कानपुर टु कालापानी / भाग 32 / रूपसिंह चंदेल
ट्रेन में सरजू को तेज ज्वर ने जकड़ लिया। ऊपर से ट्रेन की गति बहुत धीमी थी। कई स्टेशनों पर वह देर तक रुकी रहती। कभी कभी एक घण्टा तक ट्रेन रुकी रहती और कई बार वह जंगल में ही आराम करती, जबकि तेज ज्वर उसे उसे जल्दी से कानपुर पहुँचने के लिए बेचैन कर रहा था। भोपाल पहुँचने तक गाड़ी अठारह घंटे लेट हो चुकी थी। उसका मन हुआ कि वह वहाँ उतर जाए. वहाँ किसी डॉक्टर को दिखा दे और मुसाफिर खाना में पड़ा रहे ठीक होने तक, लेकिन वह बैठा रहा। साथ की सवारी ने उसे लेट जाने की जगह बना दी थी। वह चादर ओढ़कर लेट गया, जबकि मौसम गर्म था। एक प्रकार से वह बेसुध था।
रात लगभग बारह बजे उसकी नींद खुली। ट्रेन जंगल में रुकी हुई थी। वह उठ बैठा। उसे दूर एक चिराग टिमटिमाता दिखाई दिया। उसने सोचा ट्रेन किसी गाँव के सामने रुकी हुई थी। वह अपना थैला उठा, जो यात्रा के दौरान वर्षों से उसका साथ देता आ रहा था, उतर गया और नीम बेहोशी में उस चिराग की ओर जंगल में बढ़ने लगा। आसमान में चांद खिला हुआ था इसलिए उसे रास्ता साफ़ दिखाई दे रहा था। जब वह उस चिराग के स्थान पर पहुँचा ट्रेन तब भी खड़ी हुई थी। वहाँ पहुँच उसने देखा वह एक छोटा-सा आश्रम था, जहाँ लगभग पन्द्रह लोग बैठे हुए थे और एक आसन पर एक संत उन लोगों को प्रवचन दे रहे थे। संत ने सामने से आते हुए सरजू को देखा और प्रवचन रोककर बोले, “आओ, युवक, स्वागत है।”
सरजू के पैर लड़खड़ा रहे थे, लेकिन उसे यह देखकर राहत अनुभव हुआ कि ट्रेन के बजाए वह उचित स्थान पर था। यदि तबीयत अधिक बिगड़ी तब वहाँ उपस्थित लोग उसकी सहायता अवश्य करेंगे। लोगों ने बिछी दरी पर सरजू के लिए जगह बना दी। लेकिन संत जिनका नाम स्वामी माधवानंद था उस चिराग के क्षीण प्रकाश में अनुभव किया कि युवक स्वस्थ नहीं था। उनका प्रवचन रुका हुआ था। उन्होंने सरजू को पास बुलाया और उसका हाथ पकड़कर देखते हुए कहा, “तुम्हे तो तेज ज्वर है युवक।” सरजू चुप रहा।
“सत्यानंद” स्वामी ने अपने एक शिष्य को आवाज़ दी, जो प्रवचन सुनने वालों के साथ आगे एक कोने में बैठा था। सत्यानंद उठकर स्वामी जी के निकट गया। “आदेश स्वामी जी.” विनम्रतापूर्वक वह बोला।
“युवक को तेज ज्वर है। दवा दो।”
“जो आज्ञा महाराज।” सत्यानंद मुड़ा, तभी स्वामी जी ने उसे रोकते हुए कहा, “युवक ने भोजन नहीं किया शायद। दवा से पहले इन्हें कुछ खाने को दो।”
“जी महाराज।” सत्यानंद सरजू को लेकर कुटी की ओर गया। आश्रम में एक छोटी कुटी थी। कुटी को खपरैल से छाया गया था और उसके आगे भी कुछ हिस्से को खपरैल से ढका गया था, जहाँ एक तख्त पड़ा हुआ था। सरजू को तख्त पर बैठाकर सत्यानंद एक लोटा जल और थोड़ा-सा मिष्ठान्न ले आया और बोला, “आधी रात बीत चुकी है, इसलिए इस अल्पाहार के बाद आप दवा लें। भोजन की व्यवस्था करना कठिन है और आधी रात बीत जाने के बाद वह लेना भी नहीं चाहिए. लेकिन खाली पेट दवा भी नहीं लेते।”
