कानपुर टु कालापानी / भाग 23 / रूपसिंह चंदेल
नाश्ता कर लेने के बाद एक बार पुनः जयसिंह कछवाहा ने सरजू से पूछा, “तुमने अच्छी तरह सोच लिया ?”
“मैं गाँव नहीं लौटना चाहता। फ़ौज में भर्ती होना है।”
“उसके लिए तुम्हें कम से कम एक साल इंतज़ार करना होगा और जैसाकि कहा अपने को इस योग्य बनाना होगा कि तुम अठारह साल के दिखो।”
“मैं तैयार हूँ।”
और उस दिन सरजू कछवाहा साहब के घर ही सोया, लेकिन अगले दिन सुबह नाश्ता के बाद वह उसे अपने घेर में ले गए, जहाँ एक ओर भैंसें बंधी हुई थीं और उनका नौकर उन्हें दोहने की तैयारी कर रहा था। एक भैंस के पास सरजू को लेकर कछवाहा साहब गए, जिसके शरीर में बाल कम थे और रंग भूरा था। “यह भूरी है। दूसरी बार बच्चा दिया है। अभी दो माह हुए. वह रहा उसका पड़वा। इन दोनों की जिम्मेदारी तुम्हारी। सुबह शाम यह चार-चार सेर दूध देती है। जितना तुम इस्तेमाल कर सको करो बाक़ी घर पहुँचा दिया करना। तुम्हारा नाश्ता, खाना, सब यहीं तुम्हें मिल जाया करेगा। इसकी सारी जिम्मेदारी तुम्हारी।” वह नौकर की ओर मुड़े और बोले, “ यह हलदू है” फिर नौकर को सरजू का परिचय दिया, ”हलदू यह सरजू है। भूरी की देखभाल सरजू के जिम्मे। तुम उसकी देखभाल से मुक्त हुए. सरजू उसकी चिन्ता करेगा, चारा-सानी-पानी सब कुछ। दूध वही काढ़ा करेगा।”
“जी मालिक” हलदू बोला।
“सरजू यहीं घेर में रहेगा।सरजू के लिए घर से नाश्ता, खाना और भी जो इन्हें चाहिए तुम लाकर दिया करोगे। यह तुम्हें कहेंगे “
“ जइस हुकुम।” हलदू बोला और अपने काम में लगा रहा।
जयसिंह कछवाहा सरजू को लेकर घेर के आखीर में बने अखाड़ा की ओर गए. अखाड़ा की ओर इशारा करते हुए कहा, “यहाँ तुम व्यायाम करोगे और जवानों के साथ दांव –पेंच सीखोगे।”
सरजू चुप रहा।
“तुमने कहा था कि तुम एक हज़ार दंड और बैठक लगा लेते हो।”
“जी,साहब।”
“अखाड़ा है तुम्हारे गाँव में?”
“जी है। वहीं करता था। कुछ दिनों से रुका हुआ था, क्योंकि खेतों में काम अधिक था।”
“फिर तो कुश्ती के कुछ दांव आते होंगे।”
“जी, आते हैं।”
“मोहल्ले के तीन नौजवान आते हैं यहाँ। उनके साथ अभ्यास किया करना। वे शाम आते हैं। सुबह सब काम में चले जाते हैं।”
“जी.”
जयसिंह ने सरजू के सिर पर हाथ रखा और बोले, “ईश्वर ने चाहा तो एक साल में तुम फ़ौज में भर्ती होने योग्य हो जाओगे।”
एक साल में सरजू खासा पहलवान बन चुका था। अपनी आयु से दो-तीन साल बड़ा दिखता था। इस दौरान जयसिंह कछवाहा से उसकी मुलाकात तीन-चार बार से अधिक नहीं हुई थी वह भी अकस्मात जब वह भैंस को दोपहर तालाब में स्नान करवाकर लौट रहा था। सरजू ने उन्हें प्रणाम कहा था और उन्होंने सिर हिलाकर उसका उत्तर दिया था। इससे आगे कोई बात नहीं हुई थी, लेकिन अक्टूबर,2015 में एक दिन सुबह छः बजे कछवाहा साहब घेर में आए । सरजू उस समय व्यायाम कर रहा था। भैंस का सानी लगाकर उसे दुहकर दूध बाल्टी में कपड़े से ढककर वह नियमित व्यायाम करता था। कछवाहा साहब को देखकर सरजू ने बैठक रोक दी और खड़ा हो गया।
“तुम व्यायाम जारी रखो। मैं यह कहने आया था कि कल सुबह आठ बजे भर्ती दफ़्तर पहुँच जाना।”
“जी साहब—पहुँच जाउंगा।”
“मैं तुमसे एक प्रश्न पूछूंगा।”
सरजू कछवाहा साहब के चेहरे की ओर देखने लगा।
“पूछें साहब!”
