कानपुर टु कालापानी / भाग 25 / रूपसिंह चंदेल
फ्रांस के नूवे शेपल नामक गाँव में जर्मन सेना के साथ भयानक युद्ध जारी था। सरजू मेरठ की गढ़वाल डिवीजन में था और उसके सभी साथियों को सीधे नूवे शेपल में युद्ध के लिए भेज दिया गया था। लेफ्टिनेंट जनरल सर जेम्स विलकॉक्स उस समय फ़्रांस में भारतीय सैनिकों का नेतृत्व कर रहे थे। उन्होंने गढ़वाल ब्रिगेड की प्रशंसा करते हुए लिखा है, “गढ़वाल ब्रिगेड के सिपाहियों ने तेजी से मोर्चे को सँभाल लिया और उस समय इससे बेहतर कुछ और नहीं हो सकता था।”
लेकिन शुरुआती सफलता के बाद जर्मन सैनिकों ने संयुक्त सेना को रोक दिया। विलकॉक्स के मुताबिक जर्मन आर्मी उस वक़्त दुनिया की सबसे आधुनिक सैन्य टुकड़ी थी। लड़ाई आगे भी जारी रही और अपने घरों से हज़ारों मील दूर भारतीय सैनिक न सिर्फ़ दुश्मन सेना से मोर्चा ले रहे थे बल्कि यूरोप के ठंडे मौसम से भी लड़ रहे थे।
युद्ध से अधिक मौसम से भारतीय सैनिकों को लड़ना पड़ रहा था। स्थिति यह थी कि कई कई माह पैरों से जूते उतारने के अवसर सैनिकों को नहीं मिलते थे। उन्हीं कपड़ों और जूतों में दिन-रात उन्हें दुश्मन के हमलों का सामना करना पड़ता था। रात में झपकी लगती कि दुश्मन का हमला प्रारंभ हो जाता था। रात भर गोले दगते और गोलियों की बौछार होती रहती। गढ़वाल ब्रिगेड के साथ बाद में बंबई से पहुँचे भारतीय सैनिक शामिल हो गए थे। भारतीय सैनिकों ने बहुत ही बहादुरी से दुश्मन से युद्ध किया और अकेले इसी युद्ध में भारतीय सेना के साढ़े चार हज़ार सैनिकों को जान गवानी पड़ी थी। इस युद्ध ने एक करोड़ लोगों की जान ली थी और इससे दोगुने घायल हुए थे। सरजू के कंधे पर सामान से लदा थैला,गोलियाँ,छोटे गोले और रायफल होती। थैले में खाने का सामान भी होता। जिस समय दुश्मन के हमले होते, ब्रिगेड के सैनिक छितरा जाते और कितनी ही बार ऎसा हुआ कि वे कई-कई दिनों बाद एक –दूसरे से मिल पाते थे और कितने ही साथी मिल भी नहीं पाते थे। सैनिक परिचित लापता सैनिक के बारे में अनुमान लगाते कि वह युद्ध की भेंट चढ़ चुका होगा, लेकिन जब वही सैनिक कई दिनों बाद अचानक किसी खाईं या जंगल में थका-हारा और भूखा मिलता, सैनिकों की ख़ुशी का ठिकाना नहीं होता।
एक बार नूवे शेपल के निकट एक गाँव से सरजू अपने पांच साथियों के साथ जा निकला। वे सब रास्ता भटक गए थे। गाँव में केवल बूढ़े बचे थे, उनमें से भी कई बीमार थे। चल-फिर सकने में असमर्थ थे। उनके पास भोजन सामग्री नहीं बची थी। घर जले हुए थे, जिनपर जर्मन सैनिकों ने गोले बरसाए थे। सरजू और उसके साथियों ने अनुमान लगाया कि मलबों के ढेर में पता नहीं कितनी जिन्दगियाँ दबी हुई होंगीं, लेकिन हालात ऎसे थे कि कुछ किया नहीं जा सकता था। भाषा की समस्या थी। मित्र देश की सेना जान एक बूढ़ा घर से बाहर निकल आया। जबकि सैनिकों को देखते ही शेष सभी घरों में दुबक गए थे। उस बूढ़े ने हाथ ऊपर उठा दिए, जिसका अर्थ सैनिकों ने लगाया कि वह समर्पण करना चाहता है। लेकिन उनके सामने समर्पण का क्या मतलब! वे तो मित्र देश के सैनिक हैं।
