कानपुर टु कालापानी / भाग 22 / रूपसिंह चंदेल

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रात अपने घर बिताकर अगले दिन सुबह ही सरजू कानपुर से आगरा जाने वाले पैसेजेंर गाड़ी में सवार हो गया। कानपुर से तीन बजे पैसेजेंर जाती थी जो रात दस बजे आगरा पहुँचती थी, लेकिन ट्रेन चली शाम पांच बजे और आगरा पहुँची अगले दिन सुबह पांच बजे. डिब्बे में भीड़ अधिक नहीं थी और मौसम भी अच्छा था। सुबह होते तक हल्की ठंड लगी थी उसे और उसने अपने साथ लायी चादर ओढ़ ली थी। आगरा कैंट उतरकर देर तक वह मुसाफिरखाना में बैठा रहा। मुसाफिर खाना में निवृत्त होना चाहा, लेकिन वहाँ गंदगी बहुत थी। फिर भी मजबूरी थी। साथ बैठे एक बुज़ुर्ग मुसाफिर को थैला देखने के लिए कहकर उसने निवृत्त हो लेना उचित समझा। स्टेशन के बाहर एक कुंआ था, जहाँ कुछ लोग स्नान कर रहे थे। उसने भी उस अवसर का लाभ उठाया और स्नान करके वही कपड़े पहन लिए जिन्हें पहनकर वह आया था। पायजामा पर बंडी और उस पर कुर्ता। धोती-कुर्ता पीले थे, क्योंकि वह उन्हें रेहू से साफ़ करता था।

इस सबसे मुक्त होने में सुबह के सात बज चुके थे। आसपास उसे कोई दुकान नहीं दिखायी दी। जेब में रानी के दिए पैसे पड़े हुए थे। उसने कुंआ में स्नान करने वालों से दूकान के विषय में पूछा तो पता चला कि सीधी सड़क पर कुछ दूर चलने के बाद एक हलवाई की दुकान है। समय नष्ट न कर वह दुकान की ओर चल दिया। हलवाई दुकान सजा ही रहा था। ग्राहक देखकर उसका चेहरा खिल उठा। “का चाही लाला”। दुकानदार ने पूछा।

“अभी तो आप दुकान ही सजा रहे हैं।”

“भट्टी गरम हो रही है। बांट-बट्टा तो संभालना ही होता है। तुम कहो का चाही?”

“क्या बनाने जा रहे हैं?” सरजू ने पूछा।

“तुम अपनी कहो लाला। जो कहोगे वह बना देबे।” हलवाई, जो मोटा-थुलथुल शरीर और काला था, अपनी बड़ी आंखों से मुस्कराते हुए बोला।

“पूरी-सब्जी मिली?”

“उसमें बखत लगी लाला। आटा गूंथना होगा और आलू उबालनी होंगी। इस समय तो जलेबी बनी।”

“आप जलेबी ही निकाल दें मेरे लिए एक पाव।”

सरजू सामने पड़ी चारपाई पर बैठ गया। पास ही नीम का पेड़ था जिसपर चिड़ियाँ चहचहा रही थीं। बैठने के बाद उसने उस हलवाई से ही फ़ौज में भर्ती दफ़्तर के बारे में जान लेने के विषय में सोचा। हलवाई अपने बैठने के लिए बोरे बिछा, भट्टी पर कढ़ाई रख उसमें डालने के लिए देसी घी की मटकी लेने घर के अंदर गया। तभी वहाँ दो फ़ौजी आ खड़े हुए. सरजू ने उन सिपाहियों से भर्ती दफ़्तर के विषय में पूछने का विचार किया और चारपाई से उठ खड़े हो उन्हें उस पर बैठने के लिए आमंत्रित किया।

“बैठो जवान!” एक फ़ौजी बोला।

“आप बैठो मैं ठीक हूँ।” कंधे पर थैला लटकाते हुए सरजू बोला।

“लगता है किसी ट्रेन से आए हो?” दूसरे फ़ौजी ने पूछा।

“हाँ कानपुर से पैसेजेंर से।”

“फौज में भर्ती होने?” पहले सिपाही ने अनुमान से प्रश्न किया।

“आपको कैसे पता।”

“क्योंकि एक दिन मैं भी ऎसे ही आया था और इसी दुकान पर आकर टिका था।”

सरजू चुप रहा। कुछ देर बाद पूछा, “आपने सही जाना। मैं भर्ती होने आया हूँ। हो जाउंगा न!” उसके स्वर में दयनीयता स्पष्ट थी।

“जवान, इस बारे में हम क्या कह सकते हैं। भर्ती करने वाला अंग्रेज अफसर बहुत सख्त है। उसके प्रश्नों का सही उत्तर न मिला तब कोई बात नहीं हताश नहीं होते। मैं भी तुम्हारी तरह ही सोचता था। सब सही होगा।” पहले वाला सिपाही बोला।

“भर्ती दफ़्तर किधर है?”

