कानपुर टु कालापानी / भाग 27 / रूपसिंह चंदेल

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सरजू उसी दिन पहले अपने खेत देखने गया। खेतों में गेहूँ लहलहा रहा था। वह चमत्कृत था। इतने वर्षों में खेतों को खाद और पानी की समु़इत व्यवस्था करके उपजाऊ बना लिया गया था। जसवंते के अपने खेतों के बीच कुंआ था, जहाँ से सरजू के खेतों की ओर भी नाली निकाल दी गयी थी। एक साल तक जब सरजू का कोई समाचार नहीं मिला तब जसवंत ने अनुमान लगा लिया कि वह शायद लौटकर नहीं आएगा। एक साल तक खेत परती पड़े रहे थे लेकिन जब दूसरा साल भी बीतने को हुआ तब उन्होंने सरजू के वापस न लौटने का अनुमान लगाकर उसके खेतों को अपने खेतों की भांति संभालना शुरू कर दिया। पहले साल उन्होंने पड़ोसी गाँव के एक तेली परिवार को अधाई पर दिया, लेकिन उसके बाद स्वयं एक और हलवाहा करके उन्हें करवाना प्रारंभ कर दिया। लेकिन जब सरजू साक्षात आ उपस्थित हुआ तब उसे देखकर वह भौंचक रह गए थे। हालांकि ऎसा नहीं था कि साले के प्रति उन्हें प्रेम नहीं था। वह चाहते थे कि सरजू गाँव में ही रहे, लेकिन जब सरजू ने नौकरी की ज़िद की तब मन में यह विचार आया कि जो एक बार शहर की हवा खा लेता है वह कभी ही शायद लौटकर गाँव आता है। आया भी तो हफ्ता-दस दिन के लिए अंततः वह शहर का ही होकर रह जाता है। ऎसी स्थिति में खेत उन्हें ही संभालने होंगे।

एक-दूसरे के प्रति प्रेम के बावजूद सम्पत्ति वह चीज है जो आपस में आंतरिक भेद पैदा कर देती है। जसवंत को सरजू के खेतों से मोह हो आया था। अपने खेतों के चारों ओर चक्कर काटने के बाद सरजू जब जसवंत के खेतों में बनी झोपड़ी के पास पहुँचा, जसवंत चारपाई पर लेटे सरजू के विषय में ही सोच रहे थे। सरजू को आता देख उठ बैठे और उसे पायताने बैठने का इशारा किया। सरजू के बैठने के बाद दोनों के बीच कुछ देर तक चुप्पी छायी रही। चुप्पी को तोड़ते हुए सरजू बोला, “जीजा, मेरे खेतों को तो आपने बहुत उपजाऊ बना दिया।”

“माटी में जब किसान ख़ुद को माटी कर लेता है तभी खेत खेत बनते हैं। वर्ना उससे चरीदा ही क्या बुरा था।”

सरजू को लगा कि जीजा ने उस व्यंग्य किया था। ’खेतों को मैंने भी उपजाऊ बनाने के प्रयास किए थे। लेकिन तब नए नए चरीदा से उन्हें खोद-खाद करके खेत बनाया था। उसी समय कैसे अच्छी फ़सल दे सकते थे। दूसरा कारण यह भी था कि मैं बहुत ही कम समय अपने खेतों को दे पाता था। अधिकांश समय तो मेरा जीजा के खेतों में लगता था। फिर ’

“कहाँ रहे इतने दिनों?” जसवंत का स्वर सामान्य था।

“आगरा में फ़ौज में भर्ती होने के बाद मेरठ भेजा गया। वहाँ से रंगून,सिंगापुर और फिर फ्रांस ।”

“लड़ाई लड़ी?”

“लड़ने के लिए ही फर्ती किया गया था।” सरजू ने भी सीधा उत्तर देना उचित समझा।

“वह तो मैं भी जानता हूँ, लेकिन कुछ सैनिक पीछे रहते हैं मोर्चा के सैनिकों की सहायता के लिए.”