सैनिकों ने इशारों से पूछा कि वह क्या चाहता है। वृद्ध समझ नहीं पाया। उसकी टांगे लड़खड़ा रही थीं और हाथ धीरे-धीरे नीचे गिरते जा रहे थे। सरजू ने उसकी हालत देख साथियों से कहा, “वृद्ध पुरुष भूखे लग रहे हैं।”
साथियों को सरजू की बात सही लगी। “शायद तुम ठीक कह रहे हो सरजू।”
सरजू ने बैग खोला और उसमें से एक ब्रेड निकालकर वृद्ध सज्जन की ओर बढ़ाते हुए इशारा करके कहा कि वह उसे खाए. वृद्ध सच ही कई दिनों से भूखा था। उसने सरजू के हाथ से ब्रेड कुछ यूं झटकी जैसे बंदर किसी बच्चे के हाथ से कोई चीज झपट लेता है। बूढ़ा पास ही एक पत्थर पर घुटने पर हाथ रखकर बैठ गया और ब्रेड खाने लगा। तभी सरजू को दरवाज़े से झांकती एक वृद्धा दिखाई दी। उसने खाने का इशारा करते हुए वृद्धा को बुलाया। मित्र देश के सैनिक समझ वृद्धा धीरे-धीरे दरवाज़े से बाहर आयी और बूढ़े के बगल में बैठने लगी। सरजू ने दूसरी ब्रेड निकालकर वृद्धा को पकड़ा दिया। ब्रेड पकड़ते हुए वृद्धा की आंखों में चमक आ गयी, जिसे सभी सैनिकों ने देखा। तभी देखते-देखते कई जोड़े वृद्ध पुरुष-महिलाएँ वहाँ आ गए. सरजू के पास की ब्रेड समाप्त हो गयी थी। उसके बैग में ह्विस्की की बोतल शेष थी, जिसे अधिक ठंड लगने पर उसके अफसरों ने थोड़ी मात्रा में लेने की सलाह दी थी। दूसरे सैनिकों के पास ब्रेड थी, किसी के पास एक तो किसी के पास दो। सबने अपनी ब्रेड उन सभी में बांट दी।
सैनिकों को दो दिन का भोजन एक साथ दिया जाता था और मात्रा इतनी कि उन्हें लगभग आधा पेट रहना पड़ता था। दो कारण थे। एक तो यह कि राशन की सप्लाई बहुत सुचारु न थी और दूसरा कारण था कि युद्ध के दौरान सैनिक आलस का शिकार न हो जाएँ। दुश्मन कब हमला कर देगा, कोई नहीं जानता था। यही नहीं मित्र देशों की सेनाएँ भी कभी भी हमले की ताक में रहती थीं।
एकत्रित वृद्ध लोगों को देखकर सैनिकों ने अनुमान लगाया कि बच गए जवान और बच्चे गाँव छोड़कर सुरक्षित जगहों में जा चुके थे। लेकिन उन लोगों ने यह भी देखा कि उन वृद्ध लोगों में कई बीमार थे। उन्हें इलाज के लिए अस्थायी बेस अस्पताल तक ले जाना उनके वश में नहीं था, लेकिन उन लोगों ने वहाँ जाकर उस गाँव का भूगोल बताते हुए उन लोगों की बीमारी और भुखमरी की सूचना देने का निर्णय किया। वह गाँव एक पहाड़ी के पीछे था और मित्र सेनाओं का ध्यान उस ओर नहीं गया था। बीच में जंगल भी था। पहाड़ी से सटकर झील थी और उसी झील के आकर्षण में सरजू और उसके साथी उस गाँव तक जा पहुँचे थे।