दवा देकर सत्यानंद ने सरजू के लिए तख्त पर बिस्तर लगा दिया और उसे लेटा दिया। यद्यपि सरजू को यह अटपटा लग रहा था कि उधर स्वामी जी का प्रवचन चल रहा है और वह अनागत अभ्यागत बनकर वहाँ आ लेटा था। लेकिन ज्वर के कारण उसका साहस वहाँ जाने का नहीं हुआ। कुछ देर में ही वह सो गया और सुबह जब नींद खुली चारों ओर रोशनी फैली हुई थी और पेड़ों में पक्षियों का कलरव हो रहा था। उसने देखा स्वामी माधवानंद सत्यानंद के साथ आश्रम में रोपे पौधों की देखभाल कर रहे थे। उसे जगा देख स्वामी जी चलकर उसके पास आए और पुनः हाथ छूकर उसका ज्वर देखा।
“युवक, ज्वर उतर चुका है।”
“मैं अब स्वस्थ अनुभव कर रहा हूँ स्वामी जी. आपने मुझे बचा लिया।”
“मैं बचाने वाला कौन होता हूँ युवक। सब प्रकृति की कृपा है।” तभी वहाँ सत्यानंद भी आ गया। स्वामी जी ने सत्यानंद से कहा, “युवक के लिए प्रातराश की व्यवस्था करना है सत्या।”
“जी महाराज।”
“तुम्हारा नाम क्या है युवक और कहाँ से आ रहे थे?” स्वामी जी ने पूछा।
सरजू ने संक्षेप में अपने विषय में बताया।
“ठीक है। मेरा विश्वास है कि तुम अब स्वस्थ हो। कानपुर के लिए कई गाड़ियाँ हैं। लेकिन तुम्हें झांसी स्टेशन तक जाना होगा, जो यहाँ से दस मील दूर है।”
“मैं अभी चल दूंगा।”
“नहीं। निवृत्त होकर प्रातराश लो। तब तक स्वास्थ्य का पता भी चल जाएगा। प्रातराश के बाद दवा की एक खूराक ले लेना। दोपहर की गाड़ी है। उसे पकड़ सकोगे।”
“जी महाराज।” सरजू बोला और निवृत्त होने के लिए दूर जंगल में निकल गया, जहाँ एक झरना बह रहा था। वह झरने के पास देर तक बैठा। बहुत रमणीक स्थान था।
स्वामी माधवानंद के साथ उसने प्रातराश ग्रहण किया। तभी उसके मन में स्वामी जी के विषय में जानने की इच्छा जागृत हुई. उसने जब पूछा तब देर तक स्वामी जी आंखें बंद करके चुप बैठे रहे।
“मेरी धृष्टता क्षमा करें स्वामी जी. मैंने यूं ही पूछ लिया था।”
“नहीं, सरजू , मैं सोच रहा था कि तुम नवागंतुक हो और अपरिचित। लेकिन मैंने अंतः चक्षुओं से जान लिया है कि तुमको देश से प्रेम है भले ही विवशता में तुमने सरकारी नौकरी की है। ऎसे बहुत से लोग हैं जो सरकारी नौकरी करते हुए देश की आज़ादी के लिए अपने ढंग से कार्य कर रहे हैं।” स्वामी जी रुके क्षणभर के लिए फिर बोले,”मैं भी कानपुर के निकट एक गाँव का रहने वाला हूँ। तुम्हें जानकारी है कि नहीं कि देश की पहली लड़ाई कानपुर से ही शुरू हुई थी। यानी बिठूर से।”
“मालूम है स्वामी जी. बचपन में मेरे चाचा ने मुझे सब बताया था।”
