कानपुर टु कालापानी / भाग 29 / रूपसिंह चंदेल
हावड़ा स्टेशन पर उतरकर सरजू उस शहर की चकाचौंध से चमत्कृत था। वह समझ नहीं पा रहा था कि किधर जाए और क्या करे। दिनभर वह इधर-उधर निरर्थक यूं ही घूमता रहा। जेब में पैसे थे। रात लौटकर वह स्टेशन के बाहर सो गया। हर दिन का उसका यही सिलसिला हो गया। वहाँ उसे प्रतिदिन रात अपने जैसे तीन युवक मिलते। एक दिन जब वह स्टेशन के बाहर एक ढाबे में भोजन कर रहा था तीनों युवक भी वहाँ पहुँचे। उनमें से एक उसके निकट आया और बोला, “साथी, कहाँ के रहने वाले हो?”
“कानपुर।” दाल में कौर डुबोते हुए सरजू बोला।
“अपनी ओर के ही हो।”
“आप कहाँ से हैं?”
“आरा जिले से हैं हम तीनों।”
“यहाँ क्या करते हैं?” सरजू ने पूछा।
“काम की तलाश में आए थे। अभी तक हममें से एक को एक मारवाड़ी के यहाँ काम मिला है। सामान ढोने का। थोक का काम है। दिनभर सामान आता रहता है, उसे ढोकर गोदाम में पहुँचाना होता है।”
“घर में खेत नहीं हैं?” सरजू को लगा कि यदि ऎसा ही काम करना है तब अपनी खेती करना ही बेहतर।
“हैं, पर बहुत कम हैं। घर का गुज़ारा नहीं होता उनसे।”
सरजू चुप रहा।
“आप भी काम की तलाश में आए हैं ?” उसी ने पूछा।
“हाँ। पूरा उत्तर भारत कलकत्ता की ओर ही तो दौड़ रहा है। यहाँ काम मिलने की संभावना जो रहती है। मिले हैं और सरकार भी यहीं है।”
“यही बात है।” कुछ देर चुप रहकर वह युवक बोला, “मेरा नाम हरिभजन है और मेरे इन दोनों साथियों में से एक है शिव और दूसरा है प्रताप शिव नारायण और प्रताप सिंह। शिव नारायण को काम मिल गया है बाक़ी हम दोनों भटक रहे हैं। हरिभजन ने इशारा करके अपने दोनों साथियों को बुलाया और सरजू का परिचय दोनों को दिया। तीनों देर तक ढाबे में बैठे रहे। सरजू भोजन कर चुका था और वे तीनों करते रहे और सरजू उन्हें फ़ौज के अपने अनुभव और संस्मरण सुनाता रहा।
सुबह दैनिक क्रिया से वे लोग स्टेशन में ही मुसाफिरखाना में निवृत्त हो लेते और उसी ढाबे में नाश्ता करके शहर की ख़ाक छानना शुरू कर देते। शिवनारायण मारवाड़ी के गोदाम की ओर चला जाता और तीनों बिना पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के सरकारी और गैर सरकारी दफ्तरों की ओर। एक दिन शिव नारायण ने काम से लौटकर सभी को बताया कि पुलिस में भर्ती हो रही है।
“कहाँ?” प्रतापसिंह ने पूछा।
“धरमतल्ला में।”
“सरजू तुम चलोगे?” हरिभजन ने पूछा।
“इसीलिए तो इतनी दूर आया हूँ।”
अगले दिन चारों सुबह सुबह ही धरमतल्ला पुलिस कार्यालय जा पहुँचे। लगभग पचास युवक वहाँ पहले से ही पहुँचे हुए थे। दस बजे भर्ती का काम प्रारंभ हुआ। सरजू के पास फ़ौज का सेवापत्र था। उसे सेवा-पत्र देखते ही अधिकारी ने पूछा, “फौज की नौकरी क्यों छोड़ी?”
