कानपुर टु कालापानी / भाग 31 / रूपसिंह चंदेल

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कानपुर पहुँचकर सरजू अपने मकान में पांच दिनों तक निष्क्रिय पड़ा रहा। वह घर से या तो गंगा स्नान के लिए निकलता या रामरिख के घर चला जाता। रामरिख सिंह पुलिस विभाग से सेवामुक्त हो चुके थे और माह में पन्द्रह दिन गाँव में और पन्द्रह दिन वहाँ रहते थे। उन दिनों वह रानीघाट में थे।

सरजू का मन बारामऊ जाने का नहीं हुआ। हालांकि उसे रानी और कल्लू की याद आ रही थी, लेकिन वहाँ जाने से पहले वह आगरा और जयराम सिंह राठौर से मिलने जाना चाहता था और छठवें दिन सुबह वह राठौर से मिलने मिल पहुँचा, लेकिन वहाँ जाकर पता चला कि राठौर ने नौकरी छोड़ दी थी। “क्यों?” के उत्तर में दरबान ने बताया “मो को का पता? उनहूँ को गए एक साल ते ऊपर होई गवा।”

उसे यह याद था कि राठौर जूही में रहते थे। उन्होंने अपना पता भी बताया था उसे, लेकिन इतने दिनों में वह सब भूल गया था। उसे इस बात का दुख हो रहा था कि फ़ौज में जाते समय वह राठौर नहीं मिला और न ही वहाँ से लौटने के बाद। कलकत्ता जाते समय भी नहीं। ’यह स्वार्थ है।’ मन में विचार कौंधा, ’जब नौकरी चाहिए थी तब राठौर के चक्कर लगाते थे। सरजू तुम इतने स्वार्थी कैसे हो गए?’

’इसमें स्वार्थ की क्या बात!’ मन के एक दूसरे कोने से आवाज़ आयी,’फौज में भर्ती होने के लिए आगरा गया तब सब अचानक हुआ था।’

’ठीक है, लेकिन वहाँ से लौटे और चार महीने की छुट्टी पर बारामऊ गए. रानीघाट रहे, तुम्हें राठौर की याद नहीं आई. कछवाहा साहब से मिलने आगरा गए थे ’

’कछवाहा साहब ने मुझे अपने घर एक साल रखा था। मुझे इस योग्य बनाया था कि मैं कम उम्र के बावजूद फ़ौज में भर्ती हुआ उनके यहाँ न जाना सबसे बड़ी कृतघ्नता होती।’

’ओह!’ मन के दूसरे कोने ने व्यंग्य किया, ’राठौर ने यदि तुम्हें कहीं लगवा दिया होता और भले ही तुम वहाँ से नौकरी छोड़ गए होते तब तुम ज़रूर जाते उनसे मिलने इसे ही तो स्वार्थ कहते हैं।’

’मुझ पर व्यंग्य करना छोड़ दो मैं स्वार्थी नहीं हूँ। बस समय की ही बात है।’

’हर स्वार्थी ऎसे ही अपने को बचाता है।’

स्वदेशी कॉटन मिल से बाहर निकलकर वह जूही जाने वाली सड़कर पर देर तक खड़ा रहा और जूही जाकर राठौर का पता लगाने के विषय विचार करता रहा, लेकिन अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि जाने का कोई लाभ नहीं। बड़ी बस्ती में वह उन्हें कहाँ खोजेगा और वह रानीघाट वापस लौट गया। लेकिन उसे दिनभर बेचैनी रही राठौर से न मिल पाने की। उसने अगले दिन आगरा जाकर कछवाहा साहब से मिलने का निर्णय किया और सुबह जल्दी की ट्रेन पकड़कर वह राजा की मंडी पहुँचा। जयसिंह कछवाहा साहब के दरवाज़े जब वह पहुँचा, दोपहर के दो बजे थे। उनके दरवाज़े एक युवक मिला। उसने अपने को कछवाहा जी का बेटा बताया और उससे उसकी पहचान और कहाँ से आया है पूछा। सरजू ने बताया।

“पिताजी तो नहीं हैं।?”

“अपने दफ़्तर में हैं?” सरजू बोला।

“नहीं, उनका तबादला जबलपुर कर दिया गया है।”

“जबलपुर?” सरजू चौंका।

“जी.” सरजू उदास लौटने को था कि युवक ने पूछा, “कोई काम था?”