“मेरे साथ चलना। मैं पहुँचा दूंगा। नौ बजे से शुरू होती है भर्ती।” वही सिपाही बोला, “उन जवानों को देख रहे हो न! वे उसी ओर जा रहे हैं।”

“मैं भी उनके साथ हो लेता हूँ।” सरजू दो युवकों को जाता देख बोला।

“ऎसी जल्दी क्या है जवान! अभी तो पौने आठ भी नहीं बजा।” दूसरे जवान ने कहा और सरजू के कंधे पर हाथ रखकर उसे चारपाई पर बैठा लिया। अपने साथी को भी बैठने का इशारा करते हुए उसने हलवाई से कहा, “सियाराम, जल्दी करो फटाफट जलेबी निकालो इस जवान को भर्ती के लिए जाना है।”

“अभी लो बाबू।” हलवाई ने घी कड़ाहे में डाल दिया था और मैदा फेंटने लगा था। “चाशनी पहले से ही तैयार है भइया। पहला घान निकलते ही देता हूँ।”

सरजू ने सिपाहियों से पूछा, “आप दोनों कहाँ के रहने वाले हैं?”

“मैं हूँ झांसी के एक गाँव का” और अपने साथी की ओर इशारा करते हुए पहले वाले सिपाही ने कहा “और यह हैं इटावा के एक गाँव से।” और उसने सरजू की ओर देखते हुए पूछा, “तुम कहाँ से हो?”

“कानपुर का रानी घाट में घर है मेरा।”

“रानी घाट ?”

“पुराना कानपुर सुना है?’

“कानपुर सुना है पुराना नया भी है क्या?”

“हाँ, सैकड़ों साल पहले कान्हपुर नाम से जो गाँव बसाया गया था अब उसे ही पुराना कानपुर कहते हैं। नया तो बाद में बसा बल्कि शहर में अंग्रेजों के शासन के बाद ।”

“यार, तुम तो बहुत जानकारी रखते हो।” दूसरे सिपाही ने सरजू के कंधे पर हाथ रखते कहा।

सरजू चुप रहा।

तभी तीन दोनों में एक-एक पाव जलेबी लाकर हलवाई ने तीनों को पकड़ा दिया। जलेबी ख़ाकर चबूतरे पर रखे मिट्टी के घड़े से पानी पीकर सरजू भर्ती कार्यालय जाने के लिए उद्यत हो उठा। दोनों फ़ौजी भी पानी पीकर हाथ से ही मुंह पोंछकर सरजू से बोले, “आओ, तुम्हें भर्ती कार्यालय तक पहुँचा दें।”

रास्ते में सरजू ने उनसे पूछा, “आप लोगों को भर्ती हुए कितने दिन हुए?”

“हम यहाँ तीन सालों से हैं। अब हमें दक्षिण अफ्रीका भेजा जाएगा। शायद इसी हफ्ते हम कलकत्ता के लिए रवाना हो जाएगें। वहाँ से पानी वाले जहाज़ से जाना है।”

“वहाँ किसलिए?”

“तुम भर्ती के लिए किसलिए आए हो?”

“सुना है कि कहीं बहुत जोरों से लड़ाई शुरू है और मैं भी लड़ने जाना चाहता हूँ।”

“दुनिया के तमाम देश एक दूसरे से भिड़ गए हैं। दक्षिण अफ्रीका में इन गोरों का ही शासन है। वहाँ भी हमला हो सकता है या हो रहा होगा। वहाँ लड़ने के लिए ।”

“ओह!” सरजू को लड़ाई की जानकारी तो थी लेकिन वह दुनिया के किन किन देशों में हो रही है यह न थी।

