कानपुर टु कालापानी / भाग 28 / रूपसिंह चंदेल
जलियाँवाला बाग़ में निर्दोष लोगों की हत्या से देश का माहौल गर्माया हुआ था। कानपुर उससे कैसे अछूता रहता। सरजू की ट्रेन सुबह देर से कानपुर पहुँची। स्टेशन के बाहर लोगों की बहुत भीड़ थी। उसे रानीघाट के लिए मूलगंज चौराहा से तांगा लेना था। वह पैदल ही मूलगंज चौराहा पहुँचा। चौराहा पर भीड़ देखकर उसे समझते देर नहीं लगी कि लोग आज़ादी की मांग के लिए एकत्रित हुए थे। उस समय सुबह के दस बजे थे। आसमान से सूरज आग उगलने लगा था। उन दिनों कानपुर में ठंड भी अधिक होती थी और गर्मी भी असह्य। सरजू भीड़ के निकट पहुँचा। ’लगभग बीस हज़ार लोग वहाँ एकत्रित हैं।’ सरजू ने अनुमान लगाया, ’कुछ अधिक भी हो सकते हैं और कम भी’ उसने पुनः सोचा। एक नेता चौराहा पर बने गोल चक्कर के चबूतरे पर चढ़कर लोगों को सम्बोधित कर रहा था। “आजादी हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। अंग्रेजों ने वायदा किया था कि युद्ध समाप्त होते ही देश छोड़कर चले जाएगें और हम आज़ाद देश में सांस ले सकेंगे। लेकिन युद्ध समाप्त होते ही उन्होंने हमारी सांसों पर ताला लगा दिया है। हमारी मांगों का जवाब अब वे गोलियों से देने लगे हैं। साथियो, स्वर्ण मन्दिर के निकट जलियाँवाला बाग़ में 13 अप्रैल 1919 (बैसाखी के दिन) को रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए जो सभा हो रही थी उसमें हजारों लोग शामिल थे, जिनमें बच्चे भी थे, औरतें,बूढ़े और जवान –सभी थे जनरल डायर नामक अँग्रेज ऑफिसर ने अकारण उस सभा में उपस्थित भीड़ पर गोलियाँ चलवा दीं जिसमें 1000 से अधिक लोग मरे और 2000 से अधिक घायल हुए । ब्रिटेन की मक्कार और शोषक सरकार केवल 379 लोगों के मरने और 200 लोगों के घायल होने की बात स्वीकार कर रही है। वे सभी निर्दोष थे। वे वहाँ रौलट ऎक्ट के खिलाफ किस प्रकार आंदोलन किया जाए इस पर विचार करने के लिए एकत्रित हुए थे। इस नृशंस हत्याकांड के लिए मैं जनरल डायर के लिए फांसी की मांग करता हूँ। इन अंग्रेजों ने 1857 में हजारों –हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा था। यह भारत हमारा है। हम इसकी आन-बान और शान के लिए मर मिटेंगे और इस क्रूर सरकार का अंत करके रहेंगे।”
उस नेता के भाषण से भीड़ उत्तेजित हो उठी और ’भारत माता की जय’ के नारे गूंज उठे।
“हमें पुलिस कमिश्नर दफ़्तर चलकर उसके सामने धरना देना है और तब तक वहाँ से नहीं हटना है जब तक हमें यह न बताया जाए कि उस नरसंहार के ज़िम्मेदार जनरल डायर को सरकार ने फांसी देने का ऎलान किया है।” नेता उस ऊँची जगह से नीचे उतरा और पुलिस कमिश्नर दफ़्तर की ओर बढ़ने लगा। भीड़ उसकी ओर बढ़ चली। सरजू भी भीड़ में शामिल हो गया था। वह भी ’भारत माता की जय’ के नारे लगा रहा था।
