कानपुर टु कालापानी / भाग 4 / रूपसिंह चंदेल
उसके दादा के छोटे भाई सुजान सिंह के दोनों पुत्रों का उसे भरपूर प्रेम मिला हुआ था। उनमें बड़े का नाम दुर्गाप्रसाद सिंह और छोटे का शिव प्रसाद सिंह था। दुर्गा का बेटा उससे दो साल छोटा था और बेटी तीन साल जबकि छोटे बेटे का बेटा भी उससे तीन साल छोटा था। सभी एक साथ खेलते। उन सबमें बड़ा होने के कारण वे सब उसे दादा कहते और वह उन्हें प्रेम करता।
गांव के शिव मंदिर के पास एक बड़ा चबूतरा था, जिसमें दशहरे के दौरान रामलीला होती थी। प्रायः रामलीला गाँव के युवक और प्रौढ़ लोग करते, लेकिन कभी-कभी बाहर से कोई मंडली आती और उस वर्ष वही रामलीला खेलती। उसके होश संभालने पर एक बार मथुरा की मंडली गाँव में आयी थी। यह उसका गाँव में अंतिम वर्ष था। पिता रानी घाट में ज़मीन खरीद चुके थे और घर बनवाने की तैयारी चल रही थी। उस वर्ष वह बहन के साथ, जिसका नाम रानी था, मथुरा की मंडली की रामलीला देखने जाता रहा था। साथ में दुर्गा और शिव के बेटे भी होते थे। बेटी अपनी माँ और चाची के साथ जाती थी। वे उसे साथ नहीं ले जाते, क्योंकि वह रावण और परशुराम को चीखता देख ज़ोर से रोने लगती थी।
मसवानपुर की रामलीला से बड़ी रामलीला रावतपुर में होती थी। वहाँ की रामलीला देखने भी एक बार वह दुर्गा चाचा के साथ गया था। रावतपुर उसके गाँव से बड़ा गाँव था। उन दिनों उसकी आबादी पांच हज़ार के लगभग थी। वहाँ कई मंदिर थे। वहाँ का बाज़ार बड़ा था और खरीददारी करने के लिए मसवानपुर के लोग रावतपुर जाया करते थे। यह गाँव भी जी.टी.रोड के किनारे बसा हुआ था और शहर से मात्र तीन मील की दूरी थी उसकी। गाँव का क्षेत्रफल 99 एकड़ था। यहाँ के लोग नौकरी करने, दूकानों के लिए सामान खरीदने और दूसरे कार्यों से शहर जाया करते थे। रावतपुर गाँव के लोगों के खेत शहर की ओर दूर तक थे। रावतपुर और मसवानपुर गांवों में अधिक दूरी नहीं थी। दोनों गांवों के लोग एक-दूसरे के लिए सहायक हुआ करते थे। आपस में प्रेम और सौहार्द्र था दोनों गांवों में। इसीलिए जब दशहरा मनाया जाता, दोनों गाँव के लोग एक-दूसरे से मिलने जाया करते थे। रामलीला देखने भी वे एक-दूसरे के गाँव जाते। होली में सुबह से रंग शुरू हो जाता। झुंड बनाकर मसवानपुर के लोग रावतपुर जाते और वहाँ के लोग मसवानपुर। महापन और सुजान सिंह घर के बाहर खुली जगह पर दरियाँ बिछा देते। कुछ चारपाइयाँ भी डाल दी जातीं। लोहे की बाल्टियों और बड़े देगचों में रंग घोल दिया जाता लाल,पीला,नीला,बैंगनी बच्चे बांस की पिचकारी से आगंतुकों पर रंग डालते। दो साल उसने भी बांस की पिचकारी से रंग खेला था। जब गाँव या रावतपुर के लोगों का झुंड आता, वह बाल्टी से रंग भर लाता और चुपके से पिच्च से किसी पर रंग उड़ेलकर खी-खी करता भाग खड़ा होता। उसके चचेरे भाई-बहन उसे ड्योढ़ी पर खड़े देखते रहते। उसकी बहन उस दिन घर से बाहर नहीं निकलती थी। उसे रंग से डर लगता था।