“अभी नहीं।” कछवाहा साहब मुस्कराए, ”कल जब भर्ती के लिए तुम आओगे तब वही लोग होंगे जो पिछले साल थे। इस बार उनसे पहले ही मैं तुमसे एक सवाल पूछूंगा।”
सरजू ने उनके चेहरे पर नजरें गड़ा दीं।
“पूछूंगा कि मोटर कैसे स्टार्ट होती है। तुम बताना कि लोहे की रॉड को उसके इंजन में आगे से फंसाकर घुमाते हैं और वह स्टार्ट हो जाती है।”
“जी.”
“अंग्रेज साहब तुम्हारी उम्र पूछेंगे तब तुम उन्नीस साल बताना।”
“जी साहब।”
अगले दिन सरजू सुबह साढ़े सात बजे ही भर्ती दफ़्तर पहुँच गया। उस समय तक केवल चार युवक पंक्ति में आ लगे थे। ठीक नौ बजे कछवाहा साहब सहित दोनों अंग्रेज अफसर कमरे में दाखिल हुए. कुछ देर बाद ही अर्दली ने पहले युवक को अंदर जाने के लिए कहा। पन्द्रह मिनट में ही सरजू का नंबर आ गया। कमरे में उसके प्रवेश करते ही जय सिंह कछवाहा साहब ने उसे बैठने के लिए खाली पड़ी कुर्सी की ओर इशारा किया। उसके बैठते ही अंग्रेज अफसरों को प्रश्न पूछने का अवसर न देते हुए सरजू से वही प्रश्न पूछा जो कल उसे उन्होंने बताया था। सरजू ने उनके बताए अनुसार उत्तर दिया। कछवाहा साहब ने उसकी प्रशंसा करते हुए कहा, “बहुत अच्छा।” फिर उन्होंने अगला प्रश्न किया, “तुम करते क्या हो?”
“खेती?”
“उसे कौन संभालेगा?”
“घर में उसे संभालने वाले हैं।” सरजू खुल चुका था।
“तुम्हारे घर वालों को तुम्हारे फ़ौज में जाने को लेकर क्या विचार हैं?
“उनसे पूछकर आया साहब। उन्हें कोई आपत्ति नही।”
“कौन –कौन है घर में।”
“बहन-बहनोई, छोटा भांजा और बहनोई जी के पिता जी.”
“तुम्हारे अपने मां-पिता?”
“उनकी मृत्यु हो चुकी है साहब। सौतेली माँ थीं और मेरा सौतेला भाई नन्हें माँ नन्हें को लेकर अपने मायके चली गयी थीं। मैं बहन बहनोई के पास रहता हूँ साहब।” सरजू जान-बूझकर कछवाहा साहब को साहब कह रहा था जिससे अंग्रेज अफसरों को संदेह न हो कि वह उनके यहाँ एक साल से रह रहा था।
“खेती के अलावा व्यायाम भी करते हो? तुम्हारा शरीर बता रहा है।”
“जी साहब—करता हूँ। एक हज़ार दंड और एक हज़ार ही बैठक लगाता हूँ। मुग्दर भांजता हूँ और कुश्ती भी लड़ता हूँ।”
“तुम तो बहुत कुछ कर लेते हो ।” कछवाहा साहब अंग्रेज अफसरों की ओर मुड़कर बोले, “सर वी कैन सेलेक्ट हिम।” अंग्रेज अफसरों से कछवाहा जी क्या बोले यह सरजू नहीं समझ पाया।
“ओ.के. यंगमैन “ एक अंग्रेज अफसर ने सरजू की ओर देखते हुए पूछा,”तुम्हारा एज क्या है?”
