कानपुर टु कालापानी / भाग 26 / रूपसिंह चंदेल

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सरजू का जहाज़ जनवरी,1919 में बम्बई बंदरगाह पहुँचा। बंबई में मौसम सामान्य था। ठंड का असर नहीं था। एक मामूली खेस से रात का जाड़ा कट जाता था। कुछ जीवट वाले लोग चादर ही ओढ़ते थे। बंबई में सरजू को दस दिन रुकना पड़ा। कोई काम नहीं था। बंबई पहुँचने के बाद उसने एक माह का वेतन लिया और अफसरों की अनुमति लेकर अपने कुछ साथियों के साथ कभी पैदल तो कभी बग्धी में बंबई घूमा। ग्यारहवें दिन उसे गढ़वाल ब्रिगेड के अन्य सैनिकों के साथ मेरठ भेज दिया गया। बंबई से पहले वे दिल्ली पहुँचे, फिर मेरठ। सरजू ने सेना में भर्ती होने के बाद पूछे जाने पर कहा था कि यदि वह जीवित लौटा तब सारा वेतन लौटकर लेगा। उससे जो फार्म भरवाया गया था उसमें उसने परिवार का जो विवरण दिया था उसमें अपने को अकेले ही बताया था। सौतेली मां-भाई या बहन-बहनोई की जानकारी नहीं दी थी। सौतेली माँ और नन्हकू की उसे जानकारी नहीं थी कि वास्तव में वे लोग कहाँ थे। उसका केवल अनुमान था कि नन्हकू अपने मामा के घर पल रहा होगा। बहनोई का जो व्यवहार उसने अपने विषय में आखिरी दिनों देखा उससे उनके प्रति उसे लगाव नहीं रहा था। बहन और कल्लू के प्रति उसका प्रेम बरकरार था और शंकर सिंह के प्रति वही आदर था, लेकिन उसने सोचा था कि शंकर सिंह गृहस्थी में रुचि नहीं लेते थे। उन्होंने सब कुछ जसवंत के भरोसे छोड़ दिया था। जब उससे फार्म भरते हुए अफसर ने पूछा था कि उसे युद्ध के परिणाम मालूम हैं तब उसने छूटते ही कहा था, “मालूम हैं।”

“यदि तुम खेत रहे तब तुम्हारा वेतन का और अन्य सामान किसे भेजा जाएगा।”

“उसकी चिन्ता न करें साहब। जब मैं नहीं रहूँगा तब किसे देने के लिए कहूँ। वह गरीबों में बांट दिया जाए.”

“ओह! नेक इरादे हैं।” अफसर मुस्कराया था।

बंबई से मेरठ आते हुए गाड़ी में उसे रानी और कल्लू की याद आयी। ’पता नहीं कैसे होंगे वे’। उसने सोचा और उसके साथ ही उसे नन्हकू की भी याद हो आयी। नन्हकू दिनभर उसकी गोद में रहता था। मोटा था और उसके हाथ थक जाते थे, लेकिन नन्हकू इतना जिद्दी था कि उसकी गोद से उतरना ही नहीं चाहता था। उसे उस दिन की याद भी आयी जब सौतेली माँ पड़ोस में गयी हुई थी और वह और नन्हकू भूखे थे। उसने पहली बार आटा गूंधकर टेढ़ी-मेढ़ी रोटी सेंकी थीं। सेना में जाने के बाद उसने एक रुपया भी वेतन नहीं लिया था। उसे आवश्यकता भी नहीं थी। बसरा शहर घूमते समय उसके साथी कुछ खाने-पीने का सामान खरीदते और उसे देने लगते तब वह साफ़ मना कर देता। वह सेना की ओर से दी गई चीजों से संतुष्ट रहता था। वहाँ खाना-कपड़ा मिल ही रहे थे। जबकि अन्य सैनिकों के परिवार पीछे भारत में थे और उन्होंने लिखकर दिया हुआ था कि उनका वेतन प्रतिमाह उनके परिवार को भेजा जाए. बंबई दफ़्तर में सभी सैनिकों को एक माह का वेतन दिया गया था, जिससे वे सुविधा अनुसार अपने घरों को जा सकें। मालूम था कि युद्ध से लौटे सभी सैनिक घर जाना चाहेगें अवकाश पर। वहाँ सरजू को भी एक माह का वेतन दिया गया। शेष वेतन के विषय में बताया गया कि वह उसे मेरठ में दिया जाएगा।