लेकिन मेस्टन रोड में मंदिर से पहले ही भीड़ को पुलिस ने रोक लिया। घुड़सवार दस्ता पहले से वहाँ मौजूद था। पुलिस ने रास्ता रोककर बंदूकें भीड़ की ओर तान दीं और भीड़ को वापस लौटने के लिए कहा। लेकिन भीड़ इतना उत्तेजित थी कि वह वापस लौटने को तैयार नहीं थी। ’भारत माता की जय’ के नारों से आसमान गूंज रहा था। ’खून के बदले खून’ किसीकी आवाज़ गूंजी और भीड़ ने भी एक स्वर में चीखकर उसे दोहराया। ’हत्यारे डायर को फांसी दो।’ भीड़ चीख रही थी। घुड़सवार पुलिस वालों में दो अंग्रेज अफसर भी थे। भीड़ को उत्तेजित देख उसने हवा में फायर करने के आदेश दिए. सिपाहियों ने हवा में फायर किया, लेकिन इससे भीड़ और अधिक उत्तेजित हो उठी। देखते ही देखते कुछ युवक उन अंग्रेज अधिकारियों की ओर बढ़े। उन्हें अपनी ओर बढ़ता देख एक अफसर पीछे हटा, लेकिन एक, जो युवा था, वहीं तना खड़ा रहा और उसने चीख कर कहा, “आगे बढ़े तो गोली मार दूंगा।’
भीड़ बेकाबू थी। एक युवक के हाथ में पत्थर था। उसने निशाना तानकर उस युवक अफसर पर पत्थर उछाल दिया और निशाना इतना अचूक रहा कि पत्थर उसके सिर से जा टकराया। अफसर की बंदूक नीचे गिर गयी और वह सिर थामकर घोड़े की पीठ पर लेट-सा गया। यह देखते ही दूसरे अफसर ने गोली चलाने का आदेश दिया। लेकिन उन दो अफसरों के अलावा शेष सिपाही भारतीय थे और उन्हें अपने भाइयों से हमदर्दी थी। गोली चलाने का आदेश देकर वह अंग्रेज अफसर अपने उस युवा साथी को अपने घोड़े पर लादकर कमिश्नर ऑफिस ले गया। अब वहाँ भारतीय सिपाही ही शेष थे जो गोलियाँ तो चला रहे थे, लेकिन वे लोगों के पैरों के पास गिर रही थीं। फिर भी जब भीड़ हटने के बजाए आगे बढ़ने लगी तब सिपाहियों ने कुछ लोगों की टांगों में गोलियाँ दाग दीं। कई लोग सड़कर पर गिर गए. भीड़ अस्तव्यस्त हो गयी। तभी भीड़ को कमिश्नर ऑफिस की ओर से सिपाहियों का बड़ा दल आता दिखाई दिया। भीड़ ने समझ लिया कि स्थिति जलियाँवाला बाग-सी हो सकती थी इसलिए सब वापस लौट पड़े। नेता पुनः चौक के उसी ऊँची जगह लौटा और उसने भीड़ को सम्बोधित करते हुए कहा, “साथियो, हम जल्दी ही किसी दिन कलक्टर दफ़्तर चलकर कलक्टर को ज्ञापन देंगे, जिसमें डायर को फांसी दिए जाने की मांग करेंगे।”