“मैं मोर्चे पर था।”

“लड़ाई तो बहुत भयानक होती है। दुश्मन सामने होता है और ।”

जसवंत की बात को काट सरजू बोला, “आजकल बिल्कुल सामने लड़ाई नहीं होती जीजा। दुश्मन दूर होता है। वह गोलियों, बमों से हमला करता है। अब वह ज़माना नहीं कि दुश्मन की सेना पीठ दिखाकर भग ली तो उसे छोड़ दिया जाता था। अब दुश्मन भागने लगता है तब उसका पीछा करके उसे मार गिराया जाता है। उसकी धरती पर कब्जा कर लिया जाता है।” कुछ देर रुककर सरजू आगे बोला, “अगर हमारे राजे-महाराजे ऎसा करते तो हम आज गुलाम न होते। मोहम्मद गोरी कभी पृथ्वीराज चौहान को बाँधकर नहीं ले जा सकता था। उसे कितनी ही बार चौहान ने हराया और हर बार वह पीठ दिखाकर भागा तो उसे छोड़ दिया, लेकिन वह बार-बार आता रहा और एक दिन ।”

“पुराने लोगों के अपने कुछ सिद्धान्त थे। अब समय गोली –बारूद का है। सही कहा तुमने आमने- सामने का समय नहीं रहा।” जसवंत बोले,”अब क्या विचार है?” जसवंत ने पूछा।

“चार महीने की छुट्टी मिली है। उसके बाद मेरठ जाकर रपट करना है। देखूंगा तब तक मन क्या कहता है।”

“मैं समझता हूँ कि तुम्हें गाँव में ही रहकर खेती करना चाहिए. अब खेत भी बहुत अन्न देने लगे हैं। अपनी गृहस्थी बसाओ. नौकरी का क्या वह भी फ़ौज की आज यहाँ कल कहीं और। मुझे पता है फौजियों की ज़िन्दगी बहुत खराब होती है। अफसर हुए तब तो ठीक बाक़ी सिपाही की ज़िन्दगी ।”

“आपको यह सब कैसे मालूम?”

“मेरी मौसी के लड़का हैं न! अब तो घर आने वाले हैं। उन्हें मोर्चे पर नहीं भेजा गया था। वह लखनऊ में हैं इन दिनों। सिपाही भर्ती हुए थे अब नायक हैं और उनकी छुट्टी होने वाली है। वह सब बताते रहते हैं।”

“मैंने कभी नहीं देखा उन्हें।”

“कम ही छुट्टी पर आ पाते हैं। सालों में मुलाकात होती है जब मिले तब बताया था।”

“सही कह रहे थे वह।” सरजू बोला, “फौज की नौकरी चौबीस घण्टे की है। अफसरों की मौज रहती है। लड़ाई नहीं तब मौज ही मौज दो सिपाही घर में काम करने के लिए मिलते हैं। सुना उनकी बीबियाँ उनसे कपड़े धुलवाने से लेकर झाड़ू-पोचा तक के काम करवाती हैं। यही नहीं छोटे बच्चों की टट्टी तक साफ़ करवाती हैं। साहब के कपड़े दुरस्त करने से लेकर जूते पॉलिश करना और ऑफिस जाते समय उन्हें कपड़े पहनने में सहायता करना और उन्हें जूते पहनाना उसी प्रकार उनकी निजी सेवा में तैनात सैनिक को करना होता है जैसे भारतीय पत्नियों को अपने पतियों के लिए करना पड़ता है।”

“तुम्हारी बहन ने तो एक दिन भी मेरे लिए ऎसा नहीं किया।”

“सभी भारतीय पत्नियाँ ऎसा करती हैं ऎसा नहीं लेकिन आधी पत्नियों को करना होता है। आज भी हमारा समाज आज से दो सौ साल पहले जी रहा है। हमारी गुलामी का यह बड़ा कारण है।”