मेरठ पहुँचने पर उसे चार माह के अवकाश के साथ पूरे सेवा काल का वेतन दिया गया। वेतन लेकर उसने सबसे पहले आगरा जाने का निर्णय किया। उसे जयसिंह कछवाहा साहब की याद हो आयी थी। उनसे किया अपना वायदा भी उसे याद आया। मेरठ से वह शनिवार रात आगरा के लिए रवाना हुआ। अगले दिन सुबह वह राजा की मंडी स्टेशन उतरा। उससे पहले आगरा कैंट स्टेशन पड़ा था, जहाँ बहुत से सैनिक ट्रेन में चढ़ने के लिए प्लेटफार्म पर उपस्थित थे। वह ट्रेन झांसी जा रही थी। उसे उन दिनों की याद हो आयी जब वह छावनी में भर्ती के लिए पहले दिन पहुँचा था।

राजा की मंडी उतरकर सरजू ने एक हलवाई की दुकान से पांच सेर मिठाई बंधवाई, जिसमें दो सेर पेठा और तीन सेर बरफी थी। अपना सामान उसने स्टेशन में बने सामानघर में रख दिया था। वैसे सामान था भी क्या उसका फ़ौजी कपड़े और जूते। मेरठ में वेतन मिलने के बाद उसने अपने लिए सादे कपड़े—कुर्ता पायजामा, ऊनी जैकेट और चमरौधे जूते खरीदे थे। चमरौधे उसे पसंद थे। बूट में वह पैरों को बंधा हुआ महसूस करता था। फ़ौज की बात अलग थी। बंबई में ठंड नहीं थी, लेकिन इटारसी पहुँचते ही ठंड ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया था। जब वह जय सिंह कछवाहा साहब के घर पहुँचा, वह घर के बाहर धूप सेंक रहे थे। आसमान साफ़ था और खिली धूप घर के बाहर पसरी हुई थी। कुछवाहा साहब के हाथ में अंग्रेज़ी अख़बार था। अख़बार सामने फैलाए ऊपर उठाए वह पढ़ रहे थे। सूर्य की किरणें अख़बार को भेदती उनके शरीर को भिगो रही थीं। घर के ऊपर कौवा कांव-कांव कर रहा था और उनका पालतू कुत्ता उनसे कुछ हटकर धूप में आंखे बंद किए लेटा हुआ था। सरजू को मालिक की ओर बढ़ता देख कुत्ता चैतन्य हो उठा और खड़ा होकर भोंकने लगा। कछवाहा साहब ने अख़बार बंद किया और सामने सरजू को देख चीख-सा उठे—“वेलकम—वेलकम सरजू।”

सेना में इतने दिन रह लेने के बाद सरजू भी अंग्रेज़ी के कुछ शब्द बोलना सीख गया था और उनके मतलब भी जानता था। उसने आगे बढ़कर कछवाहा साहब के पैर छुए.

“कब आए?”

“सीधे स्टेशन से आ रहा हूँ। मेरठ दस दिन पहले आ गया था।”

सरजू तब तक खड़ा ही था। कछवाहा साहब उसे देखकर इतना प्रसन्न थे कि उसे बैठाना है भूल ही गए थे। वह तुरंत उठ खड़े हुए और कुछ दूर खड़ी चारपाई उठाने के लिए लपके. सरजू ने मिठाई उनकी कुर्सी पर रखा और लपककर कछवाहा साहब के हाथ से चारपाई थाम ली। हालांकि वह मना करते रहे।

सरजू चारपाई बिछाकर उसपर बैठा और कछवाहा साहब अपनी कुर्सी पर। सरजू की लाई मिठाई उन्होंने चारपाई पर रख दी। वह कुछ पूछने ही जा रहे थे कि उन्होंने नौकर को आवाज़ दी ,”रामू”। रामू नामका का लगभग अठारह-उन्नीस साल का एक युवक तेजी से चलकर आया। सरजू मन में हलदू के विषय में सोचने लगा। वह कुछ पूछता कि कछवाहा साहब ने रामू को दूध और नाश्ता ले आने के लिए कहा। रामू चला गया तब सरजू ने हलदू के विषय में उनसे पूछा।

“वह एक साल पहले गाँव गया तो लौटकर नहीं आया।”