जिस समय सरजू और उसके साथी उस गाँव पहुँचे थे, दोपहर के बारह बजे का समय था। एकत्रित वृद्ध लोगों को हाथ के इशारे से यह समझाने का प्रयास उन सबने किया कि वे जाकर अपने अफसर को उनकी समस्या से अवगत कराएगें और उन सबको किसी सुरक्षित कैंप में भेजवाने की व्यवस्था करेंगे। लगभग एक घण्टा रुके वे लोग उस गाँव में और उन्होंने गाँव घूमकर उसकी तबाई देखी और फिर झील के किनारे चलते हुए अपने कैंप में लौटे।
दुश्मन को करारी चोट पहुँचाई जा चुकी थी और एक प्रकार से उस मोर्चे पर उसकी कमर टूट गयी थी। वह शांत था, लेकिन दुश्मन पर भरोसा कभी नहीं किया जा सकता इसलिए सैनिकों को गश्त करते रहने और मोर्चे पर तैनात रहने के आदेश थे। दो दिनों में वे केवल भोजन सामग्री और शराब ले जाने के लिए कैंप तक जाते थे या जिनके कपड़े फट चुके होते थे क्योंकि युद्ध के समय ज़मीन पर घिसटकर भी चलना होता था, उन्हें कपड़े दिए जाते थे। लेकिन जब दुश्मन के हमले हो रहे होते तब सैनिकों को किसी बात का होश नहीं रहता था। युद्ध और युद्ध वे केवल यही जानते थे और उस स्थिति को जानते हुए बेस कैंप से उनके उपस्थित स्थानों पर भोजन,दवाएँ और गोला-बारूद पहुँचाया जाता था। इसके लिए अलग से वे सैनिक थे, जो युद्ध नहीं यह कार्य ही करते थे।
सरजू और उसके साथियों ने बेस कैंप में जाकर उस गाँव के विषय में अपने अफसर को सूचित किया, जिसने अपने उच्च अधिकारी को जानकारी दी। उसने फ्रांसीसी सेना के अधिकारियों को बताया और उस शाम तक गाँव के सभी वृद्धों को सुरक्षित स्थान में पहुँचा दिया गया था।
युद्ध समाप्त होने तक भारतीय सैनिक फ्रांस ही नहीं मिश्र,अफ्रीका,ईराक आदि देशों में रहे। युद्ध 11 नवंबर,1918 को समाप्त हुआ। ठंड का ज़ोर था। भारतीय सैनिकों के लिए ऎसी ठंड जानलेवा होती थी। बर्फीली हवाएँ चल रही थीं और उस पर मुसीबत यह थी कि युद्ध समाप्ति तक ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति भी खराब हो आयी थी। सैनिकों को लंबे समय से कपड़े नहीं मिले थे। वे उन्हीं कपड़ों में भयानक ठंड का सामना कर रहे थे। बेस कैंप लगभग पचास मील पीछे हटा लिया गया था,जहाँ से पेरिस से उसे सुविधाएँ मिल सकतीं। युद्ध के दौरान वह काफ़ी निकट था। बल्कि मुख्य कैंप वही था, पचास मील दूर वाला, लेकिन तीन-चार मील की दूरी पर सैनिकों और आम नागरिकों की सुविधा के लिए छोटे कैंप स्थापित किए गए थे। युद्ध की समाप्ति के साथ छोटे कैंपों को बंद कर दिया गया था। सैनिकों की वापसी होने लगी थी और उन्हें बेस कैंप में रिपोर्ट करने के लिए कहा गया था।
