कानपुर टु कालापानी / भाग 24 / रूपसिंह चंदेल
आगरा से दो दिन बाद सरजू को दो सौ रंगरूटों के साथ मेरठ छावनी भेजा गया, जहाँ उन्हें एक माह कठोर प्रशिक्षण दिया गया। विश्वयुद्ध ने विकराल रूप धारण कर लिया था और इतना कम समय का प्रशिक्षण अपर्याप्त था, लेकिन सरकार अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकती थी। लंदन से लगातार सैनिक भेजे जाने की मांग हो रही थी। विश्वयुद्ध में जब ब्रिटिश सेना कूदी उस समय भारत में ब्रिटिश सेना में केवल एक लाख पचास हज़ार प्रशिक्षित सैनिक थे। भारत में ब्रिटिश हुकूमत ने प्रचार करके लोगों को स्वैच्छया सेना में भर्ती होने के लिए उत्साहित किया। बड़े बड़े लालच दिए गए. उस समय भारतीयों को लगने लगा था कि इस युद्ध के बाद युद्ध के लिए भारतीयों के सहयोग से प्रसन्न होकर अंग्रेज उन्हें आज़ाद कर देंगे।
युद्ध आरम्भ होने के पहले जर्मनों ने पूरी कोशिश की थी कि भारत में ब्रिटेन के विरुद्ध आन्दोलन शुरू किया जा सके। बहुत से लोगों का विचार था कि यदि ब्रिटेन युद्ध में लग गया तो भारत के क्रान्तिकारी इस अवसर का लाभ उठाकर देश से अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने में सफल हो जाएँगे। किन्तु इसके उल्टा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं का मत था कि स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए इस समय ब्रिटेन की सहायता की जानी चाहिए और जब 4 अगस्त को ब्रिटेन युद्ध में कूडा तब ब्रिटेन ने भारत के नेताओं को बिना किसी पूर्व शर्त के अपने पक्ष में कर लिया। रियासतों के राजाओं ने इस युद्ध में दिल खोलकर ब्रिटेन की आर्थिक और सैनिक सहायता की।
मार्च 11915 में 7वें मेरठ डिविजन को न्यूवे चैपल के युद्ध में हमले का नेतृत्व करने के लिए चुना गया था। अभियान बल को उन नए उपकरणों से परिचित नहीं होने से परेशानी का सामना करना पड़ा था जिन्हें फ्रांस में उनके आगमन पर केवल ली एनफील्ड राइफल जारी किये थे और उनके पास लगभग कोई भी तोप नहीं था। मौसम उनके अनुकूल नहीं था। इतनी ठंड का सामना करने के लिए उनके पास कपड़े नहीं थे। परिणामस्वरूप उन सैनिकों को मिश्र भेज दिया गया। अक्टूबर में किचनर की सेना को फ्रांस भेजा गया, लेकिन और सैनिक भेजे जाने की मांग निरंतर बढ़ती जा रही थी।
1915 में सिंगापुर में भारतीय सैनिकों ने विद्रोह कर दिया। यह सैन्य-विद्रोह 5वीं लाइट इन्फैंट्री के 850 सिपाहियों द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ था जो 1915 के ग़दर षड़यन्त्र का हिस्सा था। 5वीं लाइट इन्फैंट्री अक्टूबर 1914 में मद्रास से सिंगापुर भेजी गयी थी। उन्हें वे यॉर्कशायर लाइट इन्फैंट्री की जगह लेने के लिए भेजा गया था जिसे फ्रांस जाने का आदेश दिया गया था। 