नहीं था, लेकिन शंकर सिंह के प्रति अच्छे भाव रखता था। इसका कारण था। वह भौंती गाँव का निवासी था और उसके पिता पं दीनानाथ दुबे और शंकर सिंह अच्छे मित्र रहे थे। शंकर सिंह की बहन भौंती में ब्याही थी और दीनानाथ दुबे उनके पड़ोसी थे। भौंती की दूरी शंकर सिंह के गाँव से अधिक न थी और प्रायः शंकर सिंह बहन के यहाँ जाया करते थे। दीनानाथ के साथ लंबी बैठकी होती। कमल उन्हें पिता के साथ बातें करते देखता था। शंकर सिंह भी उसकी पढ़ाई के विषय में पूछ लिया करते थे। कमल ने सातवीं तक शिक्षा पायी थी और पिता की जान- पहचान के कारण उसे पटवारी की नौकरी मिल गयी थी।

शंकर सिंह की बहन की मृत्यु जसवंत की शादी से पहले हो चुकी थी। मृत्यु के बाद भी दो-तीन सालों तक शंकर उनके घर जाते रहे थे, लेकिन उनके भांजों को मामा से अधिक लगाव नहीं था। निकट गाँव होते हुए भी वे कभी भी उनके समाचार लेने नहीं आते थे। वे तब भी कम ही आते थे जब उनकी बहन उनके यहाँ आयी होती थीं। उनके दो भांजे थे। जसवंत के विवाह में बड़ा भांजा पहुँचा था, वह भी सीधे मसवानपुर गया था, जबकि सभी रिश्तेदार उनके यहाँ जुटे थे। अंततः शंकर सिंह ने भी जाना बंद कर दिया था।

कमल चालीस साल का व्यक्ति था। उसके पिता की मृत्यु 1901 के प्लेग के दौरान हो चुकी थी। प्लेग इतना भयंकर था कि शहर ही उसके चपेट में नहीं था दस-पन्द्रह कोस की दूरी तक के गाँव भी उससे नहीं छूटे थे। गांवों में वह कैसे पहुँचा था, इसके बारे में लोगों का यह मानना था कि शहर के चूहे अपने प्राण बचाने के लिए शहर छोड़कर गाँव की ओर दौड़ पड़े थे, लेकिन चूहों को गांवों की ओर दौड़ते हुए किसी ने भी न देखा था। वे अफवाहों के दिन थे। अफवाह की हवा बह रही थी और लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया था कि अंग्रेज चूहों के गले में बुकिनी की पुड़िया बाँध गावों में उन्हें छोड़ गए थे। बहरहाल उन दिनों गाँव के गाँव खाली हो गए थे। उस महामारी में कमल के पिता दीनानाथ दुबे नहीं रहे थे। कमल माँ और परिवार के अन्य सदस्यों को लेकर खेतों में जा पड़ा था और शेष परिवार बच गया था।

कमल का आना शंकर सिंह को राहत दे गया था।जबकि कई दिनों से वह भौंती जाने के विषय में सोच रहे थे। हालांकि वह वहाँ जाने से बचना चाह रहे थे और चाहते थे कि कमल से कहीं भेंट हो जाए और उनके मन की मुराद पूरी हो गयी थी।

यद्यपि कमल जो भी करता उसकी जानकारी जमींदार को देता, लेकिन बहुत कुछ वह उसको जानकारी दिए बिना भी करता। आठ आने का जमींदार था मंगत सिंह। अपनी जमींदारी के गांवों के सभी किसानों की जानकारी वह नहीं रखता था। उसके कर्मचारी—मुंशी उसे जो जानकारी देते वह उतना ही जानता और पड़ती पड़ी ज़मीन के मामलों में वह कमल पर भरोसा करता। सच यह था कि उसे अपनी ऎय्याशी से फुर्सत नहीं थी। कर्मचारियों को किसानों को लूटने की उसने पूरी छूट दे रखी थी। उसे धन से मतलब था। उसके कर्मचारी निरंकुश थे। वे मंगत सिंह को ख़ुश करने के हर जुगाड़ में रहते। कितने ही ऎसे मामले थे जब उसके कर्मचारियों ने किसी किसान से धन वसूल करना चाहा और उसने आना-कानी की तो उन्होंने उस पर इतने कोड़े बरसाए कि उसके शरीर की खाल तक उघड़ जाती रही। लेकिन किसी में इतना साहस नहीं था कि वह या कुछ लोग मिलकर मंगत सिंह के उन गुण्डों का सामना करते।