सरजू के कपड़े फट चुके थे और बर्फ में पैरों को सुरक्षा देने वाले जो जूते उसने पहने हुए थे उन्हें पहने चार माह हो चुके थे। उतारने का अवसर नहीं मिला था और जूतों के अंदर पैर फूलकर कुप्पा हो चुके थे। यही हाल अधिकांश सैनिकों का था। उसी हाल में उन्हें पचास मील चलकर जाना था। कोई साधन नहीं था। पचास मील और पैर थे कि चलने से इंकार कर रहे थे। ऊपर से कंधे पर लटकते बैग में बचा यौद्धिक सामान। बोझ इतना कि एक-एक पैर बमुश्किल सैनिक आगे की ओर बढ़ा पा रहे थे। तय था कि कई दिनों में वे कैंप तक पहुँचेंगे। लेकिन सभी को वहाँ पहुँचने की जल्दी थी। उन्हें यह सूचना मिल चुकी थी कि अब देश वापसी होगी। सभी को इस बात का दुख भी था कि साथ आए सैनिकों में से सत्तर सैनिक उनके साथ नहीं जा पाएगें। वे युद्ध की भेंट चढ़ चुके थे।
पहले दिन सभी ने छः मील की यात्रा तय की। रात एक गाँव के युद्ध में टूटे मकानों में बितायी। वह गाँव पूरी तरह से उजड़ा हुआ था। गाँव में एक भी व्यक्ति उन्हें नहीं मिला और न ही कोई जानवर। केवल दो कुत्ते कुछ दूर सिमटे-सिकुड़े ठंड से बचते दिखाई दिए थे। सुबह उठकर सभी फिर चल पड़े। लगभग दस बजे का समय था। सूर्य की बीमार रोशनी में उन्हें एक गाँव दिखायी दिया। रास्ता गाँव के बीच से होकर निकलता था। उस गाँव में आबादी थी। युद्ध समाप्ति की ख़ुशी लोगों के चेहरों पर सबने अनुभव की। सरजू को एक घर के बाहर एक वृद्ध महिला दिखाई दी लगभग साठ साल की चेहरे पर झुर्रियाँ लेकिन शरीर मजबूत। लंबी सफेद बाल ,नीली आंखों और गोरी त्वचा वाली उस महिला को देखकर सरजू साथियों से बोला, “उन माता जी के पास चलो।”
“क्यों?” एक साथी ने अपनी रायफल संभालते हुए पूछा।
“इन जूतों से मुक्त हो लो साथियो। इनके रहते कैंप तक पहुँचना कठिन है।”
“लेकिन माता जी क्या मदद करेंगीं।” दूसरा बोला, “हम एक दूसरे की भाषा भी नहीं जानते।”
“इंसान इंसान की भाषा समझ लेता है वैसे ही जैसे पक्षी और जानवर एक दूसरे की समझ लेते हैं।”
“ठीक कह रहे हो खासकर मुसीबत के समय ।”
वे उस घर की ओर बढ़े। वह घर सड़क के किनारे था और सड़क के किनारे पेड़ थे। धूप यद्यपि बीमार-सी थी, लेकिन ठंड कुछ कम हुई थी। रात बर्फ गिरी थी, जो सड़क पर तब भी मौजूद थी। पेड़ की पत्तियों पर भी उसके निशान मौजूद थे। धूप निकलने से पहले तक जो पक्षी दम साधे धूप निकलने के इंतज़ार में रहे थे वे पेड़ पर धूप आते ही चहकने लगे थे। सरजू ने सोचा, “पक्षी भी लड़ाई ख़त्म होने का उत्सव मना रहे हैं।”
दस सैनिकों को अपने घर की ओर आता देख वह महिला बाहर निकल आयी और हाथ फैलाकर उनका स्वागत करती हुई चीखकर कुछ कहा, जिसे सैनिक समझ नहीं पाए. महिला जानती थी कि वे किसी मित्र देश के सैनिक थे। उसने इशारे से पूछा कि वे किस देश से थे। सरजू के एक साथी को टूटी फूटी अंग्रेज़ी आती थी जिसे उसने सेना में भर्ती होने के बाद सीखा था। वह सैनिक बंबई से आने वाले उन सैनिकों में था जो गढ़वाल ब्रिगेड के बाद वहाँ पहुँचे थे। भर्ती होने के बाद कुछ दिन वह बंबई में रहा था और रहने वाला भी पूना का था। उसने केवल इतना कहा, “इण्डियन।”