“उस महापुरुष का नाम नाना साहब था जिसने अंग्रेज मुक्त देश देखने का स्वप्न देखा था। उनके सहायक और मंत्री थे अजीमुल्ला खां। अजीमुल्ला खां ने जो योजना बनायी थी उसी का परिणाम थी 1857 की क्रान्ति। कई कारणों से वह असफल रही। मेरे परदादा थे दलभंजन सिंह। वह नाना साहब के सेनापतियों में से एक थे। मैं उनका प्रपौत्र हूँ युवक।”
सरजू ने उठकर स्वामी जी के चरण स्पर्श किए, ”मैं भाग्यशाली हूँ स्वामी जी कि देश के लिए मर मिटने वाले महान पुरुष के परिवार से हैं आप। निश्चित ही आप भी अपने ढंग से देश की आज़ादी के लिए प्रयत्नशील हैं।”
“ठीक समझा पुत्र। मैं यहाँ आसपास के गांवों के युवकों को देश की आज़ादी के लिए सन्नध करने का कार्य कर रहा हूँ इस रूप में। जंगल में इस भेष में पुलिस को मुझपर शक नहीं होगा,जबतक कोई मुखबिरी न करे।”
“लेकिन स्वामी जी, आपने मुझपर, एक अनजान-अपरिचित पर इतना भरोसा कैसे कर लिया, जबकि आपके लिए ख़तरा ही ख़तरा है।”
“सरजू, मैंने पहले ही कहा कि अंतःचक्षुओं से जान लिया और यदि मेरे अंतः चक्षु मुझे धोखा दे दें तो मैं उस स्थिति के लिए भी तैयार हूँ मुझमें दलभंजन सिंह का रक्त प्रवाहित है पुत्र।”
“आप मेरे लिए क्या आदेश देंगे महाराज।”
“देश की आज़ादी के लिए जो कर सकते हो करो। अंग्रेजों को देश छोड़ना ही होगा। जहाँ भी रहो और जिस स्थिति में भी रहो, देश के लिए अपने ढंग से करते रहो।”
“जी महाराज। मैं वह करना चाहता हूँ।”
“मेरा आशीर्वाद रहेगा तुम्हारे साथ।”
सरजू ने पुनः पैर छुए. स्वामी माधवानंद ने आशीर्वाद दिया।
“मैं कानपुर जा रहा हूँ स्वामी जी. बहन,बहनोई और भांजा से मिलकर आपके पास लौटूंगा।”
“स्वागत रहेगा सरजू।”
प्रातराश के बाद स्वामी जी ने देखा कि सरजू को ज्वर नहीं था। फिरभी उन्होंने एक खूराक दवा दिलवायी। चलते समय सरजू ने स्वामी माधवानंद के चरण स्पर्श किए और सत्यानंद से गले मिल वह रेलवे लाइन की ओर चला जिससे लाइन के साथ चलता हुआ झांसी स्टेशन तक पहुँच सके.
कानपुर पहुँचकर इस बार उसने सीधे बारामऊ जाने का निर्णय किया। रानी के स्वास्थ्य को लेकर वह चिन्तित था। जसवंत ने उसके पत्रों के उत्तर नहीं दिए थे। यह उसे पहले से ही स्पष्ट था कि वह देंगे नहीं फिर भी उसने उन्हें पत्र भेजे थे। बारामऊ पहुँचा तो उसे खेतों में काम करता धनीराम मिला। गाँव का रास्ता जसवंत के खेतों के किनारे से होकर जाता था। कच्चा रास्ता था। उसी रास्ते पर आगे जाकर एक नाला पड़ता था, जो जसवंत के खेतों से लगभग चार फर्लांग की दूरी पर था। धनीराम को देखकर वह उस ओर मुड़ गया। उसे देखते ही धनीराम ने काम रोक दिया। उसके साथ उसकी पत्नी भी थी। वह घूंघट निकालकर एक ओर जा बैठी। “भौजी, मैं आपसे इतना छोटा हूँ और मुझसे घूंघट?” सरजू ने धनीराम की पत्नी से कहा, लेकिन उसने घूंघट नहीं हटाया।
“क्या हाल हैं धनीराम?” सरजू ने प्रसन्न मन से पूछा।
“हाल त अच्छे न हैं सरजू बबुआ।”
“क्यों?”