जसवंत सुनते रहे। यह जानकारी उन्हें नहीं थी।

“जीजा, केवल अंग्रेज अफसरों के घरों में नौकर की तरह काम पर लगाए सैनिक ऎसा करते हैं ऎसा नहीं। हमारे देसी अफसर जो लेफ्टीनेण्ट बन जाता है उसे एक और कप्टेन को दो निजी नौकर मिलते हैं—इनसे बड़ों को और भी उनका व्यवहार अपने नौकर सैनिकों के प्रति वैसा ही होता है जैसा अंग्रेज अफसरों का अपने नौकरों के प्रति होता है। फ़ौज में अफसर बनते ही एक भारतीय नौजवान रात-रात में ही आधा अंग्रेज बन जाता है।” सरजू रुका क्षणभर के लिए फिर बोला, “इसे कहते हैं गुलामी का नशा। यही हाल दूसरे अफसरों का है। वह किसी भी विभाग का क्यों न हो। पुलिस का थानेदार अपने को पुलिस कप्तान समझने लगता है और आपको बताऊँ कि ज्यादातर पुलिस कप्तान अंग्रेज हैं। बड़े ओहदे पर गिनती के भारतीय पहुँचाए जाते हैं। मैंने इतने दिनों में सब समझा है कि किस प्रकार अंग्रेज उन्हें ही बड़ा ओहदा देते हैं जिनसे पूरी तरह नमक हलाली की उम्मीद होती है। अफसरों की जासूसी भी करवाई जाती है। देश में क्रान्तिकारी सक्रिय हैं। बंगाल तो क्रान्तिकारियों का गढ़ है ही कानपुर में भी बड़े-बड़े क्रान्तिकारी हैं और बाहर से आते रहते हैं। अंग्रेज इनसे सबसे अधिक घबड़ाते हैं। कांग्रेस के बारे में उन्हें मालूम है कि वह जैसा चाहेंगे उन्हें वैसा ढाल लेंगे। हमारे बहुत से नेताओं को उम्मीद थी कि लड़ाई समाप्त होने के बाद अंग्रेज सरकार उन्हें आज़ाद कर देगी इसलिए उन्होंने इस बात का जोरदार प्रचार किया था कि देशवासियों को ब्रिटेन की सहायता करनी चाहिए हर तरह से। सेना में भर्ती होकर और धन से भी। ख़ूब धन दिया लोगों ने और सेना में तेरह लाख के लगभग सैनिक भर्ती हुए जिन्हें देश के बाहर भेजा गया। अब युद्ध समाप्त हो चुका है, लेकिन ब्रिटेन की हालत इतनी पतली है कि वह शायद ही भारत या दुनिया के किसी अन्य देश को आज़ाद करेगा।” रुक गया सरजू और जीजा की ओर देखने लगा।

“तुम तो इतना सब जान गए हो कि अगर तुम पढ़े-लिखे होते तब तुम्हें अंग्रेज अफसर बना देते।”

सरजू चुप रहा।

“एक बात मैंने अनुभव की कि देश आज़ाद भी हो जाएगा जीजा तब भी जनता गुलाम ही रहेगी।”

“कैसे?”

“देश में अमीरों का एक बड़ा तबका अंग्रेजपरस्त हो चुका है। मैं जो जान रहा हूँ कि वह आज़ादी की मांग करेगा और कर भी रहा है लेकिन इसलिए नहीं कि उसे देश की या आम जनता की आज़ादी से कोई मतलब होगा। वह अपने लिए आज़ादी चाहता है और अपने लिए इसलिए जिससे अंग्रेजों की जगह वह शासन कर सके. वह अंग्रेजों से अधिक ख़तरनाक तबका है जीजा जी. “

“लेकिन ये बाल-गंगाधर तिलक नाम सुना है ?।”