सरजू को फाग बहुत प्रिय था। रानी घाट वाले मकान में शिफ्ट होने से पहले वाली होली के अवसर पर वह फगुआ लोगों के बीच जा बैठता था। कानपुर और उसके आसपास के क्षेत्र में दूर-दूर तक होली से पन्द्रह दिन पहले फाग शुरू हो जाया करता। ढोल की ताल, मंजीरों और खड़ताल के सुरों पर लोग बाएँ कान को हाथ से दबा दाहिना हाथ ऊपर उठाकर फाग गाया करते। “बरसाने मा होरी खेलै कन्हैया हो बरसाने मा ।” और कई बार इस होली गायन के साथ कोई अश्लील गायन भी करने लगता। उसे तब इतनी समझ न थी। उसे उन सबके गाने में रस आता और वह देर रात तक फगुओं के बीच उन्हें गाता सुनता रहता। कई बार उसके दादा को उसे खोजने जाना पड़ता तो कभी दुर्गा या शिव उसे गोद में उठाकर लाते। एक-दो बार उसके पिता ने देर रात तक घर से बाहर रहने पर दो कंटाप भी उसे रसीद किए थे। एक बार ऎसा हुआ कि घर के लोग यह मानकर सो गए कि वह घर आ चुका था। दादा ने सोचा कि दुर्गा या शिव उसे ले आए थे और वह भी सो गए. उसके पिता आए तो सुजान की पत्नी यानी उनकी चाची ने उन्हें भोजन परोसा। उस दिन उन्हें शहर जाना पड़ा था। परेड में कुछ देश भक्तों का जुलूस निकलने वाला था। दिनभर एक टांग पर खड़े होकर उन्हें ड्यूटी देनी पड़ी थी। विपन सिंह थके हुए थे। भोजन के उपरान्त सो गए. किसी का ध्यान इस ओर गया ही नहीं कि सरजू घर नहीं आया था। सरजू शिव मंदिर के चबूतरे पर हो रहे फाग में मस्त था और उस मस्ती में उसे नींद आ गयी। वह वहीं दरी पर सो गया। जब फगुए अपने साज-बाज समेटकर दरी उठाने लगे, उनका ध्यान सोए सरजू की ओर गया। पड़ोसी रामखयाल ने उसे जगाया। घर की कुण्डी खटकाने पर उसके पिता की चाची ने दरवाज़ा खोला। रामखयाल के साथ सरजू को देख वह सकते में आ गयीं। लेकिन बोलीं कुछ नहीं। अंदर से सुजान सिंह की आवाज़ आयी, “कौन है ?”
“ रामखयाल हैं।” वह बोलीं।
“का हो बबुआ।?” सुजान सिंह की चारपाई चरमराई.
“कुछ नहीं चाचा आप सोओ चाची से आग मांगे आवा रही। बरौसी की आंग ठंडी हुई गई है।”
“ओह!—इतनी रात कोऊ बात नहीं।” सुजान सिंह की चारपाई पुनः चरमराई. उन्होंने करवट बदल ली थी और सोने का उपक्रम करने लगे थे। यह जान उनकी पत्नी ने रामखयाल को जाने का इशारा किया और सरजू को खींचकर अपने साथ ले गयीं और उस रात उसके देर रात तक घर से बाहर रहने का रहस्य उसे और उसकी चचेरी दादी तक ही सीमित रह गया था।
कार्तिक माह के पहले सोमवार को गाँव के शिव मंदिर में मेला लगता था। शिव मंदिर गाँव से बाहर था। आसपास के गांवों से दुकानदार एक दिन पहले से वहाँ अपनी दुकानें सजाना शुरू कर देते । मेला बच्चों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र होता। हलवाइयों की दुकानों में एक दिन पहले दोपहर बाद से ही मिठाई बनाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता। गट्टे और खिलौने वे शहर से खरीद लाते। हलांकि गट्टों, चीनी और गुड़ की पट्टी, सेब ,बताशों और लाई की दुकानें मंदिर के निकट अलग से लगती थीं। दो हलवाइयों की दुकानें भी मंदिर के निकट लगतीं। मंदिर के निकट फूल-माला बेचने वाले भी बैठते। ठठेरे भी आते और बिसाती और कपड़े बेचने वाले भी। मिट्टी के रंग-बिरंगे खिलौने बेचने के लिए कुम्भार भी होते।
मेला देखने वालों की भीड़ दो बजे के बाद शुरू हो जाती। दूर से लोग बैलगाड़ियों पर आते। सीसामऊ, कल्यानपुर, भौंती यहाँ तक कि सपई और सचेड़ी तक से लोग पहुँचते। नवाबगंज और पुराना कानपुर से तो लोगों को पहुँचना ही था। मेला में ग़ज़ब की भीड़ होती। रंग-बिरंगे परिधानों में सजी युवतियाँ और महिलाएँ होतीं। महिलाओं के सिर पर हल्का घूंघट होता तो लड़कियाँ भी ओढ़नी डाले होतीं।