“बहू रानी नहीं रहीं।”
सरजू को लगा कि धनीराम अपनी पुत्रवधू की बात कर रहा था। पूछा, “क्या हुआ था बहू को?”
“बबुआ मैं तुम्हारी दीदी की बात कर रहा हूँ।” धनीराम समझ गया कि सरजू उसकी बात समझ नहीं पाया।
“रानी नहीं रही मेरी बहन मेरी बहन ?“ और उसके हाथ से थैला छूट गया और वह मुंह ढांपकर बैठ गया। आंसू भल-भलकर उसके चेहरे से होते कमीज को भिगोते रहे। “मैंने जीजा को पत्र लिखे थे लेकिन उन्होंने तो जैसे मुझे अपना दुश्मन ही मान लिया एक का भी उत्तर नहीं दिया। उन्हें दीदी की बीमारी की ख़बर तो देनी ही चाहिए थी। धनीराम--मेरी इकलौती बहन मुझे छोड़ गयी।” सरजू को लगा कि जैसे उसका दिल बाहर निकल आएगा।
धनीराम ने उसे सांत्वना दी और बोला, “बबुआ, काफ़ी दिनों तक बीमार रहीं फिर अचानक ।”
“बीमार थीं मुझे पता है। पिछली बार जब मैं आया था तब देखा था वह दुबली हो गयी थी बहुत। मैंने पूछा तब कहा था कि काम का बोझ बहुत है लेकिन उन्हें ज़रूर कोई बड़ी बीमारी रही होगी। जीजा, धन के पीछे पागल हैं उनका इलाज नहीं करवा सकते थे। अब बताओ धनीराम, मैं किसके लिए गाँव आऊँ?”
“बबुआ तुम्हारे बहनोई हैं भांजा है और तुम्हारे अपने खेत हैं। उनके लिए ।”
“बहनोई?” आंसू पोंछ सरजू ने धनीराम की ओर देखा और बोला, “खेत मैंने कल्लू को दे दिए हैं मुझे नहीं ज़रूरत खेतों की और अब तो बिल्कुल ही नहीं...।और बहनोई “ और सरजू पुनः रो उठा। धनीराम ने उसे ढांढस बंधाया और साथ लेकर घर की ओर चला।
रास्ते में सरजू ने पूछा, “डाक्टर को दिखाया था दीदी को जीजा ने?”
“कानपुर में किसी को दिखाया था।”
“क्या बताया था डॉक्टर ने?”
“टीबी लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।”
“गए कितने दिन हुए?”
“पीछे अगहन के महीने में “
“ओह!” सरजू कुछ देर बाद बोला, “मार डाला मेरी बहन को जसवंत ने।”
धनीराम चुप रहा।
घर पहुँचने पर जसवंत चौपाल पर पलंग पर लेटे मिले। सरजू ने पैर छुए लेकिन जसवंत के चेहरे पर पहचान के भाव नहीं जागे और न हीं उन्होंने कोई उत्साह दिखाया। वह वैसे ही लेटे रहे। सरजू खड़ा रहा कुछ देर,फिर पलटकर बाहर निकल आया। तभी उसकी नज़र स्कूल से लौटकर घर के दरवाज़े की ओर जाते कल्लू पर पड़ी। सरजू चौपाल से नीचे उतरा और कल्लू को आवाज़ दी। मामा को देखकर कल्लू दौड़कर सरजू से लिपट गया और बोला, “मामा, आप कहाँ थे? आप कहाँ चले जाते हैं। अम्मा आपकी रट लगाए रही थीं। आपसे मिलने की तमन्ना लिए चली गयीं।” कल्लू फफक उठा।
सरजू ने कल्लू के आंसू पोंछे और उसे लेकर घर की ओर जाने लगा। तभी कल्लू बोला, “अब तो नहीं जाओगे मामा?”