“अपना काम करना चाहता था।”
“क्यों नहीं किया?” अफसर बंगाली था। चयन के लिए आए युवक उसे बनर्जी कहकर उसकी चर्चा कर रहे थे।
“दो माह किया “ सरजू समझ नहीं पा रहा कि वह क्या बोले। झूठ से उसे नफ़रत थी, लेकिन यदि उस क्षण वह झूठ नहीं बोलेगा तब निश्चित ही चयन से बाहर कर दिया जाएगा।
“दो माह मैंने दूकान की कमाई का सारा पैसा दुकान में लगा दिया, लेकिन जहाँ मेरा घर है कानपुर के रानी घाट में वहाँ अधिक आबादी नहीं है और दुकान चली नहीं। बंद करनी पड़ी।”
“ओह!” बंगाली बाबू ने सिर हिलाया फिर बोला, “क्या गारंटी कि इदर भी नहीं छोड़ेगा।”
“साहब, नौकरी करने के लिए इतनी दूर आया हूँ छोड़ने के लिए नहीं।”
“ऒ के.” बनर्जी ने उसका चयन कर लिया और अगले दिन सुबह शारीरिक टेस्ट के लिए बुलाया।
उस दिन सरजू के साथ हरिभजन,शिव नारायण और प्रताप सिंह का भी चयन हो गया। अगले दिन भी तीनों शारीरिक टेस्ट अर्थात दौड़ आदि में चुन लिए गए. चयन के बाद उन्हें धरमतल्ला के पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र में प्रशिक्षण के लिए भेज दिया गया। सबके पास कुछ धन था। सरजू के पास सभी से अधिक था और उसने एक कमरा कहीं किराए पर लेकर रहने का सुझाव उन लोगों को दिया। लेकिन उन सबके पास इतने पैसे नहीं थे कि कमरा लेकर रह सकते। सरजू ने कहा, “चिन्ता न करो। मेरे पास हैं। हमें अब खाना-बदोश की भांति नहीं रहना चाहिए. हमारे पास पुलिस की दी वर्दी और अन्य चीजें होगीं और हम उसे सड़क पर नहीं रख सकते। बड़ी मुश्किल से नौकरी मिली है। फ़ौज में छंटनी हो रही है और वहाँ से निकले युवक इधर भी आएगें। जो मिली है उसे संभालकर रखना होगा।”
“सही कह रहे हो सरजू।” प्रतापसिंह बोला।
“लेकिन हम कैसे अदा करेंगे तुम्हारे द्वारा किए ख़र्च को।”
“यार, कैसी बातें कर रहे हो।” सरजू ने हाथ मटकाकर कहा। हम सब भाई हैं तुम सब चिन्ता न करो और न कभी यह सोचो कि वह सब वापस लौटाना है। मैं अपने भाइयों पर इतना भी ख़र्च नहीं कर सकता।”
सभी चुप रहे।
उन्हें एक सप्ताह बाद प्रशिक्षण केन्द्र में ज्वाइन करना था लेकिन उस दौर में जितने भी युवक भर्ती किए जाने थे उन सबके चयन के बाद और वह प्रक्रिया चार दिन और चलनी थी। कुल चार सौ सिपाहियों को चुना जाना था। इसलिए किराए के लिए कमरा खोजने के लिए समय था सरजू और उन तीनों के पास। दो दिनों के प्रयास के बाद धरमतल्ला इलाके में ही उन्हें एक कमरा मिल गया। वह एक बंगाली परिवार का मकान था। मकान पुराना था और कमरा भी छोटा था छत पर अकेला कमरा। जिसे बरसाती कहते थे। लेकिन युवकों को केवल सोना ही था वहाँ। दिनभर उनका पुलिस लाइन में कट जाना था। चारों के पास अपनी एक-एक चादर और झोले थे, जिसमें उनके कपड़े थे। कपड़े भी केवल दो जोड़ी। परदेस में अधिक कपड़े ले जाना उचित नहीं समझा था सबने और उनके पास सही मायने थे भी वही कपड़े।
उसी शाम बुरादे की अंगीठी, बुरादा, लकड़ी और आटा,तेल आदि सामान सरजू और तीनों ने जाकर धरमतल्ला बाज़ार से खरीद लिया। लंबे समय बाद सबने घर में भोजन पकाया और तृप्ति अनुभव की।