5वीं लाइट इन्फैन्ट्री में ऐसे लोगों को भर्ती किया गया था जो मुख्य रूप से पंजाबी मुसलमान थे। कमजोर संचार व्यवस्था, लापरवाह अनुशासन और सुस्त नेतृत्व के कारण उनका मनोबल लगातार गिरता जा रहा था। रेजिमेंट को जर्मन शिप एसएमएस, एमडेन के कैदियों की रखवाली के लिए तैनात किया गया था। वे 16 फ़रवरी 1915 तक हाँगकांग के लिए रवाना होने की अपेक्षा कर रहे थे, हालांकि इस तरह की अफवाहें उड़नी शुरू हो गयी थीं कि वे तुर्क साम्राज्य के साथी मुसलमानों के खिलाफ लड़ने जा रहे थे। इस अफवाह को जर्मन कैदी ओबेरल्युटिनेंट लॉटरबाक (Oberleutenant Lauterbach) ने हवा दी थी और सैनिकों को अपने ब्रिटिश कमांडरों के खिलाफ बग़ावत करने के लिए प्रोत्साहित किया था। सिपाही इस्माइल खान ने एकमात्र शॉट की फायरिंग कर बग़ावत शुरू होने का संकेत दिया था। टांगलिन बैरकों में मौजूद अधिकारियों की हत्या कर दी गयी थी। एक अनुमान के अनुसार 800 विद्रोही सड़कों पर घूमा करते थे और अपने सामने पड़ने वाले किसी भी यूरोपीय को मार डालते थे। विद्रोह दस दिनों तक जारी रहा और सिंगापुर स्वयंसेवी आर्टिलरी के जवानों, अतिरिक्त ब्रिटिश इकाइयों और जोहोर के सुलतान और अन्य सहयोगियों की सहायता से अंततः उसे दबा दिया गया था। इसमें 36 विद्रोहियों को बाद में मृत्यु दंड दिया गया और 77 अधिकारियों को स्थानांतरित किया गया था जबकि 12 अन्य को क़ैद कर लिया गया था। विद्रोह की इस घटना से भारत शासन परेशान था। इसलिए लगभग एक हज़ार सैनिकों को रंगून भेजा गया। एक माह का अपर्याप्त प्रशिक्षण देकर जो दल रंगून भेजा गया उसमें सरजू भी शामिल था। रंगून में दो माह रहने के बाद उसे सिंगापुर भेज दिया। उसके साथ आए सैनिकों में से आधे को रंगून में रोक लिया गया और शेष को सिंगापुर के लिए रवाना कर दिया गया।
सिंगापुर में सैनिक विद्रोह दबा तो दिया गया था, लेकिन ख़तरा समाप्त नहीं हुआ था। जर्मनी की पूरी कोशिश थी कि सिंगापुर,चीन और रंगून में भारतीय सैनिक विद्रोह करें। बल्कि उसका पूरा प्रयास भारत में भी इसे सफल बनाने का था, लेकिन ब्रिटिश शासक सतर्क थे। मेरठ से रंगून और वहाँ से सिंगापुर जिन सैनिकों को भेजा गया वे इतने दिनों में काफ़ी प्रशिक्षित हो चुके थे और पांच सौ सैनिकों की वह टुकड़ी अफसरों को फ्रांस भेजे जाने के लिए अधिक उपयुक्त दिखाई दे रही थी। उससे पहले भी सैनिकों को वहाँ से फ्रांस भेजा गया था। सरकार ने एक हज़ार सैनिकों की नयी कुमुक सिंगापुर भेजी जो बिल्कुल नए रंगरूट थे। उनके वहाँ पहुँचने के एक सप्ताह के अंदर मेरठ से पहले वहाँ पहुँची पांच सौ सैनिकों की टुकड़ी को फ्रांस के लिए रवाना कर दिया गया। यह टुकड़ी 28 फरवरी,1916 को फ्रांस के लिए रवाना हुई.