“घर के अंदर चलें?”
धनीराम मामा-भांजे का मिलन देखकर अपने आंसू नहीं रोक पाया। वह चौपाल से नीचे उतरा और खेतों की ओर चला गया।
मामा के साथ कल्लू घर के अंदर गया। आंगन में लगभग तीस साल की सांवली युवती को सूप से गेंहूँ फटकारते देखा तो कल्लू की ओर प्रश्न भरी नजरें डाली उसने।
“यह दूर की बुआ हैं पिता जी मेरी देखभाल के लिए लिवा लाए हैं।”
सरजू चुप रहा। तभी कल्लू, जिसने अपने को संभाल लिया था, उस युवती के निकट जाकर बोला, “बुआ, मामा आए हैं मेरे!”
युवती उठ खड़ी हुई. सरजू को देखते ही उसने घूंघट निकाल लिया था, लेकिन कल्लू से रिश्ता जान लेने के बाद उसने घूंघट हटा दिया और कल्लू से बोली, “मामा को बैठाओ कल्लू। पानी दो। मैं दो सूप गेहूँ पछोरकर चाय बनाउंगी।”
सरजू बरौठे में बिछी चारपाई पर बैठ गया और उसने कल्लू को पास बैठा लिया, “पानी की ज़रूरत नहीं है।” वह बोला, फिर पूछा, “तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?”
“ठीक“
“मन लगाकर पढ़ो और ध्यान रहे मैंने तुम्हें कहा था न कि मेरे खेत तुम्हारे हैं। कभी कुछ दिनों के लिए आकर उन्हें तुम्हारे नाम करवा दूंगा।”
कल्लू सिर हिलाता रहा, जिससे यह अनुमान कठिन था कि बालक स्वीकार में हिला रहा था या अस्वीकार में।
दो दिन रुका सरजू बारामऊ में और दोनों ही दिन जसवंत ने उससे बात नहीं की। उसने भी नहीं की। वह पुन्नू पासी से मिला खेतों के विषय में जानने के लिए. पुन्नू ने बताया कि इस साल के बाद जसवंत ने खेत उसे न देने का निर्णय किया है।
“किसे देगें?” सरजू ने पूछा।
“सुना है कि एक गोंई और खरीदेंगे और एक हलवाहा भी कहीं से लेकर आएगें।”
“हलवाहा?”
“बबुआ पता नहीं। उनकी वही बता सकते हैं। अब तो वह किसी से अधिक बात भी नहीं करते। आपकी बहन के मरने के बाद पूरी तरह बदल गए हैं जसवंत।”
“मेरी बहन से इतना लगाव होता तो समय से इलाज करवाया होता पुन्नू।” सरजू बोला।
“बबुआ कोहू ते कहना नहीं वह जो घर आयी है जिसे कल्लू की दूर की बुआ बतावत हैं वह दूर की बुआ –सुआ न है। लोधी राजपूत है। पड़ोसी गाँव पिसानपुर की है और इनसे उसकी तब से पहचान बनी जबसे आपकी बहन बीमार हुईं।”
“समझ गया पुन्नू भइया। सीधे कहें कि उसे घर बैठा लिया है जीजा ने।” सरजू के चेहरे पर चिन्ता उभर आयी। “मुझे कल्लू की चिन्ता है।”
“यह तो तुम्हारे जीजा को देखना है। तुम भी कुछ नहीं कर सकते। बाक़ी अपन खेत संभालो आय के.”