सरजू न ही यंगमैन समझ पाया और न ही एज। वह कछवाहा साहब की ओर देखने लगा। उन्होंने प्रश्न साफ़ किया, “साहब पूछ रहे हैं नौजवान तुम्हारी उम्र कितनी है?”
“उन्नीस साल साहब।”
“ओ.के.” अंग्रेज अफसर बोला, “टुमको लिया गया। कम टुमारो मॉर्निंग।”
सरजू ने फिर कछवाहा जी की ओर देखा।
“साहब ने कहा कि तुम्हें फ़ौज के लिए चुन लिया गया है। कल सुबह आना दौड़ आदि के लिए तुम्हें भेजा जाएगा।”
सरजू ने हाथ जोड़ सबको प्रणाम कहा और प्रसन्न मन कमरे से बाहर निकल गया। बाहर निकल उसने देखा भर्ती होने वाले युवकों की लंबी कतार हलवाई की दुकान तक जा पहुँची थी। सकड़ों युवक थे।
सरजू को उम्मीद थी कि कछवाहा साहब घेर में उससे मिलने आएगें अगले दिन, लेकिन वह नहीं आए और न ही अगले दिन सुबह पहुँचे। वह सुबह सारे काम निबटाकर बाक़ी के विषय में हलदू को बताकर साड़े सात बजे भर्ती दफ़्तर की ओर निकल गया। वहाँ उसने अर्दली से पूछा कि कल उसका चयन हो चुका है और आज उसे बुलाया गया है। उसे कहाँ रुकना चाहिए. अर्दली ने उसे खुली जगह पार करके सामने बंद दफ़्तर की ओर इशारा करते हुए कहा, “उस दफ़्तर के सामने जाओ. कुछ युवक खड़े हैं न वहाँ। अभी दो साहब लोग आएगें और कल जिन लोगों को चुना गया है उन्हें अपने साथ ले जाएगें।”
सरजू उस दफ़्तर के सामने जा खड़ा हुआ। वहाँ पहले से ही पन्द्रह से अधिक युवक खड़े हुए थे। साढ़े नौ बजे एक अंग्रेज अफसर और एक हिन्दुस्तानी आए. अंग्रेज कैप्टेन था और हिन्दुस्तानी हवलदार। आते ही उन्होंने कड़क आवाज़ में सभी को पंक्तिबद्ध हो जाने के लिए कहा। आदेश मिलते ही सभी पंक्तिबद्ध हो गए. पिछले दिन लगभग सौ युवकों का चयन हुआ था। सभी को दोनों अफसर बार-बार यह आदेश दोहराते हुए कि पंक्ति नहीं टूटनी चाहिए लगभग एक मील दूर ले गए जहाँ कोई दफ़्तर नहीं था। बड़ा-सा मैदान था और मैदान के चारों ओर आम,नीम और पीपल के पेड़ थे। एक पेड़ बरगद का भी था जो विशालकाय दिखता था। अफसरों ने सभी को पंक्ति में बैठने का आदेश दिया और नाम पुकारने शुरू किए. पांच युवकों के नाम पुकारे गए, जिनमें तीसरा नाम सरजू का था। पांचों को आदेश हुआ कि वे कच्छा छोड़कर कपड़े उतार दें और पंक्ति में नाम बुलाए गए अनुसार खड़े हो जाएँ। सरजू ने पायजामा पर कुर्ता पहना हुआ था। पायजामा के नीचे लंगोट था। वह परेशान था। जबकि बाक़ी युवकों ने पायजामा नीचे पटरे के कच्छे पहन रखे थे। चारों ने आदेश पाते ही पायजामा और कुर्ते उतारकर एक ओर रख दिए. सरजू ने कुर्ता तो उतार दिया, लेकिन पायजामा उतारने के लिए पशोपेश में था कि हवलदार ने सहजभाव से पूछा, “क्या बात है?”
