कानपुर टु कालापानी / भाग 18 / रूपसिंह चंदेल
पूरे जून माह सरजू हलवाहे के साथ जसवंत और अपने खेतों में खाद डालता रहा। उन दिनों भी वह अखाड़ा जाता लेकिन पहले जितनी कसरत नहीं कर पाता था। दूध देने वाली भैंस ने गर्मी के कारण दूध देना कम कर दिया था और उसे दूध कम मिलने लगा था। कसरत खूराक मांगती है, यह बात वह जानता था। रानी उसे दिन में छंटाक-सवा छंटाक घी दोपहर और शाम के भोजन में देती थी, लेकिन घी कम होने के कारण वह मात्रा भी कम हो गयी थी। ऊपर से दिनभर धूप में खाद (पांस) ढोना। सुबह जल्दी ही वह और हलवाहा जानवरों के लिए सानी-पानी करने के बाद बैलगाड़ी लेकर घूर जाते। जसवंत के दो घूर थे, लेकिन उतने से सभी खेतों के लिए खाद पूरी न पड़ने वाली थी, इसलिए शंकर सिंह ने गाँव के एक किसान का एक घूर खरीद लिया था। उस किसान के पास जानवर अधिक थे और उसके पास खेत कम थे। वह प्रतिवर्ष एक घूर बेचता था। जब से सरजू ने अपने खेत तैयार किए खाद की आवश्यकता अधिक होने लगी थी।
फावड़ा और टोकरे लेकर हलवाहा और सरजू घूर पर सूर्योदय से पहले ही पहुँच जाते। घूर गाँव के बाहर थे। उस समय मौसम अच्छा होता। खेतों और बागों को मंझाती हवा बहकर आती, जिसमें पके आमों की सुगन्ध मिली होती। घूर पहुँचकर सरजू फावड़े से खाद टोकरे में भरता और हलवाहा के सिर पर रखवा देता जो पास खड़ी बैलगाड़ी में उसे भरता। जब तक वह लौटकर आता सरजू दूसरा टोकरा भर चुका होता। उस समय वह मुंह पर ग़मछा बाँध लेता, जिससे खाद से उड़ने वाली धूल मुंह के अंदर न जाए. एहितायत के बावजूद धूल तो जाती ही थी अंदर और फेफड़ों को स्वस्थ रखने के लिए रात सोने से पहले वह प्रतिदिन गुड़ खा लिया करता था। शंकर सिंह ने उसे बताया था कि दिनभर के बाद हर किसान को रात में गुड़ अवश्य खाना चाहिए, वर्ना टीबी होने के ख़तरे होते हैं।
जसवंत दिन-प्रतिदिन लापरवाह होते जा रहे थे। देर से सोकर उठने लगे थे। पिता ने, जो सुबह चार बजे ही जाग जाते थे और उन्हीं के साथ सरजू भी जाग जाया करता था, कई बार देर से जागने के लिए जसवंत को टोका भी लेकिन तब वह कह देते कि सरजू है न!। सभी तो एक साथ काम नहीं कर सकते। शंकर सिंह ने एक बार समझाते हुए कहा था, “बेटा, सरजू को अब अपने खेतों में भी काम करना होता है। इस बात को समझो।”
“जब ऎसा देखूंगा, संभाल लूंगा। वह अपने ढंग से काम करने का आदी है। मेरे सुझाव को भी नहीं मानता। जब से आपने उसके लिए चरीदा का दाखिल खारिज करवाया उसका दिमाग़ कुछ बदल गया है।” जसवंत के स्वर में एक प्रकार की नाराजगी अनुभव की शंकर सिंह ने, “मैंने उसे कहा था कि रानीघाट से जल्दी लौट आएगा, लेकिन नवाब साहब ने पूरा हफ्ता लगाया। यहाँ काम का हर्ज हुआ। अगर बारिश हो गई तो ?आप जानते हैं कि बारिश कभी भी हो सकती है। पन्द्रह तारीख से बीस के बीच शुरू हो सकती है।”
“उसका घर है वह। उसकी देखभाल भी करनी होती है। घर की देखभाल न की गई तो वह जल्दी ही बरबाद हो जाता है।”
“फिर उसीकी देखभाल करे। रहे न वहीं।”
“तुम कैसी बातें करने लगे हो सरजू को लेकर।” शंकर सिंह के स्वर में गुस्सा था। “वह जब तक वहाँ था, तुमने ख़ुद क्यों नहीं काम शुरू किया था। मैं देख रहा हूँ कि सरजू के काम संभाल लेने के बाद तुम आलसी होते जा रहे हो। खेती का काम ऎसे नहीं होता बबुआ।”