“इनके बारे में अधिक नहीं जानता जीजा, लेकिन ईमानदार बहुत ही कम लोग हैं। मुझे तो ये अंग्रेजों की नक़ल लगते हैं। बाक़ी तो समय बताएगा।”

“लेकिन तुम यह ठीक कह रहे हो कि अंग्रेज इतनी आसानी से आज़ादी न देने वाले। इनके दाढ़े खून लग चुका है। ये हमें लूट रहे हैं और लूटना एक नशा होता है। नशा बहुत खराब चीज है। इनका वश चलेगा तो ये कभी भी इस देश को नहीं छोड़ना चाहेंगे।” कुछ देर रुके जसवंत, “सुना है कि दुनिया के बहुत सारे देशों में इनका शासन है।”

“ठीक सुना है आपने।” सरजू बोला, “कहते हैं कि इनके शासन में सूरज कभी नहीं डूबता।”

“इसका क्या मतलब?”

“मतलब यह कि जब हमारे यहाँ सूरज डूब रहा होता है तब दूर किसी देश में सुरज उग रहा होता है और इन्होंने इतने लोगों का खून बहाया है अपने राज्य के लिए कि गिनती करना कठिन है। एक देश है आस्ट्रेलिया। दूर समुद्र पार कर। इनके चरण वहाँ पड़े और इन्होंने वहाँ के मूल निवासियों को गाजर-मूली की तरह काट फेंका। उन्हें जंगलों में रहने के लिए मजबूर कर दिया। उनकी संख्या अब उंगलियों में गिनी जा सकती है। कभी वही हाल इन्होंने अमेरिका में किया था। वहाँ के आदिवासियों को तबाह कर दिया था।” वह रुका कुछ देर के लिए, “ये लोगों को लालच देकर उनका धर्म परिवर्तन करवाते हैं। मिशनरी इस काम में लगे हुए हैं। भयानक कौम है जो केवल अपना हित देखती है। मुसलमानों ने तलवार के बलपर जिसप्रकार लोगों से धर्म परिवर्तन करवाया आज हमारे देश में नव्वे प्रतिशत मुसलमान कभी हिन्दू थे। अधिकांश को तलवार के बलपर इन्होंने धर्मपरिवर्तन के लिए मजबूर किया तो यहाँ के जो छोटी कौम के लोग थे उन्हें यह समझाकर कि उनके धर्म में कोई भेदभाव नहीं है। सभी एक साथ नमाज पढ़ते हैं और एक साथ खाना खाते हैं अपने धर्म में परवर्तित किया और जब वे मुसलमान बन गए तब उनकी आंखें खुलीं, क्योंकि उनके धर्म में भी ऊँच-नीच का भेदभाव देखा उन्होंने। वहाँ भी लोग जातियों में बंटे हुए हैं। आपस में शादियाँ नहीं होतीं और छोटी जाति के हिन्दू को छोटी जाति में ही वहाँ स्थान मिला। यही हाल इसाई धर्म में है। वहाँ बराबरी कुछ अधिक है, लेकिन असमानता है वहाँ भी। वहाँ सब कुछ धन से आंका जाता है।”

“तुम तो बहुत ज्ञानी हो गए हो गए हो।” जसवंत उठ खड़े हुए और बोले, “तुमने आज मेरा बहुत ज्ञान बढ़ा दिया। गाँव तो सच ही गाँव ही है। आदमी जब तक देश देशांतर नहीं घूमता वह कुंए का मेंढक ही बना रहता है आओ घर चलें।”

