कानपुर टु कालापानी / भाग 33 / रूपसिंह चंदेल
ट्रेन में रास्ते में वह सोचता रहा कि स्वामी माधवानंद के खिलाफ किसने पुलिस को यह सूचना दी कि वह क्रान्तिकारी कार्यों के लिए युवकों को प्रोत्साहित कर रहे थे या कि वह स्वयं क्रान्तिकारी थे। ’हो सकता है जो युवक उनके पास आते थे उनमें से किसी को पुलिस ने लालच देकर जानकारी हासिल की हो। बहुत से क्रान्तिकारी गुप्त रूप से वेश बदलकर क्रान्तिकारी कार्यों में व्यस्त हैं। कुछ साधु वेश में हैं तो कुछ मज़दूर रूप में। ऎसे कुछ लोगों के पकड़े जाने के बाद पुलिस सतर्क है और गांवों और शहरों के आसपास धूनी रमाए साधुओं पर नज़र रखती है।’ तभी उसके मन में विचार कौंधा कि हो सकता है स्वामी माधवानंद को जानकारी हो गयी हो और वह कहीं अन्यत्र चले गए हों। लेकिन हलवाई ने तो उनके गिरफ्तार होने की सूचना दी थी। निश्चित ही वह गिरफ्तार किए गए हैं।’
तभी मन में एक और विचार कौंधा कि स्वामी जी ने कहीं यह न सोचा हो कि वह जासूसी मैंने की थी। लेकिन ऎसा सोचना तो नहीं चाहिए. पुलिस ने पता नहीं उन्हें कहाँ रखा है। पता नहीं उन्हें क्या सजा दी जाए.’ हावड़ा पहुँचने तक वह यही सोचता रहा।
कलकत्ता उसका परिचित शहर था। उसके पास पैसे थे लेकिन इतने भी नहीं थे कि वह लंबे समय तक गुजर बसर कर सकता। वह मानिकतल्ला के एक धर्मशाला में ठहरा। कमरा सहजता से मिल गया। उसने हरिभजन के विषय में जानकारी पाने का प्रयास किया लेकिन उसका पता नहीं चला। धरमतल्ला के पुलिस दफ़्तर में किसी को जानकारी नहीं थी और प्रतापसिंह का स्थानांतरण मिदनापुर कर दिया गया था। उसके पास प्रथम विश्वयुद्ध में फ़ौज की नौकरी के प्रमाणपत्र के साथ पुलिस की नौकरी का प्रमाण-पत्र भी था, हालांकि पुलिस की नौकरी का प्रमाणपत्र को उसने तहाकर थैले में रखा हुआ था। उसे लेकर कहीं भी नौकरी की खोज के लिए नहीं जाता था। कारण था कि उसने दो वर्ष के लगभ ही पुलिस की नौकरी की थी। यह बात कहीं भी नौकरी पाने में बाधा थी।
एक माह से अधिक भटकने के बाद भी उसे ढंग की जगह नौकरी नहीं मिली। इसका कारण उसने बंगाल में बढ़ती क्रान्तिकारी गतिविधियाँ माना। हर सरकारी विभाग किसी को भी नौकरी देने से पहले उसके विषय में पूरी तहकीकात करता। उसके लिए पुलिस उसके निवास पर जाती, लेकिन उसका तो कोई निवास ही नहीं था। वह धर्मशाला में दिन गुज़ार रहा था। अंततः पास का धन समाप्त हो गया। धर्मशाला में कुछ भी देना नहीं होता था, लेकिन वहाँ रहने की भी सीमा थी। एक दिन प्रबन्धक बोला, “नौजवान, अब और नहीं रहने दिया जाएगा।”
“सिन्हा जी” प्रबन्धक संयुक्त प्रांत के एक सिन्हा साहब थे और सरजू उन्हें केवल उनके इसी सम्बोधन से जानता था, “आप कुछ दिनों की और मोहलत दें। कोई व्यवस्था होते ही कमरा छोड़ दूंगा।”
“अपनी ओर के हो इसलिए इतने दिनों रखा, लेकिन अधिक दिनों तक की अनुमति नहीं है।”
“मैं आपका संकट समझ रहा हूँ।” सरजू ने बहुत विनीत होकर कहा।
सिन्हा जी पसीज गए.
