कानपुर टु कालापानी / भाग 21 / रूपसिंह चंदेल
प्रथम विश्वविश्वयुद्ध ऑस्ट्रिया के सिंहासन के उत्तराधिकारी आर्च ड्युक फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या के कारण प्रारंभ हुआ था। यह घटना 28 जून1914, को सेराजेवो में हुई थी। एक राष्ट्रवादी यूगोस्लाव नागरिक गैब्रिलो प्रिंसिंप ने 28 जून,1914 को हत्या को अंजाम दिया था। एक माह के बाद ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध घोषित किया। रूस, फ़्रांस और ब्रिटेन ने सर्बिया की सहायता की और जर्मनी ने आस्ट्रिया की। अगस्त में जापान, ब्रिटेन आदि की ओर से और कुछ समय बाद उस्मानिया, जर्मनी की ओर से, युद्ध में शामिल हुए।
जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी और उस्मानिया,जिन्हें केन्द्रीय शक्तियाँ कहा गया, ग्रेट ब्रिटेन , फ्रांस, रूस, इटली और जापान के ख़िलाफ़ (मित्र देशों की शक्तियों) अगस्त के मध्य तक लामबंद हो गए थे।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सेना (जिसे कभी-कभी ब्रिटिश भारतीय सेना कहा जाता है) ने प्रथम विश्व युद्ध में यूरोपीय, भूमध्यसागरीय और मध्य पूर्व के युद्ध क्षेत्रों में अपने अनेक डिविजनों और स्वतंत्र ब्रिगेडों का योगदान दिया था।
1903 में किचनर को भारत का कमांडर-इन-चीफ नियुक्त किये जाने के बाद भारतीय सेना में प्रमुख सुधार किये गए थे। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सेना ने जर्मन, पूर्वी अफ्रीका और पश्चिमी मोर्चे पर जर्मन साम्राज्य के खिलाफ युद्ध किया। यप्रेस के पहले युद्ध में खुदादाद खान विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले पहले भारतीय बने थे। भारतीय डिवीजनों को मिस्र, गैलीपोली भी भेजा गया था और लगभग 700,000 सैनिकों ने तुर्क साम्राज्य के खिलाफ मेसोपोटामिया में अपनी सेवाएँ दी थी। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में सैनिकों को उत्तर पश्चिम सीमा की सुरक्षा के लिए और आंतरिक सुरक्षा तथा प्रशिक्षण कार्यों के लिए भारत में ही रहना पड़ा था।
हरबर्ट किचनर के पांच वर्षों के कार्यकाल के बाद उनके कार्यकाल को दो वर्षों के लिए आगे बढ़ा दिया गया था--जिसके दौरान उसने भारतीय सेना में और अधिक सुधार के कार्य किये थे । नवगठित भारतीय सेना (आर्मी ऑफ इंडिया) को नौ डिविजनों में व्यवस्थित किया गया था। प्रत्येक डिविजन में एक घुड़सवार सेना और तीन पैदल सेना के ब्रिगेड शामिल थे। नए डिविजनों के कमांड और नियंत्रण में मदद के लिए दो क्षेत्रीय सेनाओं (फील्ड आर्मी) का गठन किया गया -- नॉर्दर्न आर्मी और सदर्न आर्मी। नॉर्दर्न आर्मी के पास पांच डिविजन और तीन ब्रिगेड थे और यह उत्तर पश्चिमी मोर्चे (नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर) से लेकर बंगाल तक के लिए ज़िम्मेदार थी जबकि सदर्न आर्मी, जिसके पास भारत में चार डिविजन थे और दो उप-महाद्वीप के बाहर थीं। यह बलूचिस्तान से लेकर दक्षिणी भारत तक के लिए उत्तरदायी थी।
