कानपुर टु कालापानी / भाग 16 / रूपसिंह चंदेल

Gadya Kosh से
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बारामऊ गाँव में चर्चा जोरों पर थी कि सरजू ने सरकारी ज़मीन पर कब्जा कर लिया है। गाँव के एक-दो लोगों की नज़र कब से उस चरीदा पर गड़ी हुई थी, लेकिन शंकर सिंह का भय भी था,क्योंकि चरीदा उनके खेतों से सटा हुआ था। दूसरी बात यह कि शंकर सिंह गाँव के समृद्ध व्यक्ति थे और उससे भी बड़ी बात यह कि आसपास के गांवों में कुछ ऎसे लोगों से पहचान थी जो उनके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते। लेकिन आन जगह का बालक शंकर सिंह की शह पर कब्जा कर रहा था यह उन्हें स्वीकार नहीं था। एक ने जमींदार के यहाँ शिकायत की। एक दिन जब सरजू खेतों में काम कर रहा था, जमींदार का एक सिपाही आया और कड़ककर सरजू से बोला, “आज के बाद इस ज़मीन में दिखाई न देना। जमींदार साहब का हुकम है।”

वास्तव में हुआ यह था कि गाँव का जो व्यक्ति जमींदार से शिकायत करने गया जमींदार मंगत सिंह से मिलने का साहस वह नहीं जुटा पाया था। उसने उसके उस सिपाही से ही शिकायत की थी जो हवेली के बाहर दरबान की जगह तैनात था। उसने सिपाही की जेब में चांदी का एक सिक्का भी डाल दिया था। सिपाही ने उसे आश्वस्त किया था कि वह जमींदार तक उसकी शिकायत पहुँचा देगा और जमींदार बालक को पकड़ मंगवाएगें। सरकारी ज़मीन में वह ऎसे कैसे कब्जा कर सकता है। जमींदार उसकी खाल उधेड़वा के पनही बनवाएगें। गाँव का वह आदमी इतना आश्वस्त हुआ कि स्वयं उस ज़मीन का मालिकाना हक़ पाने के सपने देखने लगा।

सिपाही ऎसे मौके से लाभ उठाना जानता था। उसने सोचा कि वह सरजू को धमकाएगा और कुछ वसूली कर लेगा। लड़का नहीं माना और जेब गरम नहीं की तब वह ख़ुद ही उसे सबक सिखा देगा। लेकिन हुआ सिपाही की सोच के विपरीत। जैसे ही उसने खेत में काम कर रहे सरजू को धमकाया, सरजू तनकर खड़ा हो गया और बोला, “आप कौन हैं?”

“मैं जमींदार का सिपाही हूँ। जमीदार साहब ने तुम्हें बुलाया है। तुम सरकारी ज़मीन पर ग़लत कब्जा करने की कोशिश कर रहे हो उसकी सजा मिलेगी। खाल खींचकर भुसा भरेंगे तब पता चलेगा।”

सरजू ने अपनी लाठी संभाली और बोला, “अपना रास्ता नापो। यह मेरे खेत हैं और मैंने ग़लत ढंग से इस पर कब्जा नहीं किया है। बाकायदा कचहरी में इसका दाखिल खारिज हुआ है। “

“वह तो जमींदार साहब बताएगें तुम सीधे मेरे साथ चलते हो या जबर्दश्ती करूं।”

“आगे बढ़े तो पता चल जाएगा।”

लड़के की अकड़ से सिपाही अकबकाया। लेकिन अपनी अकड़ बरकरार रखते हुए बोला, “तुम मुझे धमका रहे हो। उल्टा चोर कोतवाल को डांट रहा है। जानते हो किससे बात कर रहे हो।”

“शहर कप्तान न हो।”

सिपाही ने हंटर निकाल लिया और कड़कते हुए बोला, “या तो दो सौ रुपए लाकर दे, जिसे मैं जमींदार साहब को देकर उन्हें मना लूंगा, या मेरे साथ अपनी खाल उधड़वाने के लिए चल।”