“मिलना था। आपको याद नहीं होगा मैं एक वर्ष आपके घेर में रहा था और भूरी भैंस की देखभाल मेरे जिम्मे थी। भूरी के क्या समाचार हैं।”

“पिता जी के तबाले के बाद सभी भैंसे बेंच दीं गईं। अब केवल एक गाय है। “

“ओह!’ भूरी के बिकने के समाचार से वह दुखी हुआ। उसे कछवाहा साहब से न मिल पाने का जितना दुख हुआ था उससे कई गुना दुख भूरी के बिकने का था। ’पता नहीं नए घर में कैसी होगी भूरी!’ मन तड़प उठा उसका। लेकिन उसने प्रकट नहीं होने दिया और “अच्छा नमस्ते। पिता जी जब भी आएगें उन्हें बता देंगे कि कानपुर से सरजू आया था।”

“जी, बता दूंगा।” युवक का स्वर सपाट था।

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एक दिन सरजू ने सोचा कि जो पैसा उसने फ़ौज और पुलिस की नौकरी से बचाया हुआ है उसे क्यों न रानी को दे दे। ’ जसवंत अब उसे भले ही पसंद न करते हों, लेकिन यदि रानी और उसका परिवार नहीं होता तब क्या वह यह सब कर पाता। रानी के ससुर शंकर सिंह की बुद्धिमानी का परिणाम कि उसके नाम दस बीघा खेत बने। आज वह जो भी है उस परिवार के कारण, फिर बहनोई की रुष्टता के कारण वह बहन और भांजे से दूरी क्यों बनाए और बहनोई भी तो उसका हित ही सोचते हैं। उन्होंने उसे गाँव में रोकना चाहा तो इसलिए कि मैं अपना घर बसाकर खेती करूं। नौकरी तो एक प्रकार की गुलामी ही है। भले ही तरह तरह के लोगों से मिलना और सीखना होता है गाँव में कुंआ का मेढक ही बन जाता, लेकिन जसवंत ने उसका अहित सोचा ऎसा नहीं। हाँ, उनकी बात न मानने से वह रुष्ट हुए तो ऎसे रिश्तों में यह सब होता ही है।’ स्वदेशी मिल से लौटने के बाद खाना ख़ाकर चारपाई पर लेटा वह देर तक यही सोचता रहा और अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसे कुछ पैसे अपने पास बचाकर शेष रानी को जाकर दे देना चाहिए. लंबा समय ह गया उसे बारामऊ से गए. उसे रानी,कल्लू और जसवंत की याद ने परेशान कर दिया। उसे वे दिन याद आते रहे जब वह उस घर में पहुँचा था और वे दिन भी जब शंकर सिंह ने उसे पहलवानी के लिए प्रोत्साहित किया था और रहमत मियाँ से मिलवाया था। उसे अपने पर क्रोध आ रहा था, क्योंकि नौकरी के फेर में पड़ने के बाद वह रहमत मियाँ से भी नहीं मिला था। ’सच ही सरजू तू बहुत स्वार्थी है’। मन ने फिर उसकी भर्त्सना की।

’नहीं, मैं बिल्कुल स्वार्थी नहीं हूँ। स्थितियाँ ही ऎसी रहीं कि मिल नहीं पाया। लेकिन कभी इन सबको भूला भी नहीं।’ उसने अगले दिन सुबह बारामऊ जाने का निर्णय किया।

सुबह पांच बजे ही वह बारामऊ के लिए निकल पड़ा और दस बजे से पहले ही वह वहाँ उपस्थित था। दिसम्बर माह की कड़ाके की ठंड थी। दरवाज़े पर कल्लू मिला जो उसे देखते ही चीखता हुआ घर के अंदर भागा, “मामा आ गए मामा आ गए अम्मा मामा। तुम नाहक रोती रहती थी। देखो कितना हट्टे कट्टे हैं मामा।”

’कल्लू बड़ा हो गया है और बातें बनाना उसे आ गया है।’ सरजू ने सोचा और घर की ड्योढ़ी लांघ ही रहा था कि कल्लू उससे आ लिपटा, “मामा, तुम कहाँ चले गए थे। अम्मा ने रो रोकर अपनी आंखें खराब कर ली हैं।’