धन समाप्त हो जाने के बाद जब भोजन के लाले पड़ने लगे तब सरजू ने नीम की दातून बेचने का निर्णय किया। उसने धरमतल्ला बाज़ार में कई लोगों को दातून बेचते देखा था। बंगाली भद्र लोगों को नीम की दातून करना पसंद था। एक दिन उसने एक व्यक्ति से पूछा कि वह कहाँ से वे दातूने लाता है, उसने उलट प्रश्न किया, “क्यों?”
“मैं भी आपकी तरह ही हूँ बेकार। कोई रोजगार नहीं है। पेट भरने के लिए कुछ तो करना ही होगा।”
वह व्यक्ति इस बात से परेशान हुआ कि एक और दातून बेचने वाला वहाँ आ बैठेगा। उसे अपना काम संकट में दिखाई दिया। लेकिन उसने सरजू के चेहरे पर छायी उदासी को समझा और कहा कि कल सुबह वह उसके साथ चल सकता है। उसे वह वह जंगल दिखा देगा।
“कहाँ मिलूं?” सरजू ने पूछा।
“यहीं। सुबह चार बजे.”
“लेकिन उतनी सुबह पेड़ से दातून काटना आसान होगा?”
“शाम को काटोगे तो रातभर में कठोर हो जाएँगी। काटना तो सुबह ही पड़ेगा। बासी दातून बंगाली लेना पसंद नहीं करते।”
और अगले दिन सुबह चार बजे सरजू उस व्यक्ति को मिला और वह उसे तीन मील दूर जंगल ले गया। दूर तक फैला घना जंगल था,जहाँ नीम के सैकड़ों पेड़ थे। सरजू ने दातून काटी और उस व्यक्ति के साथ बाज़ार में अपने नीचे टाट का एक टुकड़ा बिछाकर बैठ गया। लगभग चार माह तक उसने इस प्रकार जीवन यापन किया। वह अपने यहाँ आने वाले खरीदर लोंगो से पहचान बनाने का प्रयास करता। दो लोगों से बनाने में सफल रहा। शेष लोग आते दातून खरीदते और अपनी राह लौट लेते। जिन दो से परिचय हुआ वे प्रतिदिन उससे ही दातून लेते थे। दोनों ही बंगाली थे। उनमें एक सज्जन किसी बैंक में काम करते थे और दूसरे हावड़ा लोकोमोटिव में अफसर थे। सरजू ने अलग दिनों दोनों से नौकरी की चर्चा की। उसने उन्हें अपनी दोनों नौकरियों के बारे में भी बताया। बैंक वाले बाबू ने कहा, “मेरे यहाँ कठिन है।” लेकिन रेलवे वाले साहब ने उसे आश्वासन दिया कि वह उसके लिए कुछ करेंगे। उनका नाम माणिक बनर्जी था। सरजू उन्हें माणिक दा कहकर सम्बोधित करने लगा था। कभी कभी वह उन्हें दादा कहता। एक दिन माणिक बनर्जी ने उसे कहा कि कल वह हावड़ा लोकोमोटिव के गेट पर पहुँच जाएगा, खलासियों की ज़रूरत है। भर्ती मेरे अधीन है, लेकिन भर्ती का काम मेरे नीचे के अधिकारी करेंगे। मैं उन्हें तुम्हारा नाम दे दूंगा।
सरजू खलासी के रूप में रेलवे में भर्ती हुआ और उसे लोको वर्कशॉप में ही रखा गया। बनर्जी साहब की सहायता से नानपारा में एक अन्य कर्मचारी के साथ उसे रहने की सुविधा भी मिल गयी। वह कर्मचारी अकेला रहता था।
समय तेजी से बीत रहा था। जिस युवक के साथ सरजू रहता था उसका नाम विनय दास था। वह मालदा का रहने वाला था। काम से लौटने के बाद रात आठ बजे विनय नियमित कमरे से निकल जाता। दोनों मिलकर भोजन तैयार करते थे। विनय ने सरजू को कह रखा था कि वह भोजन के लिए उसकी प्रतीक्षा नहीं करेगा। विनय फिटर था और सरजू खलासी. विनय की अपेक्षा उसे अधिक काम करना पड़ता था। विनय के जाने के बाद भोजन करके दस बजे तक वह सो जाता था। विनय कभी भी दस बजे से पहले नहीं लौटता था। एक बार सरजू ने पूछा, “कहाँ जाते हो हर दिन विनय बाबू?”