“मैंने लंगोट पहना हुआ है।” सरजू बोला।
“फिर? लंगोट है न!।”
“है।”
“नंगे तो नहीं रहोगे। उतार दो पायजामा।” सरजू ने उसकी बात सुनते ही पायजामा उत्तरकर कुर्ता के साथ रख दिया। सभी के तैयार होने के बाद कैप्टेन ने पांचों को मैदान के गोल-गोल दस चक्कर लगाने का आदेश दिया। पांचों दौड़ पड़े। सरजू से हट्टे-कट्टे और उम्र में अधिक थे शेष युवक लेकिन सरजू उन सबसे आगे दौड़ रहा था। मैदान के दस चक्कर लगा लेने के बाद पहले की ही भांति तरोताजा सरजू अपने कपड़ों के पास आ बैठा। उसके पीछे दौड़ रहे चार युवक एक-दूसरे से काफ़ी पीछे थे। दूसरा युवक आया तब उसकी सांस धौंकनी-सी चल रही थी। सरजू को अपने पास बुलाकर कैप्टेन बोला, “अच्छा दौड़े नौजवान।” सरजू ने हाथ जोड़ दिए.
शाम चार बजे तक युवकों की दौड़ और कुछ अन्य कार्यक्रम होते रहे, जिनसे युवकों की शारीरिक क्षमता का अनुमान दोनों अधिकारी लगा रहे थे। जिन्हें उन्होंने अक्षम पाया उन्हें उसी क्षण वापस जाने के लिए कहा। अंत में सत्तर युवक बचे। सभी को रोक रखा गया। हवलदार सभी को एक बड़े-से हॉल में ले जाकर बैठा आया। उन सभी का अंतिम चयन हो चुका था। कुछ देर बाद चार फ़ौजी बड़े से बर्तन में चाय, गिलास और बिस्कुट लेकर हॉल में पहुँचे और सभी को सर्व की। हॉल के बगल में चयनित युवकों के लिए चुने जाने के पत्र तैयार किए जा रहे थे। जब सरजू छावनी से घेर लौटा रात के आठ बज चुके थे। उसे कहा गया था कि दो दिन बाद वह आकर वहीं रिपोर्ट करेगा।
अगले दिन सरजू ने सुबह हलदू से कछवाहा साहब से मिलने की इच्छा जाहिर की। हलदू ने घर जाकर उन्हें सूचना दे दी। दफ़्तर जाते हुए कछवाहा साहब घेर में आए. उस समय सरजू चारपाई पर बैठा आगे के जीवन के विषय में सोच रहा था।
“बहुत बहुत अच्छी ख़बर है सरजू। तुम चुने गए. साल भर की तुम्हारी मेहनत सफल रही। मेरा आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ रहेगा।” कछवाहा साहब की आवाज़ सुनते ही सरजू उछलकर खड़ा हुआ और अश्रुपूरित आंखों से उनके चरणों पर झुक गया।
सरजू को छाती से लगाते हुए कछवाहा साहब ने कहा, “तुम्हें चुने जाने का पत्र मिल गया है। मुझे जानकारी है। परसों रिपोर्ट करना है। परसों सुबह के बाद भूरी को तुम्हारी सेवा नहीं मिलेगी। लेकिन तुम उसकी चिन्ता न करना। फ़ौज में अपनी बेहतर सेवा देना और जब लौटकर आना, मिलने ज़रूर आना।”
“जरूर साहब। आपने मेरे लिए जो किया वह कभी भूल नहीं सकता।” सरजू फिर उनके पैरों पर झुक गया।
कछवाहा साहब ने सरजू को छाती से लगा लिया और उसकी पीठ सहलाते हुए कहा, “बहुत भावुक होने की ज़रूरत नहीं। फ़ौजी को भावुक नहीं होना चाहिए. तुम्हें मुझसे मिलना था मिले और “कछवाहा साहब का स्वर भी भावुक हो उठा था, “इसे ही जीवन कहते हैं। तुम चिन्ता न करो। सभी नौजवानों को अलग अलग देशों में भेजा जा रहा है। ट्रेनिंग के बाद तुम्हें भी कहीं भेजेंगे। “ क्षणभर के लिए वह रुके फिर बोले, “लड़ाई जल्दी ही ख़त्म होगी। लौटकर इस घर को न भूलना।”