1914 में भारतीय सेना दुनिया में सबसे बड़ी स्वयंसेवी सेना थी जिसकी कुल क्षमता 240,000 लोगों की थी और नवंबर 1918 तक इसमें 548,311 लोग शामिल हो गए थे जिसे इम्पीरियल स्ट्रेटजिक रिजर्व माना जाता था। इसे नियमित रूप से नॉर्थ ईस्ट फ्रंटियर पर घुसपैठ और छापों से निबटने और मिस्र, सिंगापुर तथा चीन में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सैन्य मोर्चाबंदी के लिए बुलाया जाता था। नियमित भारतीय सेना के अलावा रियासती प्रांतों की सेनाओं और सहायक सैन्य बलों (यूरोपीय स्वयंसेवकों) के रेजीमेंटों को भी आपात स्थिति में मदद के लिए बुलाया जा सकता था।
1914 में जनरल सर ब्यूचैम्प डफ भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ बने थे और ब्रिटिश सेना के लेफ्टिनेंट जनरल सर पर्सी लेक जनरल स्टाफ के प्रमुख थे। प्रत्येक भारतीय बटालियन में स्टाफ के रूप में भारत की ब्रिटिश सेना के 13 अधिकारियों और भारतीय सेना से 17 अधिकारियों को शामिल किया गया था -- प्रवासी ब्रिटिश अधिकारी ब्रिटिश औपनिवेशिक भारतीय प्रशासन के तहत सेवारत थे। युद्ध तेज होने और अधिकारियों के हताहत होने से उनकी जगह ब्रिटिश मूल के अधिकारियों को कार्यभार सौंपने की क्षमता बेहद मुश्किल में पड़ गयी थी और कई मामलों में बटालियनों में अधिकारियों के आवंटन को तदनुसार कम कर दिया गया था । भारतीय सेना के लिए सामान्य वार्षिक भर्ती 15,000 जवानों की थी, युद्ध के दौरान 800,000 से अधिक लोगों ने सेना के लिए स्वेच्छा से योगदान दिया और 400,000 से अधिक लोगों ने गैर यौद्धिक भूमिकाओं के लिए स्वैच्छिक रूप से कार्य किया। 1918 तक कुल मिलाकर लगभग 1.3 मिलियन लोगों ने स्वेच्छा से सेवा के लिए योगदान दिया था। युद्ध के दौरान एक मिलियन भारतीय जवानों ने विदेशों में अपनी सेवाएँ दी जिनमें से 62,000 से अधिक मारे गए और 67,000 अन्य घायल हो गए थे। कुल मिलाकर 74,187 भारतीय सैनिक प्रथम विश्व युद्ध के दौरान मारे गए थे।
युद्ध के आरंभ में भारतीय सेना के पास 150,000 प्रशिक्षित जवान थे और भारत सरकार ने विदेशों में सेवा के लिए दो घुड़सवार सेना और दो पैदल सेना के डिविजनों की सेवाओं की पेशकश की थी। भारतीय जवानों को विदेशी वातावरण से परिचित नहीं होने से परेशानी का सामना करना पड़ा था जिन्हें फ्रांस में उनके आगमन पर केवल ली एनफील्ड राइफल जारी किये गए थे और उनके पास लगभग कोई भी तोप नहीं थी। अग्रिम पंक्ति में होने पर उन्हें अपने आसपास की पलटनों की मदद पर निर्भर रहना पड़ता था। वे महाद्वीपीय मौसम के अभ्यस्त नहीं थे और ठंड का मुकाबला करने के लिए उनके पास संसाधनों की कमी थी जिसके कारण उनका मनोबल गिरा हुआ था। अधिकारियों के हताहत होने से और अधिक बाधा उत्पन्न होती थी क्योंकि उनकी जगह पर आने वाले अधिकारी भारतीय सेना से अपरिचित होते थे और इनकी भाषा नहीं बोल पाते थे। गिरे हुए मनोबल के साथ बहुत से सैनिक युद्ध स्थल से भाग खड़े हुए और पैदल सेना के डिविजनों को अंततः अक्टूबर 1915 में मिस्र में वापस बुला लिया गया, जब उनकी जगह किचनर की सेना के ब्रिटिश डिविजनों को प्रतिस्थापित किया गया।