सिपाहियों का दल मंदिर के निकट पहुँचकर रुक गया था, क्योंकि भीड़ वापस चौक पर एकत्रित हो चुकी थी। पुलिस दल को यह निर्देश दिए गए थे कि जलियाँवाला बाग़ की घटना यहाँ न दोहराई जाए. समझ से काम लिया जाए और भीड़ को धमकाकर वापस लौट जाने के लिए विवश किया जाए और पुलिस की योजना सफल रही थी। भीड़ छंट गयी थी। सरजू ने एक व्यक्ति से उस नेता के बारे में पूछा, जो अपने कुछ साथियों के साथ परेड मैदान की ओर चला गया था। साथ वाले ने उसका नाम सैफुद्दीन बताया था।
दस मिनट में लोग आसपास की छोटी-छोटी गलियों में समा गए थे। देखते-देखते ही चौक खाली हो चुका था मानो वहाँ कुछ हुआ ही नहीं था। चौक से भीड़ के हट जाने के बाद मंदिर के निकट एकत्रित पुलिस वाले चौक पर आ जमे थे। सरजू लाटूश रोड की ओर तांगा की प्रतीक्षा में खड़ा हो गया। उसे उम्मीद थी कि कुछ देर में आवागमन सुचारु रूप से चलने लगेगा। लेकिन वैसा हुआ नहीं। काफ़ी प्रतीक्षा के बाद वह अफीमकोठी की ओर पैदल ही चल पड़ा। लगभग एक मील चलने के बाद उसे एक तांगा मिला जो रावतपुर जाने के लिए सवारियों की प्रतीक्षा कर रहा था। सरजू उसी पर सवार हो गया। उस समय दोपहर के बारह बज रहे थे और उसे तेज भूख लगी हुई थी।
रानी घाट में एक दिन रुककर सरजू बारामऊ गया। वह यह सोचकर प्रसन्न था कि बहनोई उससे ख़ुश थे। उसने सोचा,’शायद वह मेरा भ्रम था। जीजा शुरू में मुझसे कितना प्रसन्न रहते थे। निश्चित ही वह मेरा हित चाहते हैं। रानी भी कई बार कह चुकी है कि मुझे घर बसा लेना चाहिए लेकिन घर बसा लेने के बाद मैं बंध जाउंगा। मेरा मन देश-दुनिया देखने के लिए हर क्षण विकल रहता है। देश में आज इतना सब घटित हो रहा है। हाँ,मैं उसमें हिस्सेदारी नहीं ले पा रहा हूँ लेकिन मैं चाहता हूँ कि वह सब निकट से अपनी आंखों से देखूं और ये लोग मुझे किसानी से बाँधकर मेरी शादी करके स्थायी रूप से मुझे गाँव में रहने के लिए विवश कर देना चाहते हैं। गाँव मुझे पसंद है। मेरा जन्म गाँव में हुआ और बचपन वहीं बीता। मुझे किसानी भी पसंद है, लेकिन मैं चाहता हूँ कि पहले बाहर रहकर कुछ अनुभव पा लूं। मैंने पढ़ाई नहीं की यह बड़ी भूल रही मेरी,लेकिन सीखने-अनुभव पाने की कोई उम्र नहीं होती। जीजा अपनी खेती स्वयं करवा ही रहे हैं –साथ मेरे खेतों की देखभाल भी कर लेंगे। मेरे खेतों को अधाई पर ही देते रह सकते हैं ’ तभी उसके मन ने टोका, ’यदि तुम गाँव में रहकर खेतों को संभालो तो बुराई क्या है! गाँव तुम्हें पसंद है। फिर शहर जाने की तमन्ना क्यों?’
’क्योंकि शहर में मैं पढ़े-लिखे लोगों के बीच कुछ ज्ञान पाना चाहता हूँ। बुजुर्गों ने कहा है कि आदमी को देश –विदेश घूमकर अनुभव अवश्य पाना चाहिए. खेती कहीं भाग नहीं रही है। बस उसके इंतज़ाम की बात है। तो जीजा उसे संभाल लेंगे मैं उन्हें समझा लूंगा।’ अंदर से आवाज़ उठी ’फिर फ़ौज की नौकरी क्यों छोड़ी?”