सरजू की आवाज़ नहीं फूटी. वह उनके चरणों से लिपट गया और बोला, “साहब, मुझसे कोई ग़लती हुई हो तो माफ़ करेंगे। मैं लौटकर ज़रूर आपसे मिलने आउंगा। आप मेरे पिता की भांति हैं। “
कछवाहा साहब ने सरजू को उठाकर खड़ा किया। उसके सिर पर हाथ फेर कहा, “मुझे दफ़्तर जाने की देर हो रही है। तुम परसों समय से वहाँ पहुँच जाना। मैं अफसरों को बोल दूंगा। तुम्हें सही जगह भेजेंगे।” और सरजू की ओर देखे बिना वह तेजी से घेर से बाहर निकल गए. हलदू दोनों के मिलने और बिछड़ने के दृश्य देखता रहा और उसकी आंखें भी गीली हो आयी थीं। उसे भी सरजू की अनुपस्थिति खलने वाली थी। सरजू ने हलदू की मनःस्थिति समझी और उसके पास पहुँच उसे गले लगाता हुआ बोला, “हलदू, कोई ग़लती हुई हो मुझसे तो माफ़ कर देना भाई. परसों हम बिछड़ जाएगें। तुम कछवाहा साहब की सेवा में चूक न करना। मैंने देवता तो नहीं देखे मिलना तो दूर की बात, लेकिन तुम्हारे मालिक देवताओं से भी बड़े देवता हैं। मुझ जैसे एक अनजान पर भरोसा करके अपने यहाँ शरण दी सुविधा दी और आज उनके कारण मैं नौकरी करने जा रहा हूँ। हलदू ऎसे नेक इंसान दुनिया में कम हैं, लेकिन इतने दिनों में जाना कि हैं और यह दुनिया ऎसे लोगों से ही बची हुई है।”
हलदू रोने लगा। उसे चुप करवाते हुए सरजू बोला, “मत रो भाई. तुम भाग्यशाली हो कि एक अच्छे इंसान के यहाँ काम कर रहे हो। वर्ना मैंने मालिकों को नौकरों के साथ बुरा बर्ताव करते ही देखा है। आज तक एक भी ऎसा नहीं देखा जो ऎसा नेक रहा हो। जमींदारों के यहाँ उनके साथ गुलाम जैसा व्यवहार किया जाता है। तुम इस घर को छोड़कर कभी न जाना।” अपने हाथों से हलदू के आंसू पोंछ सरजू बोला, “फौज से लौटकर मैं तुमसे और तुम्हारे साहब से मिलने आउंगा। साहब ने अभी कहा न कि यही जीवन है।”
तीसरे दिन सुबह सरजू ने भूरी के लिए सानी-पानी सब किया। उसके बाद तैयार हुआ और घेर से जाने से पहले भूरी के पास गया और उसके गले लिपटकर रोते हुए बोला, “भूरी,मैं लड़ाई में जा रहा हूँ। बचा तो लौटकर तुझसे मिलूंगा। मुझे भूलना नहीं भूरी। “ भूरी ने आंखें फाड़कर सरजू को देखा और सरजू ने देखा कि भूरी की आंखों से आंसू टपक रहे थे। उसने भूरी को चूमा और बोला, “मेरी प्यारी, रो नहीं, मालिक हैं और हलदू है मैं जल्दी ही लौटकर आउंगा।” और भूरी की ओर देखे बिना वह भूरी के पास से हट गया।
हलदू सरजू को कुछ दूर तक छोड़ने गया। विदा होते समय सरजू ने हलदू को गले लगाया। दोनों ने एक-दूसरे के आंसू पोछे और अलग हो गए. हलदू सरजू को छावनी की ओर जाते देखता रहा। गली में मुड़ने से पहले सरजू ने एक बार पीछे मुड़कर देखा और फिर छावनी की ओर जाने वाली मुख्य सड़क पर उतर गया।