“मैं आ गया” मिठाई का थैला कल्लू को पकड़ाते हुए सरजू बोला और आंगन में खड़ी रानी के पैर छुए. सरजू को देखकर रानी रोने लगी।

“अरे मैं आ गया न! रो क्यों रही हो रानी।” वह रानी को उसके नाम से ही बुलाता था। दूसरों से बात में उसे बहन या दीदी कहता। “जब फ़ौज से जिन्दा लौट आया तब मुझे अब क्या होने वाला है। मैं अमृत पीकर आया हूँ धरती पर।”

“चल हट, बहुत बातें बनाने लगा है।इतने दिनों में हम सबकी याद नहीं आयी तुझे? कानपुर नहीं आया होगा?” धोती के किनारे से रानी ने आंसू पोंछते हुए कहा।

“यहाँ से जाने के बाद इधर नहीं आया। कलकत्ता गया और वहाँ पुलिस में नौकरी की और अब उसे छोड़ आया हूँ।”

धूप का एक टुकड़ा आंगन के एक कोने पर आ लेटा था। एक चारपाई पहले से वहाँ पड़ी हुई थी। सरजू उस पर बैठता हुआ बोला, ” रानी, तुम बहुत दुबली हो गयी हो तबीयत ठीक है?”

“बस” रानी धीमे से बोली, “भरमजाल बहुत है घर से लेकर खेत-खलियान कितना कोई करे। दुबला तो होगा ही इंसान।”

सरजू चुप रहा। कल्लू दौड़कर रसोई में गया और एक कटोरे में मिठाई ले आया।”लो मामा खाओ.”

“तू बहुत शैतान हो गया है।” सरजू ने कल्लू के सिर पर हाथ फेरा।

“मैं अब स्कूल जाने लगा हूँ।”

“अरे वाह! कहाँ?”

“भौंती आठवीं तक है न स्कूल।” रानी बोली

“मामा और अम्मा तो नहीं पढ़ पायी, लेकिन तुम पढ़ो बहुत आगे जाओ बेटा।”

“’पर मामा, बहुत पढ़ जाउंगा तब ये खेत कौन देखेगा। आप पढ़े नहीं तब तो आप गाँव में रहना पसंद नहीं करते और अगर मैं बहुत पढ़ गया तब ?“ कल्लू रुका एक क्षण, ”बापू कह रहे थे कि बस आठवीं तक पढ़ लो फिर खेती पर ध्यान देना ।”

“तुम क्या सोचते हो?” सरजू ने पूछा।

“मामा, पढ़ै लिखैं ते का होई खेती करैं ते गल्ला होई. है न सही।” और कल्लू ज़ोर से हंसा कि मुंह में रखी मिठाई दिखाई दे गई.

“मिठाई खा लो फिर बातें करेंगे।”

कल्लू कुछ देर चुप रहने के बाद फिर बोला, “मामा, नौकरी दूसरे की गुलामी है न!”

“तुम बहुत समझदार हो गए हो कल्लू।” सरजू ने उसकी पीठ पर हल्की चपत लगाते हुए कहा, “यह सब कहाँ से सीखा।”

“बापू कह रहे थे। कह रहे थे कि तेरा मामा इतने खेत होने के बावजूद गुलामी करने गया है।”

सरजू चुप रहा, लेकिन रानी ने बेटे को डांटते हुए कहा, “क्या ऊल-जुलूल बक रहा है। चल मामा को आराम करने दे। कितनी दूर से आया है और तू है कि बकबक किए जा रहा है।”

“डांटो नहीं। बच्चों में सहज जिज्ञासा होती है सब जानने की।”

“जाकर देख बापू आए क्या। चौपाल में ही न बैठ गए हों”।

“तो?” कल्लू ने माँ की ओर देखते हुए कहा।

“तो क्या—मामा आए हैं न!”

“मामा मिल लेंगे बापू से। बापू कहीं भाग थोड़े ही जाएगें।” फिर चेहरे पर शरारत लाते हुए बोला, “मामा आप बापू से डरते हैं?”

“मैं क्यों डरने लगा?”