’फौज में छंटनी होनी है। नौकरी न छोड़ता तो निश्चित ही निकाल दिया जाता। क्या कारण है कि त्यागपत्र देते ही उसे स्वीकार कर लिया गया। सरकार की हालत खराब है। वह लाखों सैनिकों का बोझ नहीं उठा सकती। युद्ध के समय उसकी मजबूरी थी। मैं फिर कह रहा हूँ कि मैं गाँव से भाग नहीं रहा। मैं खेती करूंगा कुछ दिन और अगर मन रम गया तो खेती ही कर लूंगा। लेकिन अधिक दिनों तक यह हो सकेगा कह नहीं सकता। मेरा मन फिर कहीं जाने के लिए विकल है।’
’तुमने पहले ही जब तय कर लिया है कि कहीं जाओगे ही तब फिर गाँव क्यों जा रहे हो।?’ अंदर से दूसरी आवाज़ बोली। ’क्योंकि फ़सल तैयार है जीजा की सहायता करना है और उन्हें अपनी योजना के लिए तैयार करना है।’
आवाजें शांत हो गयीं। उसने तय कर लिया कि वह कुछ समय बाद फिर कहीं के लिए निकलेगा। कहाँ के लिए यह तय नहीं कर पाया।
सरजू ने एक बार फिर अपने को किसानी में झोंक दिया। खलिहान गेहूँ,चना,अरहर आदि से भरा हुआ था। बारिश से पहले आनाज घर पहुँचना आवश्यक था। एक जोड़ी बैलों से यह संभव नहीं था। कई कई दिन लगते थे भूसा बनने और उसे ओसा करके दाना निकालने में। सरजू ने जसवंत को सलाह दी कि वह एक और गोईं का इंचजाम करें। गाँव में जिसकी फ़सल घर पहुँच चुकी हो उसके बैल उधार मांग लें या किराए पर और यही करना पड़ा था जसवंत को। गाँव के पुन्नू पासी के पास केवल चार बीघा खेत थे, जो कभी जमींदार के पिता से उसे उपहार के रूप में मिले थे। जमींदार मंगत सिंह के बाप एक भले जमींदार थे। एक बार वह बारामऊ के रास्ते अपने घोड़े से जा रहे थे। साथ कोई सिपाही नहीं था उनके. अचानक उनका घोड़ा बिचक गया और उछलता हुआ दौड़ पड़ा। बारामऊ के पास के नाले को पार करने के लिए उसने छलांग लगा दी। मंगत सिंह के पिता उछलकर नाले में जा गिरे। नाले में पानी नहीं के बराबर था। कीचड़ था। वह कीचड़ में गिरे, जिससे उन्हें चोट अधिक नहीं आयी, लेकिन उठने में उन्हें परेशानी हुई. उस समय वह पचास पार थे। पुन्नू पासी ने गाँव के जिस परिवार के खेत तिहाई पर ले रखे थे वे नाले के पास थे। तब तक उसके पास गोईं नहीं थी। पुन्नू ने घोड़े को बिचकते और नाला फलांगने के बाद घोड़े को खाली भागते देखा था। वह समझ गया था कि जमींदार नाले में गिर गए थे। वह दौड़कर नाले में उतरा और जमींदार को सहारा देकर ऊपर लाया। देर तक उनके चोटिल घुटने को मलता रहा। जमींदार के कपड़े कीचड़ में सन गए थे। उसने कहा, “मालिक, कपड़े खराब हो गए हैं, लेकिन मेरे पास आपके लायक कपड़े नहीं हैं।”
“तुम मेरे कपड़ों की चिन्ता न करो। मेरे साथ गाँव तक चलो।” मंगत सिंह के पिता ने कहा और अपना कुर्ता उतारकर नीचे बंडी पहने ही अपने गाँव की ओर चल पड़े। पुन्नू उनके पीछे चला। तभी पुन्नू के दिमाग़ में विचार आया और बोला, “मालिक, अच्छा हो कि हम बगाइच के रास्ते चलें “
“क्यों?”
“बस यूं ही।” लेकिन जमींदार ने समझ लिया कि पुन्नू ने वैसा क्यों कहा था। वह नहीं चाहता कि किसी गाँव का कोई अपने जमींदार को उस हाल में देखे। वह बोले, “तुम्हारा नाम क्या है और कहाँ के हो?”