“मैंने ये खेत कल्लू को देने का संकल्प किया है। जीजा अपने खेतों का जो चाहें करें “
“राज की बात बताई बबुआ—“ स्वर धीमा करके पुन्नू बोला, “मुझसे खेत ले रहे हैं और उसके (कल्लू की उस बुआ) भाई को लाकर साथ रखने की योजना बना रहे हैं। वही संभालेगा दूसरी गोईं।”
“पुन्नू भाई, जब बरबादी आनी होती है तब इंसान की मति भ्रष्ट हो जाती है।”
“तुम ठीक कह रहे हो बबुआ। पर कल्लू सयाना हो रहा है। समझदार है। बड़ा होते ही वह यह सब चलने देगा तब न चलेगी जसवंत भइया की।” पुन्नू ने कहा।
“ आप ठीक कह रहे हैं।”
घर लौटकर सरजू ने खेतों का प्रसंग चाहकर जसवंत से नहीं छेड़ा। उसने कल्लू को दूसरे दिन शाम यह अवश्य कहा कि वह बुआ नामकी उस युवती से सावधान रहे। वह उसकी दूर की बुआ न है कि उसके पिता ने उस युवती को घर रख लिया है।
“मामा, मैं छोटा नहीं हूँ। सब समझता हूँ।”
सरजू को उसके ’छोटा नहीं हूँ’ कहने पर हंसी आयी। लेकिन वह समझ रहा था कि छोटा होते हुए भी अपनी उम्र के बच्चों से कल्लू अधिक ही नहीं बहुत अधिक समझदार था।
अगले दिन सुबह जल्दी ही कल्लू को प्यार करके सरजू कानपुर के लिए निकल गया।
लगभग एक माह तक वह कानपुर में रहा और भविष्य के विषय में सोचता रहा। ’कलकत्ता जाऊँ?’ उसने सोचा,’ वह शहर मुझे आकर्षित करता है।’ और अंत में उसने कलकत्ता जाने का निर्णय किया। लेकिन वहाँ जाने से पहले वह स्वामी माधवानंद से मिलना चाहता था और एक दिन उसने झांसी की ट्रेन पकड़ी। झांसी स्टेशन पर उतरकर लाइन के साथ-साथ चलता वह स्वामी जी की उस कुटी की ओर बढ़ा। वहाँ पहुँचकर उसे आश्चर्य हुआ। वहाँ कुटी के स्थान पर टूटी दीवारें और बिखरे खपरैल मिले। वह अचंभित रह गया। समझ नहीं पाया कि स्वामी जी ने स्थान परिवर्तन क्यों कर लिया!
वह वापस लौट पड़ा, लेकिन मन में उत्सुकता थी यह जानने की कि स्वामी माधवानंद कहाँ गए! झांसी स्टेशन के बाहर हलवाई की दुकान पर वह गया। उसे भूख भी लग रही थी। हलवाई देसी घी की पूरियाँ तल रहा था। उसने सब्जी-पूरी का आदेश दिया । भोजन कर लेने के बाद पैसे देते हुए उसने हलवाई से धीमे स्वर में स्वामी माधवानंद के विषय में पूछा। जितने धीमे स्वर में सरजू ने हलवाई से प्रश्न किया था उससे भी धीमे स्वर में इधर-उधर देखकर हलवाई बोला, “उन्हें पुलिस गिरफ्तार करके ले गई. रात में। उनके साथ गाँव के दस युवकों को भी ले गई और उनके शिष्य को भी।”
“क्यों?”
“क्योंकि पुलिस को किसी मुखबिर ने सूचित किया था कि स्वामी जी सरकार के खिलाफ क्रान्ति के लिए युवकों को भड़का रहे थे। उन्हें हथियारे भी मुहैया करवा रहे थे।” एक ग्राहक को सामान देने के बाद हलवाई पुनः बोला, “तुम यह सवाल किसी और से न कर लेना। मेरी बात और है। मैं भी उनका भक्त था। देश के लिए वह जो कर रहे थे बहुत अच्छा कर रहे थे, लेकिन यहाँ चारों ओर जासूस घूम रहे हैं। समझे?”
“जी, समझा।”
सरजू ने हलवाई के पैसे चुकाए और ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन के अंदर चला गया।
झांसी से लौटकर सरजू एक सप्ताह बाद कलकत्ता के लिए रवाना हो गया था।