“कोई ग़लत काम नहीं किया और न पैसे दूंगा और न कहीं जाउंगा।”

सिपाही ने हवा में हंटर लहराया।

“तुम मुझे डरा रहे हो। एक लाठी पड़ेगी तो लाश उठकर जाएगी यहाँ से।” और सरजू लाठी पटकता आगे बढ़ा। सिपाही समझ गया कि पाला किसी साधारण किशोर से नहीं पड़ा। किशोर शरीर से गठीला था और उसकी पारखी आंखों ने भांप लिया कि सरजू ने यदि ग़लत ढंग से कब्जा किया होता तब वह इतनी अकड़ नहीं दिखाता। वह सोचने लगा कि हो सकता है कि उसके घर वालों ने जमींदार से मिलकर ज़मीन का हक़ हासिल किया हो। यदि वह जबर्दश्ती करेगा तब कहीं ऎसा न हो कि इस लड़के की खाल उधेड़ने के बजाए उसी की उधेड़ दी जाए. फिर भी उसने अपनी हेकड़ी जारी रखी और बोला, “यह पहलवानी काम न आएगी सीधे घर जाओ और दो सौ रुपिइया लेकर आओ. जमींदार साहब इससे कम में तुम्हें न छोड़ेंगे।”

“पैसे नहीं मिलेंगे और अपनी खैर चाहते हो तो यहाँ से दफ़ा हो जाओ.” सरजू ने एक बार फिर लाठी पटकी तो सिपाही बर्राता हुआ पीछे मुड़ा और बोला, “देखता हूँ कैसे तुम सरकारी ज़मीन कब्जाते हो। शाम तक तुम्हारी खाल न उधेड़ दी जाए तब मेरा नाम बदल देना।”

“अमे, अपना नाम तो बता जा- बदलूंगा तो तब न!” सरजू हंसा और खेतों में लौट गया।

उस दिन के बाद कोई उसके पास नहीं आया। अगली फ़सल के लिए उसने कठिन श्रम किया था और फ़सल भी अच्छी हुई । लेकिन उसका मन खेती में लग नहीं रहा था। वह शहर जाकर कुछ काम करना चाह रहा था। जब से अपने खेतों की तैयारी में जुटा था रानी घाट के मकान में जाने का सिलसिला कम हो गया था। अब वह हर माह नहीं दो माह में एक बार जाने लगा था और गंगा स्नान करके गोमती में उसी दिन स्नान करने और अगले दिन लौटकर गंगा स्नान करने का सिलसिला बंद कर दिया था।

एक दिन उसने जसवंत से कहा, “मैं एक हफ्ते के लिए शहर जा रहा हूँ। बहुत मन है रानी घाट के मकान में कुछ दिन जाकर रहने का।”

“जाओ पर लौट आना अगली फ़सल की तैयारी करना है।”

सरजू कुछ नहीं बोला और अगले दिन सुबह पैदल शहर के लिए चल पड़ा। वह सीधे स्वदेशी कॉटन मिल गया जयराम सिंह राठौर से मिलने। राठौर मिला और उसने शिकायती स्वर में कहा, “बहुत दिन बाद याद आयी?”

सरजू ने सारी कहानी कह सुनायी। सुनकर राठौर प्रसन्न हुआ और बोला, “हिल्ले से लग गए. अब ज़िन्दगी आसान हो जाएगी।”

“पर मेरा मन शहर में काम करने का है।”

“शहर की चकाचौंध आकर्षित करती है?”

