कानपुर टु कालापानी / भाग 17 / रूपसिंह चंदेल
रानीघाट के अपने मकान में वह दो दिनों तक पड़ा रहा। पिछली बार जब वह वहाँ आया था दस सेर आटा और एक पसेरी अरहर की दाल ले आया था। उसने खाना पकाना पिता की मृत्यु के बाद सीख लिया था। सीख लेना उसकी विवशता बनी थी। एक दिन उसे तेज भूख लगी हुई थी । नन्हकू भी भूख से बिलबिला रहा था। सौतेली माँ लक्ष्मी देवी, जिन्हें सभी लछिमी बहू कहकर पुकारते थे, रानी घाट के निकट बने मंदिर में सत्संग में गयी हुई थी। दोपहर का भोजन समाप्त था। उस दिन सरजू ने चूल्हा जलाया था और आटा गूंधकर रोटी पकायी थी। यद्यपि रोटियाँ मोटी और अधकच्ची रही थीं, लेकिन भूख शांत करने के लिए उसने स्वयं भी खाया था और नन्हकू को भी खिलाया था। मुंह अँधेरा होने के बाद लछिमी ने आकर चूल्हे में अधजली लकड़ी और काला पड़ चुका तवा देखा तब उसका माथा गर्म हो उठा था। उसने सरजू को डांटते हुए पूछा, “तूने चूल्हा किसलिए जलाया था?”
“रोटी थोपने के लिए” बिना डरे सरजू बोला था। पिता के रहते वह सौतेली माँ को उत्तर नहीं देता था, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद लछिमी के व्यवहार में भी परिवर्तन हुआ था और सरजू भी साफ़ और सही उत्तर देने लगा था।
“कुछ देर रुक नहीं सकते थे।” लछिमी बोली।
“नन्हें भूख से बिलबिला रहा था।”
“नन्हें का नाम मत ले उसके बजाए तू बिलबिला रहा होगा।”
“हाँ, मुझे भी भूख लगी हुई थी।”
“तवा जला दिया।”
सरजू चुप रहा था और उस दिन के बाद उसने सौतेली माँ के साथ समझौता कर लिया था कि वह उसे भी कभी कभी भोजन पकाना सिखा दे और लछिमी ने सिखाया था। दाल,चावल और रोटी पकाना सिखाया था। सब्जी पका पाने में उससे त्रुटि होती थी। कभी सब्जी जल जाती तो कभी उसमें नमक अधिक पड़ जाता था। उसे लौकी,सीताफल और तरोई अधिक पसंद थी। पत्ता-फूल गोभी मजबूरी में खाता और इन सबको पकाने में उसने हाथ आज़मा ए थे, लेकिन अधिक सफलता नहीं मिली थी और जब से वह रानी के यहाँ रहने गया, इस बात का अवसर ही नहीं मिला कि वह चूल्हे में काम करता।
सौतेली माँ के समय से एक कोठरी में सूखी लकड़ियाँ एकत्रित थीं, जिन्हें उसीने जंगल जाकर एकत्रित किया था। मई का महीना था फिर भी आते ही उसने कुछ लकड़ियाँ बाहर निकाल आंगन में धूप में डाल दीं थी, क्योंकि पहली बार जब उसने चूल्हें में उन्हें जलाने की कोशिश की तब लगा कि लकड़ियों में कुछ सीलन का असर था। हुआ यह था कि बैसाख माह के आखिरी दौर में बारिश हुई थी और जिस कोठरी में लड़कियाँ इकट्ठा थीं वह कच्ची ईंटों की बनी हुई थी और नीम की धन्नियों से पाटी गई थी। धन्नियों पर तालाब में भीगी अरहर की लकड़ियाँ और बांस की पतली छड़ियाँ बिछाकर ऊपर मिट्टी डालकर पाटा गया था। लेकिन मिट्टी तो मिट्टी, एक जगह से पानी का रिसाव हुआ और उसने लकड़ियों पर टपककर गीला किया था। बारिश से दो दिन पहले वह वहाँ होकर गया था, लेकिन उसने यह सोचा ही नहीं था कि पिता के जाने के बाद उस घर की मरम्मत भी की जानी चाहिए. अर्थात उन छतों को गोबर और कुचिला मिट्टी के साथ लीपा जाना चाहिए. जयराम सिंह राठौर के पास से लौटते हुए उसने तय किया कि वह कुछ और दिन घर में रुकेगा और घर की मरम्मत करेगा। इस बार उसके पास पचीस रुपए थे। रानी ने उसे दिए थे।
“जरूरत पर काम आएगें” रानी ने उसके मना करने पर कहा था।
“मुझे क्या ज़रूरत?”
“पैसा टेंट में रहना चाहिए कहीं कुछ खाने-लेने का मन कर जाए.”
“लेकिन अदा कैसे करूंगा।”
“पागल है क्या?” रानी ने झिड़का था। इतना खटता है और फिर तेरा अपना गल्ला भी तो भरा हुआ है तेरी अपनी कमाई.”
