कानपुर टु कालापानी / भाग 1 / रूपसिंह चंदेल

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घर से एक फर्लांग की दूरी पर रहने वाले चरना धानुक के मुर्गे ने बांग दी। बांग इतनी तेज थी कि उसकी नींद खुल गयी। वैसे भी जिस दिन उसे जाना होता वह ढंग से सो नहीं पाता था। मुर्गे ने उतनी ही ऊँची आवाज़ में पुनः बांग दी तो वह खटोली से नीचे आ गया। घर में ही नहीं घर के बाहर भी घुप अँधेरा था। उसने घर के सामने सड़क पर आहट लेने का प्रयास किया, लेकिन सड़क पर किसी के चलने की आहट उसे नहीं मिली। न ही मोहल्ले में किसी के जागने की। प्रायः सुबह जागने पर उसे पास के घर के बुज़ुर्ग पंडित धनीराम तिवारी की- “सिया राम मय सब जग जानी” गुनगुनाने की आवाज़ सुनाई देती थी, लेकिन उस दिन उनके यहाँ भी सन्नाटा था। ’रात अभी बहुत बाक़ी है लेकिन अब तो जग ही गया हूँ। गंगा स्नान करके लौटने तक भोरहरा हो जाएगा। नहीं हुआ तो रुक जाउंगा।’ उसने सोचा।

उसने पास रखी टार्च जलायी और खटोली के सिरहाने रखी कमीज पहनी। टार्च बंद कर वह आंगन में निकल आया। आसमान की ओर देखा, शुकवा पूरे वेग से दपदपा रहा था। ’अबहीं चार भी नहीं बजा शायद’। उसने जूते पहने और ग़मछा कंधे पर डाल लोटा लेकर घर से बाहर आ गया। बाहर सड़क किनारे दो कुत्ते गहरी नींद सो रहे थे। उसने ताला बंद किया और सड़क पर उतर गया। उसके सड़क पर उतरते ही दोनों कुत्ते अंगड़ाई लेकर उठ बैठे और अलसाई नजरों से उसे देखने लगे। उनकी चमकती आंखों से उसे ऎसा ही लगा। उसके दो क़दम आगे बढ़ते ही दोनों फिर उसी प्रकार सोने के लिए लेट गए.

उसके घर से गंगा अधिक दूर न थीं। घर से मुख्य सड़क पर आने पर एक सरकारी दफ़्तर था। दफ़्तर में सन्नाटा पसरा हुआ था। एक चौकीदार दफ़्तर के बाहर चारपाई पर लेटा खर्राटे ले रहा था। उसके आस-पास कोई मकान नहीं था। दफ़्तर के नाम पर तीन कमरे थे। वह नहीं जानता था कि वह किस काम का दफ़्तर था, लेकिन उसे किसी ने यह बताया था कि कभी-कभी किसी क्रान्तिकारी को उसने वहाँ बंद किया जाता देखा था। एक कमरा इस काम के लिए था। हालांकि वहाँ यदा-कदा ही किसी को बंद किया गया था। उसने यह मान लिया था कि वह नवाबगंज थाने की चौकी होगी। कानपुर का वह क्षेत्र पुराना कानपुर के नाम से जाना जाता था, लेकिन शहर से दूर होने के कारण वहाँ बसावट अधिक न थी। फिर भी लोग आने लगे थे और बहुत सारे सरकारी दफ़्तर पुराना कानपुर और नवाबगंज में खुल गए थे। उस दफ़्तर की बाउण्ड्री दीवार कच्ची ईंटों की थी और कमरों में खरंजा बिछा हुआ था। जो चौकीदार वहाँ सो रहा था, वह वहाँ के एक कमरे में ही रहता था।

उसने दिन में कुछ कर्मचारियों को वहाँ काम करते देखा था। वे क्या काम कर रहे होते उसे पता न था।

वह गंगा की ओर बढ़ रहा था। उस दफ़्तर से कुछ क़दम आगे जाने पर एक तिराहा-सा बनता था। एक गली मुख्य सड़क पर आकर मिलती थी। उसे दो महिलाओं की आवाज़ सुनाई दी। उस तिराहे के पास पहुँचने पर दोनों महिलाएँ “गंगा मइया, तोहे चुनरी चढ़इबे“ सस्वर गाती हाथ में लोटा और धोती पकड़े गंगा की ओर जाने के लिए मुड़ीं। उनमें एक रामरिख सिंह की पत्नी थीं, जिनकी उम्र पचास वर्ष के लगभग थी और दूसरी उसने अनुमान लगाया कि उनके बड़े बेटा की बहू होगी। बहू का अनुमान उसने उसके घूंघट से लगाया, जबकि रामरिख की पत्नी यानी उस युवती की सास ने केवल सिर पर पल्ला डाल रखा था,जिन्हें वह चाची कहता था।

“अरे बबुआ, तुम कब आए?” चाची ने देखते ही उससे पूछा।

“कल ही रात चाची”।

“बहिन अउर बहनोई ठीक हैं सब कुशल मंगल है न?”