पहले शंकर सिंह ने जमींदार के पास जाकर उस चरीदा को मांगने के विषय में सोचा था, लेकिन पिछले दिनों हुई युवक की हत्या से उनका मन खिन्न था। वैसे भी मंगत की कारगुजारियों की सूचना उन्हें मिलती रहती थी और वह उससे घृणा करते थे। वह कमल से कहना चाहते थे और वही कमल उनके दरवाज़े था। यह संयोग ही था कि सरजू उस दिन खेतों की मड़ैया की ओर तब तक नहीं गया था। सुबह नाश्ता का समय था और शंकर सिंह चौपाल में बैठे नाश्ता आने का इंतज़ार कर रहे थे। प्रतिदिन सुबह वह पराठों के साथ गुड़ और मट्ठा लिया करते थे पूरा लोटा मट्ठा। सरजू ने उनके लिए नाश्ता लेकर ड्योढ़ी से पैर बाहर निकाला ही था कि उसे कमल आता दिखा था।

“ठाकुर साहब हैं?” उसने सरजू को घर का नौकर समझ पूछा।

सरजू ने चौपाल में पलंग की ओर इशारा करते हुए कहा, “सामने बैठे हैं।”

कमल चौपाल की ओर बढ़ गया।

“आओ कमल” कमल को देखते ही शंकर सिंह बोले। कमल पलंग के सामने पड़ी लकड़ी की कुर्सी पर बैठ गया। तभी शंकर सिंह के लिए नाश्ता लेकर सरजू दाखिल हुआ। नाश्ता थामते हुए और लोटा का मट्ठा नीचे रखते हुए शंकर सिंह बोले, “सरजू बेटा, कमल के लिए भी नाश्ता लेकर आओ.”

“चाचा, नाश्ता करके घर से निकला हूँ” कमल बोला।

“सरजू, ऎसा करो बहन को बोलो कि खोया में खांड मिलाकर दे और लोटा भर गर्मागर्म दूध कहना पटवारी बाबू आए हैं।”

“जी बापू।” सरजू पलटा। उसे लगा कि शंकर सिंह ने कमल को उस चरीदा के लिए शायद स्वयं बुलाया है।

कुछ देर बाद कटोरा भर खांड मिला खोया और लोटा भर दूध लेकर सरजू आ गया।

शंकर सिंह तब तक चरीदा की भूमिका बाँध चुके थे। सरजू के आते ही कहा, “यह जसवंत का साला है। जब दोनों भाई-बहन छोटे थे तभी माँ नहीं रही थीं और कुछ साल पहले पिता भी नहीं रहे। जीने के लिए कुछ ज़रिया बने इसलिए चाहता हूँ बेटा कि तुम उस चरीदा को इसके लिए लिखवा दो जो ख़र्च पानी होगा दूंगा।”

“चाचा, आपके गाँव वालों को उसमें ऎतराज हो सकता है। चरीदा मारा जाएगा।”

“ऎसा होना तो नहीं चाहिए. चारों ओर जंगल ही जंगल है लोग कहीं भी जा सकते हैं अपने जानवरों को लेकर। वैसे भी कभी ही कोई अपने जानवर उस छोटे से चरीदा में ले जाता है। प्रायः मेरे ही चरते हैं।”

“कोई चिढ़कर गुपचुप रूप से जमींदार को शिकायत न कर दे।”

“उसकी चिन्ता तुम न करो मेरे खिलाफ कोई भी नहीं जाएगा। तुम पूरे की दाखिल-खारिज करवा दो जो ख़र्च ।”

“वह तो लगेगा ही कचहरी वाले आसानी से हाथ न रखने देंगे। उनके पास सारी जानकारी होती है। किस गाँव में कितनी ज़मीन खाली है और कितनी पर जोत है। मैं कोशिश करूंगा।”

और सावन शुरू होने से पहले मात्र दो सौ रुपए लेकर कमल ने दस बीघा चरीदा सरजू के नाम करवा दिया था।

बरसात प्रारंभ होने के साथ ही सरजू फावड़ा लेकर चरीदा को खोदने और खेती योग्य तैयार करने में जुट गया था। देखते-देखते उसने पूरे चरीदा को खेतों में बदल दिया। आधे में उसने ज्वार, अरहर,मूंग और उड़त बो दी। लेकिन ज़माने से बंजर पड़ी धरती ने अच्छी फ़सल नहीं दी। ज्वार के पौधे बीच-बीच में उगे। अरहर के पौधे किसी बीमार बूढ़े की भांति झुके खड़े थे। जसवंत की सलाह पर अरहर छोड़कर ज्वार और दालों को क्वार से पहले ही काटकर जानवरों को खिला दिया गया। खेतों को यूं ही छोड़ दिया गया और तय हुआ बाक़ी पांच बीघे खेतों में गेहूँ बोया जाए. रवी की फ़सल भी अच्छी नहीं हुई. चैत में उन सभी तैयार खेतों में गोबर की खाद डालने का निर्णय किया सरजू ने और सभी खेतों के चारों ओर मेड़ बना दी।