विनय कम ही बात करता था। वह अपने साथ किसी को रखना पसंद नहीं करता था। लेकिन चूंकि माणिक दा की वह बहुत इज़्ज़त करता था और सरजू को सहारा देने की उनकी सलाह को वह टाल नहीं सका था। सरजू के उस प्रश्न से उसके मस्तिष्क में सिकन पड़ी, लेकिन जल्दी ही सामान्य होकर उसने कहा, “हम बंगालियों की एक सांस्कृतिक संस्था है। मैं उसमें तबला बजाता हूँ। हम लोग त्योहारों में कार्यक्रम करते हैं। कभी तुम्हें ले नहीं गया। इस बार दुर्गापूजा में मेरे साथ चलना।”
“यह तो मेरी मनपसंद बात है। कभी कभी मुझे भी ले चला करें।”
“जरूर।”
विनय ने कह तो दिया लेकिन कभी ले जाने का उत्साह नहीं दिखाया। एक दिन विनय को घर से निकलने में देर हुई. सरजू ने उससे भोजन के बारे में पूछा। उसने इंकार कर दिया और बोला, “हो सकता है मैं रात न लौटूं। कल या परसों आऊँ। मेरा इंतज़ार न करना। बाहर जाना है।”
सरजू ने प्रश्न नहीं किया, तभी दरवाज़े की कुंडी बजी. सरजू ने विनय से पूछे बिना दरवाज़ा खोल दिया। विनय के दो साथी थे। आते ही पूछा, “अभी तैयार नहीं हुए?”
“तैयार हूँ।”
“दादा कब से इंतज़ार कर रहे हैं। देर होती देख हमें आना पड़ा।” उनमें से एक बोला, “दादा बोले, कहीं विनय डर तो नहीं गया।” दूसरे के मुंह से निकला लेकिन जैसे ही उसकी नज़र सरजू पर पड़ी उसने जीभ काटी और पूछा, “ये दादा कौन हैं?”
“मेरे साथ काम करते हैं। माणिक दा के परिचित हैं।”
“ओह!”
तीनों निकल गए. लेकिन सरजू के लिए विनय के उस साथी की बात एक पहेली-सी बन गयी कि दादा कौन हैं और विनय के डरने की क्या बात थी!।
सरजू को इस बात का अहसास था कि बहुत से बंगाली युवक सरकारी नौकरियों में होते हुए भी क्रान्तिकारी कार्यों में संलग्न रहते हैं। विनय के लौटने के बाद उसने उससे पूछने का निर्णय किया। उसके लिए यह भी पहेली-सा ही था कि विनय हर दिन संगीत के कार्यक्रमों के लिए जाता था। ऎसे कार्यक्रम हफ्ते में एक दिन या दो समझ आते थे।
विनय के लौटने के बाद एक दिन उसने एक रविवार पूछ ही लिया, “विनया दादा, मैं बहुत सीधे तौर पर अपनी बात बता देना चाहता हूँ।” विनय उसके चेहरे की ओर देखने लगा था। सरजू टूटी –फूटी बांग्ला बोलने लगा था। “मैं नौकरी भले ही रेलवे में कर रहा हूँ लेकिन मेरे अंदर एक क्रान्तिकारी का दिल धड़कता है और अगर आप बुरा न मानें तो कहना चाहता हूँ कि आप संगीत के कार्यक्रम के लिए नहीं क्रान्तिकारियों की सभा में शामिल होने जाते हैं।”
विनय के चेहरे पर आश्चर्य की रेखा खिंच गयी। “ओह!”
