कानपुर टु कालापानी / भाग 5 / रूपसिंह चंदेल
बिठूर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन मेला लगता था। रानी घाट के मकान में आने के बाद एक बार वह बिठूर गया था। रानी घाट के मकान में गए उसे एक साल ही हुआ था। उस दिन पिता बिपन सिंह ने थाने से अवकाश ले लिया था। एक-सी ज़िन्दगी जीते वह ऊब चुके थे। वह उसे और रानी को पैदल ही लेकर गाँव मसवानपुर गए थे। तब उसके दादा जी जीवित थे। शायद पिता ने अपने चचेरे भाइयों को पहले ही यह सूचना दे दी थी कि सब कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करने के लिए बिठूर जाएगें। अगले दिन कार्तिक पूर्णिमा थी। दो बैल गाड़ियाँ तैयार करवायी गयीं। एक उनकी थी और दूसरी रामखयाल की। एक में महिलाएँ बैठीं और दूसरे में पुरुष। पुरुषों में उसके पिता, रामखयाल और शिव प्रसाद सिंह थे, जबकि दुर्गा प्रसाद अपनी बैलगाड़ी हाँक रहे थे। कल्यानपुर निकलते ही दोनों बैलगाड़ियों की दौड़ भी हुई, लेकिन उसके पिता ने दुर्गा को बैलों को दौड़ाने से रोका और गाड़ियाँ सामान्य गति से चल पड़ी थीं।
जब दोनों बैलगाड़ियाँ गाँव से निकलीं चांद आसमान पर चटख प्रकाश बिखेर रहा था। धरती पर चांदनी की चादर बिछी हुई थी। खेतों में गेहूँ, चना, सरसों,लाही आदि के पौधों ने धरती से बाहर की दुनिया देखनी शुरू कर दी थी। बगीचों में चिड़ियाँ चहचहा रही थीं। हवा में हल्की ठंड थी और दोनों बैलगाड़ियों में सवारियों ने कम्बल ले रखे थे। आसमान में तारे मुलमुला रहे थे, लेकिन चांद ने उनकी आभा को कम कर रखा था।
रास्ते में मसवानपुर, रावतपुर ही नहीं काकादेव, भौंती, सीसामऊ आदि गांवों की बैलगाड़ियाँ कतारबद्ध जा रही थीं। कुछ गाड़ियों में स्त्रियाँ गंगा के गीत गा रही थीं। स्त्रियों को गाता सुन दुर्गाप्रसाद सिंह अपने को रोक नहीं पाए और कवि पद्माकर की गंगालहरी का गीत ऊँचे स्वर में गाने लगे।
“रेणुका की रासन मैं, कीच कुस कासन मैं,
निकट निवासन मैं, आसन लदाऊ के।
कहै पदमाकर तहाईं मंजु सूरन मैं,
धौरी धौरी धूरन मैं पूरन प्रभाऊ के॥
पारन मैं वारन मैं, देखहू दरारन मैं,
नाचति है मुकुति अधीन सब काऊ के।
कूल और कछारन मैं, गंगाजल धारन मैं,
मंझरा मंझारन मैं झारन मैं झाऊ के॥
दुर्गा प्रसाद वाली बैलगाड़ी में चाचियों के साथ रानी और सरजू भी बैठे थे। उनके बच्चे भी थे और थीं रामखयाल की पत्नी। रामखयाल के बच्चे नहीं थे। चाचा दुर्गाप्रसाद के स्वर में माधुर्य था, लेकिन वह क्या गा रहे थे, बच्चों और महिलाओं को समझ नहीं आया। दुर्गा से सरजू खुला हुआ था। दुर्गा से ही नहीं शिव से भी वह कुछ भी पूछने में संकोच नहीं करता था। जब दुर्गा ने गाना बंद किया, सरजू ने पूछा, “चाचा किसने लिखी ये कविता?”
“तू क्या करेगा जानकर?” दुर्गा मुस्कराकर बोले। उनकी मुस्कान सरजू ने देखी। बोला, “बस यूं ही जानने की इच्छा हुई?”
“तुमहू कविता लिखिहौ का?”