“यहाँ तो उसे बहुत आराम था साहब।” सरजू बोला।

“हो सकता है गाँव पहुँचकर किसी मजबूरी में फंस गया हो।” कछवाहा साहब फिर अख़बार देखने लगे थे। सरजू को लगा कि हलदू के बारे में उसे आगे बात नहीं करनी चाहिए. उसने रामू के विषय में भी कुछ नहीं पूछा। कुछ देर बाद रामू प्लेट में पराठे, सब्जी और एक गिलास दूध ले आकर चारपाई पर रख दिया। रामू पानी लाने के लिए जाने लगा तब सरजू ने मिठाई का थैला उसे पकड़ाते हुए घर ले जाने के लिए कहा। कछवाहा साहब अख़बार पढ़ते रहे। सरजू कुछ क्षण उन्हें अख़बार पढ़ता देखता रहा फिर बोला, “साहब, आप भी लें।”

“मैं नाश्ता करके बाहर निकला था। तुम लो।”

सरजू नाश्ता करने लगा। रामू पानी ले आया तब कछवाहा साहब ने कहा, “और ले आओ.”

“नहीं साहब। इतना पर्याप्त है।” दाहिना हाथ उठाकर सरजू ने मना किया।

सरजू के नाश्ता कर लेने तक कछवाहा साहब अख़बार पढ़ते रहे। नाश्ता कर लेने के बाद उन्होंने उससे बीते दिनों के बारे में पूछा, कैसे वह रंगून पहुँचा—वहाँ के अनुभव और फिर फ्रांस पहुँचने और वहाँ युद्ध के हालात के बारे में पूछा। सरजू ने संक्षेप में उन्हें मेरठ से रंगून,सिंगापुर, बसरा और फिर फ्रांस की घटनाओं का विवरण दिया। इस सबमें बारह बज गए थे। अंततः सरजू उठते हुए बोला, “साहब एक बजे की गाड़ी है कानपुर के लिए इजाज़त दें छुट्टियों के बीच फिर आउंगा।”

“ठीक।”

सरजू ने पैर छुए तो उसे आशीर्वाद देते हुए कछवाहा साहब ने फिर कहा, “आना ज़रूर।” तभी उन्हें याद आया कि दोपहर भोजन का समय होने जा रहा है। बोले, “लंच करके जाओ.”

“साहब, गाड़ी छूट जाएगी। “

“हुंह। कोई बात नहीं –अगली बार रात रुकना यहाँ। “

सरजू को भूरी की याद हो आयी। पूछा, “साहब, भूरी कैसी है?”

“ठीक है। तुम उससे मिलते हुए जाओ.”

“जरूर साहब।”

कछवाहा साहब ने रामू को आवज दी । उसके आने के बाद बोले, “यह सरजू हैं रामू। लड़ाई में गए थे। एक साल यहाँ रहे थे। इन्हें भूरी भैंस से मिलवाओ.”

रामू को सरजू के बारे में जानकारी थी। कभी कछवाहा साबह ने ही उसे बताया था। सरजू ने पुनः कछवाहा साहब के पैर छुए और रामू के साथ घेर में गया। भूरी बैठी पगुरा रही थी। जैसे ही सरजू उसके सामने पहुँचकर बोला, “भूरी, कैसी हो?” भूरी ने क्षणभर तक सरजू की ओर देखा और पहचानते ही उठ खड़ी हुई और सरजू की ओर बढ़ी। जंजीर से खूंटे से बंधे होने के कारण वह अधिक आगे नहीं बढ़ सकी। अगर खुली होती तो निश्चित ही वह दौड़कर सरजू के पास जा पहुँचती। सरजू ही आगे बढ़ा और उसने भूरी की गर्दन के इर्द-गिर्द बांहें डाल दीं। भूरी चुप। सरजू ने उसे चूमा और उसकी पीठ और सिर पर हाथ फेरा। भूरी चुपचाप खड़ी सरजू से प्यार लेती रही। कुछ देर प्यार करने के बाद सरजू ने उसे छोड़ा और उसके गालों पर थपथपाते हुए बोला, “भूरी मैं दोबारा आउंगा। तब तक तुम्हारी देखभाल के लिए रामू है।” उसने एक बार फिर भूरी को चूमा और वापस मुड़ गया। घेर के गेट के पास पहुँचकर उसने भूरी की ओर देखा और उसे लगा कि उसे देखकर भूरी जितना प्रसन्न हुई थी उसके जाने से उतना ही उदास हो उठी थी। भूरी की आंखें गेट से बाहर जाते सरजू पर ही टिकी हुई थीं।

