कानपुर टु कालापानी / भाग 20 / रूपसिंह चंदेल
सुबह आठ बजे सरजू जयराम सिंह राठौर से मिलने के लिए घर से पैदल निकल पड़ा। यद्यपि उसने गोमती में स्नान करने जाने का कार्यक्रम बंद कर दिया था,लेकिन पैदल चलने का अभ्यास उसने जारी रखा था। बारामऊ से जब भी रानी घाट के अपने घर आता पैदल और लौटकर भी पैदल ही जाता था। वैसे भी कोई साधन नहीं था। कभी कभी कोई इक्का-तांगा शहर जाता दिखाई देता, जो संचेड़ी से शहर जाते, लेकिन उनमें पहले से ही सवारी पूरी तरह ठुंसी होती थीं।
जब वह स्वेदीशी मिल पहुँचा दस बज चुका था। गेट पर पता चला कि जयराम सिंह आए तो हैं लेकिन किसी अफसर के साथ कहीं गए हैं। उसने गेट पर तैनात संतरी से वहीं बैठकर इंतज़ार करने के विषय में पूछा। संतरी कोई नया व्यक्ति था। उस दिन वाला तिवारी नहीं था। उसने जयराम सिंह और उसके रिश्ते के विषय में जानना चाहा, “रिश्तेदार हैं?” संतरी ने पूछा।
“नहीं, जान-पहचान है।”
“कैसे?”
सरजू को लगा कि संतरी को संक्षेप में कहानी बता ही देनी चाहिए. उसने पिछली मुलाकात की कहानी कह दी। सुनकर संतरी बोला, “तुम्हारे लिए यहाँ कोई नौकरी नहीं कहुं और द्याखौ काहे समय खराब करि रहे हौ।”
“मैं नौकरी के लिए नहीं आया। शहर आया तो राठौर जी से मिलने चला आया। उन्होंने कहा था कि जब भी शहर आऊँ मिलकर जाया करूंगा।”
“राठौर भइया बहुत नेक दिल इंसान हैं। तुम अइस करौ कि ई केबिन मा बैठि जाव राठौर भइया अइहैं तौ हम बता देब।” संतरी मुलायम पड़ गया था।
बारह बजे के लगभग जयराम सिंह राठौर एक अधिकारी की बग्घी में पीछे बैठा प्रकट हुआ। गेट के अंदर जाते ही बग्घी रुकी और राठौर उससे नीचे उतर गया। बग्घी उस अधिकारी को लेकर उसके दफ़्तर की ओर चली गयी जो वहाँ से कुछ दूरी पर था। वह एक भारतीय अधिकारी था जो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से बैरिस्टर की उपाधि लेकर लौटा था और आते ही उसे मिल में मैनेजर बना दिया गया था। उसका नाम शिवनारायण शुक्ला था। शिवनारायण जूनियर मैनेजर था। उससे ऊपर कई अंग्रेज अधिकारी थे। शुक्ला की उम्र लगभग तीस वर्ष थी। वह कुशाग्र बुद्धि और तेज तर्रार युवक था और कई विषयों में उसने मिल के शीर्ष प्रबन्धकों को ऎसी सलाहें दी थीं जिससे मिल को लाभ हुआ था। वह कानपुर के एक सम्पन्न परिवार से था और सिविल लाइन्स में उसकी कोठी थी। उसके पिता इलाहाबाद हाई कोर्ट में जाने-माने वकील थे और बहुत धन कमाया था, लेकिन पुत्र के बैरिस्टर बनकर लौटने और स्वदेशी मिल में अच्छे पद पर नियुक्त होने के बाद उन्होंने प्रैक्टिस छोड़ दी थी। यद्यपि उन्होंने चाहा था कि बेटा भी हाई कोर्ट में प्रैक्ट्रिस करे, लेकिन थोड़ा सुविधाओं में जीने का आदी शिवनारायण ने नौकरी चुनी थी।
संतरी ने जयराम सिंह राठौर को बताया कि उससे मिलने के लिए एक युवक केबिन में बैठा हुआ है। राठौर केबिन की ओर गया और सरजू को देखकर चिहुंकता हुआ बोला, “कितनी देर हुई सरजू?”
जयराम सिंह के पैर छूता हुआ सरजू बोला, “घण्टा-डेढ़ हुआ।”
“चलो, चाय की दुकान में बैठते हैं।” और सरजू को लेकर वह चाय की दुकान पर जा बैठा। मौसम अच्छा था। आसमान में बादलों के टुकड़े पश्चिम की ओर दौड़ रहे थे। हवा चल रही थी, जिससे उमस का अहसास नहीं हो रहा था। सामने खड़े पीपल के पेड़ के पत्ते आपस में लड़ते मधुर संगीत निकाल रहे थे।
“भइया दुई चाय और कुछ खाने के लिए.” जयराम सिंह ने कुर्सी पर बैठे हुए ही दूर से ही दुकानदार गुप्ता को आवाज़ दी। एक किशोर दौड़ा आया, “ठाकुर साहब, खाने में क्या लेंगे।?”