28 जुलाई, 1914 को आस्ट्रिया-हंगरी ने सर्बिया के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की और 29 जुलाई को युद्ध प्रारंभ हो गया था। रूस ने पहले ही अपनी सेना को सन्नद्ध कर रखा था। 30 जुलाई को उसने पूर्णरूप से सेना को संघटित करना शुरू कर दिया। जर्मनी ने रूस को लामबंदी समाप्त करने के लिए अल्टीमेटम दिया। लेकिन रूस के इंकार के बाद जर्मनी ने रूस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। पूर्वी मोर्चे पर सैनिकों की कमी को देखते हुए रूस ने सहयोगी फ्रांस से पश्चिम में दूसरा मोर्चा खोलने के लिए कहा। 23 अगस्त 1914 को जापान भी मित्र राष्ट्रों के साथ युद्ध में कूद पड़ा था। वास्तव में इस युद्ध के सूत्र 1870 के फ्रांस और प्रूसिया युद्ध जिसे फ्रैंको-प्रूसिया युद्ध कहा जाता है से जुड़े माने जाते हैं जिसमें फ्रांस को अल्सेक-लॉरेन क्षेत्र जर्मनी को सौंपना पड़ा था। फ्रांस को वह कसक थी, अतः उसने रूस के अनुरोध को स्वीकार कर लिया। इसके पीछे उस क्षेत्र को पुनः प्राप्त करने का भाव था। अतः फ्रांस ने पूरी तरह से अपनी सेना लामबद्ध कर ली। 3 अगस्त को जर्मनी ने फ्रांस के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। सीमा पर दोनों की सेनाएँ आ खड़ी हुईं। परिणामतः जर्मनी ने फ्रांस की ओर उत्तर से बढ़ने से पूर्व तटस्थ बेल्जियम और लक्जम्बर्ग पर अधिकार कर लिया। इसका परिणाम यह हुआ कि 4 अगस्त को ब्रिटेन भी जर्मनी के विरुद्ध युद्ध में कूद पड़ा।
ब्रिटेन के युद्ध में कूदने के तुरंत बाद भारत में सैनिकों की भर्ती का कार्य प्रारंभ कर दिया गया था। जिस समय ब्रिटेन युद्ध में कूदा भारतीय सेना में एक लाख पचास हज़ार सैनिक थे। ब्रिटिश सरकार ने लोगों को स्वैच्छिक रूप से सेना में भर्ती होने के लिए प्रोत्साहित करना प्रारंभ किया। परिणाम यह हुआ कि पूरे देश में दस लाख से अधिक लोगों ने ब्रिटिश सेना के लिए अपनी सेवाएँ प्रदान की। कुछ ही समय में भारतीय सेना की संख्या बढ़कर तेरह लाख हो गयी, जिनमें दस लाख लोगों को दुनिया के तमाम देशों में युद्ध के लिए भेजा गया था। अकेले फ्रांस और बेल्जियम में एक लाख तीस हज़ार भारतीय सैनिक भेजे गए थे, जिनमें से मौसम और युद्ध में नौ हज़ार सैनिकों की मृत्यु हुई थी।
सरजू जब शिवनारायण शुक्ला से मिला तब ब्रिटेन युद्ध में शामिल हो चुका था और भारत में ब्रिटिश हुकूमत को यह संदेश भेजा जा चुका था कि वह सैनिकों की भर्ती करे और उन्हें कम से कम समय में प्रशिक्षण देकर फ्रांस, तुर्की, अप्रीका, मिश्र आदि देशों के लिए भेजे. आनन-फानन में ब्रिटिश हुकूमत ने भर्ती का कार्य प्रारंभ कर दिया था। ऎसा ही एक भर्ती केन्द्र आगरा में स्थापित किया गया था, जिसने दस अगस्त के लगभग कार्य प्रारंभ किया था। सामन्तों,जमींदारों और छोटी रियासतों के अपने चाटुकारों को ब्रिटिश हुकूमत ने सूचना भेज दी थी कि वह युवाओं को भर्ती के लिए प्रोत्साहित करे।
शहर से लौटने के बाद लंबे समय तक सरजू सेना में जाने और न जाने के विषय में सोचता रहा। अगस्त बीत गया। सितंबर में खेतों में निराई-गुड़ाई का काम शुरू हो गया। अरहर,ज्वार,मूंग और उड़द के पौधों के बीच बरसात ने ग़ज़ब की घास पैदा कर दी थी। घास के साथ खर-पतवार कहे जाने वाले पौधे उग आए थे, जिन्हें निकालना आवश्यक था वर्ना वे दलहनों के पौधों को पनपने से रोक देते। हलवाहा,उसकी पत्नी, बेटा के साथ सरजू खेतों में उतर गया था। वह सुबह छः बजे ही खुरपी लेकर खेतों में पहुँच जाता और दोपहर चढ़ने तक ख़ास और खर-पतवार निकालता रहता। घास एक ओर रखता और खर-पतवार अलग। घास जानवरों के चारा के लिए काम आती थी।
