कानपुर टु कालापानी / भाग 30 / रूपसिंह चंदेल
दो वर्ष बीत गए. इन दो वर्षों में न सरजू ने कोई अवकाश लिया और न ही कानपुर जाने का विचार किया। उसने रानी, बहनोई को कोई पत्र भी नहीं लिखा। वह जानता था कि उसके खेतों में पैदावार बहुत अच्छी थी इसलिए बहनोई उनकी देखभाल करेंगे ही। वह यह भी जानता था कि बहन पढ़ी-लिखी नहीं है यदि वह उसके नाम पत्र लिखवाकर भेजेगा भी तब उसे पहले बहनोई पढ़ेंगे और उसके बाद रानी को सुनाएगें और उसके कलकत्ता में होने और सरकारी नौकरी कर रहे होने से उन्हें चिढ़ होगी। उसने जो अनुभव किया था वह यह कि जसवंत स्वयं गाँव से बाहर जाकर कोई नौकरी करना चाहते थे, लेकिन पिता की इकलौती संतान होने के कारण घर और खेतों की देखभाल की जिम्मेदारी के लिए पिता की बात उन्हें माननी पड़ी थी। वह मन मसोसकर रह गए थे। यह उसका अनुमान भर था। हो सकता है वह ऎसा न भी चाहते रहे हों। लेकिन उसने यह अनुभव किया था कि बहनोई का उसके प्रति प्रेमभाव नहीं रहा था।
सरजू के अधिकारी प्रसन्न थे। उसका स्थानांतरण धरमतल्ला कर दिया गया था। वहाँ वह अधिक प्रसन्न था। उसके साथ हरिभजन का ट्रांसफर भी धरमतल्ला हो गया था। प्रतापसिंह पहले से ही वहाँ था, लेकिन इनके और उसके कामों में अंतर था। जहाँ ये दोनों सामान्य सिपाही थे, वहीं वह जासूसी विभाग में था। शिवनारायण उसी थाने में रह गया था और उदास था।
इस बीच प्रतापसिंह का एक बंगाली युवती से प्रेम हो गया। उसका परिवार कायस्थ था और किसी भी प्रकार प्रतापसिंह को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। जबकि दोनों ने तय कर लिया था कि वे हर हाल में शादी करेंगे। एक गंभीर समस्या उठ खड़ी हुई थी। युवती का परिवार धरमतल्ला में ही रहता था। पिता रेलवे में फिटर थे और उनकी पोस्टिंग हावड़ा स्टेशन पर थी। युवती ने हाईस्कूल किया था और वह भी हावड़ा स्टेशन में क्लर्क थी। यदा-कदा उसकी ड्यूटी टिकट बनाने में भी लगती थी। प्रतापसिंह और उसकी पहचान अकस्मात हुई थी। प्रतापसिंह को एक सरकारी काम से बनारस भेजा रहा था। उस दिन उस युवती की ड्यूटी टिकट बनाने में थी। प्रताप ने पहले भी उसे धरमतल्ला में आते जाते देखा था। टिकट के लिए वह उसी खिड़की पर गया और उस युवती को देख उसने मुस्कराकर नमस्ते की और बनारस का टिकट मांगते हुए पूछ लिया, “आप धरमतल्ला में रहती हैं?”
“आप कैसे जानते हैं?” युवती ने भी मुस्कराकर पूछा।
“मैं वहाँ पुलिस दफ़्तर में हूँ और वहीं रहता हूँ। आपको आते-जाते देखा है।” प्रतापसिंह बांग्ला सीख गया था और युवती से बांग्ला में बात कर रहा था। लेकिन दोनों को बात करता देख पीछे टिकट के लिए खड़े लोगों में बेचैनी बढ़ी और एक युवक ने इस बात का विरोध किया।
“मेरा नाम प्रताप सिंह है और आपका ?”
“मौसमी मजूमदार।”
“ठीक है मौसमी बनारस से लौटकर मिलूंगा।”
युवती केवल मुस्करा दी और प्रताप सिंह के पीछे खड़े एक बुज़ुर्ग को सम्बोधित करती हुई बोली “बाबा, आपको कहाँ की टिकट चाहिए?”
बनारस से चौथे दिन लौटने के बाद प्रताप सिंह का मन युवती से मिलने के लिए मचलने लगा। नौकरी लगने के बाद वह एक बार गाँव गया था और वहाँ घर वालों ने उसकी शादी तय करने के लिए उस पर बहुत दबाव बनाया था। “पांच साल बाद बात करना” कहकर वह बच आया था, लेकिन उसने ऎसी कोई शपथ नहीं खायी थी कि उसे पांच साल बाद ही शादी करना था। वह किसी पढ़ी लिखी लड़की से शादी करना चाहता था। वह नौकरी में उन्नति के लिए आगे पढ़ना भी चाहता था और इसके लिए ज़रूरी था कि पढ़ी-लिखी लड़की के साथ शादी करे जो उसकी भावनाओं को समझ सके.