यह वह दौर था जब बंगाल में,विशेष रूप से कलकत्ता में क्रान्तिकारी गतिविधियाँ जोरों पर थीं। अनुशीलन समिति जैसी संस्थाएँ सरकार के लिए चुनौती बनी हुई थीं। खुदीराम बोस की शहादत के बाद युवकों का एक बड़ा वर्ग सिर हथेली पर रखकर देश की आज़ादी के लिए क्रान्तिकारी गतिविधियों में सक्रिय था। क्रान्तिकारियों की चुनौतियों से निबटने के लिए सर फ्रेडरिक हॉलीडे ने कन्ट्रोल रूम की शुरूआत की और एक स्पेशल ब्रान्च बनायी। सर चार्ल्स ऑगस्त्स टिगार्ट ने अपने अधीन जासूसी विभाग बनाया। टिगार्ट ने अनेक युवा क्रान्तिकारियों का मुठभेड़ करवाया और उन्हें मरवाया, इसलिए वह बहुत बदनाम था। लेकिन सरकार को ऎसे ही पुलिस अधिकारियों की आवश्यकता था। सरजू के मन में आज़ादी की लहर हर समय हिलोरें लेती रहती थी। उसने निर्णय किया कि पुलिस में रहते हुए वह देश की आज़ादी के लिए कुछ कर सकता है। ’क्या कर सकता है?’ मन ने प्रश्न किया। ’क्रान्तिकारियों को पुलिस की गतिविधियों की सूचना वह दे सकता है।’। ’लेकिन ऎसा करने के संदेह में तुम्हें गिरफ्तार भी किया जा सकता है।’
’तो?’ उसके मन ने कहा, ’मैं देश के काम तो आउंगा न।’
सरजू ने अपनी भावनाएँ अपने साथियों से छुपाकर रखा। प्रशिक्षण के बाद सरजू,हरिभजन और शिवनारायण को सामान्य पुलिस सेवा में भेजा गया , जबकि प्रतापसिंह को जासूसी विभाग में। प्रतापसिंह तीसरी कक्षा तक पढ़ा हुआ था। जबकि अन्य तीनों अपढ़ थे। प्रतापसिंह को धरमतल्ला हेडक्वार्टर में ही रखा गया जबकि शेष तीनों को दक्षिण क्षेत्र भेज दिया गया। प्रताप सिंह उसी कमरे में रहा, जबकि तीनों को दक्षिण पुलिस दफ़्तर के निकट मकान किराए पर लेना पड़ा। लेकिन जब भी उन्हें अवकाश मिलता वे मिल बैठ लेते थे। सरजू ने अनुभव किया कि जासूसी विभाग में होने के कारण प्रतापसिंह बहुत संभलकर बातें करने लगा था। वह कभी भी विभाग की बात नहीं करता था। जबकि सरजू चाहता था कि वह उससे क्रान्तिकारियों के विरुद्ध किए जा रहे अभियान के विषय में कुछ जान सके. जबकि उसे और उसके साथियों को एक पुलिस थाने से जोड़ दिया गया था और उन्हें क्षेत्र में गश्त लगाने का काम सौंपा गया था।
एक दिन थानाअध्यक्ष विनायक हालदार ने उन तीनों को कहा, “ बड़े दप्तर से सूचना आयी है कि तीन क्रान्तिकारियों को इस इलाके में देखा गया है। तुम तीनों को उनका पता लगाना है—गुपचुप रूप से।”
“उनके नाम क्या हैं साहब?” सरजू ने अपनी लाठी संभालते हुए पूछा। उसने ऎसे प्रदर्शित किया कि उन क्रान्तिकारियों के मिलते ही वह उन्हें उसी दम उस लाठी से ढेर कर देगा।
“निखिल मुखर्जी, अमरेन्द्र नाथ चटर्जी और नरेन्द्र भट्टाचार्य।”
“पता करूंगा साहब और जैसे ही जानकारी होगी आपको बताउंगा।”
महत्वपूर्ण बात यह थी कि शिव नारायण और हरिभजन को भी सरजू के साथ उन क्रान्तिकारियों को खोजने के लिए काम पर लगाया हालदार ने। चार माह से वे तीनों उसी थाने में तैनात थे। इतने दिनों में सरजू ने समझ लिया था कि हालदार अंग्रेजों का पिट्ठू था।