“मुझे पता है, कैसे होता है। मैं संभाले हुए था न! और आगे भी संभाल लूंगा। आप चिन्ता न करें।” फिर स्वर को धीमा करते हुए जसवंत बोला, “बल्कि मैं तो सोच रहा हूँ कि सरजू अब केवल अपने ही खेतों में काम करे नयी ज़मीन है। अधिक मेहनत की ज़रूरत है उसे। मैं धनीराम (हलवाहा) के साथ बारिश के बाद लग जाउंगा।”
“ऎसे काम नहीं चलेगा।” शंकर सिंह ने फिर समझाने के स्वर में कहा, हालांकि उनके स्वर में रोष अभी भी शेष था, “हम लोगों को छोड़कर सरजू का अब कोई नहीं। सुजान सिंह और उनके परिवार ने उससे खेतों के कारण पूरी तरह कन्नी काट ली है। समझ नहीं आया कि महीपन सिंह और बिपिन सिंह ने अपने हिस्से के खेत कैसे उन लोगों को लिखा दिए. क्या महीपन सिंह को यह जानकारी नहीं थी कि सरजू है, सरजू की सौतेली माँ से भी संताने होंगी। आदमी इतना भावुक और उदार कैसे हो सकता है कि अपनी भावी पीढ़ी का हक़ अपने भाई और उनके परिवार को दे दे और बिपिन सिंह ने वैसा करने दिया था। बिपिन बड़ी नौकरी में भी न थे। एक सिपाही की नौकरी कितना मिलता रहा होगा।” देर तक चुप रहे शंकर सिंह, “सरजू को कदापि अहसास नहीं होने दो कुछ भी।” वह एक क्षण के लिए और रुके फिर धीमे सवर में बोले, “मैंने ठीक ही किया कि वह चरीदा उसके नाम करवा दिया वर्ना तो एक दिन वह सड़क पर होता।”
“मैं दुश्मन नहीं हूँ उसका” जसवंत के स्वर में फिर क्रोध था। “मैंने उसकी भलाई की ही बात की। मैं ख़ुद अनुभव कर रहा हूँ कि उसके कारण मैं आलसी हो गया हूँ। वह मुझे कुछ करने का मौका ही नहीं देता। मना करना भी उचित नहीं लगता कि कहीं वह अन्यथा न सोच ले। ठीक है, जब तक चल रहा है चलने दूंगा। लेकिन बापू यह बता दूं कि जिस दिन उसका मोह अपने खेतों के प्रति अधिक जाग उठा वह मेरे काम की ओर ध्यान देना कम कर देगा।”
“इसीलिए कह रहा हूँ कि समय से उठकर तुम भी खेतों की ओर निकल जाया करो और खाद कहाँ पड़ रही है, जहाँ पड़ रही वहाँ पड़नी चाहिए या नहीं, इतना ही देख लिया करो। इससे सरजू को भी अच्छा लगेगा” शंकर सिंह ने हल्की आवाज़ में कहा, “मैं तो यही सोचता हूँ।”
“जी.” जसवंत ने संक्षिप्त उत्तर दिया और पिता के पास से उठ गया।
जसवंत के पास खेतों के अलावा चार बीघा का एक बाग़ भी था, जिसमें आम और जामुन के पेड़ थे। हर साल शंकर सिंह बाग़ को भौंती के एक कुंजड़ा को अधाई में दे देते थे। कुंजड़ा हर दिन एक टोकरी आम और छोटी टोकरी में दूसरे-तीसरे दिन पके जामुन दे जाया करता था। इसके अलावा वह दूसरे-तीसरे दिन आम बैलगाड़ी में भरकर शहर ले जाता और मंडी में बेंच आता। किसी वर्ष बाग़ एक मुश्त रक़म में उसे ही बेचते थे शंकर सिंह। रक़म वह कुंजड़ा आगे-पीछे अदा किया करता था। शर्त यह होती कि जब भी पाल के लिए वह आम तोड़ेगा तो उसमें से चौथाई हिस्सा शंकर सिंह के लिए देगा और प्रतिदिन एक पसेरी टपके या पके तोड़े गए आम और जामुन उनके घर भेजा करेगा। इस प्रकार बाग़ की ओर से निश्चिंत थे शंकर सिंह। यह बाग़ उनके पूर्वजों ने वर्षों में लगाए थे, जिसमें कई आम के पेड़ चालीस-पचास साल से भी पुराने थे। एक पेड़ के बारे में वह अपने बाबा से सुना करते थे कि उनके बाबा ने उसे लगाया था। मतलब वह सौ साल पुराना हो रहा था। उसका आम इतना बड़ा होता कि एक सेर में दो आम ही चढ़ते थे। बेहद गूदादार। उसकी गुठली छोटी और पतली होती थी। एक आम खा लेने के बाद भोजन की इच्छा नहीं होती थी। हर दिन खाने से बचे आमों को रानी अमावट बनाती थी या निचोड़कर दोपहर में उसके साथ चपाती खायी जाती थीं। सरजू को यह पसंद था।