“जी चाची।”

रामरिख सिंह उसके पिता बिपन सिंह के साथ नवाबगंज थाने में सिपाही थे। दो साल पहले उनका तबादला बिठूर कर दिया गया था। थाने की नौकरी थी इसलिए वह वहीं रहते थे। हालांकि उन्होंने एक घोड़ा ले रखा था और महीने में एक-दो बार रातभर के लिए घर आ जाते थे।

वह रामरिख सिंह की पत्नी के साथ चलने लगा। बहू दोनों के पीछे चलने लगी कुछ दूरी बनाकर। रामरिख को वह चाचा कहता, उस नाते उनके बेटे उसके भाई लगते थे। गांवों में ये रिश्ते होते ही हैं उस जैसे मोहल्ले में गाँव जैसे रिश्ते ही निभाए जा रहे थे। वहाँ अभी भी गाँव का ही माहौल था। हालांकि बस्ती तेजी से बस रही थी और जो लोग आपस के जान-पहचान के थे उनके आपसी रिश्ते गाँव की भांति बन गए थे। यह बात केवल नवाबगंज और पुराना कानपुर में ही लागू नहीं थी, कानपुर की संस्कृति में ही यह खूबी थी।

“रहिहौ सरजू बबुआ कछु दिन?” रामरिख की पत्नी ने पूछा।

“चाची“ वह कुछ कहते हुए रुक गया।

“कछु कहा चाहत हौ?”

“चाची, मैं अभी गंगा स्नान करके लखनऊ जाउंगा गोमती में स्नान करने के लिए।”

“कइसे? कउनो साधन—घोड़ा-गाड़ी है?”

“न चाची ई पैर हैं न बहुत मज़बूत हैं।” सरजू बोला।

“अरे बबुआ, अबही तुम्हारि उमिर ही का है नखलऊ कउन नज़दीक है?”

“साठ-बासठ मील होई चाची“

“इतनी दूर तुम पैदल जइहौ।”

“पहले भी जा चुका हूँ।”

“अंय!” चाची ने मुंह पर हाथ रख लिया, जिसे उसने तारों की रोशनी में देख लिया। “तू तो निरा पागल हौ सरजू मां-बाप न हैं तो तू जब जहाँ मन किया चलि देत हौ।”

“चाची“ वह रुका एक क्षण, “चाची, कउनो ग़लत काम न कीन न कबहूँ करब” सरजू चाची की भाषा में बोला, “मुझे अपने पिता की इज़्ज़त और आप सबकी इज़्ज़त का खयाल है चाची। यह मेरा शौक है कि यहाँ गंगा स्नान करके पांच बजे लखनऊ के लिए चल देता हूँ और शाम पांच बजे तक गोमती में स्नान करने के लिए पहुँच जाता हूँ।”

“फिर रात भर चलकर कानपुर मा कल सबेरे गंगा सनान करत हौ।”

“नहीं चाची रात वहीं रुक जाता हूँ। घाट में कोई न कोई साधु-संत होता ही है वहाँ। प्रवचन सुनता हूँ। फिर सुबह पांच बजे गोमती में स्नान करके शाम यहाँ पांच बजे पहुँचकर गंगा में स्नान करता हूँ आकर।”

“तू निरा पागल है रे सरजू” चाची हंस दीं।

“पागल ही समझो चाची मुझे इसमें मज़ा आता है। बड़ा सुकून मिलता है।”

उसके अलग होने का स्थान आ चुका था। चाची घाट की ओर जाने के लिए मुड़ने वाली थीं कि रुक गयीं और बोलीं, “सरजू, तुम मन लगाकर बहनोई के साथ खेती करौ तुम्हार खेत भी तुम्हरे गाँव मसवानपुर मा हैं तुम्हारे पिता उन्हें बटाई मा देत रहैं तुम उनहूँ को भी संभालो।”

“चाची” सरजू का स्वर धीमा था, “चाची मसवानपुर के खेत बापू ने बाबा के मरने के बाद अपने चचेरे भाई को दे दिया था।”

“तो? खेत तो तुम्हार ही है न!”

“नहीं चाची अब उनमें मेरा कोई अधिकार नहीं। बापू ने उन्हें ही लिखवा दिया था। उनके बच्चे नौकरी नहीं करते थे। केवल किसानी थी उनकी।”

“ओह!”

“ बहन रानी के ससुर ने दस बीघा चरीदा की ज़मीन मेरे नाम लिखवाने की बात है जिसे मैं खेती लायक तैयार कर लूंगा। “

“चलो अच्छा है बबुआ। जल्दी से बड़े होई जाव---शादी करौ जेहसे ई घर फिर से बसे। तुम्हरी सौतेली माई तो तुम्हरे बाबू (बापू) के मरैं के बाद बेटवा को लैके एक बार जो मइके गई तो इस घर की सुधि भी न लीन्हेसि।”

वह चुप रहा। दिसा-मैदान जाने के लिए मुड़ गया। पीछे से उसे रामरिख की पत्नी की आवाज़ सुनाई दी, “बबुआ नखलऊ जांए समय बहुत संभल कै जायो।”

“जी चाची।”