“सच है न!” सरजू ने पूछा।
“सच है। लेकिन मैं तुम्हारे विषय में जानना चाहता हूँ।”
सरजू ने पुलिस की नौकरी करते हुए क्रान्तिकारियों को सुरक्षित निकालने से लेकर झांसी के निकट स्वामी माधवानंद के विषय में बताया। फिर बोला, “मैं कुछ करना चाहता हूँ, लेकिन मेरा कोई संपर्क नहीं पढ़ा-लिखा नहीं हूँ। अनुभव और देश-दुनिया भ्रमण से सब सीखा। आप मुझे मार्ग दिखाएँ। आपके जो भी गुरु हों उन्हें मेरे विषय में बताएँ। मैं इस नौकरी को भी छोड़ देना चाहता हूँ। देश के लिए मर मिटना चाहता हूँ खुदीराम बोस की भांति।”
विनय देर तक चुप रहने के बाद बोला, “मैं दादा से बात करूंगा। तुम इतने दिनों से मेरे साथ रह रहे हो पहले क्यों नहीं कहा?”
“हर बात का समय होता है दादा। अवसर मिला तो कहा।”
अगले दिन विनय सरजू को लेकर वहाँ गया जहाँ संगीत के बहाने वह जाया करता था। उसके गुरु थे सूर्यसेन, प्रसिद्ध क्रान्तिकारी। परिचय के बाद सूर्यसेन ने तुरंत हाँ नहीं की। वह सरजू को परखना चाहते थे। इसमें उन्हें एक माह का समय लगा। लेकिन जब वह आश्वस्त हो गए कि सरजू सच ही क्रान्ति की आग में जल रहा है तब उन्होंने विनय को उसकी जिम्मेदारी सौंपी कि वह उसे पिस्तौल चलाना और हथगोले फेंकने की ट्रेनिंग दे। विनय हर रविवार उसे जंगल में ले जाकर प्रशिक्षित करने लगा और छः माह बाद एक दिन सूर्यसेन ने विनय और सरजू को बुलाकर कहा, “तुम दोनों को एक महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए चुना गया है। मिदिनापुर के पुलिस अधीक्षक के अत्याचार से वहाँ जनता त्रस्त है। तुम दोनों को उसे मारना है। कैसे? यह वहाँ पहुँचकर तुम दोनों स्वयं तय करोगे।”
“मेरा सौभाग्य दादा।” विनय और सरजू ने एक स्वर में कहा।
सरजू ने जब से नौकरी शुरू की थी तब से एक दिन का भी अवकाश नहीं लिया था। उसका दूसरा वर्ष समाप्त होने के निकट था। यही हाल विनय का था।विनय साल में एक बार केवल दुर्गापूजा के समय अवकाश लेता था केवल पांच दिनों का।
विनय और सरजू ने एक सप्ताह का अवकाश लिया और मिदनापुर के लिए प्रस्थान किया। वहाँ वे एक छोटे से होटल में ठहरे। यह सारी व्यवस्था सूर्यसेन ने उनके लिए पहले से ही कर दिया था। दोनों ने अलग-अलग पुलिस अधीक्षक के दफ़्तर और घर की जानकारी ली। पुलिस अधीक्षक को मारने का उपयुक्त समय उन्हें दोपहर के समय प्रतीत हुआ जब वह भोजन के बाद घर से दफ़्तर के लिए निकलता था। अधीक्षक के बंगले पर पुलिस का भारी बंदोबश्त रहता था। शायद अधीक्षक को स्वयं के जीवन को लेकर आशंका थी। दफ़्तर के बाहर मारना सही नहीं था और बंगले के बाहर पुलिस दोनों ने कई दिनों तक विचार किया और इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उसे उस चौराहे पर मारा जाए जहाँ भीड़ अधिक होती है और उसकी बग्घी चौराहे से दायीं ओर दफ़्तर के लिए मुड़ती थी। हालांकि वे जानते थे कि दिन में उसे मारने के ख़तरे थे। उनके पकड़े जाने के. लेकिन