वह चुप रहा।
“गांव मा विद्यालय खुलि गा है पढ़ैं जाव। तबही पद्माकर बनि सकत हौ।”
“मैंने आपसे जो पूछा, यह तो उसका उत्तर न है चाचा।”
“ओह!” दुर्गा ने लंबी सांस खींची। बोले, “यह गाना कवि पद्माकर का है। पुराने कानपुर में आकर वह रानी घाट में 1816 से 1823 तक रहे थे। तभी उन्होंने एक किताब लिखी थी, जिसका नाम है ’गगां लहरी’। यह गीत उसका है। वहीं उनकी मृत्यु भी हुई थी। समझ तुम पाए नहीं वर्ना एक और सुनाता।”
“ सुनाओ चाचा।” सरजू साग्रह बोला।
और दुर्गाप्रसाद ने दूसरा छंद सुनाना शुरू किया:
“कैधौं तिहुंलोक की सिंगार की बिसाल माल,
कैधौं जागी जग में जमाति तीरथन की।
कहै पदमाकर बिराजै सुर-सिंधु-धार,
कैधौं दूध-धार कामधेनु के थनन की॥
भूपति भगीरथ के जस की जलूस कैधौं,
प्रकटी तपस्या कैधौं पूरी जह्नु जन की।
कैधौं कछु राखै राकापति सों इलाक़ा भारी।
भूमि की सलाका पै पताका पुन्यगन की॥
चाचा शिव प्रसाद गा रहे थे और सरजू सोच रहा था कि वह कितना भाग्यशाली है कि जिस घाट में इतने बड़े कवि आकर रहे आज उसी रानी घाट में उसका भी घर है। वह खयालों में खो गया। चाचा गाते रहे। गाना ख़त्म करने के बाद शिव ने पूछा, “कुछ समझ आया?”
“ऊँ” वह अचकचा गया।
“तुम्हें समझ ना आवा होई. कठिन कवित्त है सरजू। पद्माकर बड़े कवि थे।”
“जी चाचा, मैं यही सोच रहा था और सोच रहा था कि कितना अच्छा होता कि आज वह जिन्दा होते। मैं आज वहीं रह रहा हूँ। मुझे उनसे कुछ सीखने को मिलता।”
शिव देर तक सोचते रहे। फिर बोले, “सुन सरजू, पद्माकर तो नहीं, लेकिन तू कुछ करना चाहता है तो पहले पढ़ाई कर न! रानी घाट में भी विद्यालय है और गाँव में भी खुल गया है। बिना पढ़े ई सब समझ न आई और उन जैसा बनने के लिए पढ़ाई ज़रूरी है।”
“जी चाचा” अन्यमनस्क भाव से सरजू बोला।
बिठूर पहुँचने तक आसमान पर सूरज की रोशनी फैल गयी थी। घाट की ओर जाते किसी घर से गाय के रंभाने की आवज सुनाई दी। शिव प्रसाद सिंह ने सरजू से कहा, “गाय रंभाकर मालिक को दोहने के लिए बुला रही है। उसे अपने बच्चे की चिन्ता है मालिक दोहने से पहले बच्चे को दूध पीने देता है न कुछ देर।”
“चाचा” सरजू बोला, “गाय के थनों में दूध उतर आया होगा और उसे बर्दाश्त नहीं हो रहा होगा। बछड़े-बछिया को मालिक कितना पीने देते हैं।”
“तू तो बहुत सुजान है रे।” शिव ने सरजू के गाल छुए तो वह शर्मा गया।
गाड़ियों को ब्रम्हावर्त घाट से कुछ पहले रोक दिया गया। तय हुआ कि बिपन सिंह और रामखयाल पहले गंगा स्नान कर आएगें। लौटकर दोनों बैलगाड़ियों और बैलों तथा सामान की देख रेख करेगें और महिलाएँ और बच्चे दुर्गा प्रसाद और शिव प्रसाद के साथ गंगा स्नान करने के लिए जाएगीं।
बिपन और रामखयाल के लौटने तक महिलाएँ कपड़े संभाल स्नान करने जाने के लिए तैयार थीं। सभी ब्रम्हावर्त घाट की ओर चले, जो वहाँ से तीन फर्लांग की दूरी पर था। वहाँ पहुँचकर शिव प्रसाद ने सभी को उस घाट के विषय में बताया कि उसे सचेंड़ी के राजा हिन्दू सिंह ने बनवाया था। बिठूर के राजा पेशवा बाजीराव ने वहाँ आने के बाद घाट की दयनीय स्थिति देख उसका पुनः निर्माण करवाया। घाट सुन्दर सफेद पत्थरों से निर्मित देख सरजू का मन मुग्ध हो उठा। सभी के साथ नीचे उतर उसने भी सीढ़ियों पर बैठ हाथ से उलीच कर स्नान किया। शिव प्रसाद और दुर्गाप्रसाद ने सीढ़ियों से छलांग लगा दी और कुछ दूर तक तैरते रहे। सरजू दम साधे दोनों को देखता रहा। उसका मन कर रहा था कि वह भी छलांग लगा दे, लेकिन उसे तैरना नहीं आता था। वहाँ लोगों को आपस में बातें करते उसने सुना था कि सीढ़ियों से नीचे गं गा की गहराई इतनी अधिक है कि दो हाथी एक के ऊपर एक खड़े होकर डूब जाएगें।
दुर्गा और शिव चाचा को तैरता देख सरजू डरता रहा। लगभग पन्द्रह मिनट तक तैरने के बाद दोनों जब वापस सीढियाँ चढ़ने लगे उसने राहत की सांस ली थी।