शाम चार बजने तक मेला जमने लगता। मंदिर में शिव मूर्ति के दर्शन और प्रसाद चढ़ाने वालों की भीड़ एकत्र हो जाती। गाँव के ही दो युवक व्यवस्था संभालने के लिए मंदिर द्वार के अगल-बगल खड़े रहते। दो पंक्तियाँ लगतीं, जिनमें एक पुरुषों की और एक महिलाओं और लड़कियों की। मंदिर में एक बड़ा द्वार था और एक छोटा। छोटे द्वार की ओर महिलाएँ पंक्ति लगातीं। उधर भी मंदिर में ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं। उधर व्यवस्था संभालने के लिए कोई नहीं खड़ा होता था।
सरजू अपनी चाचियों और उनके बच्चों के साथ मेला देखने जाता। दुर्गा प्रसाद और शिव प्रसाद कंधों पर लाठी रख अलग –अलग जाते। सरजू चाचियों के साथ ही घूमता। पिता से उसे मेला के लिए एक रुपया मिलता, जिसे वह बहुत जतन से ख़र्च करता। उन पैसों से वह मिट्टी के हाथी,घोड़े और देवी-देवताओं की मूर्तियाँ खरीदता। खाने का सामान चाचियाँ खरीदती ही थीं। चाचियों और उनके बच्चों के साथ वह मंदिर में प्रसाद चढ़ाने जाता और शिवलिंग को देखकर सोचता, ’कल तक इनकी ओर कोई ध्यान नहीं देता था, लेकिन आज ’ उसका छोटा-पन आगे सोचना बंद कर देता। वह गाँव के साथियों के साथ खेलता कई बार मंदिर तक चला जाता था और वहाँ जानवरों और मनुष्यों द्वारा फैलायी गंदगी देखता। यदा-कदा उसने एक साधु को मंदिर के अंदर बैठे चिलम फूंकते देखा था।
मेला रात दस बजे के बाद तक चलता। गाँव की महिलाएँ, बच्चे और दूसरे गाँव से आने वाले लोग धुंधलका होने के साथ ही जाने लगते, जबकि गाँव के युवा और बूढ़े रात देर तक रहते। कुछ लोगों के लिए मेला चरस, भांग और गांजा सेवन का बेहतरीन अवसर होता था। वे गुट बनाकर इधर-उधर बैठ जाते और चिलम फूंकते रहते। भांग का सेवन करने वाले गोला बना लाते और ख़ाकर मस्ती में झूमते।
सरजू मिट्टी के जो खिलौने लाता उन्हें आले में सजा देता। चाचियों ने देखा कि वह कभी कभी देवी देवताओं की मूर्तियों पर फूल चढ़ाता और हाथ जोड़कर कुछ बुदबुदाता। छोटी ताई उसे ऎसा करते देख बुदबुदातीं, “इतना छोटा है का गावत है ई उनके सामने। लागत है कि बड़ा होइकै ई साधू – महत्मा बनी।” बड़ी बहन रानी उसे ऎसा करते देख उसकी खिल्ली उड़ाती, “चला बड़ा आवा भगत सौचैं का सऊर नहीं और मुर्तिन की पूजा करत है।”
लेकिन सरजू चुप रहता।
मेला समाप्त होने के बाद रात वहाँ शहर से आयी चन्नू मिसिर की नौटंकी होती। कभी राजा हरिश्चन्द्र तो कभी कुछ और। इसकी सूचना सभी को होती। लोग अपने घरों से भोजन करके नौटंकी देखने जाते। दूसरे गाँव के जो लोग नौटंकी देखना चाहते, वे बैलों के लिए चारा लेकर आते थे। उनके खाने के लिए हलवाइयों की दुकानें थी हीं जहाँ देसी घी में तली पूरियाँ और आलू की सब्जी होती। नौटंकी देखने वालों में कोई महिला कभी ही होती थी वहाँ। यदा-कदा रावतपुर के राज परिवार की महिलाएँ पालकियों में चढ़कर मेला देखने आतीं और उस परिवार के लोग घोड़ों पर सवार होकर नौटंकी देखने पहुँचते। तब उनके लिए विशेष व्यवस्था होती थी।