“का है?”
“पकौड़े हैं प्याज और आलू के “ लड़के ने सरजू की ओर देखा और बोला, “मौसम भी तो पकौड़ों का ही है न ! बिस्कुट भी हैं।”
“एक प्लेट में पकौड़े और चाय ले आ जल्दी से।”
लड़का वापस दौड़ गया।
“बहुत दिनों बाद आए.?” राठौर ने पूछा
“खेतों में काम बहुत है। अब मेरे भी दस बीघा खेत हैं कुल मिलाकर सुबह चार बजे से रात दस बजे तक फुर्सत नहीं मिलती। कई बार अखाड़ा भी छूट जाता है।”
“न अखाड़ा मत छोड़ना वर्ना शरीर खराब हो जाएगा।” राठौर ने सलाह दी।, “तुम्हारे बहनोई ने नौकर नहीं रखा?”
“है पर काम ही इतना है।”
“बहनोई कुछ नहीं करते।”
“आजकल कुछ ढीले पड़ रहे हैं।”
“तुम्हारे कारण। यह ठीक नहीं। कल को तुम्हारी अपनी गृहस्थी होगी ।” राठौर के चेहरे पर चिन्ता उभर आयी।
“मेरा मन भी अब वहाँ नहीं लग रहा। सोचता हूँ कि कहीं शहर में अपना घर तो रहने के लिए है ही...।”
“चाय पी लो, फिर सुकुल जी से मिलवाउंगा। बहुत काबिल नौजवान हैं। विलायत से पढ़के आए हैं। यहाँ सभी बड़े अफसर उन्हें बहुत मानते हैं। हो सकता है वह विल्सन से बात करें और वह तुम्हें रखने को राजी हो जाए.”
“ठीक है।” चाय पीते हुए सरजू बोला।
चाय पीकर राठौर सरजू से बोला, “तुम कुछ देर बैठो यहीं, मैं अभी आया।” और उठकर वह उस ओर चला गया जिधर अफसर बैठते थे। पांच मिनट बात वह लौटा और सरजू से बोला, “चलो, साहब तुम्हें बुला रहे हैं।”
“कौन साहब? विल्सन साहब?”
“नहीं शुक्ला जी। उनके पास गया था तुम्हारे बारे में पूछने।” क्षणभर रुककर राठौर बोला, “उनके साथ ही गया था बग्घी में। “
सरजू राठौर के पीछे चल पड़ा। कुछ दूर जाने पर अफसरों के कमरे दिखाई देने लगे। एक कमरे के बाहर रुककर राठौर ने उसे रोका, “तुम रुको। मैं बता दूं। कहीं किसी अफसर के साथ मीटिंग न करने लगे हों।”
सरजू ने देखा कमरे के दरवाज़े से सटाकर खस की टट्टियों की कोठरी-सी बनायी गयी थी और एक युवक वहाँ तैनात था उसमें पानी के छिड़काव के लिए. युवक के बैठने के लिए लकड़ी का एक स्टूल पड़ा हुआ था। वह उसपर तनकर बैठा हुआ था। सरजू उसके दूसरी ओर खस की टट्टी के प्रवेश द्वार की ओर खड़ा उस युवक को देखता रहा और सोचता रहा, ’आज तो मौसम अच्छा है, लेकिन जब तेज गर्मी पड़ती होगी तब इसे यहाँ लू के थपेड़े लगते होंगे, लेकिन नौकरी तो है न इसके पास! खेतों में मैं ही कौन मौज करता हूँ। खाद डालने के दौरान क्या हाल होता है इससे तो यह बेहतर है। शाम छुट्टी होने पर घर तो जाता होगा। किसान को न दिन का होश और न रात का।’
वह सोच ही रहा था कि तभी राठौर लपकता हुआ कमरे से निकला और बोला, “ साहब को एक और मीटिंग में जाना है। बोले जल्दी से लेकर आओ.” और वह खस की टट्टियों के बने दरवाज़े से अंदर घुसा। उसके पीछे सरजू भी अंदर गया। लंबा, भरा शरीर, बड़ी आंखें, काले बाल और गोल बड़े चेहरे वाला एक अति सुन्दर युवक सामने कुर्सी पर बैठा कुछ काग़ज़ों को उलट-पलट रहा था। राठौर बोला, “साहब, यह है सरजू सिंह।”
सरजू ने हाथ जोड़कर नमस्ते की, जिसे शुक्ला ने नहीं देखा।
“बोलो, क्या काम है मुझसे।” काग़ज़ों में सिर गड़ाए हुए ही शुक्ला बोला।
“साहब, नौकरी के लिए आया था।”
“उस बारे में राठौर ने आपको बताया नहीं।”
“बताया था साहब।” सरजू उसी प्रकार हाथ जोड़े हुए ही बोला। इस बार उसने देखा साहब ने उसकी ओर आंखें उठाकर देखा था। वह प्रसन्न हुआ।
“तुम तो बहुत छोटे हो मियाँ।” शुक्ला मुस्कराते हुए बोला।
“साहब, मैं एक हज़ार दण्ड और एक हज़ार बैठक लगा लेता हूँ। पहलवानी करता हूँ।”
“फिर भी “ शुक्ला कुछ देर सोचता रहा, फिर बोला, “तुम एक काम कर सकते हो। “
“जी साहब।”
“योरोप में युद्ध शुरू हो चुका है। वह इतनी जल्दी समाप्त नहीं होने वाला। बहुत सारे देशों के शामिल होने की उम्मीद है। हमारी सरकार ने भी तैयारी शुरू कर दी है। फ़ौज में नए रंगरूटों की भर्ती शुरू हो चुकी है। पता है तुम्हें?”