रात में भी ख़तरे कम नहीं थे। उसके बंगले के बाहर पुलिस बन्दोबश्त और दफ़्तर में भी वही सुरक्षा। यद्यपि बग्घी में उसके साथ चार सिपाही अंगरक्षक के रूप में रहते थे और आगे और पीछे भी दो बग्घियों में भी पुलिस जवान चलते थे। उसे मारना आसान न होते हुए भी उन्होंने उस चुनौती को स्वीकार किया और चौराहे पर उसके वहाँ से निकलने से कुछ देर पहले जा खड़े हुए. दोनों सड़क में आमने-सामने खड़े हुए और सोचा कि उसपर ताबड़ तोड़ गोलियाँ दाग कर भीड़ का लाभ उठाकर वे वहाँ से निकल जाएगें। जैसे ही पुलिस अधीक्षक की बग्घी चौराहे से दायीं ओर की सड़क पर मुड़ी दोनों ने बीच की बग्घी को निशाना साध ताबड़तोड़ गोलियाँ दागनी शुरू कर दीं। पुलिस अधीक्षक को दो गोलियाँ लगीं और वह बग्धी में धराशायी हो गया, लेकिन आगे पीछे चल रही बग्घी के पुलिस जवानों ने कूदकर मोर्चा संभाल लिया। विनय और सरजू ने पिस्तौलें खाली कर दी थीं। अब एक ही उपाय था कि वे अपने जेबों में लाए हथगोले फेंकें। विनय ने एक गोला फेंका जिससे दो पुलिसकर्मी घायल हो गए और एक की मृत्यु हो गयी, लेकिन जब तक सरजू गोला फेंकता आगे बग्घी के एक पुलिस जवान ने सरजू के पैर पर गोली दाग दी। सरजू गिर गया। विनय भी जब तक दूसरा गोला निकाल फेंकता, पुलिस बल उस पर टूट पड़ा। दोनों पकड़े गए.
सरजू का पैर ज़ख़्मी हो चुका था। उसे अस्पताल पहुँचाया गया जबकि विनय दास को जेल भेज दिया गया।
सरजू के ठीक होने के बाद उसे भी जेल में डाल दिया गया। दोनों को यातनाएँ देकर उनसे अन्य क्रान्तिकारियों के विषय में पूछा जाता रहा, लेकिन वे कच्ची मिट्टी के न बने थे। उन्होंने हर तरह की यातनाएँ सहीं लेकिन टूटे नहीं और अपने दल के विषय में कुछ भी नहीं बताया।
अंततः उन पर मुकदमा चला और विनय दास को मौत की सजा और सरजू को काला पानी की सजा दी गई. अण्डमान निकोबार में सरजू को सेलुलर जेल में रखा गया। देश की आज़ादी के बाद उसे भी मुक्ति मिली, लेकिन उसने वहीं रह जाने का निर्णय किया। वह वहाँ की एक सामाजिक संस्था से जुड़ गया जो जेल से छूटे और वहीं बसने के इच्छुक लोगों के पुनर्वास के लिए कार्य करती थी। उस संस्था के लिए उसने बीस वर्ष से अधिक कार्य किया, लेकिन एक दिन पता चला कि वह कैंसर जैसी बीमारी का शिकार था। हुआ यह था कि मिदिनापुर में पुलिस ने जो यातना दी थी उसमें उसकी छाती पर चढ़कर उसे मर्मांतक पीड़ा पहुँचाना शामिल था। परिणामस्वरूम उसे गहरी आंतरिक चोटें पहुँची थीं, जो शारीरिक शक्ति रहते पता नहीं चलीं, लेकिन बढ़ती आयु के साथ उसने कैंसर का रूप लिया और 20 सितम्बर,1970 को उसी सामाजिक संस्था के कार्यालय के एक बिस्तर पर कानपुर के मसवानपुर गाँव में पैदा हुए और रानी घाट में पले-बढ़े सरजू नामक उस व्यक्ति की अज्ञात मृत्यु हो गयी थी। आज़ादी के लिए कुर्बानी देने वाले सरजू जैसे हजारों हजारों ऎसे लोग हैं जिनके विषय में इतिहास चुप है। वे अज्ञात ही मर गए.