कानपुर टु कालापानी / भाग 3 / रूपसिंह चंदेल

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उसके पितामह अर्थात दादा जी मसवानपुर में रहते थे,जो वहाँ से लगभग तीन मील दूर था। दादा का नाम महीपन था। वे दो भाई थे। दूसरे भाई का नाम सुजान सिंह था। वे उसके दादा से छोटे थे। दोनों भाइयों के परिवार एक ही घर में रहते थे। महीपन के एक पुत्र बिपन सिंह थे जबकि उनके भाई सुजान सिंह के दो पुत्र थे। जब उसका जन्म हुआ उसकी दादी की मृत्यु हो चुकी थी। उसके पिता नवाबगंज थाने में सिपाही थे और मसवानपुर से वहाँ आया जाया करते थे। वह छः फुट से अधिक लंबे अच्छी काठी के व्यक्ति थे। उसके दादा भी लगभग इतने ही लंबे थे। दादी को उसने देखा नहीं था। उसने तो अपनी माँ को भी नहीं देखा था। जब वह डेढ़ साल के लगभग था उसकी माँ की भी मृत्यु हो गयी थी। उसे दादा के छोटे भाई सुजान सिंह के बच्चों और उनकी पत्नियों ने, जिन्हें वह चाचा-चाची कहता था, पाला था। उसे नहीं मालूम कि उसकी माँ कैसी थी। उसके दादा ने बताया था कि उसकी माँ अचानक दो दिन की बीमारी में चल बसी थी। लेकिन उसे कभी माँ का अभाव नहीं ख़ला था।

नवाबगंज से मसवानपुर के बीच जंगल पड़ता और नौकरी ऎसी कि कभी-कभी उसके पिता को थाने से निकलते हुए देर रात हो जाती। एक दिन स्वयं उसके दादा ने सलाह दी, “बिपन तुम थाने के पास ज़मीन खरीदकर घर बनवा लो”। बात उसके पिता को भी पसंद आयी । इसका एक कारण यह भी था कि पिता के चाचा के दोनों बच्चों के भी तीन बच्चे हो चुके थे। बड़े के एक बेटा और एक बेटी और छोटे के एक बेटा। नौ लोगों का परिवार था उनका जबकि चार लोगों का परिवार उसका भी था। उसके एक बड़ी बहन थी। इतने लोगों के लिए घर छोटा पड़ने लगा था। हालांकि उसके पिता के मन में एक विचार गाँव में ही एक और घर बनवा लेने का हुआ, लेकिन नौकरी ने यह सोचने के लिए विवश किया कि उन्हें नवाबगंज या पुराना कानपुर में कहीं घर बना लेना सही होगा और अंततः उन्होंने वही किया था।

उसकी सौतेली मां, पिता, बहन और वह गाँव से नए बने घर में आ गए थे। बहन उससे नौ साल बड़ी थी। पिता ने वह घर कच्ची-पक्की ईंटों का बनवाया था। घर का पीछे के भाग के दो कमरे कच्ची ईंटों से बने थे जबकि शेष तीन कमरे पक्की ईंटों के थे। बीच में आंगन था, जिसमें पक्की ईंटें बिछा दी गई थीं। मकान गाँव की तर्ज पर बनवाया गया था।सबसे आगे बड़ा लंबा कमरा, जिसे बरोठा कहते, बीच में दरवाज़ा और दरवाज़े के बाहर दोनों ओर पक्के छोटे चबूतरे थे। बरोठा पार करके आंगन के बाएँ-दाएँ पक्के कमरे और पीछे कच्ची ईंटों के दो छोटे कमरे थे। मसवानपुर का घर कच्ची ईंटों और मिट्टी का बना हुआ था। उसके दादा ने गाँव में ही रहने का निर्णय किया था।

दादा के पास पन्द्रह बीघा पुश्तैनी ज़मीन थी। स्पष्ट था कि उसका आधा भाग उनके छोटे भाई के लिए था। छोटे भाई सुजान सिंह के बेटे खेती करते थे और उनके हिस्से के खेत भी वही जोतते थे। खेतों का बंटवारा नहीं हुआ था। वास्तव में बंटवारा किसी भी चीज का नहीं हुआ था। यह वह समय था जब किसी-किसी परिवार के तीस-चालीस लोग एक साथ बहुत ही सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में रहते थे। सबसे बुज़ुर्ग घर का मुखिया होता था और किसी भी कार्य से पहले घर के मुखिया की सलाह अवश्य ली जाती थी। सलाह यदि अनुकूल न होती तो मुखिया को अपनी बात समझाकर मना लेने की परम्परा थी। अपने घर में महापन सिंह मुखिया थे। बेटे का मकान देखने वे सब एक साथ दो बैलगाड़ियों में गए थे, लेकिन रहने का विचार मन नहीं ला पाए थे महापन। छोटे भाई की बहुएँ और उनके बेटे उनकी भरपूर सेवा करते थे।

उसके पैदा होने के कुछ दिनों बाद ही गाँव में प्राइमरी पाठशाला खुल गयी थी और जब वह पुराना कानपुर के घर आया तब पांच साल का हो चुका था। उसके गाँव के कुछ बालकों को स्कूल के एक मात्र मास्टर ने स्कूल पढ़ने आने के लिए उत्साहित किया था। उसे भी कहा था, लेकिन पढ़ने में उसका उत्साह नहीं था। उसने यह स्पष्ट नहीं होने दिया था। उसने रानीघाट वाले मकान में जाने का बहाना ले लिया था। वह और उसके घर वाले किसी को भी उस घर को रानी घाट का घर कहकर बताते थे।

पुराना कानपुर क्षेत्र उन दिनों एक सौ पैंतालिस एकड़ में फैला हुआ था और उसकी आबादी तीन हज़ार के लगभग थी। मसवानपुर कानपुर तहसील के अंतर्गत जी.टी. रोड के किनारे बसा हुआ था। इसका पुराना नाम माहसिन पुर था। अकबर के समय यह एक अलग परगना था। उस दौरान यह एक बड़ा गाँव था। 1891 में इस गाँव की आबादी 3220 थी। यहाँ एक पोस्ट आफिस और एक शिव मंदर था। जब सरजू का जन्म हुआ गाँव विकास की ओर अग्रसर था। उसकी आबादी बढ़ने लगी थी। कानपुर नगर के विकास के साथ कुछ नए लोग भी वहाँ आकर बसने लगे थे। उन दिनों इस गाँव में सप्ताह में दो बार बाज़ार लगता था और ज़रूरत की चीजें खरीदने के लिए लोगों को दूर नहीं जाना पड़ता था।