रात सरजू रानी घाट वाले मकान पर जब पहुँचा, दस बज चुके थे। मोहल्ले में लोग जल्दी सो जाते थे। बस्ती विस्तार ले रही थी, लेकिन अधिक लोग तब भी नहीं थे। उन दिनों कड़वा या अरण्डी के तेल के दीपक जलते थे। लोग तेल की बचत करते। युद्ध के कारण मंहगाई इतनी अधिक बढ़ गयी थी कि जीना कठिन हो गया था। सेना में भर्ती के लिए जाते समय सरजू अपने घर रुका था और घर की देखभाल के लिए चाबी रामरिख के घर छोड़ गया था। चाची को जब पता चला था कि वह फ़ौज में भर्ती होने के लिए जा रहा था, वह रो पड़ी थीं। “बेटा गाँव में मन नहीं लागत त यहीं आ जाव कुछ छोटा-मोटा रोजगार करि लेव।”

“चाची—मैंने तय कर लिया है । आप चाभी रख लो लौटा तब ले लूंगा वर्ना “

“बेटा अइस काहे कहत हो भगवान रच्छा करिहैं।”

“दस-पन्द्रह दिनों में घर खोल दिया करना चाची बंद रहने से जल्दी खराब हो जाएगा। पता नहीं कब लौटूं ।”

“बबुआ जाही काहे रहे हौ?”

“मन है चाची दुनिया देखने का मन है।”

चाची चुप रह गयी थीं।

सरजू सीधे रामरिख के दरवाज़े पहुँचा। कुंडी खटखटायी। सोने की तैयारी चल रही थी वहाँ। मेहमान आए, सोचकर रामरिख ने दरवाज़ा खोला। अँधेरा था। चिराग बुझा दिया गया था। सरजू पहचान गया। उसने लपककर रामरिख के पैर छुए और कहा, “चाचा, मैं सरजू।”

सरजू नाम सुनते ही रामरिख ने उसे गले लगा लिया और पत्नी को ऊँची आवाज़ में पुकारा, “देखो कौन आया है ?”

“कउन है?”

“अरे बाहर तो आओ.”

कांखती हुई उनकी पत्नी बाहर आयीं तो सरजू ने उनके पैर छुए. चाची की आंखें कमजोर हो गयी थीं। अँधेरा गहन था। वह पहचान न पायीं। उन्होंने फिर पूछा “कउन?”

“मैं, सरजू चाची।”

“अरे, सरजू तुम ठीक तो हो न!।” फिर चाची ने बहू को आवाज़ देकर चिराग जलाने के लिए कहा। चिराग जलाकर उनका बड़ा बेटा बाहर आया तो सरजू ने उसके भी पैर छुए. सभी घर के बाहर बने कमरे में बैठे गए सरजू को घेर कर। “सरजू को घेर कर बाद में बैठना, बहू को बोलो कि सफ़र करके आया है लड़का कुछ बना दे।”

“चाचा, मत परेशान करो भौजाई जी को मैं स्टेशन से पूरी सब्जी ख़ाकर आया हूँ।”

“ऎसा कैसे हो सकता है बबुआ। इतनी दूर से आए हो ।”

“लेकिन चाचा, अभी तो मैं स्टेशन से तांगा पर आया हूँ।” फिर वह चाची की ओर मुड़ा, “चाची आप परेशान न हों भौजाई जी को बिल्कुल तंग न करें।”

रामरिख अपने बेटे की ओर उन्मुख हुए और बोले, “बेटा, कुछ मिठाई-सिठाई ही लाओ लड़का सात समन्दर पार से आया है।”

कुछ देर बाद बेटा एक कटोरे में खोया में चीनी मिलाकर ले आया।

“लो बबुआ याही खाव। थकान मिटि जाई” चाची बोलीं।

सरजू ने मिठाई खाई और पानी पीकर बोला, “चाचा, आपलोग आराम करो। ठंड बढ़ती जा रही है। बाहर तेज हवा चल रही है। लगता है कि आज पाला पड़ी।”

“बेटा, कई दिनों से पाला पड़ रहा है। सुबह घुप अँधेरा होता है। आठ बजे से पहले और कभी कभी दस-ग्यारह बजे तक सूरज के दर्शन नहीं होते। “

“चाची, चाबी ला दें मैं भी ।”

“बेटा, घर गंदा होगा और फिर दिया-बत्ती का इंतज़ाम तुम यहीं सो जाव। चभिया भी खोजैं का परी सबेरे देखब।”