निखिल मुखर्जी का नाम तीनों ने प्रतापसिंह से पिछले दिनों चर्चा के दौरान सुना था। यद्यपि प्रताप कभी कुछ नहीं बताता था, लेकिन उस दिन अचानक उसके मुंह से निकला था कि निखिल मुखर्जी नामक उग्रवादी (वह क्रान्तिकारियों को उग्रवादी कहता क्योंकि जिस काम में उसकी तैनाती थी वहाँ अंग्रेज अधिकारी अधिक थे और वे सभी क्रान्तिकारियों को उग्रवादी कहते थे) उनके इलाके में युवकों को उग्रवादी गतिविधियों के लिए तैयार कर रहा है। जबकि हालदार ने तीनों क्रान्तिकारियों के बारे में कहा था कि वे लोग नवजवानों को क्रान्तिकारी गतिविधियों के लिए जंगल में ले जाकर पिस्टल चलाने की ट्रेनिंग दे रहे थे।
“तुम लोग उस जगह का पता लगाओ, जहाँ ये ट्रेनिंग देते हैं या जहाँ वे ठहरे हुए हैं। हॉलीडे साहब का हुक्म है और उनके हुक्म को किसी भी क़ीमत में अंजाम तक ले जाना है अगर नौकरी करनी है तो।” हालदार ने कहा था।
“साहब आप चिन्ता न करें हम अंजाम तक ले जाएँगें ।” सरजू ने कहा था और उसी दिन से अपने तीनों साथियों के साथ अभियान में जुट गया था। लेकिन वह अपने दोनों साथियों की ओर से आश्वस्त नहीं हो पा रहा था कि क्रान्तिकारियों को लेकर उनके मन में क्या था। आख़िर उससे रहा नहीं गया। अगले दिन अपने अभियान में जाते हुए उसने पूछ ही लिया, “हरिभजन और शिवनारायण क्रान्तिकारियों के बारे में तुम्हारा क्या खयाल है।”
“सरकार का हुकम है सरजू। हमें तो नौकरी करनी है।” शिवनारायण बोला,
“मैंने यह नहीं पूछा मेरा मतलब था कि उनको लेकर तुम दोनों क्या सोचते हो। क्रान्तिकारी देश की आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं वे बुरा कर रहे हैं या अच्छा।”
कुछ देर की चुप्पी के बाद दोनों साथी बोले, “सरजू, अंग्रेजों ने इस देश को तबाह कर दिया है। हम तो आज़ादी चाहते हैं।”
“लेकिन हम नौकरी तो अंग्रेजों की कर रहे हैं” सरजू बोला।
“आजाद हो जाएगें तब जो सरकार आएगी हम उसकी नौकरी करेंगे।” हरिभजन बोला, “कम से कम अपने लोगों की तो सरकार होगी न!।”
“कह तो तुम सही रहे हो।” उन दोनों को परखने के भाव से सरजू ने दोनों के चेहरों को बारी-बारी से देखा और बोला, “अगर क्रान्तिकारियों के ठहरने या वे जहाँ नौजवानों को ट्रेनिंग दे रहे हैं उस स्थान का हमें पता चल जाए तो हमें क्या करना चाहिए?”
सरजू के इस प्रश्न पर दोनों साथी मौन रहे। देर तक तीनों चलते रहे। वह एक बस्ती थी और वे एक पतली सड़क पर चल रहे थे। कुछ बच्चे सड़क पर खेल रहे थे और कुछ महिलाएँ अपने दरवाजों के बाहर बैठी बातें कर रही थीं। एक दो मकानों के बाहर बूढ़े चारपाइयों पर लेटे खांस रहे थे।
“तुम क्या सोचते हो?” हरिभजन ने कहा।
“मैं भी वही सोचूंगा जो तुम लोग सोचोगे।” सरजू ने गेंद दोनों के पाले में डाल दी।
फिर सन्नाटा।
बहुत देर बाद हरिभजन बोला, “दिल की बात कहूँ सरजू “।
“हाँ कहो।”
“ मैं उन लोगों को सतर्क कर दूंगा।”
“सरकार को पता चला तब?”