हुआ यह था कि मित्र राष्ट्रों की सेनाओं का विघटन करने के लिए फ़्रांस पर आक्रमण करने की योजनानुसार जर्मनी की ओर से 21 फ़रवरी 1916 ई. को बर्दूं युद्ध प्रारंभ हुआ। नौ जर्मन डिवीज़न ने एक साथ मॉज़ेल नदी के दाहिने किनारे पर आक्रमण किया तथा प्रथम एवं द्वितीय युद्ध मोर्चों पर अधिकार कर लिया । फ्रेंच सेना जनरल पेतैं की अध्यक्षता में इस चुनौती का सामना करने के लिए बढ़ी। जर्मन सेना 26 फ़रवरी को बर्दूं की सीमा से केवल पाँच मील दूर रह गई। कुछ दिनों तक घोर संग्राम हुआ। 15 मार्च तक जर्मन आक्रमण शिथिल पड़ने लगा तथा फ्रांस को अपनी व्यूहरचना तथा रसद आदि की सुचारु व्यवस्था का अवसर मिल गया। म्यूज के पश्चिमी किनारे पर भी भीषण युद्ध छिड़ा जो लगभग अप्रैल तक चलता रहा। मई के अंत में जर्मनी ने नदी के दोनों ओर आक्रमण किया तथा भीषण युद्ध के उपरांत 7 जून को वाक्स का क़िला लेने में सफलता प्राप्त की। जर्मनी अब अपनी सफलता के शिखर पर था। फ्रेंच सैनिक मार्ट होमे के दक्षिणी ढालू स्थलीय मोर्चों पर डटे हुए थे। संघर्ष चलता रहा। ब्रिटिश सेना ने सॉम पर आक्रमण कर बर्दूं को छुटकारा दिलाया। जर्मनी का अंतिम आक्रमण 3 सितंबर को हुआ था। जनरल मैनगिन के नेतृत्व में फ्रांस ने प्रत्याक्रमण किया तथा अधिकांश खोए हुए स्थल जीत लिए थे । 20 अगस्त 1917 के बर्दूं के अंतिम युद्ध के उपरांत जर्मनी के हाथ केवल ब्यूमांट रह गया था। युद्धों ने फ्रैंच सेना को शिथिल कर दिया था, जब कि आहत जर्मनों की संख्या लगभग तीन लाख थी और उसका जोश फीका पड़ गया था।
आमिऐं के युद्धक्षेत्र में मुख्यत: मोर्चाबंदी अर्थात् खाइयों की लड़ाइयाँ हुईं। 21 मार्च से लगभग 20 अप्रैल तक जर्मन अपने मोर्चें से बढ़कर अंग्रेज़ी सेना को लगभग 25 मील ढकेल आमिऐं के निकट ले आए। उनका उद्देश्य वहाँ से निकलनेवाली उस रेलवे लाइन पर अधिकार करना था, जो कैले बंदरगाह से पेरिस जाती थी और जिससे अंग्रेज़ी सेना और सामान फ्रांस की सहायता के लिए पहुँचाया जाता था।
लगभग 20 अप्रैल से 18 जुलाई तक जर्मन आमिऐं के निकट रुके रहे। दूसरी ओर मित्र देशों ने अपनी शक्ति बहुत बढ़ाकर संगठित कर ली, तथा उनकी सेनाएँ जो इससे पूर्व अपने- अपने राष्ट्रीय सेनापतियों के निर्देशन में लड़ती थीं, एक प्रधान सेनापति, मार्शल फॉश के अधीन कर दी गईं।
जुलाई, 1918 के उपरांत जनरल फॉश के निर्देशन में मित्र देशों की सेनाओं ने जर्मनों को कई स्थानों में परास्त किया।
जर्मन प्रधान सेनापति लूडेनडार्फ ने उस स्थान पर अचानक आक्रमण किया जहाँ अंग्रेज़ी तथा फ़्रांसीसी सेनाओं का संगम था। यह आक्रमण 21 मार्च को प्रात: साढ़े चार बजे किया गया, जब कोहरे के कारण सेना की गतिविधि का पता नहीं चल सकता था। 4000 तोपों ने अचानक गोले उगलने आरंभ कर दिए थे। 4 अप्रैल को जर्मन सेना कैले-पेरिस रेलवे से केवल दो मील दूर रह गयी थी। 11-12 अप्रैल को अंग्रेज सेनापतियों ने सैनिकों से लड़ मरने का अनुरोध किया। युद्ध ने भयानक रूप ले लिया था। एक सप्ताह से अधिक समय तक जर्मनों ने आमिऐं के निकट लड़ाई जारी रखी, पर वे कैले-पैरिस रेल लाइन पर अधिकार न कर सके. उनका अंग्रेजों को फ्रांसीसियों से पृथक् करने का प्रयास असफल रहा था।
20 अप्रैल से लगभग तीन महीने तक जर्मन मित्र देशों को अन्य क्षेत्रों में परास्त करने का प्रयत्न करते रहे और सफल भी हुए. किंतु इस सफलता से लाभ उठाने का अवसर उन्हें नहीं मिला। मित्र देशों ने इस भीषण स्थिति में अपनी शक्ति बढ़ाने के प्रबंध कर लिए थे।
25 मार्च को जनरल फॉश इस क्षेत्र में मित्र देशों की सेनाओं के सेनापति नियुक्त हुए। ब्रिटेन की पार्लमेंट ने अप्रैल में सैनिकों की सेवा की उम्र बढ़ाकर 50 वर्ष कर दी और 3,55,000 सैनिक अप्रैल मास के भीतर ही फ्रांस भेज दिए। अमरीका से भी सैनिक फ्रांस पहुँचने लगे थे और धीरे धीरे उनकी संख्या 6,00,000 पहुँच गई. नए अस्त्रों तथा अन्य आविष्कारों के कारण मित्र देशों की वायुसेना प्रबल हो गई. विशेषकर उनके टैंक बहुत कार्यक्षम हो गए.