धरमतल्ला में आते-जाते उसकी आंखे मौसमी को खोजती रहतीं, लेकिन मौसमी नहीं मिली उसे। उसने वह पुराना कमरा बदल लिया था और दो कमरों की जगह किराए पर ले ली थी। सरजू और हरिभजन के आने के बाद एक बार उसने सोचा था कि उनके साथ किराए की जगह साझा कर ले,लेकिन इतने दिनों में अकेले रहते एकाकीपन उसे अच्छा लगने लगा था। इसका एक कारण उसकी नौकरी भी थी। हालांकि उसने हरिभजन और सरजू के लिए वहीं किराए पर कमरा दिलवा दिया था। कई दिनों तक मौसमी से मिलने के उसके प्रयास जब विफल हो गए तब एक दिन वह स्टेशन जा पहुँचा। मौसमी टिकट खिड़की पर नहीं दिखी। उसने सभी खिड़कियाँ देख लीं। अंततः उसने पुलिस के जासूस विभाग का लाभ उठाते हुए बाबुओं के सेक्शन में गया और सामने एक सीट पर उसे झुकी काम करती मौसमी दिखायी दी। प्रताप सिंह उसके सामने पड़ी कुर्सी पर जा बैठा। मौसमी देर तक अपने काम में व्यस्त रही। वह चुपचाप बैठा उसे काम करता देखता रहा। आस-पास की दो कुर्सियों के बाबू अपनी सीटों पर नहीं थे वर्ना कोई उससे उसके वहाँ होने का कारण पूछ सकता था और तब मौसमी भी उसकी ओर देखती। काफ़ी देर बाद मौसमी ने गर्दन ऊपर उठायी और सामने उसे बैठा देख चौंकते हुए बोली, “आप? देर से बैठे हैं?”
“बस थोड़ी देर से ।” प्रताप सिंह मुस्कराया। “काम अधिक है?” उसने पूछा।
“नहीं, हो गया।”
“बाहर चलकर चाय पिएँ?”
और उस दिन के बाद सप्ताह में लगभग दो दिन दोनों मिलने लगे। प्रतापसिंह मौसमी के घर भी जाने लगा। उसके मां-पिता प्रताप को पसंद करते थे, लेकिन जब शादी की बात आयी तब दोनों ने यह कहते हुए साफ़ इंकार कर दिया कि उन्होंने मौसमी के लिए बिरादरी का लड़का खोज लिया है। वह भी रेलवे में है। जब प्रताप ने मौसमी से यह बात पूछी तब उसने बताया कि देखा तो है पिता जी ने लड़का लेकिन वह उसे पसंद नहीं है।
“क्यों?”
“बस नहीं है।”
“फिर भी कोई कारण?”
“आपको पसंद कर लिया न!”
वास्तव में प्रताप सिंह से परिचय होने से पहले ही उसके पिता ने बिरादरी का लड़का पसंद किया हुआ था। मौसमी को दिखा भी दिया था और लड़के और उसके परिवार वालों ने भी मौसमी को देख लिया था। लड़का उम्र में मौसमी से कम से दस वर्ष बड़ा था और कोयले की भांति काला और लंबा-मोटा था। लेकिन यह बात मौसमी ने प्रताप सिंह को नहीं बतायी।
प्रताप सिंह ने यह बात हरिभजन और सरजू को बतायी। सरजू ने कहा, “मैं जाकर मौसमी के पिता से बात करूंगा। उनका पता मुझे बता देना।”
“वह बुड्ढा नहीं मानेगा। जात-पांत उसके दिमाग़ में गोबर की भांति बैठी हुई है।”
लगभग एक माह बाद एक दिन प्रतापसिंह सरजू और हरिभजन के पास आया और बोला, “कल मैं शादी करने जा रहा हूँ।”
“किसके साथ?”
“मौसमी के साथ।”
“अचानक।” सरजू बोला,”कहाँ कर रहे हो।?”
“सेंट जेम्स चर्च में।”
“क्या कह रहे हो प्रताप?” हरिभजन चौंका, “चर्च में?”
“हाँ, हम दोनों ने धर्म परिवर्तन कर लिया है।”
“ओह!” सरजू और हरिभजन दोनों एक साथ बोले।
“हाँ, मैं अब सैंडर्सन हूँ और मौसमी मॉर्विला। मैंने किसी को नहीं बताया। तुम दोनों को बता रहा हूँ और शिवनारायण को भी सूचित कर दिया है। वह पहुँच जाएगा समय।”
“कितने बजे है?”