“अम्मा तो डरती हैं। बापू जब-तब अम्मा को डांटते रहते हैं और आपके लिए डांटते रहते हैं।”

“कल्लू ” रानी चीखी।

“अम्मा, सच ही तो कह रहा हूँ। आपने ही तो सिखाया है न कि सच कहना चाहिए और स्कूल में मास्टर जी ने भी यही कहा। गांधी जी भी यही कहते घूम रहे हैं।”

“अगर ज़ुबान बंद न की तब तू मुझसे पिटेगा।”

“अम्मा—S—S—सच कड़वा होता है न!।”

“ओह!” रानी ने सिर थाम लिया।

“मामा पूछ रहे थे न कि आप दुबली क्यों हो गयी हैं। सच बताने में हर्ज क्या अम्मा। मामा को लेकर बापू आपको जो सुनाते रहते हैं वही है सबसे बड़ा कारण आपके दुबले होने का!” फिर वह सरजू की ओर मुड़ा, “मामा, आप अपने खेत बेच दो या उनका कोई इंतज़ाम कर दो बापू उन्हें लेकर अम्मा को बहुत सुनाते हैं।”

“कल्लू, वे खेत मैं तुम्हें दे रहा हूँ। जब तक मैं बाहर रहूँगा वे तुम्हारे रहेंगे। जब आउंगा तब की तब देखा जाएगा।”

“अरे मामा! आप भी शेख चिल्ली वाली बात कर रहे हैं। मैं इतना छोटा हूँ। जब तक बड़ा होउंगा तब तक कौन देखेगा।”

“मैं जीजा से कह दूंगा। वह तुम्हारे नाम पर देख लेंगे।”

कल्लू चुप हो गया और उछलता चौपाल की ओर चला गया।

“बहुत शरारती हो गया है।” रानी बोली।

“बच्चा है अभी, लेकिन बहुत होशियार है। उसे डांटा मत करो।”

“सरजू, तुम अपने खेतों की व्यवस्था करो। मुझसे अब नहीं संभलते। अपने ही संभालने कठिन हो रहे हैं।” जसवंत बोला।

“जीजा, पुन्नू पासी को अधाई में उठा दिया करें। उसके लिए जो भी खाद-पानी का ख़र्च हो अधाई में मिले गल्ले से कर दिया करें। बल्कि उसे ही कह देंगे तब वही कर दिया करेगा। ईमानदार आदमी है और एक बात और ।” सरजू ने जसवंत के चेहरे की ओर देखा, “मेरे खेत मेरे तब होंगे जब मैं लौट आउंगा। तब तक वे कल्लू के रहेगें। मैं कब लौटूंगा कहना कठिन है। कानपुर में मेरे लिए कोई गुंजाइश नहीं है।”

“कानपुर में तुम्हारे लिए कुछ क्यों नहीं है? दुनिया कमा –खा रही है परिवार पाल रही है और गाँव में खेती-पाती भी देख रहे हैं लोग।”

“असली बात यह है जीजा कि मैं देश-दुनिया घूमकर देखना चाहता हूँ। कुछ सीखूंगा ही।”

“सीखो।” जसवंत के स्वर में निराशा थी।

दो दिन रहा सरजू बारामऊ में लेकिन जसवंत के साथ उसकी इतनी ही बात हुई. जसवंत ने उससे एक दूरी बना रखी थी। सरजू समझ रहा था कि दूरी बना रखने का कारण क्या था। वह यह भी समझ रहा था कि जीजा को अपने खेत ही सही मायने में संभाल पाना कठिन थे, उस पर उसके दस बीघा। वह अगली सुबह पुन्नू पासी के पास गया। पुन्नू ने बताया कि सरजू के जाने के बाद से वही उसके खेत जोत-बो रहा है और जैसी व्यवस्था सरजू करके गया था, वही व्यवस्था लागू थी। जसवंत को पुन्नू ने बिल्कुल ही कष्ट नहीं दिया था। उपज का आधा अवश्य उनके घर पहुँचाता रहा था। “फिर भी लाला, जसवंत भइया, मुझसे ख़ुश नहीं थे।”

“क्या चाहते हैं जीजा?”

“पता नहीं।”

“खेत मेरे हैं और मैंने आपको दिए हैं। आप अपने अनुसार काम करते रहें और पैदावार से ही सभी खर्चे निकालकर जो बचा करेगा वह जीजा के यहाँ पहुँचा दिया करेंगे।”

“अगर वह लेने से इंकार कर देंगे तब?”