15 जुलाई को जर्मनों ने अपना अंतिम आक्रमण मार्न नदी पर पेरिस की ओर बढ़ने के प्रयास में किया। फ्रांसीसी सेना ने इसे रोककर तीन दिन बाद जर्मनों पर उसी क्षेत्र में शक्तिशाली आक्रमण कर 30,000 सैनिक बंदी बना लिए. फिर 8 अगस्त को आमिऐं के निकट जनरल हेग की अध्यक्षता में ब्रिटिश तथा फ्रांसीसी सेना ने प्रात: साढ़े चार बजे कोहरे की आड़ में जर्मनों पर अचानक आक्रमण किया। इस लड़ाई में चार मिनट तोपों से गोले चलाने के बाद, सैकड़ों टैंक सेना के आगे भेज दिए गए, जिनके कारण जर्मन सेना में हलचल मच गई. आमिऐं के पूर्व आब्र एवं सॉम नदियों के बीच 14 मील के मोर्चे पर आक्रमण हुआ और उस लड़ाई में जर्मनों की इतनी क्षति हुई कि सूडेनडोर्फ ने इस दिन को काला दिन का नाम दिया।
जर्मन,फ्रांस, ब्रिटेन आदि देशों की सेनाओं के बीच जब भयानक युद्ध जारी था, सरजू का जहाज़ पांच सौ भारतीय सैनिकों के साथ उस रणस्थल की ओर बढ़ रहा था।
जहाज कई दिनों तक बसरा बंदरगाह में लंगर डाले रहा। अरबी में बसरा को मुहाफ़ज़ात अल-बसरा कहते हैं।
बसरा इराक का तीसरा सबसे बड़ा नगर एवं महत्त्वपूर्ण बंदरगाह था। उन दिनों यह बसरा प्रान्त की राजधानी भी था। यह फारस की खाड़ी से 75 मील दूर तथा बगदाद से 280 मील दूर दक्षिण-पूर्वी भाग में दज़ला और फरात नदियों के मुहाने पर बसा हुआ है। बसरा से देश की 90 प्रतिशत वस्तुओं का निर्यात किया जाता था। यहाँ से ऊन, कपास, खजूर, तेल, गोंद, गलीचे तथा जानवर निर्यात किए जाते थे। जनसंख्या में अधिकांश अरब, यहूदी, अमरीकी, ईरानी तथा भारतीय थे। 636 ईसा बाद इस शहर को प्रथम खलीफा उमर ने बसाया था। "अरेबियन नाइट्स" नामक पुस्तक में इसकी संस्कृति, कला, तथा वाणिज्य के विषय में बड़ा सुंदर वर्णन किया गया है। सन् 1968 में तुर्कों के अधिकार करने पर इस नगर की स्थिति खराब हो गई थी। लेकिन प्रथम विश्वयुद्ध में जब ब्रिटेन का इस पर अधिकार हुआ तब उन्होंने इसको एक अच्छा बंदरगाह बनाया और कुछ ही समय में यह इराक का एक महत्त्वपूर्ण बंदरगाह बन गया था । यहाँ ज्वार के समय 26 फुट ऊपर तक पानी चढ़ जाता है।
बसरा शहर की स्थिति खराब हो जाने के बावजूद वह तब भी एक अच्छा शहर था। अधिकारियों ने सैनिकों को शहर घूमने की इजाज़त दे दी। सरजू भी अपने साथियों के साथ घूमने जाता रहा। लेकिन हर दिन हर सैनिक को जाने की इजाज़त नहीं थी। चालीस-पचास की टुकड़ी में उन्हें जाने दिया जाता और उनके साथ एक अधिकारी भी होता था। एक दिन शाम के समय की बात थी। सैनिक अपने अफसर के साथ घूमकर लौट रहे थे कि उनकी दृष्टि बंदरगाह के बाहर एक मैदान पर पड़ी जहाँ कई पहलवान कुश्ती लड़ने की तैयारी कर रहे थे। सभी स्थानीय लोग थे। अखाड़ा के चारों ओर लोगों की छितराई भीड़ थी। सरजू ने अपने अफसर से कहा, वह लड़ना चाहता है यदि उसे इजाज़त मिले।