“नहीं लेकिन गाँव में मन नहीं लग रहा। शहर में कुछ अधिक कर गुजरने की संभावना देखता हूँ।”

“ऎसा नहीं है। खेती को अगर सही ढंग से किया जाए तो वहाँ कम संभावना नहीं है। लेकिन कोई बात नहीं मन नहीं लग रहा होगा। मैं यहाँ कोशिश करूंगा। यहाँ के लिए तो तुम अभी भी फिट नहीं हो। स्वदेशी मिल से कुछ दूर अफीम कोठी चौराहा जाते हुए एक और मिल खुली है।काकोमी मिल नाम है उसका। एक दो दिन में आकर पता कर लेना। उसे खुले हुए भी एक साल हो रहा है। 1912 में खुली वह मिल और मेरी 1911 में खुली थी।

सरजू के लिए उन तारीखों का कोई मायने नहीं था। वह किसी भी मिल में नौकरी चाहता था। उसे लगता था कि वह एक कुशल कारीगर बन सकता है।

“कब आऊँ?”

“परसों आकर पता कर लेना। वहाँ के दरबानों का इंचार्ज मेरा परिचित है। उससे बात करूंगा।”

“ठीक।”

लेकिन सरजू को काकोमी मिल में भी नौकरी नहीं मिली। जिस दिन वह काकोमी में अपनी नौकरी के बारे में जानकारी लेने गया था और राठौर से बातें कर ही रहा था कि एक दरबान राठौर के पास आया और बोला, “शहर में दंगा हो गया है।”

“हिन्दू –मुसलमान दंगा।” राठौर के मुंह से निकला।

“नहीं मुसलमानों पर पुलिस ने गोली चलायी है।”

“क्यों?”

“खबर है कि जो मेस्टन रोड बन रही है उसमें मस्जिद आ रही है। सड़क बनाने के लिए सरकार ने मस्जिद का आधा हिस्सा गिरा दिया बस मुसलमान भड़क गए और सरकार का विरोध करने के लिए भीड़ एकत्रित हो गयी। भीड़ ने पुलिस पर हमला कर दिया। फिर क्या था, कप्तान का आदेश हुआ और पुलिस ने गोली बारी कर दी। कितने ही मुसलमान मारे गए हैं और कितने ही घायल हो गए हैं। शहर के हाल अच्छे नहीं है। पुलिस लोगों की धरपकड़ में लगी हुई है।”

“बहुत बुरा हुआ।” राठौर बोला, “तुम जिस सड़क की बात कर रहे हो मैं कल ही उधर से निकला था। उसमें तो एक मंदिर भी आ रहा है।”

“लेकिन मंदिर नहीं गिराया गया। अंग्रेजों ने मंदिर को बीच सड़क पर छोड़ दिया है और उसके दोनों ओर से सड़क निकाल रहे हैं, लेकिन मस्जिद सड़क के किनारे थी और उसे बिना आधा गिराए सड़क बन ही नहीं सकती थी इसलिए.”

“मुसलमान मस्जिद को लेकर बहुत उग्र हो जाते हैं। हिन्दू मंदिर के गिराए जाने पर शायद इस प्रकार विरोध नहीं करता। विरोध तो करता लेकिन वह मान भी जाता। विकास के लिए कुछ चीजें नष्ट तो होती ही हैं। लेकिन कौन समझाए “

“लाला, तुम अपने घर जाओ. पता नहीं कहाँ क्या हो जाए.” राठौर ने सरजू से कहा।

“ मैं फिर कब आऊँ?”

“काकोमी मिल में भी वही बात कही गयी। तुम मिलते रहो और साल-दो साल की ही बात है अब कुछ जुगाड़ होगा ही।” फिर बहुत रहस्यमय स्वर में बोला राठौर, “हो सकता है तुम्हारे बहन-बहनोई तुम पर शादी का दबाव बनाएँ, लेकिन करना नहीं। किया तो बंध जाओगे और वह न कर पाओगे जो चाहते हो।”

सरजू हंसा, “नहीं करूंगा।”

“मुझे देखो उम्र है, लेकिन टाले जा रहा हूँ। कुछ कमा लूं। गृहस्थी चलाने के लिए पैसे चाहिए. कुछ जोड़ लूं, फिर ठीक है तुम अब चलो।”

सरजू ने राठौर को प्रणाम किया और रानी घाट के लिए चल पड़ा।