कानपुर टु कालापानी / भाग 19 / रूपसिंह चंदेल

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अगस्त के पहले सप्ताह में एक दिन सरजू शंकर सिंह से बोला, “बापू, मैं कुछ दिनों के लिए रानी घाट जाना चाहता हूँ। बरसात बहुत हुई है, पता नहीं घर का क्या हाल होगा। यहाँ मज़बूत से मज़बूत कई घरों की दीवारों को बारिश ने गिरा दिया है, मेरे घर की दो कोठरियाँ भी कच्ची हैं।”

“जसवंत को बता दो” शंकर सिंह ने खेती के मामलों से अपने को बिल्कुल अलग कर लिया था।

“उन्हें बिना बताए थोड़े ही जाउंगा।”

“भैंस ब्याने वाली है। कियाँर ख़ाकर जाना।” शंकर सिंह बोले।

“अभी उसे ब्याने में एक हफ्ता है। तब तक लौट आउंगा।”

शंकर सिंह चुप रहे। रानी को सरजू ने शाम बता दिया और सोचा कि सुबह जाने के समय वह जसवंत को बता देगा। वह लंबे समय से अनुभव कर रहा था कि जसवंत उससे कम बातें करने लगे थे। कारण तलाशने की वह कोशिश करता, लेकिन कुछ भी समझ नहीं आता। उसने इस बारे में रानी से भी पूछा। रानी बोली थी, “उनकी आदत है कम बोलने की। लेकिन मैं देख रही हूँ कि वह आजकल कुछ अधिक ही कम बोलने लगे हैं। तुम इसे अपने लिए मत मानो सरजू।”

सुबह जल्दी उठकर उसने जानवरों का सानी तैयार कर दिया और रानी से बोला कि धनीराम आकर उन सबकी नांदों में चारा डाल देगा। पांच बजे के लगभग, ऎसा ही उसका अनुमान था, क्योंकि घड़ी थी नहीं, वह तैयार होकर निकलने लगा। आसमान में बादल छाए हुए थे और अनुमान था कि बारिश होगी। लेकिन एक बार निर्णय करने के बाद वह उस पर अटल रहता था।

वह जसवंत की कोठरी में गया, जो नहा से जुड़ी हुई थी और जिसमें दो बड़े दरवाज़े थे, लेकिन उनमें किवाड़ नहीं थे। जसवंत कभी भी छः बजे से पहले नहीं जागते थे। वह गहरी नींद में थे और उनके तेज खर्राटे सुनाई दे रहे थे। कल्लू उनकी बगल में सो रहा था।

कुछ देर तक सरजू नहा पर खड़ा जसवंत को जगाए या नहीं सोचता रहा और अंततः जगाना उचित न समझ उसने रानी से कहा, “रानी, मैं जा रहा हूँ। तुम जीजा को बता देना कि मैं दो-तीन दिनों में लौट आउंगा।”

रानी कुछ नहीं बोली। सरजू ने उसके पैर छुए और चौपाल में बैठे शंकर सिंह के पैर छूकर जाने लगा तो शंकर सिंह ने आशीर्वाद देते हुए कहा, “बबुआ, आसमान में पूरब से घने बादल आते दिख रहे हैं। भारी बारिश की आशंका है। छाता लै लेव।”

“छाता घर में एक ही है बापू।”

“हाँअ” शंकर सिंह सोचने लगे कि कब से वह दो और छाते लाने की सोच रहे हैं, लेकिन “तबहूँ, संभल के जाना। रास्ता सही नहीं है। रपटीली ज़मीन है कई जगह।”

“आप चिन्ता न करें बापू।” और सरजू गली में उतर गया। हवा में ठंडक थी। ’लागत है कि कहीं बारिश हुई है।’ सरजू ने सोचा और गाँव के बाहर आ गया।