उसके खेतों में पहुँचने के एक घण्टा बाद हलवाहा और उसका परिवार पहुँचता और उसके एक या डेढ़ घण्टा बाद जसवंत चबेना लेकर पहुँचते। वह नहीं पहुँचते तब रानी जाती। पूरे सितंबर भर सरजू ने निराई-गोड़ाई का काम किया। पौधों के आसपास गोड़ाई करने से पौधे मज़बूत होकर बढ़ते हैं। सितम्बर के आखिरी हफ्ते में दोपहर उसने अपने खेतों की सुध ली, जिनमें घास बढ़कर ज्वार और अरहर के पौधों से दोगुनी हो चुकी थी। उन खेतों में उसे स्वयं ही काम करना था और इस सबमें दस दिनों से अधिक का समय लगा। अक्टूबर के पहले सप्ताह में रवी की फ़सल की बोआई का काम शुरू हो गया। लेकिन बीतते दिनों के साथ फ़ौज में भर्ती होने जाने का सरजू का संकल्प दृढ़ होता गया। उसने अखाड़ा जाना छोड़ दिया था बल्कि समय के अभाव में उसे छोड़ना पड़ा था। वह घर में ही दंड-बैठक लगा लिया करता था।
रवी की फ़सल की बोआई में जसवंत ने भी उसका साथ दिया, लेकिन उतना नहीं, जैसाकि उन्हें देना चाहिए था। हालांकि कई बार वह यह कह चुके थे कि सरजू के कारण वह आलसी हो चुके थे। सरजू सुबह पांच बजे हलवाहा को उसके घर जाकर उसे जगा देते। उसे बैलों को ले आने के लिए कहते और स्वयं कंधे पर हल रखकर खेतों में पहुँच जाते। माहाँत तक खेत जोते गए और उन्हें पाटा देकर समतल किया गया। जसवंत के खेतों से निवृत्त होकर उसने अपने खेत जोते फिर पहले जसवंत के खेतों में गेहूँ,चना,जौ, लाही,सरसों और मटर बोयी गयी।उसने अपने खेतों में केवल चना और जौ बोया। इस सबसे निवृत्त होकर उसने एक सफ्ताह आराम किया फिर एक दिन शंकर सिंह से फ़ौज में जाने की अपनी इच्छा व्यक्त की। सुनकर चौंके शंकर सिंह और बोले, “अभी तुम्हारी उमिर ही क्या है सरजू।”
“बापू, खेतों में बड़ों से कम काम नहीं करता। तो उमिर का क्या ?
“यह सही है तुम किसी भी पहलवान से अधिक काम करते हो। तुम न होते तो शायद खेत बरबाद हो जाते।”
“ऎसा नहीं है बापू। जीजा मेरे भरोसे होने के कारण ध्यान नहीं देते। मुझे लगता है कि यह ठीक नहीं। मैं नहीं रहूँगा तब करना ही होगा और यह ज़रूरी है। मैं भी कुछ परिवर्तन चाहता हूँ।”
“लेकिन तुम्हारे खेत?”
“जीजा और धनीराम उन्हें संभाल लेंगे। मैं जीजा से कह दूंगा। नहीं संभाल पाएगें तो बापू आप उन्हें अधाई में उठा देना। बस आपसे बिनती है कि आप मुझे न रोंके.”
सोच पड़ गए थे शंकर सिंह और सरजू उनके चेहरे की ओर देखता रहा था।
“मैं जसवंत से बात करूंगा।”
शंकर सिंह ने जसवंत से बात की। सुनकर वह भौंचक-सा पिता के चेहरे की ओर देखता रहे देर तक, फिर बोले, “शहर में किसी ने सरजू का दिमाग़ खराब कर दिया है।” फिर कुछ देर रुककर बोले, “बापू, वैसे तो मुझे कोई परेशानी नहीं। लेकिन लड़ाई तो लड़ाई है क्या हो कौन कह सकता है।”
“वह तो होता ही है। युद्ध में जाने वाले सभी लौटकर नहीं आते।”
“इसने अभी दुनिया देखी ही कितनी है। मेरा सुझाव है कि जल्दी से इसका विवाह कर दिया जाए और इसे एक घर बनवाकर दे दिया जाए. यह अपने खेतों को संभाले और अपना परिवार। तब शायद यह रुक जाए.”
“तुम कह तो सही रहे हो, लेकिन वह शादी करेगा। लगता नहीं।”
और शंकर सिंह ने जसवंत की बात सरजू के सामने रखी। सुनकर वह बोला, “बापू, शादी की बात अभी नहीं। मुझे आप न रोको।” उसके चेहरे पर दयनीयता देख शंकर सिंह बोले, “ठीक है बेटा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।”
और अगले दिन सरजू रानीघाट वाले घर के लिए निकल पड़ा था।