“गिरफ्तार कर लिया जाउंगा। सजा होगी और अधिक से अधिक क्या होगा फांसी ।”
फिर सन्नाटा।
“और तुम शिवनारायण?” सरजू ने शिवनारायण के चेहरे की ओर देखकर पूछा।
“मैं हरिभजन से सहमत हूँ। तुम हमारे मन की थाह ले रहे थे सरजू, लेकिन तुमने नहीं बताया कि तुम्हारा क्या विचार है।”
“मेरा विचार वही है जो तुम दोनों का है, लेकिन जान लेना ज़रूरी था कि तुम दोनों क्या सोच रहे थे।” क्षणभर वे चुप रहे फिर सरजू बोला, “उन वीरों का पता चलते ही हमें उन्हें सतर्क कर देना चाहिए. बल्कि उन्हें यहाँ से निकल जाने के लिए कहना है।”
“बिल्कुल।”
और कई दिनों के परिश्रम के बाद उन्हें सफलता मिली। एक दुकानदार ने उन्हें बताया कि सामने मकान में तीन युवक रहते हैं। नाम वह नहीं जानता, लेकिन तीनों सुबह जल्दी ही घर से निकल जाते हैं और रात देर से लौटते हैं और कभी कभी नहीं भी लौटते। मैंने एक दिन सुबह उनके साथ मोहल्ले के तीन नौजवानों को भी जाते देखा था। उन तीनों के लिए इतनी सूचना ही पर्याप्त थी।
“मेरा विश्वास है कि वे तीनों निखिल मुखर्जी और उसके साथी ही हैं।” सरजू ने कहा।
“मैं भी यही सोच रहा हूँ।” हरिभजन बोला, “हमें कल सुबह चार बजे उन्हें पकड़ना होगा।”
“पकड़ना...।?” सरजू आशंकित हो उठा।
“मतलब, उन्हें आकर सूचित करना होगा। “
और तीनों चुपचाप थाने से बाहर निकले। उन दिनों उन्हें थाने में ही रहने के लिए कहा गया था,क्योंकि उन्हें जो काम सौंपा गया था वह बहुत महत्त्वपूर्ण था और उनपर नज़र रखने के आदेश भी थे। तीनों रात ढाई बजे ऎसे निकले कि वहाँ पहरे पर तैनात सिपाही को भनक नहीं लगी। पहरेदार सिपाही सो रहा था। उनकी योजना थी कि जितनी जल्दी हो सके उस मकान में जाकर निखिल और उनके साथियों को सूचित करके सिपाही के जागने से पहले अपने कमरे में लौट लें। थाने से निकले तब चारों ओर अँधेरा था। सड़क में कुछ दूर चलने पर दो कुत्ते भौंकते हुए उनके पीछे लग लिए, लेकिन कुछ दूर जाने के बाद दोनों वापस लौट गए थे। तीनों तेज गति से चलते हुए लगभग तीन मील का रास्ता तय किया और उस मकान में पहुँचे। जिस कमरे में तीनों के रहने के विषय में दुकानदार ने उन्हें बताया था वह मकान का नीचे का कमरा था और पीछे की गली में खुलता था। हालांकि आवागमन दूसरी ओर अर्थात आगे से था। फिर भी कमरे का एक दरवाज़ा पीछे पतली गली में था। तीनों ने पीछे गली में जाकर उस कमरे का दरवाज़ा खटखटाया। कई बार के बाद आवाज़ आयी, “कौन?”
“साथी।”
“कौन साथी?” बांग्ला में किसी ने पूछा।
“आप नहीं पहचानते। लेकिन हम आपके साथी है। शीघ्रता करें। एक आवश्यक सूचना देनी है। हम ज़ोर से बोलकर मोहल्ले को नहीं जगाना चाहते।” सरजू बोला। वह अभी तक बांग्ला सीख नहीं पाया था।
“आप अपना परिचय दें?” बांग्ला में ही पूछा गया।
“आप दरवाज़ा या खिड़की खोलेंगे तभी न दूंगा परिचय।” सरजू ही बोला, लेकिन तभी उसे लगा कि वह हिन्दी बोल रहा है और इससे अंदर के लोगों को आशंका हो रही होगी। “हमें बांग्ला नहीं आती, लेकिन हम पर विश्वास करें हम आपके साथी हैं और महत्त्वपूर्ण सूचना देना है। आप सबके जीवन को ख़तरा है।”
अंदर कुछ देर तक खुसर-पुसर होती रही।
“आप दरवाज़ा नहीं खोलना चाहते तब खिड़की ही खोलें।”
कुछ देर बाद खिड़की खुली। उसमें से एक चेहरा नमूदार हुआ। अंधेरे में चेहरा साफ़ नहीं दिखा। “बोलें।” चेहरे ने अलसाए स्वर में पूछा।
“आप लोग अभी और इसी समय यहाँ से निकल जाएँ ख़तरे में हैं। पुलिस आपका एनकाउण्टर करना चाह रही है।”
“लेकिन किसलिए?”