“क्यों नहीं जवान” अफसर भारतीय था, “तुम लड़ो छांट लो किसी पहलवान को।”
अफसर की इजाज़त मिलते ही सभी सैनिकों ने सरजू का मनोबल बढ़ाते हुए कहा, “उतरो सरजू, हमारा बल भी तुम्हारे साथ रहेगा।”
अफसर अखाड़ा की व्यवस्था देखने वाले व्यक्ति के पास गया और उसने सरजू की इच्छा उसे बतायी। इसके लिए वहाँ उपस्थित एक स्थानीय भारतीय की सहायता उसने ली क्योंकि उसे उसकी भाषा नहीं आती थी। भारतीय व्यापार करने लिए बीस साल से वहाँ रह रहा था। उन दिनों खाड़ी देशों के लोगों को बद्दू कहकर पुकारा जाता था जैसे अफ्रीका के लोगों को हब्शी कहा जाता था। तेल की समृद्धृता तब तक दूर की कौड़ी थी। अखाड़ा की व्यवस्था संभालने वाले व्यक्ति ने लगभग पैंतीस साल के व्यक्ति से सरजू को लड़ने के लिए कहा। वह व्यक्ति सरजू से दोगुना था और उसके सिर के बाल ग़ायब थे। बहुत ताकतवर दिख रहा था। लेकिन लंबाई उसकी कम थी। नाटा था। अधिकारी को भय हुआ कि सरजू उससे निश्चित ही हार जाएगा और कहीं ऎसा न हो कि वह बद्दू सरजू की जान ले ले। उसने सरजू को कुश्ती न लड़ने की सलाह दी, लेकिन सरजू ने बहुत विनम्रता से कहा, “जो होगा देखा जाएगा साहब। अब तो तय कर लिया है कि इससे लड़ूंगा ही।” और लंगोट पहने, जो कि वह हर समय पहनता था, नंगे बदन सरजू मैदान में उतर गया। मैदान में उतरने से पहले उसने अपने सभी साथियों से हाथ जोड़कर प्रणाम किया और भारत माता की जय की आवाज़ के साथ कुछ दंड और कुछ बैठक लगाकर शरीर को हल्का किया।
कुश्ती प्रारंभ हुई. सभी दम साधे देख रहे थे। स्थानीय लोग सरजू के साथ लड़ रहे व्यक्ति के लिए शोर मचाते हुए उसका मनोबल बढ़ा रहे थे, जबकि भारतीय सैनिक दम साधे चुप थे। सामने वाले पहलवान से भिड़ते ही सरजू ने समझ लिया कि वह उसे उठाकर पटक नहीं पाएगा। उसने तुरंत निर्णय किया और दांव चलाते हुए अपने को उसके बंधन से मुक्त किया और उछलकर अपने सिर से उसके खल्वाट सिर पर जोरदार टक्कर मारी। चीखता हुआ पहलवान चित होकर ज़मीन पर पसर गया। सरजू उसकी छाती पर सवार हो गया और उसने दोनों हाथ उठाकर विजय की घोषणा की और भारता माता की जय बोला। सभी भारतीय सैनिक भारत माता की जय बोलते हुए सरजू की ओर दौड़े और उसे ऊपर उठा लिया। उस समय वह बद्दू पहलवान पीड़ा से कराह रहा था। समय न नष्ट करते हुए सभी सैनिक अफसर के आदेश पर सरजू को कंधों पर उठाए जहाज़ की ओर दौड़ गए थे। अफसर को ख़तरा लगने लगा था कि स्थानीय लोग एकत्र होकर सरजू पर हमला न बोल दें, लेकिन वे सभी हत्प्रभ थे कि उस व्यक्ति के सामने बच्चा-सा दिखने वाले उस सैनिक ने उनके उस नामी पहलवान को कैसे धराशायी कर दिया था।
एक सप्ताह बाद जहाज़ बसरा से अपने गंतव्य के लिए बढ़ गया था।