“शाम चार बजे.”
नौकरी में पहली बार सरजू ने आधे दिन का अवकाश लिया और हरिभजन के साथ सेंट जेम्स चर्च जा पहुँचा। शिवनारायण पहले से ही पहुँचा हुआ था। उन तीनों के अतिरिक्त चार युवक और थे जिनमें तीन विवाहित थे और चारों प्रतापसिंह के साथ काम करते थे। मौसमी के धर्म परिवर्तन करके प्रताप सिंह के साथ शादी के बाद मजूमदार परिवार मकान बेचकर कहीं चला गया था। कहाँ, किसी को पता नहीं चला था।बाद में मौसमी से जानकारी मिली थी कि उसके पिता ने रेलवे की नौकरी भी छोड़ दी थी और वे चौबीस परगना के अपने गाँव लौट गए थे। कुछ दिन बाद शिवनारायण ने भी गाँव जाकर शादी कर ली थी। हरिभजन की शादी की बात भी उसके घर चल रही थी, लेकिन सरजू से प्रेरित वह उसे टालता जा रहा था। फिर भी कितना टालता। एक दिन उसके पिता कलकत्ता उस व्यक्ति के साथ आ पहुँचे थे जिसकी बेटी के साथ वह अपने बेटे का विवाह करना चाहते थे। उस व्यक्ति का छपरा में लोहे का बड़ा व्यवसाय था। बहुत पैसा था और मोटा दहेज हरिभजन के पिता को आकर्षित कर रहा था। दो दिन उसका पिता और वह व्यक्ति एक होटल में ठहरे और उन दो दिनों हरिभजन को भी दफ़्तर के बाद वहीं रहना पड़ा था और विजय पिता की हुई थी। जून में शादी की बात तय हुई लेकिन हरिभजन ने काम अधिक होने से अवकाश न मिलने के कारण नवंबर-दिसम्बर में शादी करने की बात कहा और अंततः दिसम्बर में शादी होना निश्चित हुआ।
और तभी वह घटना घटी थी, जिसने हरिभजन और सरजू को प्रभावित किया और दोनों ने पुलिस से त्यागपत्र दे दिया था।
नवंबर माह के प्रथम सप्ताह की बात थी। ठंड शुरू हो चुकी थी। उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड थी, लेकिन कलकत्ता में उसका प्रभाव अधिक नहीं था। शाम सरजू को उसके अधिकारी ने बुलाया और कहा, “कल एक मुल्जिम को लेकर आसनसोल जाना है।”
“जैसा हुकम साहब।” सरजू सैल्यूट मारते हुए बोला।
“साथ में जिस सिपाही को ले जाना चाहो, उसकी ड्यूटी लगा दी जाए.”
“साहब, हरिभजन को साथ भेज दें।”
“ठीक है। याद रहे बहुत जिम्मेदारी का काम है। मुल्जिम शातिर चोर है इसलिए ले जाते समय बहुत सतर्क रहना होगा।”
“साहब आप चिन्ता न करें।”
और अगले दिन रात की ट्रेन से सरजू और हरिभजन हथकड़ी लगे उस चोर को लेकर स्टेशन पहुँचे। पहुँचे कहना सही न होगा उन्हें पुलिस की गाड़ी से वहाँ पहुँचाया गया। ट्रेन की टिकटें उन्हें दे दी गई थीं। थर्ड क्लास में उन्हें यात्रा करना था। कलकलत्ता से ट्रेन जैसे जैसे आसनसोल की ओर बढ़ रही थी ठंड का असर भी बढ़ने लगा था। हरिभजन और सरजू ने पुलिस वर्दी के ऊपर पुलिस जैकेट पहन ली थी। चोर दोनों के बीच बैठा हुआ था। हथकड़ी सरजू ने पकड़ रखा था। रात लगभग तीन बजे सरजू और हरिभजन को झपकी आ गयी। अन्य सवारियाँ भी सो रही थीं। केवल एक बुज़ुर्ग जाग रहे थे। चोर ने आहिस्ते से सरजू के हाथ से रस्सी छुड़ायी और बिना आहट दरवाज़े की ओर बढ़ा। बुज़ुर्ग ने समझा कि वह पेशाब करने जाने के लिए उठा था। चोर ने बुज़ुर्ग की नज़र बचाकर जंजीर खींच दी। सीटी बजाते ट्रेन की गति धीमी हो गयी । चोर ने तेजी से दरवाज़ा खोला और छलांग लगा दी। चोर के कूदते ही बुज़ुर्ग ने शोर मचाकर सरजू और हरिभजन को जगाया। “तुम्हारा मुल्जिम कूद गया।” सरजू भौंचक। ट्रेन फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी थी। सरजू ने तेजी से जंजीर खींची। खींची ही नहीं बल्कि ट्रेन के रुकने तक जंजीर खींचे रहा।