“आप क्रान्तिकारी हैं आप तीन हैं-निखिल मुखर्जी, अमरेन्द्र नाथ चटर्जी और नरेन्द्र भट्टाचार्य।”
कुछ देर के लिए चेहरा ग़ायब हो गया। कमरे में फिर फुसफुसाहट हुई. कुछ देर बाद चेहरा पुनः खिड़की पर नमूदार हुआ और पूछा,“आप लोग कौन हैं?” “आपके साथी।” सरजू बोला।
“साथी, किस संस्था से?”
“किसी से नहीं।” अपने स्वर को बहुत ही धीमा करके सरजू बोला, “हम पुलिस महकमें से हैं और देशप्रेमी हैं। नौकरी हमारी मजबूरी है। लेकिन हम भी आपकी ही भांति देशभक्त हैं और इस नौकरी के माध्यम से देश के प्रति अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।”
सरजू के यह कहने के बाद दरवाज़ा खुला,”आप तीनों अंदर आ जाएँ।”
अंद्र अँधेरा इतना गहरा था कि तीनों के चेहरे स्पष्ट नहीं थे। निकट होने के कारण तीनों को पहले युवक का चेहरा कुछ दिखाई देने लगा था। उसके चेहरे पर दाढ़ी थी।
“मैं निखिल मुखर्जी हूँ।”
“हम रुक नहीं सकते।हमारी भी जासूसी होती है। अगर हालदार को पता चला तब हमने अपना कर्तव्य निभा दिया अब आपको सोचना है। यदि देर की तब कुछ भी हो सकता है। आपको हॉलीडे साहब की नीति की जानकारी तो है ही। बेहद बदनाम हैं। इसलिए आप लोग भी निकल जाएँ कलकत्ता ही छोड़ दें और जाने से पहले उन युवकों को भी निकल जाने के लिए कह दें जिन्हें आपलोग ट्रेनिंग दे रहे हैं।” यह कह तीनों गली में अंधेरे में उतर गए.
जब तीनों थाने में प्रविष्ट होकर अपने कमरे में पहुँचे साढ़े चार बजे थे। थाने में तैनात सिपाही अभी भी सो रहा था। तीनों भी निश्चिंत नींद सो गए थे। उन्हें उन क्रान्तिकारियों का जीवन बचाने की प्रसन्नता थी और वे इतनी गहरी नींद सोए कि थाने में रात तैनात सिपाही ने उन्हें झकझोर करके सुबह सात बजे जगाया था।
तीनों सुबह दस बजे नियम के साथ तीनों क्रान्तिकारियों का पता लगाने के लिए निकले और सीधे उसी मकान में पहुँचे। कमरा खाली था। दुकानदार से पूछा। उसने अनिभिज्ञता जताते हुए कहा,”बाबू साइद तीनों रात कहीं चले गए.”
तीनों ने मकान मालिक से पूछा। उसने भी अनभिज्ञता प्रकट करते हुए कहा, “मुझे पता ही नहीं चला कहाँ गए. भले घरों के लड़के थे। काम से सुबह निकलते थे और रात देर से लौटते थे। कहते थे कि किसी फैक्ट्री में काम करते हैं लेकिन इस तरह चोरों की तरह जाने से समझ नहीं आ रहा कि वे क्या थे और कौन थे! हमारा इस महीने का किराया भी मारा गया।”
सरजू मन ही मन हंसा। ’उनकी जान पर बनी हुई थी और मकान मालिक को किराए की पड़ी है।’
हालदार को जब यह सूचना तीनों ने दी कि तीनों क्रान्तिकारी निकल भागने में सफल रहे तब वह बहुत निराश हुआ, क्योंकि अपने वरिष्ठ अधिकारियों से इनाम पाने का उसका सपना टूट गया था।