“नहीं करेंगे पुन्नू। धन किसी को नहीं काटता।”

“सही कह रहे हैं बबुआ।” पुन्नू बोला था। पुन्नू को साथ लेकर सरजू खेतों की ओर गया था। उनमें गेहूँ,चना, लाही-सरसों झूम रहे थे।

“फसल तो जोरदार है पुन्नू।”

“हर साल ऎसी उपज हो रही है। फिर भी जसवंत भइया का चेहरा लटका रहता है।”

“आप उनकी चिन्ता न करें। सालों से देख रहा हूँ कि वह चिड़चिड़े हो उठे हैं और दिन प्रतिदिन यह बीमारी बढ़ती ही जा रही है। आप अपना काम करते रहें। अब मैंने इन खेतों की पैदावार भांजे कल्लू के हिस्से में देने का ऎलान कर दिया है।”

“नेक विचार बबुआ।”

सरजू ने अपनी बचत का आधा धन ना ना करती रानी को दिया और कानपुर के लिए प्रस्थान किया। रानी ने चलते समय पूछा, “अब कब आओगे?”

“पता नहीं। अभी यही नहीं सोच पाया कि करना क्या है या जाना कहाँ है। लेकिन आउंगा ज़रूर।”

कानपुर पहुँचकर वह एक सप्ताह तक यह सोचता रहा कि उसे क्या करना चाहिए और अचानक एक दिन उसके मन में आया कि चलकर बंबई में भाग्य आज़माना चाहिए. फ्रांस लौटते समय वह बंबई होकर मेरठ लौटा था। बंबई उसे बहुत पसंद आया था। कलकत्ता से भी अधिक और दूसरे दिन ही उसने घर को ताला बंद किया और इस बार चाबी अपने पास रख बंबई की ट्रेन पकड़ ली।

बंबई पहुँचकर वह एक सस्ते-से होटल में ठहरा और काम की तलाश में निकलने लगा। पैसे थे इतने कि वह एक से अधिक महीने तक वहाँ रह सकता था। कई दिनों के भटकाव के बाद एक मारवाड़ी उसे अपने यहाँ नौकरी पर रखने के लिए तैयार हो गया। काम था उसके गोदाम में आने वाले माल का हिसाब रखना। सरजू ने कहा कि वह पढ़ा-लिखा नहीं है इसलिए वह कुछ भी लिखकर नहीं दे सकेगा। मारवाड़ी ने कहा था, “तुम गिनती तो कर लोगे न!”

“हाँ, वह कर लूंगा।”

“बस कितनी बोरी गोदाम में पहुँची। वह गिनकर रखना होगा और मेरे दफ़्तर में आकर शाम मुझे बता दिया करना।”

सरजू ख़ुश था। श्रमपूर्ण कार्य नहीं था और रहने और खाने की व्यवस्था मारवाड़ी ने गोदाम के साथ बने कमरे में कर दी थी। मारवाड़ी का घर गोदाम के निकट ही था और सरजू को उसका नौकर सुबह नाश्ता,चाय, दोपहर का भोजन,शाम चार बजे फिर चाय और रात का भोजन दे जाया करता था। वेतन सरजू की उम्मीद से अधिक दिया था मारवाड़ी ने। सौ रुपए माह। सरजू पूरा पैसा बचा रहा था। उसने मन में तय किया कि अच्छी रक़म एकत्र कर लेने के बाद वह पन्द्रह दिनों का अवकाश लेकर कानपुर जाएगा और रानीघाट के मकान की मरम्मत करवाएगा और बचा पैसा रानी को दे आएगा। रानी उसे संभालकर रखेगी।

दो साल बीत गए. इस बार सरजू ने रानी के नाम दो पत्र भेजवाकर यह सूचना दे दी थी कि वह बंबई में एक मारवाड़ी के यहाँ नौकरी कर रहा था। लेकिन जैसा कि उसे उम्मीद थी, उसके पत्रों के उत्तर नहीं मिलने थे और नहीं मिले थे। वह सोचता रहा कि पता नहीं जीजा ने पत्र रानी को पढ़कर सुनाया भी या नहीं। दो पत्रों के बाद उसने कोई पत्र नहीं भेजा।