ट्रेन के रुकते ही सरजू और हरिभजन नीचे उतरे और पीछे की ओर दौड़े, जहाँ चोर के कूदने का अनुमान था। ट्रेन के रुकते ही ड्राइवर आगे से पीछे की ओर चला और गार्ड आगे बढ़ा। दोनों टार्च जलाकर ट्रेन के नीचे किसी हादसे का अनुमान ले रहे थे। जबकि सरजू और हरिभजन चोर को खोजते पीछे भाग रहे थे। जब ड्राइबर को कुछ समझ नहीं आया वह इंजन में वापस लौटा और कुछ देर बाद ट्रेन चल पड़ी।
अंधेरा बहुत गहरा था। चारों ओर झींगुरों की आवजें थीं और था चारों ओर निपट जंगल। ऊँची झाड़ियाँ और पेड़। टार्च की रोशनी में आगे बढ़ते दोनों किस ओर जा रहे थे उन्हें स्वयं पता नहीं था। अनजान जगह थी। दिशा का भी ज्ञान नहीं हो रहा था। लेकिन दोनों टार्च की रोशनी में हर झाड़ी के नीचे झांककर देखते आगे बढ़ते रहे। सुबह तक उनका यह सिलसिला चलता रहा। जब धुंधलका छंटा उन्होंने बिना टार्च आसपास देखना शुरू किया। लेकिन चोर उन्हें पूरी तरह चकमा दे चुका था। वे आगे बढ़ते रहे। सुबह सात बज चुके थे जब वे एक गाँव के निकट पहुँचे। अब वे ऎसे कच्चे रास्ते से होकर चल रहे थे जो उस गाँव के मध्य से होकर गुजरता था। गाँव के बीच पहुँचे ही थे कि दूर उन्हें चोर दिखायी पड़ा। वह लोहार से अपनी हथकड़ी कटवा रहा था। चोर लोहे के बड़े और ऊँचे चौखटनुमा चीज पर झुका हुआ था। उसने हथकड़ी बंधे हाथ उस लोहे की चौखट पर रख रखे थे और लोहार हथकड़ी पर मोटी छेनी रख बांए हाथ से उसे पकड़ दाहिने हाथ से हथौड़े से उसपर प्रहार कर रहा था। गाँव अभी अलसाया उठकर दैनिक क्रिया से मुक्त हो रहा था इसलिए गाँव के किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि लोहार क्या कर रहा था।
सरजू ने हरिभजन को इशारा किया और दोनों तेजी से दौड़कर लोहार के पास जा पहुँचे और दोनों ने भागने का अवसर न देते हुए चोर को दबोच लिया। दोनों को राहत मिली। उन्होंने लोहार से केवल इतना ही कहा, “यह ख़तरनाक चोर है और इसकी हथकड़ी काटकर आप ग़लत काम कर रहे थे।”
लोहार डर गया था। चोर ने उसे बड़ी रक़म का लालच दिया था। उसने हाथ जोड़कर बांग्ला में कहा, “क्षमा।” आगे वह कुछ नहीं बोल सका।
सरजू और हरिभजन चोर को लेकर वहाँ के निकट स्टेशन पहुँचे और आसनसोल की ओर जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा करने लगे। उन दोनों ने न स्वयं कुछ खाया और न ही चोर को खिलाया। सच यह था कि दोनों के ही होश उड़े हुए थे। वे किसी प्रकार चोर को आसनसोल पुलिस के हवाले कर देना चाहते थे। आसनसोल जाने वाली पैसेंजर गाड़ी दोपहर बारह बजे के लगभग आयी। शाम वे आसनसोल पहुँचे। पुलिस हेडक्वार्टर जाकर उन्होंने चोर को आसनसोल पुलिस के हवाले किया। सौंपे जाने के काग़ज़ात लिए और स्टेशन लौटकर आलू की सब्जी और पूरी ख़ाकर क्षुधा शांत की।
अगले दिन कलकत्ता पहुँचकर सरजू और हरिभजन ने पुलिस सेवा से त्यागपत्र दे दिया था। त्यागपत्र देकर अपना सामान समेट, जो नगण्य था, सरजू कानपुर लौट गया, जबकि हरिभजन नयी नौकरी पाने की आशा में कलकत्ता में ही बना रहा। लेकिन उसने पिता द्वारा तय की गई शादी यह कहकर मना कर दी कि नई नौकरी लगने तक वह शादी नहीं करेगा। उसके होने वाले ससुर ने भी उसके साथ अपनी बेटी का विवाह न करने का निर्णय किया, क्योंकि उसे कमातू दामाद चाहिए था, बेकार युवक नहीं।