गर्मी में सब्जियाँ कम होतीं तो मूंग या उड़द की बड़ियाँ, आम का रस और खासकर अरहर की दाल पकायी जाती। सरजू सुबह पांच बजे से लेकर आठ-साढ़े आठ बजे तक पांस (खाद) फेंकता, फिर नाश्ता (चबेना) के लिए आ जाता। धनीराम के लिए भी रानी बेझर की दो मोटी रोटियाँ और मट्ठा देती थी, जबकि सरजू को बेझर की ही चपातियाँ और दूघ। धनीराम को दो आम मिलते तो सरजू के सामने पानी में पड़े आमों वाली बाल्टी आगे रख दी जाती। सरजू देखता और उसे अच्छा नहीं लगता। वह सोचता कि श्रम वह और धनीराम एक-सा करते हैं, फिर यह भेदभाव क्यों। उसने बहन से एक-दो बार इस बारे में कहा भी, लेकिन बहन ने जसंवत की ओर इशारा करके संकेत में समझाया कि उनका हुक्म है। जिस दिन जसवंत सामने नहीं था उस दिन उसने सरजू को समझाते हुए कहा था कि “मालिक का यही हुक्म है”। मालिक से उसका आभिप्राय जसंवत से था।
सरजू भी दो आम लेकर बाल्टी एक ओर खिसका देता था। प्रायः वह दूध के स्थान पर मट्ठे की मांग करने लगा था, लेकिन मट्ठा कम होता और उसे निराश होना पड़ता था। वह सोचता कि वह और धनीराम एक-सा श्रम करते हैं, फिर दोनों को एक-सा चबेना मिलना चाहिए. वह सोचता कि ग़रीबी इंसान के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। नाश्ता करने के बाद कुछ देर आराम करके धनीराम को लेकर वह पुनः पांस फेंकने के लिए निकल जाता। शुरू में उन्होंने पांस के ढेर थोड़ी-थोड़ी दूर पर एकत्रित किए. सभी किसान ऎसा करते थे। सभी खेतों में पांस पहुँच जाने के बाद वे सुबह-सुबह उन ढेरों को फावड़े से छितराते थे, जिससे पूरे खेत में पांस फैल जाती थी। खेत के चारों ओर मज़बूत मेड़ बनी होती और बारिश में छितरायी गयी वह पांस पानी के साथ धरती के अंदर प्रविष्ट होकर उसे उपजाऊ बनाती।
नाश्ता के बाद कुछ देर आराम करके धनीराम के साथ सरजू दोपहर बारह बजे या उससे कुछ अधिक देर पांस ढोने का काम करता। दोपहर के भोजन के लिए धनीराम घर जाता और शाम चार बजे के लगभग लौटता था। तब तक धूप का प्रभाव कम हो चुका होता। काम पुनः प्रारंभ हो जाता।
उस वर्ष जून बीस से तेज बारिश शुरू हो गयी। बारिश थमने के बाद जसवंत जाग्रत हुआ और उसने धनीराम और सरजू के साथ खरीफ के लिए छोड़े दस बीघे खेतों में ज्वार,अरहर,मूंग और उड़द बो दी। जसवंत के खेतों की बोआई के बाद सरजू ने अकेले ही अपने तीन बीघे खेतों में ज्वार और अरहर ही बोयी। शेष खेत उसने रवी के लिए छोड़ दिए. यद्यपि उसे उम्मीद कम थी कि उनमें वह गेहूँ बो पाएगा, क्योंकि खेत अधिक उपजाऊ नहीं बन पाए थे। इसलिए वह रवी में चना, मटर और जौ बोने का विचार किए हुए था। प्रयोग के लिए उसने सरसों बोने का विचार भी किया।
खेतों में खरीफ की बोआई समाप्त होने के लगभग एक माह बाद शहर से किसी के यहाँ एक मेहमान आया जिसने बताया कि दुनिया के तमाम देश भारी युद्ध की तैयारी कर रहे हैं और हवा है कि अंग्रेज सरकार भी उस लड़ाई में शामिल होगी। अफवाहें उड़ने लगीं कि विदेशी सेनाएँ देश की सीमा में घुसने वाली हैं और भयानक खून-खराबा होने वाला है। गाँव का जब कोई व्यक्ति शहर जाता, एक नया भयावह समाचार लेकर लौटता था ।