“हूँ” वह बोला था, “सही।” और उसने रानी से रुपए ले लिए थे। पचीस रुपए जेब में होने से वह अपने को बहुत अमीर समझने लगा था। राठौर के यहाँ से लौटते हुए उसने कुर्ता की जेब में पड़े उन रुपयों को छूकर देखा और रोमांचित हो उठा। ’सच पैसा बड़ी चीज है।’ उसने सोचा।
लकड़ियों को धूप में डालते हुए वह सोचता रहा कि एक मज़दूर भी लगा लेना चाहिए. तालाब उसके घर से दो फर्लांग की दूरी पर था। कुचिला मिट्टी ढोकर लाना होगा। गोबर तो कहीं से भी मिल जाएगा। धनीराम तिवारी के यहाँ भी जानवर हैं। लेकिन इस विचार को उसने झिड़क दिया। ’तिवारी जी के यहाँ से नहीं। कंजूस हैं। गोबर पर भी पालथी मारकर बैठने वाले मैं रामरिख चाचा के यहाँ से ले लूंगा। चाचा के यहाँ भी एक भैंस और एक गाय है। ’ तभी उसने सोचा कि जब चाची को पता चलेगा कि वह घर में है वह भोजन बनाने से रोकने लगेंगी। ’लेकिन इस बार मैं उनकी बात नहीं मानूंगा। उनके यहाँ कब तक जींमता रहूँगा।’ अंततः उसने रामरिख सिंह के घर से गोबर लेने का निर्णय किया।
सरजू ने सोचा था कि दो दिनों में घर का काम हो जाएगा, लेकिन ऎसा हुआ नहीं। घर में काम शुरू करवाना घर के मालिक के वश में होता है और समाप्त होना मजदूर-मिस्त्री तय करए हैं। उसने एक मज़दूर भी पकड़ लिया। घर से कुछ दूर एक चौराहा था, जहाँ से सड़क शहर की ओर जाती थी। कुछ लोग वहाँ काम की तलाश में आ बैठते थे। अगले दिन वह सुबह एक नौजवान को काम के लिए ले आया। अपने और मज़दूर के लिए सुबह का नाश्ता और भोजन उसने सुबह ही बना लिया था दाल,चावल और चपाती। चपाती अभी भी उससे भलीभांति नहीं बन पातीं थीं, लेकिन उसे सेंकना आ गया था।
मजदूर के साथ वह स्वयं लगा। मज़दूर तालाब से सूखी कुचिला मिट्टी झाबे में ढोकर लाता और वह उसे कोठरियों की मुंडेरों के साथ डालकर मोंगरी से कूटता। कपड़े धोने के लिए सौतेली माँ मोंगरी का इस्तेमाल किया करती थी। दोनों कोठरियों में मिट्टी डलवाने के बाद उसने कुछ छत पर भी डलवाई और पानी डालकर उसे कूटकर पनाले की ओर ढलान बनाते हुए समतल किया। इस सबमें चार दिन का समय लग गया। वह मज़दूर को दोपहर घर में ही आराम करने के लिए रोक लेता था। इसीलिए उसके लिए भी भोजन पकाता। मज़दूर को क्या चाहिए था। भोजन के बाद वह उसके घर के आगे बरौठे में अपना ग़मछा बिछाकर एक नींद लेता और सरजू भी चारपाई पर लेटकर सोता नहीं अपने भविष्य के ताने-बाने बुनता रहता। उसे चिन्ता हो रही थी इस बात की कि उसने जसवंत से दो दिन बाद ही लौट आने के लिए कहा था, जबकि अब पांच दिन बीत चुके थे। वह जानता था कि अपने और जसवंत के खेतों में खाद पहुँचाने का काम था और अब उसकी अनुपस्थिति में वह काम जसवंत और उनके हलवाहे को करना पड़ रहा होगा। उसके हाथ बटाने से जसवंत कुछ आराम तलब हो गए थे, यह बात भी वह जानता था और सोच रहा था कि इसी कारण उसकी अनुपस्थिति उन्हें चुभ रही होगी। बहाना उसके अपने खेत होंगे। जसवंत अपने खेतों की बात नहीं करेंगे बल्कि उसके खेतों की बात छेड़कर ताना देंगे, “खेती ऎसे नहीं होती सरजू जी जान लगानी होती है।”
और वह चुप होकर सुनेगा।
अगले दो दिन वह और रुका घर। उसने रामरिख सिंह के यहाँ से दोनों दिन गोबर एकत्रित किया और उसमें थोड़ी कुचिला मिट्टी मिलाकर न केवल दोनों कच्ची कोठरियों की छतों को लीपा, बल्कि दोनों कोठरियों को भी अंदर से साफ़ करके लीपा। जिस कोठरी में लकड़ी भरी थीं उसे पूरी तरह खाली करके लकड़ियाँ आंगन में डाल दी थीं। पहले दिन उसने उसे लीपा और उसके सूखने के बाद लकड़ियाँ वहाँ फिर से रख दीं। दूसरी कोठरी लीपने के बाद उसने आंगन को भी लीपा। घर चमक उठा था।
आठवें दिन ताला बंद करके वह बारामऊ के लिए निकला। एक रास्ता मसवानपुर की ओर से होकर निकलता था। उसने सोचा क्यों न दुर्गा और शिव चाचा और सुजान दादा से मिलता चले, लेकिन दो राहे पर पहुँचकर उसने विचार त्याग दिया। जब वह बारामऊ पहुँचा, जसवंत उसे चौपाल में लेटे मिले। उसने जसवंत के पैर छुए, जो कि वह कभी भी बाहर जाने और आने पर किया करता था। उनके पिता और रानी के पैर भी छूता था। उसके पैर छूने पर जसवंत ने उसे भर नजरों देखा, लेकिन बोले कुछ नहीं। शंकर सिंह अपनी कोठरी में थे और उनके पास वह बाद में गया।
रानी ने सरजू को बताया कि इतने दिनों तक बाहर रहने से जसवंत का पारा चढ़ा हुआ था। सरजू ने कोई उत्तर नहीं दिया और कल्लू के साथ खेलने लगा। तेज धूप में चलकर आने के कारण वह पसीना पसीना था। रानी ने उसे पंखा दिया और उसके लिए शर्बत बनाने चली गयी।
सरजू बच्चे के साथ खेलता रहा जो बार-बार उससे कुट्टी कर रहा था और जताना चाह रहा था कि इतने दिनों तक अनुपस्थित रहने से वह उससे नाराज था।