शुक्ला ने सरजू और राठौर –दोनों की ओर क्रमशः देखते हुए पूछा।
“नहीं साहब!”
तुम अपना भाग्य वहाँ आज़मा सकते हो। याद रहे यदि हमारी सरकार उसमें कूदी और कूदना ही होगा उसे और तुम फ़ौज में भर्ती हो गए तब तुम्हें लड़ने के लिए बाहर जाना होगा।”
“कहीं भी चला जाउंगा साहब।” सरजू ने फिर हाथ जोड़ दिए. कुछ देर पहले उसने हाथ नीचे कर लिए थे।
“भर्ती के लिए तुम्हें आगरा जाना होगा। वहाँ कैण्ट में भर्ती हो रही है।”
“ठीक है साहब।”
“साहब, कोई जान-पहचान का कोई अफसर हो तो उसके नाम चिट्ठी लिख दें।” राठौर बोला।
“मेरी जान-पहचान फ़ौज में नहीं है और उसकी ज़रूरत भी नहीं होगी सरकार को रंगरूट चाहिए. अफसरों को जंच गया तो हो जाएगा। मज़बूत शरीर तो है ही इसका।”
“जी साहब।” राठौर बोला।
“ठीक है।” यह जाने का संकेत था। शुक्ला ने भी काग़ज़ों में सिर गड़ा लिया था।
बाहर निकलकर राठौर बोला, “कई दिनों से लड़ाई की खबरें आ रही हैं। जर्मनी ने किसी देश पर 29 जुलाई को हमला कर दिया है। सुना है कि बहुत भयानक लड़ाई होने वाली है।”
“गांव में भी समाचार पहुँच रहे हैं। वहाँ तो लोग यहाँ तक कह रहे हैं कि दुश्मन देश की सीमा पर आ गया है। फिर तो लड़ाई यहाँ भी होगी।”
“अभी ऎसा नहीं है। लेकिन अगर इसने भयानक रूप लिया तब कुछ भी हो सकता है।”
“फिर मुझे क्या सलाह है आपकी?” राठौर के चेहरे की ओर देखते हुए सरजू ने पूछा।
“तुम किसी दिन आगरा चले ही जाओ.”
“और न हुआ तब?”
“तब गाँव तो है ही। कुछ दिनों बाद फिर कोशिश करना।”
“ठीक है। इसके लिए मुझे घर में बताना होगा और यह सुनकर कि मैं आगरा फ़ौज में भर्ती होने जा रहा हूँ, जाने न देंगे।”
“बेवकूफ हो क्या?”
सरजू जयराम सिंह राठौर के चेहरे की ओर देखने लगा। उस समय वे गेट के निकट पहुँच गए थे।
“तुम्हें यह सब बताने की क्या ज़रूरत। लौटकर बारामऊ जाओ और हफ्ता-दस दिन बाद रानी घाट आने के बहाने आगरा जाओ. काम बन जाता है तब किसी तरह बता देना। यदि समय दिया जाता है तब गाँव आकर बता देना वर्ना चिट्ठी लिखवा देना। मन में जब ठान लिया है कि नौकरी करना है तब डर किस बात का!”
“जी, ऎसा ही करूंगा।” सरजू राठौर के पैर छूने लगा।
“एक चाय और हो जाए.”सरजू कुछ नहीं बोला। राठौर उसे लेकर वापस चाय की दुकान की ओर चल दिया।