“सुना कि अपने देश की सीमा पर भी हमला होने वाला है।” सरजू ने बहुत भोलेपन से पूछा।

“अभी तो ऎसा नहीं है, लेकिन इन गोरों का शासन दुनिया के पता नहीं कितने देशों में है। इंग्लैण्ड से इन्हें जहाँ सैनिकों को भेजने के आदेश मिलेंगे वहाँ सैनिक भेजने होंगे “कुछ देर रुका वह सिपाही फिर बोला, “इसीलिए तो तेजी से भर्ती जारी है।” फिर कुछ रुककर वह बोला, “चीन,सिंगापुर,रंगून,फ्रांस,इटली कहीं भी भेजा जा सकता है और तब तक के लिए जब तक लड़ाई जारी रहेगी।”

सरजू सोचता रहा कि भर्ती होने के बाद उसे भी किसी दूसरे देश जाना होगा। क्योंकि अभी अपने देश में तो लड़ाई हो नहीं रही।

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जब सरजू भर्ती कार्यालय पहुँचा वहाँ लंबी कतार लगी हुई थी भर्ती होने के लिए आए युवकों की। कई तो उससे दोगुनी आयु के थे। हाथ में थैला लटकाए वह भी पंक्ति में खड़ा हो गया। पंक्ति धीरे-धीरे खिसक रही थी। दोपहर हो चुकी थी, लेकिन उसका नंबर बहुत दूर था। एक बजे साहब लोग लंच के लिए उठ गए. पंक्ति में खड़े युवकों को एक अर्दली ने आकर कहा कि जिसे दोपहर के भोजन के लिए जाना है वह जाकर वापस लौट आए. लेकिन कोई युवक नहीं गया। सब अपनी जगह खड़े रहे। कुछ बैठ गए, लेकिन सरजू खड़ा रहा।

ठीक दो बजे साहब लोग फिर चयन के लिए बैठे। तीन अफसर थे, उनमें दो अंग्रेज थे और एक भारतीय था। शाम पांच बजे के लगभग सरजू का नंबर आया। थैला अपने पीछे खड़े युवक को पकड़ाकर वह अंदर गया। सरजू के पीछे खड़े युवक को रोककर शेष सभी युवकों को अगले दिन सुबह आने के लिए कहा गया। कमरे में अंदर जाते हुए सरजू ने सुना और मन में ही बोला,”सरजू तेरी क़िस्मत अच्छी थी वर्ना कल फिर पंक्ति में लगना पड़ता।”

सरजू से टूटी-फूटी हिन्दी में अंग्रेज अफसर ने पूछा कि मोटर कैसे चालू होती है। सरजू चुप रहा। उसे पता ही नहीं था कि कैसे स्टार्ट की जाती है। तभी दूसरे अंग्रेज ने पूछा, “तुम्हारी उमिर किटनी है?”

“सोलह साल।”

“ओह नो!” दोनों अंग्रेज एक साथ चीख-सा उठे।

“टुम अभी आर्मी में जाने लाइक नईं।” पहला अंग्रेज पहले जैसे धीमे स्वर में बोला।

सरजू चुप रहा। उसने देखा कि साथ बैठे भारतीय साहब उसके चेहरे पर नजरें गड़ा कुछ पढ़-सा रहे थे। सरजू ने सिर झुका लिया। उसके चेहरे पर उदासी फैल गयी थी जिसे भारतीय साहब ने देखा।

“अभी टुम ठोटा है। डो साल बाड आना।” पहले वाला अंग्रेज बोला।

“टुम जा सकटा।”

सरजू बाहर निकल आया। उसे लगा कि मानो उसके कदमों में दम नहीं रहा। क़दम डगमगा रहे थे ऎसा उसने अनुभव किया। बाहर खड़े युवक से उसने अपना थैला लिया, जिसे अंदर जाने के लिए अर्दली ने कहा था और कुछ दूर खड़े नीम के पेड़ के नीचे पड़ी पत्थर की बेंच पर उदास-सा बैठ गया।’इसका मतलब फिर बारामऊ लौटना होगा फिर खेती और फिर जीजा का उपेक्षाभाव ।’ वह समझ नहीं पा रहा था कि उसे आगे क्या करना होगा। वह देर तक बैठा रहा। अँधेरा नीम के पेड़ से नीचे उतरने को बेचैन था। तभी उसे आवाज़ सुनाई दी,”यहाँ क्यों बैठे हो सरजू।” उसने सिर ऊपर उठाकर देखा। सामने वह भारतीय साहब खड़े थे जो भर्ती दफ़्तर में मौजूद थे। लंबे, लगभग छः फुट लंबे, हृष्ट-पुष्ट, चालीस साल के लगभग उम्र, गेहुंआ रंग, बड़ी आंखें, गोल चेहरा। सरजू उन्हें देखता रहा। आवाज़ नहीं निकली।

“मेरे साथ आओ.” वह साहब चल पड़े तो सरजू उनके पीछे हो लिया।

“मेरे बगल में चलो।” साहब ने कहा तो सरजू उनके बगल में आ गया।

“कहाँ के रहने वाले हो?”