“मालिक, मेरा नाम पुन्नू है। जाति से पासी हूँ और रहने वाला इसी गाँव बारामऊ का हूँ।”
“हूँह!’ कुछ देर बाद जमींदार बोले, “कितने खेत हैं तेरे पास।”
“मालिक एक बीघा भी नहीं।”
“फिर किसके खेत में काम कर रहे थे?”
“मालिक, गाँव के पंडित हरदयाल तिवारी के खेत हैं। तिहाई पर ले लेता हूँ।”
“ठीक है।”
मंगत सिंह के पिता जब हवेली में पहुँचे देखा घोड़ा वहाँ पहुँच चुका था। घोड़े को देखकर वह मुस्कराए. मंगत सामने था। उसने समझ लिया था कि पिता को घोड़ा छोड़कर भाग आया था। वह बोला, “पिता जी, इस घोड़े को कल ही कसाई को दे दूंगा।”
“मंगत, कभी अच्छी बातें भी सोचा करो।”
“क्यों? आपको छोड़कर यह यहाँ ।”
“अभी वह नया है। उसे प्रशिक्षित करने के लिए ही तो ले गया था। ठीक हो जाएगा। आदमी ग़लती कर सकता है जानवर नहीं।”
मंगत चुप चला गया था। जब पुन्नू वापस जाने लगा, जमींदार बोले, “तुम दो दिन आना मेरे पास।”
“जैसा हुकुम मालिक।” पुन्नू ने हाथ जोड़ दिए थे।
और दो दिन बाद जमींदार ने पटवारी को बुलाकर बारामऊ की चरीदा पड़ी ज़मीन में देखकर चार बीघा खेत पुन्नू के नाम कर देने के आदेश दिए थे और तब से पुन्नू ने गोईं बाँध ली थी। उन चार बीघा खेतों से उसके परिवार का गुज़ारा नहीं हो सकता था, इसलिए वह दूसरों के खेत अधाई पर लेता था।
पुन्नू की अपने खेतों और अधाई की फ़सल घर पहुँच चुकी थी इसलिए उसने अपनी गोईं जसवंत को दे दी। बैलों के सानी-पानी की जिम्मेदारी जसवंत की थी। जसवंत ने किराए के रूप में कुछ आनाज देने का प्रस्ताव किया तो पुन्नू ने मना कर दिया था। कहा था, “गांव नाते इतना भी नहीं कर सकता भइया!”
जसवंत सरजू के रमने से प्रसन्न था। बरसात भर भुने महुओं में तिल मिलाकर कूटकर तैयार लाटा का स्वाद सरजू ने वर्षों बाद चखा था। सितंबर में बरसात ने अपने पैर समेटने शुरू कर दिए थे। आसमान में बादलों के टुकड़े तैरते दौड़ते और जब टुकड़े न होते तब धूप की तेजी शरीर में चुनचुनाहट पैदा करती। किसान खेत जोतने लगे थे। जसवंत ने एक दिन सरजू से कहा कि धनीराम के साथ मिलकर वह खेतों में जोत का काम शुरू करे। उस समय सरजू कुछ नहीं बोला। केवल हाँ-हूँ करता रहा। लेकिन रात वह इस बात को लेकर बेचैन रहा। सोचता रहा कि एक बार खेतों में जुटने का मतलब उसी में लग कर रह जाना होगा। उसका मन फिर कहीं जाने का हुआ। उसके पास फ़ौज में रहने का प्रमाणपत्र था। उम्र भी हो चुकी थी इसलिए नौकरी मिलने में उसे कोई परेशानी नहीं होगी। उसने रात तय कर लिया कि वह फिर गाँव से निकलेगा ।
सुबह जसवंत चौपाल में बैठा था। अकेले था। सरजू उसकी चारपाई के पैताने जा बैठा और बोला, “जीजा, एक बात कहूँ?”