सरजू जसवंत के साथ चलने लगा। ’अब जीजा का मन कुछ बदला हुआ लग रहा है।’ उसने सोचा।

चार माह का समय हवा में उड़ गए. उस साल होली का त्यौहार रानी ने मनाने से इंकार कर दिया था। वह ससुर के दुख से उबर नहीं पायी थी। जसवंत का भी मन नहीं था और सरजू तो पहले भी होली के रंग से बचता रहा था। उस वर्ष 16 मार्च को होली दहन था और सोमवर 17 मार्च को धुलेंडी अर्थात रंगो का त्यौहार था। मार्च के अंत तक सरसों की फ़सल पकने लगी थी और अप्रैल के पहले हफ्ते में वह पूरी तरह पक चुकी थी। सरजू ने सरसू काटने में जसवंत की सहायता की। उसके अपने दसो बीघा खेतों में गेहूँ और सरसों ही थी। उसकी सरसों भी खलिहान पहुँचाई गयी। खलियान जसवंत के बाग़ में था, जो गाँव के निकट था। इस सबमें पन्द्रह दिनों का समय लगा। अभी आधी सरसों ही कटी थी कि चौदह अप्रैल को ख़बर मिली कि अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में अंग्रेजों ने हजारों निहत्थे लोगों को गोलियों से भून दिया है। लोग सन्न थे। सरजू आहत हो उठा था। उसे पता नहीं था कि कितने लोग मारे गए थे। गाँव में पूरा समाचार पहुँच भी नहीं रहा था, लेकिन इस ख़बर से उसके हृदय में अंग्रेजों के प्रति घृणा के भाव को कई गुना बढ़ा दिया। उसने तय कर लिया कि लौटकर वह फ़ौज की नौकरी से त्याग पत्र दे देगा। देश की आज़ादी के लिए आंदोलन ज़ोर पकड़ता जा रहा था। यह सूचना उसे थी और फ़ौज में रहते कभी भी उसे अपने ही लोगों पर गोली चलाने के आदेश मिल सकते थे। ऎसा वह कभी नहीं करेगा। यदि रहा भी और ऎसा अवसर आया तो वह अपने भाइयों और बहनों पर गोली चलाने के बजाए अंग्रेजों को ही भून देगा। ’लेकिन मैं फ़ौज में रहूँगा ही नहीं। जाते ही इस्तीफा दे दूंगा।’ उसने मन में संकल्प लिया और फ़सल कट जाने के बाद 22 अप्रैल को वह रानी घाट अपने घर पहुँचा और उसी दिन रात की गाड़ी लेकर अगले दिन सुबह मेरठ। अभी उसकी छुट्टियाँ शेष थीं, लेकिन वह अपने कैप्टेन के दफ़्तर गया, जहाँ हवलदार से मिला और उससे कहा कि वह नौकरी छोड़ना चाहता है। सरकार पहले ही सैनिकों की छंटनी का मन बना चुकी थी। बल्कि बहुत-से सैनिकों को उनके घरों के पते पर उनकी नौकरी समाप्ति के पत्र भेजे जा चुके थे। हवलदार ने उसे बैठाया, चाय पिलायी और बोला, “साहब से पूछकर बताता हूँ।”

कैप्टन एक भारतीय नौजवान था। वह भी मोर्चे से लौटा था लेकिन उसकी बटालियन ईराक युद्ध में रही थी। हवलदार ने उसे सरजू की बात बतायी तब उसने कहा, “ठीक है जवान से लिखाकर ले लो। सरकार वैसे ही लाखों सैनिकों से मुक्ति का रास्ता खोज रही है। युद्ध समाप्त हो चुका है। सरकार की हालत पतली है। वह इतने सैनिकों का बोझ नहीं उठा सकती। सरजू समझदार जवान है। निकाला जाना और अपनी मर्जी से नौकरी छोड़ना दोनों अलग बाते हैं। उसे कहो कि दो दिन यहीं रहे छावनी में। अपना डिस्चार्ज लेटर लेकर जाएगा।

दो दिन बाद जो डिस्चार्ज लेटर सरजू को दिया गया उसमें युद्ध के दौरान उसके पराक्रम की प्रशंसा और ससम्मान उसके त्यागपत्र को स्वीकार करने की बात लिखी गयी थी।

उसी रात सरजू रात की गाड़ी से कानपुर के लिए रवाना हो गया था।