सरजू के सोने के लिए उसी कमरे में व्यवस्था कर दी गयी। सुबह वह अपने घर गया। उसकी साफ़ सफ़ाई की और दो दिन वहाँ रहा। दूसरे दिन वह शहर गया था और कल्लू, रानी, जसवंत और शंकर सिंह के लिए कपड़े और कुछ अन्य सामान खरीदा था उसने। कल्लू के लिए कुछ खिलौने भी खरीदे और कुछ मिठाई और खाने के लिए कुछ नमकीन भी लिया। फ़ौजी कपड़े अपने घर छोड़े उसने और जूते और घर वालों के लिए खरीदा सामान फ़ौजी बैग में भरकर सुबह पैदल वह बारामऊ के लिए चल निकला। उसके पहुँचने पर जसवंत ने पहले से भी अधिक उदासीनता के साथ उसका स्वागत किया। पैर छूने पर पहले की भांति पीठ पर हाथ नहीं रखा जसवंत ने। चेहरे पर शुष्कता स्पष्ट अनुभव की सरजू ने। कुछ देर तक दोनों निःशब्द एक दूसरे के सामने खड़े रहे और उसके बाद बिना कुछ बोले जसवंत लाठी उठा खेतों की ओर चले गए. सरजू घर के अंदर दाखिल हुआ। कल्लू सामने नहा पर मचिया पर बैठा गिट्टी से ज़मीन पर लकीर खींच रहा था। रानी रसोई में थी दोपहर का भोजन पकाने की तैयारी कर रही थी।

सरजू रसोई के दरवाज़े जा खड़ा हुआ। आहट पाकर रानी ने पलटकर देखा और सामने सरजू को देख चीख उठी, “तुम?” चीख के साथ ही रानी की आंखों से आंसू टपक पड़े। “तुम तो फ़ौज मा भर्ती होने गए थे न!”

“हाँ और लड़ने के लिए सात समंदर पार।”

“हे भगवान! तू कितना दयालु है “ रानी ने दोनों हाथ जोड़कर ऊपर उठाते हुए कहा, “कैसा हो गया है तू? “

“मोटा और पहलवान हो गया हूँ।”

“चल हट! कितना दुबला गया है खाने को नहीं मिलता था वहाँ। “ फिर स्वयं ही बोली,”लड़ाई में कहाँ खाना-पीना।” उसने फिर हाथ जोड़कर अज्ञात भगवान को याद करते हुए कहा, “उसका लाख-लाख सुकर तू सही सलामत है अब मत जाना।”

सरजू मुस्करा पड़ा।

“यहाँ तो हर दिन समाचार आ रहे थे कि लड़ाई में अमुक गाँव का जवान मारा गया तो तुमुक गाँव का।”

“मैं जिन्दा आ गया न!” फिर कुछ रुककर वह बोला, “मरे हैं जहाँ मैं था वहाँ तकरीबन साढ़े चार हज़ार जवान मरे।”

कल्लू तब भी अपने खेल में तल्लीन था। तभी रानी ने उसे कहा, “कल्लू देख कौन आया है? मामा आया है?”

कल्लू ने तब भी नहीं देखा। रानी के दोबारा कहने पर उसने सरजू की ओर देखा और कुछ देर लगी उसे पहचानने में। फिर दौड़कर उसके पास आया और उसकी गोद में चढ़ने के लिए मचलने लगा। सरजू ने बैग नीचे रखा, जिसे वह तब तक लादे खड़ा था, फिर कल्लू को गोद में उठाकर उसे चूमने लगा, “भूल गया था मामा को! भूल गया था न!”

बालक सकुचाते हुए चुप था।

“बापू कहाँ हैं?” सरजू ने रानी से पूछा।

“बापू उन्हें गए तो एक साल से ऊपर हो गया। पिछले साल कातिक की चतुर्दशी के दिन ।”

“ओह!”

“एक हफ्ता बीमार रहे थे। बुखार था बस अचानक एक दिन तुम्हें बहुत याद कर रहे थे। कहा था कि तुम जब भी लौटकर आओगे दोबारा न जाने देना अपने खेत किसलिए तैयार किए सरजू ने! जब खेती नहीं करनी थी तब यह सब ।”

“बहुत दुख की बात मैं उनके अंतिम दर्शन नहीं कर पाया।” सरजू निढाल-सा उसी मचिया पर बैठ गया जिसपर कुछ देर पहले तक कल्लू बैठा था।