“ बोलो।” जसवंत का चेहरा प्रश्नाकुल था।
“मैं फिर कहीं नौकरी के लिए जाना चाहता हूँ।”
“क्या—S—S--?” जसवंत चीख-सा उठे।
सरजू चुप रहा।
“तुम्हारा दिमाग़ खराब हो गया है सरजू। इतनी अच्छी खेती छोड़कर तुम धक्का खाने के लिए जाना चाहते हो।”
“मैंने यही तय किया है। यह उम्र दोबारा नहीं मिलेगी। कुछ घूम लेना चाहता हूँ अनुभव पा लेना चाहता हूँ।”
जसवंत सरजू के चेहरे की ओर देखता रहा। सरजू सिर नीचे किए बैठा रहा। “इन खेतों को बेच दो।”
“बेंच क्यों दूं? गाँव से भाग नहीं रहा हूँ जीजा। कुछ सालों की ही बात है। आना तो इसी गाँव है न!।”
“फिर इन खेतों को कौन संभालेगा?”
“आप पुन्नू पासी को अधाई पर दे दें।”
“और लगान?”
“पैदावार तो होगी ही न। लगान उसी से दे देंगे। मैं कोई हक़ मांगने नहीं आउंगा। जब आउंगा तब की तब देखा जाएगा।”
जसवंत ने समझ लिया कि सरजू मानेगा नहीं। उन्होंने चुप रहना ही उचित समझा। सरजू ने रानी से जब अपनी बात कही तब वह नाराज होते हुए बोली, “तुझे हुआ क्या है। एक ही भाई है तू मेरा और वह भी मेरी आंखों से दूर रहे। नन्हकू पता नहीं कहाँ है और हो भी तब भी क्या वह मेरी इतनी चिन्ता करेगा।! तू कहीं नहीं जाएगा सरजू।”
“मैंने कल ही जाने का निर्णय कर लिया है रानी। तुम मुझे न रोको।”
“मूरख, मैंने तेरी शादी के लिए लड़की देख ली थी। भौंती के नगीना सिंह की बेटी है। चांद-सी सुन्दर है। वे इसी जाड़े में शादी के लिए तैयार हैं।” रानी ने सरजू के चेहरे पर नजरें गड़ाकर कहा, “यहीं रह। बेशक अलग घर बनवा ले शादी कर और कल्लू को ममेरे भाई-बहन का साथ होने दे।”
“वह सब दस साल बाद रानी।” सरजू ने एक दृष्टि कल्लू पर डाली जो आंगन में खेल रहा था, “मैं कल ही जाउंगा। रोकना नहीं।”
रानी ने भी समझ लिया कि सरजू मन की करने वाला है। वह रुकेगा नहीं। वह चुप रही और अगले दिन सुबह ही सरजू जसवंत और रानी के पैर छूकर और कल्लू को गोद में उठाकर प्यार करके घर से निकल पड़ा। पैर छूने पर इस बार भी जसवंत ने उसे आशीर्वाद नहीं दिया, लेकिन रानी की आंखें गीली हो आयी थी, जिन्हें उसने चेहरा घुमाकर पोछा था।
रानीघाट में दो दिन रुककर और घर की साफ-सफाई करके इस बार भी सरजू ने चाबी चाची को देते हुए कहा, “चाची, मैं कलकत्ता जा रहा हूँ।”
“वहाँ किसलिए?”
“नौकरी के लिए.”
“तू बहुत मनमानी करने वाला है।”
सरजू चुप रहा था। उसने चाची के पैर छुए और बोला, “चिन्ता न करें चाची। सात समन्दर पार होकर आ गया फिर तो कलकत्ता तो अपने ही देश में है। लौटकर मिलूंगा।”
चाची ने “जहाँ रहो सदा सुखी रहो” का आशीर्वाद देकर सरजू को विदा किया था।
उसी रात सरजू ने हावड़ा जाने वाली गाड़ी पकड़ ली थी।