“ओ! इंदियन।” महिला पुनः चीखी। उसे अंग्रेज़ी आती थी। वह वर्षों लंदन में रही थी। ऊँची आवाज़ में बोली, “कम-कम—“ और हाथ का इशारा करती हुई उसे घर की ओर ले गयी। मुख्य द्वार से प्रवेश करते ही लंबा-सा लॉन था। कुर्सियाँ पड़ी हुई थी लॉन में। महिला ने सैनिकों को बैठने का इशारा किया और घर के अंदर दौड़ गयी। सैनिक यह देखकर हैरान थे कि जहाँ रास्ते के सभी गाँव तबाह हुए दिखे वहीं वह गाँव कैसे बचा रह गया। लेकिन उनके पास सोचने का समय अधिक नहीं था। वे जल्दी से जूतों से मुक्त होकर कैंप पहुँचना चाहते थे। थोड़ी देर बाद महिला ने सभी सैनिकों के लिए अपने नौकर के हाथों ब्रेड और अन्य चीजें भेजवाईं। पीछे स्वयं आयी और इशारे से उन्हें खाने के लिए कहा। “टेक टेक इट। हंग्री।”
सैनिक कुछ नहीं समझ पाए, लेकिन खाने का सामान था तो इतना तो समझ ही गए कि उनके लिए लाया गया था। सबने खाने की चीजें उठा लीं। महिला ने नौकर को कुछ समझाया और थोड़ी देर बाद नौकर दस कप कॉपी ले आया। उसके बाद उस सैनिक ने कुछ इशारों से और कुछ टूटी-फूटी अंग्रेज़ी में पैरों के जूते काटने के लिए कोई धारदार चीज मांगी। महिला ने सभी के सूजे पैर देखा और दांतो तले उंगली दबाती हुई घर के अंदर गई और कैंची-सी एक चीज लेकर आयी। सबसे पहले सरजू ने अपने जूते उस कैंची से काट डाले। जूतों से बाहर निकले उसके पैर बहुत लाल और सूजे हुए थे मानो सारे शरीर का खून पैरों में उतर गया था। महिला ने नौकर से अपने लिए कुर्सी मंगायी और सभी सैनिकों को जूते काटता हुआ देखती रही। सभी के जूते काट लेने के बाद उसने नौकर को उन जूतों को गेट के बाहर रखे कूड़ादान में डाल देने का आदेश दिया। जब नौकर जूते उठाने लगा सैनिकों ने विरोध किया लेकिन महिला बोली,”यू आर फ्रेंड ।” उसकी बात केवल वह पूना वाला सैनिक समझ पाया और उसने साथियों को बताया कि वह कह रही हैं कि तुम हमारे मित्र हो तुमने हमारी जान बचायी हमारे देश को बचाया है।
नौकर के जूते कूड़ादान में फेंक आने के बाद वह महिला फिर घर के अंदर गयी और एक दवा लाकर सैनिकों को देकर इशारे से कहा कि वे पैरों में उसकी मालिश कर लें। दर्द कम हो जाएगा और सच ही उस दवा को लगाते ही सभी को राहत मिली थी। सबने उस महिला से हाथ जोड़कर विदा ली। महिला ने भी हाथ जोड़ दिए और ऊँची आवाज़ में बोली,”आई लाइक इंदिया इंदियन।”
पूना वाले सैनिक ने साथियों को उसका मतलब बताया तो सभी ने फिर एक बार उसे हाथ जोड़कर नमस्ते की और सड़क पर उतर गए.
तीन दिन बाद सरजू और उसके साथी कैंप पहुँचे। वहाँ उन्हें एक सप्ताह रहना पड़ा। वहाँ सैनिकों की बेइंतहा भीड़ थी। लेकिन वहाँ रहने से सभी के पैरों का इलाज हुआ और वे पूरी तरह से स्वस्थ हो गए. उन्हें नए कपड़े और जूते दिए गए और एक सप्ताह बाद उन्हें देश के लिए रवाना कर दिया गया था।