सरजू ने बताया।

“फौज में क्यों भर्ती होना चाहते हो? घर में कौन है?”

सरजू ने संक्षेप में सारी कहानी कह सुनाई. सुनकर द्रवित स्वर में बोले साहब, “मेरा नाम जयसिंह कछवाहा है। मैं कैप्टेन हूँ।” कुछ देर चुप चलने के बाद कछवाहा साहब बोले, “तुम्हारी उम्र कम है यह तुम्हारे चेहरे से देखने से लग रहा है। साहब ने इसीलिए पूछा, वर्ना वह कम ही उम्र पूछते हैं।” कुछ देर के लिए वह फिर रुके, “तुम एक बार सोच लो—फौज की नौकरी बहुत कठिन है। तुम्हें मोर्चे पर भेजा जाएगा। वहाँ कुछ भी हो सकता है। एक बार सोचकर मुझे बताओ.”

“साहब मैं जाना चाहता हूँ।”

“फिर तुम्हें कुछ समय रुकना पड़ेगा। तुम्हें अच्छी खूराक चाहिए जब तक तुम्हारे चेहरे और शरीर से तुम्हारी उम्र छुप नहीं जाती तब तक भर्ती होना कठिन है।” कछवाहा साहब ने उसके चेहरे की ओर देखा, फिर बोले, “मैं यहीं आगरा में राजा की मंडी में रहता हूँ। अगर तुम सच ही फ़ौज में भर्ती होना चाहते हो तब एक ही उपाय है कि मेरे यहाँ रह जाओ. तुम्हें कुछ नहीं करना होगा। मेरे पास चार भैंसे हैं। उनका घेर अलग है। एक भैंस तुम्हें दूंगा। उसकी सारी जिम्मेदारी तुम्हारी होगी। उसका दूध पिओ. घी खाओ और दंड –बैठक करो घेर में ही अखाड़ा है। वहा अभ्यास करो। “

“लेकिन साहब,मैं भैंस की देखभाल कैसे कर पाउंगा, मेरे पास तो कुछ भी नहीं है।”

“उसकी चिन्ता तुम्हें नहीं करनी। तुम मेरे छोटे भाई से हो। केवल उसके लिए सानी-पानी और दोहने और दिन में कुछ समय के लिए जंगल ले जाने का काम करना होगा। बाक़ी के लिए मेरे पास नौकर है। यह सब इसलिए कि तुम्हारी स्थिति ने मुझे ऎसा सोचने के लिए मजबूर किया है।”

“साहब, मेरे लिए आप भगवान हैं।” आगे बढ़कर सरजू ने कछवाहा साहब के पैर छू लिए.

“यह सब नहीं। मैं जो हूँ वह बता दिया। भगवान अगवान कुछ नहीं। एक फ़ौजी हूँ –बस।” राजा की मंडी में प्रवेश करते हुए कछवाहा ने कहा, “एक बात का खयाल रखना।”

“जी साहब।”

“कोई ग़लत काम नहीं। कोई नशा नहीं और न ही इधर-उधर ताक-झांक। जो कहा वह करना है। घेर ही तुम्हारा घर होगा। बस भैंस को कुछ समय के लिए जंगल ले जाना है और तालाब में नहलाना है। उसके बाद घेर छोड़कर कहीं भी जाने की शिकायत न मिले।”

“नहीं मिलेगी।”

जय सिंह कछवाहा का घर आ गया था। घर के बाहर बने कमरे में प्रवेश करते हुए “तुम बैठो।” कुर्सी पर सरजू को बैठने का इशारा किया कछवाहा ने और स्वयं आराम कुर्सी पर पसरते हुए नौकर को आवाज़ दी। उसके दौड़कर आने के बाद कहा, “दो गिलास गर्म दूध और कुछ खाने के लिए.”

“साहब, आप तकलीफ ।” सरजू की बात बीच में ही रोककर कछवाहा साहब बोले, “आज से यह घर भी तुम्हारा है। इसलिए यह बात दोबारा मत कहना।” और कुर्सी पर और अपने को पसारकर उन्होंने आंखें बंद कर लीं और सरजू के बारे में सोचने लगे।