सरजू के रानी घाट पहुँचने तक बारिश नहीं हुई. सुबह बारामऊ से निकलने के समय जो हवा शरीर को बहुत आनंदित कर रही थी दिन चढ़ने के साथ उसमें उमस बढ़ती गयी थी। उसका कुर्ता घर पहुँचने तक पसीना से लथपथ हो चुका था। ताला खोल वह घर के अंदर दाखिल हुआ। एक अजीब-सा भभका उसके नथुनों से अंदर प्रविष्ट हुआ। ’बंद मकान और ऊपर से बरसात का मौसम’। बरोठा पार कर वह अंदर गया तो आंगन में ढेर सारी गंदगी एकत्रित थी। बारिश होने से पहले आंधी आने से बहुत-सा कूड़ा उड़कर आंगन में आ गिरा था। बारिश में वह सड़ा था और उसकी सड़ांध ने पूरे घर को अपनी चपेट में ले रखा था। उसने आंगन और स्नानघर के पानी के निकासी के रास्ते को भी रोका हुआ था।नहा के चारों ओर काई एकत्रित थी।

’इसका मतलब है कि इस कूड़े के कारण आंगन में पानी एकत्रित हुआ।’ उसने सोचा, ’मुझे अब इस घर की देखभाल करने के लिए यहीं रहना चाहिए. बारामऊ यहाँ से बहुत दूर नहीं है। जब खेतों में काम करने की बात होगी, चला जाया करूंगा।’ उसने सोचा। तभी विचार कौंधा, ’लेकिन केवल अपने खेतों में काम की बात होती तो ऎसा संभव था, लेकिन रानी के खेतों में भी लगना होगा। यहाँ रहकर यह संभव नहीं।’ उसने कपड़े उतारे और नंगे बदन कच्छा पहन जो वह साथ लाया था आंगन का कूड़ा एकत्रित करने लगा।

’लेकिन बारामऊ में अधिक दिनों तक मैं रहूँगा?’ मन में प्रश्न उभरा। बापू (शंकर सिंह) ने मेरे लिए खेतों का इंतज़ाम करवा दिया, लेकिन मेरा मन अब वहाँ नहीं लगता। पिछले कुछ दिनों से जीजा का रुख भी मेरे अनुकूल नहीं है। लगता है कि घर में रहना अब उन्हें पसंद नहीं। या और भी कोई कारण हो सकता है। हालांकि चरीदा को मेरे नाम लिखवाने या अलग से कुछ करने का सुझाव उन्होंने भी बापू को दिया था। फिर बात क्या है!’ वह कूड़ा एकत्रित करता रहा और सोचता रहा, ’रानी भी कह रही थी कि वह स्वयं उनके स्वभाव में परिवर्तन देख रही थी। अब उनके स्वभाव की क्या बात मेरा ही मन नहीं रम रहा।’ तभी उसके दिमाग़ में एक विचार तेजी से कौंधा, ’मेरे खेतों का क्या होगा। यह संभव नहीं कि यहाँ रहकर उन्हें संभालूं। हाँ एक काम हो सकता है एक-दो साल उनमें जमकर मेहनत करके उन्हें उपजाऊ बनाने के बाद किसी को अधाई पर दिया जा सकता है।’ इस विचार से उसे कुछ सांत्वना मिली, लेकिन विचार फिर भी उसका पीछा छोड़ने को तैयार नहीं थे, ’ लेकिन उस दिन के लिए मुझे दो साल बारामऊ में बिताने होंगे।’ इस विचार के मन में आते ही वह विचलित हो उठा।

कूड़ा एक टोकरे में भरकर वह उसे दूर उस जगह फेंक आया जहाँ कूड़े का ढेर लगा हुआ था।

कूड़ा फेंककर वह लौट ही रहा था कि बड़े-बड़े बूंद टपटपाने लगे और घर पहंचने से पहले ही तेज बारिश शुरू हो गयी। सिर को बचाने के लिए उसने टोकरा सिर पर उलट लिया और दौड़ पड़ा, लेकिन तत्काल सोचा कि वह तो नंगे बदन है। बस कच्छा पहन रखा है। उसे भीगना चाहिए. छत पर चढ़कर देखना चाहिए, कहीं कोठरियों की छत पर ऎसा ही कूड़ा एकत्रित न हो। उसने सिर पर से टोकरी हटा ली और बांस की पुरानी नसेनी (सीढ़ी) पक्की कोठरी की ओर लगायी। नसेनी के दो डंडे जर्जर थे, जिन्हें मूंज की रस्सी से मजबूती के साथ बाँधा गया था। बारिश तेज थी। पनालियों से भल-भल करके पानी सड़क पर गिर रहा था। उसी के परनाले से नहीं सभी घरों के परनाले इतनी तेज गति से पानी फेक रहे थे कि यदि गली से गुजरता कोई व्यक्ति उनकी जद में आ जाए तो उसका सिर घायल होना संभव था। जिनके घर कच्चे थे उनकी छतों का पानी गंदा-मटमैला और जिनके पक्के थे उनसे साफ़ पानी बहकर गली, जो बीस फुट चौड़ी थी, में भर रहा था। गली में भी घुटनों तक पानी चढ़ गया था। सारा पानी गंगा में जाकर गिरता था, लेकिन वहाँ तक जाने तक उसे समय लगता था। तमाम अवरोध थे और इस कारण गली में घुटनों तक पानी भर जाता था।