एक दिन सरजू जब मारवाड़ी को दिनभर आए सामान की गांठों का हिसाब देने दफ़्तर गया तब पता चला कि लाला जी बंगले पर हैं। उस दिन दफ़्तर से दोपहर ही चले गए थे और लौटकर नहीं आए थे। वह बंगले पर गया, जो निकट ही था। मारवाड़ी अपने कमरे पर बिस्तर पर लेटा हुआ था। उसे ज्वर था। सरजू ने जाकर उसे उस दिन की गांठों का हिसाब दिया। लाला ने सुना और आंखों के इशारे से उसे जाने के लिए कहा। सरजू मारवाड़ी के कमरे से निकल बाहर गैलरी में पहुँचा कि चौंक गया। गैलरी में सोने का बड़ा पिंड दिखा उसे। उसने ग़ौर से उसे देखा और ’यह सोना ही है’ जानकर उसे उठाया और फिर मारवाड़ी के कमरे में गया। सरजू को लौटा देख मारवाड़ी गुस्से से बोला, “मैंने तुम्हें जाने के लिए कहा था न!।”

“जी साहब!” सरजू ने विनम्रतापूर्वक कहा,”मैं जा रहा था कि गैलरी में यह पड़ा मिला। इसे देने आया हूँ।”

“ठीक है” मेज की ओर इशारा करते हुए मारवाड़ी बोला, “उधर मेज पर रख दो।”

सरजू ने सोने का पिण्ड जो एक सेर अधिक था, मेज पर रखा और चलने को हुआ कि मारवाड़ी की आवाज़ सुनाई दी, “खबरदार, किसी से इसका ज़िक्र मत करना।”

“जी साहब!”

कमरे में लौटते हुए सरजू ने मारवाड़ी की नौकरी छोड़ देने का संकल्प कर लिया था। ’जिसके घर में सेर सेर सोना इस प्रकार गैलरी या कहीं भी पड़ा रहता है तब उसका धन्धा सही नहीं होगा। साहब ने कहा, यह बात किसी को न कहूँ! इसका मतलब मतलब साफ़ है कि काम सही नहीं है। जो गांठें आती हैं उनमें कपड़ों के थान होते हैं, लेकिन उन गांठों के अंदर क्या होगा कौन जानता है। ज़रूर साहब का धन्धा तस्करी का है। पुलिस को पता चलेगा तब साहब तो अंदर जाएगा ही मैं भी नहीं बचूंगा। नहीं, मैं कल ही यह नौकरी छोड़ दूंगा। दो महीने का वेतन बकाया है। देंगे तो भला नहीं देंगे तो मैं उसके लिए यहाँ रुकूंगा नहीं।’

और अगले दिन सुबह सरजू मारवाड़ी के बंगले में जा पहुँचा। मारवाड़ी का बुखार उतर गया था और वह बंगले के लॉन में चहल-कदमी कर रहा था। दरबान सरजू को पहचानता था, लेकिन फिर भी उसने मारवाड़ी से पूछकर मिलने के लिए उसे गेट पर रोक लिया। पूछकर दरबान ने सरजू को अंदर भेजा। सरजू ने नमस्कार के बाद नौकरी छोड़ने के अपने निर्णय से मारवाड़ी को अवगत कराया।

“क्या करेगा?” मारवाड़ी ने भौंहे तानते हुए पूछा।

“साहब, घर में बहन बीमार है। ख़बर आयी है।”

“चिट्ठी आया?”

“नहीं, मेरे गाँव का एक आदमी यहाँ काम करता है। कल रात आकर उसने बताया था।”

“बहन को देखकर लौट आना।” मारवाड़ी बोला।

“नहीं साहब, लौट नहीं पाउंगा।”

“मैं तुम्हारी तनख्वाह दो गुनी कर दूंगा। तुम जैसा ईमानदार मुझे दूसरा नहीं मिलेगा।”

“साहब, मैं मजबूर हूँ। मैं अब नहीं लौटूंगा।” सरजू ने हाथ जोड़ दिए.

“ठीक है। दफ़्तर खुलने पर अपना बकाया ले लेना और मेरे बाबू को जाते समय बता देना।”

“जी साहब!” सरजू ने पुनः हाथ जोड़ दिए.

और सरजू उसी रात ट्रेन पकड़कर कानपुर लौट पड़ा था।