संभलकर नसेनी चढ़कर ऊपर पहुँच सरजू ने देखा कि छतें साफ़ थीं। पानी का निकास सड़क की ओर था और सड़क की ओर पक्की बनी दोनों कोठरियों को पारकर जाता था। कच्ची कोठरियाँ पीछे की ओर थीं, इसलिए उनका मटमैला पानी बहकर पक्की छतों से गुजरता था। वह देर तक बारिश का आनंद लेता रहा।

उसने अनुमान लगाया कि बारह से ऊपर का समय होगा। उसने नाश्ता भी नहीं किया था। नाश्ता के लिए रानी ने सत्तू बाँध दिए थे और दो भेली गुड़ भी थैले में रख दिया था। पिछली बार जब वह आया था, रानी ने एक पसेरी चावल भी दिए थे। भूख की अनुभूति होते ही भूख की तीव्रता बढ़ गयी। वह संभलकर नीचे उतरा और नसेनी को लकड़ी वाली कोठरी में रखकर खाने के विषय में सोचने लगा।

उस दिन दोपहर के समय शुरू हुई बारिश अगले दिन और रात तक होती रही। अगले दिन दोपहर कुछ समय के लिए रुकी तो सरजू गंगा घाट की ओर गया। गंगा का दृश्य देख वह कांप उठा। गंगा पूरे उफान परथी। पानी घाट की ऊपर की सीढ़ी तक पहुँच चुका था। ’यदि वर्षा का यही हाल रहा तब तो मेरे घर तक पानी आ सकता है’ उसने सोचा। पास के मंदिर के चबूतरे पर बैठ वह उफनती गंगा को देखता रहा। कुछ और लोग भी वहाँ बैठे थे और गंगा के बढ़ाव पर चर्चा कर रहे थे।

“मेरे बाबा बताया करते थे कि जब वह छोटे थे तब एक बार गंगा में इतनी भयानक बाढ़ आयी कि उसने गाँव के गाँव लील लिए थे। बाबा का गाँव भी गंगा के किनारे थे। लेकिन बाढ़ का पानी पहुँचने से पहले ही गाँव वाले गाँव छोड़कर भाग गए थे। गाँव में बस एक बूढ़ा रह गया था। “

उसकी बात बीच में ही काट एक व्यक्ति ने पूछा, “क्या नाम था तुम्हारे बाबा का?”

“नाम नाम याद नहीं आ रहा याद आते ही बताउंगा।”

“चल तू अपनी कथा चालू रख।” दूसरे ने कहा। उन सबकी उम्र पचास से साठ के बीच थी। ’ये घर से खाली लोग हैं’ सरजू ने सोचा।

“बाबा बताते थे कि मवेशियों को बाढ़ में बहते उन्होंने देखा था। एक औरत को छप्पर पर बहते देखा जो हाथ उठाकर अपने बचाने की गुहार लगा रही थी। किसकी हिम्मत थी कि क्रोध में फनफनाती गंगा में उसे बचाने के लिए जाता और बहाव इतना तेज कि जब तक कोई उस तक पहुँचता वह एक मील दूर जा चुकी होती।” उसने गंगा की ओर इशारा करते हुए कहा, “देख रहे हो न! वह देखो कोई कच्चा घर बहा जा रहा है।” सरजू ने देखा कि घर की दीवारें लगभग डूबी हुई थीं और उन पर छप्पर रखा हुआ था। सही मायने में छप्पर ही बहता हुआ दिख रहा था।

“मैंने तो घाघरा को देखा बरसात के दिनों में उसके पाट का दूसरा छोर नहीं दिखता। उसे देखने से ही डर लगता है।” यह तीसरा बूढ़ा व्यक्ति था।

तभी गंगा में छपर छपर करते एक कुत्ते पर सबकी नज़र पड़ी। सरजू ने भी उसे देखा और उसका मन हुआ कि वह गंगा में छलांग लगा दे और उसे पकड़ लाए. लेकिन तभी कुत्ते के सामने एक मोटी लकड़ी आ गयी। कुत्ता हिम्मत जुटा उस चौड़ी-बड़ी लकड़ी पर चढ़ने में कामयाब हो गया। वह किसी पेड़ का तना था, जिसकी डालें टूटकर पानी में बह गयी थीं। एक बड़ी डाल उसमें अटकी हुई थी। वह आम का पेड़ था। अटकी डाल में कुछ पत्ते थे और उनके बीच एक आम लगा हुआ देखा सरजू ने। तना किनारे की ओर खिसक रहा था। सरजू ने सोचा कि वह कुत्ते को बचा सकता है। वह घाट से नदी के बहाव के साथ धीरे-धीरे खिसकने लगा और सच ही पेड़ का भारी तना धीमी गति से किनारे बिल्कुल किनारे आ लगा था। सरजू ने हिम्मत बाँधी और पानी में कमर तक घुस गया। कुत्ता बेहद भयभीत था, लेकिन उसे भी कहीं यह आशा बंधी थी कि आने वाला युवक उसकी जान बचाने के लिए आया था। वह तने से चिपका रहा। सरजू ने पानी में तरबतर कुत्ते को कमर के पास पकड़ा और उठाकर कंधे पर रख लिया और तने पर एक हाथ टेकता ऊपर आ गया। कुत्ते को वह उसी प्रकार कंधे पर लिए घर लाया। उसने सूखे कपड़े से उसे पोछा। कुत्ता कांप रहा था। सरजू ने उसे चादर से ढक दिया। फिर जल्दी से चूल्हा जला चार चपाती सेंकी और रामरिख के घर की ओर भागा। चाची दरवाज़े पर ही मिल गयीं।

“तू कब आया सरजू?”

“चाची दो दिन हुए लेकिन बाक़ी बातें बाद में –मुझे एक गिलास दूध दो एक कुत्ते की जान बचाकर लाया हूँ गंगा से बहा जा रहा था उसे खाना देना है। पता नहीं कब से उसने खाना नहीं खाया होगा।”

“तू गंगा में तैरा?” चाची के स्वर में गुस्सा था।

“नहीं चाची –कुत्ता किनारे आ लगा था। उसे बचना था। मैं वहीं था। उठा लाया।”

“नेक काम किया तूने बेटा। तेरे बापू भी ऎसे ही थे। बापू जैसा जिगरा पाया है तूने।” चाची ख़ुश थीं और सरजू से लोटा लेकर वह घर के अंदर गयीं और लोटा भरकर दूध ले आयीं। “खाना क्या खिलाएगा उसे?”

“चपाती बना ली हैं।”

“घर को पराया क्यों समझता है जब भी आया कर –जितने दिन रहा कर इधर ही खाया कर।”

“चाची—आप बहुत अच्छी हैं आप सभी, लेकिन मैं हूँ रमता जोगी-बहता पानी कभी कहीं तो कभी कहीं। मुझे खाना बनाना सीखना है। बनाउंगा तभी न सीखूंगा।”

“वह तो तुझे आता ही है।”

“आदत बनी रहनी चाहिए चाची।”

“तुझसे बातों में कोई जीत नहीं सकता।” चाची हंसी और पोते के रोने की आवाज़ सुनकर घर के अंदर चली गयीं।

सरजू ने दूध के साथ दो चपाती कुत्ते को दीं, “ले खा और चुपचाप सो जा।”

दूध रोटी देख कुत्ता खाने के कटोरे पर टूट पड़ा और देखते ही देखते चट कर गया।

“अभी और खाएगा?” सरजू ने उसके सामने से कटोरा हटाते हुए कहा, “लेकिन अभी दूंगा नहीं। वर्ना तू जीने के बजाए मर जाएगा।”

कुत्ता देर तक सरजू और कटोरे को ललचाई नजरों से देखता रहा, लेकिन फिर उस बोरे पर जा लेटा जिसे सरजू ने उसके लिए फ़र्श पर बिछाया था।