कानपुर टु कालापानी / भाग 6 / रूपसिंह चंदेल
गंगास्नान के बाद सभी वापस बैलगाड़ियों के पास लौट आए.
ठंड कम हो आयी थी। सूरज बिठूर की छतों पर तेज रोशनी बिखेर रहा था। हवा गाड़ियों के पास खड़े पेड़ों को छूती चक्कर लगा रही थी। महिलाओं ने रात ही पूरियाँ और आलू की सब्जी बना ली थी। सबने नाश्ता किया। ब्रह्म घाट से कुछ दूर पर मेला लगा हुआ था। शिव और दुर्गा की पत्नियों ने बच्चों सहित मेला जाने का निर्णय किया। रामखयाल की पत्नी भी उनके साथ हो ली। सरजू का मन मेला जाने का नहीं था। उसने शिव प्रसाद से कहा, “चाचा, बिठूर घुमा दें।”
“क्या देखना चाहते हो यहाँ?”
“आपने ही तो एक दिन बताया था कि बिठूर का बहुत महातम है। यहाँ नाना साहब,झांसी की रानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे रहे थे।”
“सरजू, तू तो बहुत सयाना है रे” शिव बोले, “पढ़ैं-लिखैं मा मन न लागत है और तू्ने इतना सब याद कैसे रख लिया! तेरा दिमाग़ बहुत तेज है। इतनी कम उमिर है और सब कुछ याद है। मैं बिपन्न भइया से कहकर तुझे विद्यालय भेजवाउंगा।--।”
“जी चाचा। वह सब बाद में पहले मुझे हर जगह घुमाओ.”
“चल” और शिव ने बिपन सिंह से कहा, “भइया, आप तो हो ही न यहाँ मैं सरजू को बिठूर घुमा दूं?”
बिपन सिंह ने सिर हिला दिया।
शिव प्रसाद सरजू को लिए पहले नाना साहब के महल की ओर गए. महल की एक दीवार ही बची हुई थी बाक़ी महल का कोई निशान न था। चाचा ने बताया कि 1857 की क्रान्ति के समय जब नाना साहब की सेना अंग्रेजों से हार गई और नाना साहब गंगा पार करके अपने परिवार के साथ नेपाल चले गए तब अंग्रेज अफसर होपग्रण्ट ने नाना को वहाँ न पाकर उनके महल को तोपों से उड़वा दिया था। उसका मन जब उतने से भी नहीं भरा तब उसने महल की ज़मीन पर हल चलवाया था।
“कुछ लोग तो रहे होंगे महल में उस समय।” सरजू ने पूछा।
“कुछ कहा नहीं जा सकता सरजू। कुछ लोगों का कहना है कि मैना नामकी एक नौकरानी थी महल में उस समय।”
“वह तो मर गयी होगी।”
“जब महल ही उड़ा दिया तब वह कैसे बच सकती थी। ज़रूर मरी होगी।”
सरजू आंखे फाड़े उस धरती को देखता रहा, जहाँ कभी विशाल महल रहा होगा।
“चाचा, आपने बताया था कि झांसी की रानी लक्ष्मी बाई भी इसी महल में रहती थीं।”
“महल में नहीं, लेकिन बिठूर में ही उनके पिता आ बसे थे। लक्ष्मी बाई का बचपन नाना साहब के साथ बीता था। नाना के धर्म पिता बाजीराव पेशवा लक्ष्मी बाई को जिन्हें वह मनु पुकारते थे, बहुत चाहते थे। नाना के साथ मनु ने घुड़सवारी सीखी थी। वह भी अंग्रेजों से लड़ते हुए शहीद हो गयी थीं।
“ओह!”
“अंग्रेज कितने ज़ालिम हैं चाचा।”
“बहुत ।” शिव ने लंबी सांस खींची।
“चाचा यहाँ तात्या टोपे भी थे?”
“हाँ, नाना साहब के सेनापति थे। वह बहुत बहादुर थे बेटा इतना कि उन्होंने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था और अंत तक नहीं पकड़े गए थे। उनके स्थान पर अंग्रेजों ने उनकी हमशक्ल को फांसी दे दी थी।”
“हमशक्ल?”
“हाँ, तात्याँ टोपे ने अपने जैसी शक्ल के दो लोगों को तात्या की पहचान दे रखी थी।”
“बहुत होशियार थे तात्या।” सरजू बोला।
“बहुत।”
दोनों महल के पीछे पहुँचे, जहाँ एक कुंआ था। शिव ने कहा, “यह कुंआ नाना साहब के घोड़ों और दूसरे जानवरों को पानी पिलाने के काम आता था। तुम यह हौज देख रहे हो न!”
“जी.”
“ पुरों से खींचकर इसी हौज में पानी भरा जाता था नाना के हाथी,घोड़े और दूसरे जानवरों के लिए.”
“लेकिन लगता है कि उनके जाने के बाद यह इस्तेमाल में नहीं है।”
“तुम बहुत समझदार हो सरजू। नाना अंग्रेजों के दुश्मन थे। संग्रेजों के दुश्मन के कुंआ का इस्तेमाल करने की हिम्मत किसमें है!” कुछ देर रुककर बोले शिव, “इस कुंआ के साथ एक और कहानी जुड़ी हुई है।”
“वह क्या चाचा।”
“भागते समय नाना ने बहुत बड़ी मात्रा में जेवर, सोने-चांदी के सिक्के और औजार कुंआ में फेके थे। अंग्रेज अफसर होपग्रण्ट को जब यह मालूम हुआ तब उसने कई दिनों तक उनकी निकासी करवाई थी।”
“वह अफसर तो बहुत धनवान हो गया होगा चाचा।”
“यह जानकारी नहीं मुझे बेटा कि वह सम्पत्ति होपग्रण्ट ख़ुद हजम कर गया था या सरकारी खजाने में जमा किया था।”
वहाँ से कुछ दूरी पर कांस-कुश के जंगल के बीच से होते हुए दोनों कुछ ऊँचाई पर पहुँचे। वह काफ़ी ऊँचा टीला था। टीले पर एक मंदिर था। वहाँ एक गरीब परिवार रह रहा था। “इस टीले को ध्रुव टीला कहते हैं और यह ध्रुव मंदिर है।” मंदिर की ओर इशार करते हुए चाचा ने कहा।
“ध्रुव?”
“ध्रुव और उत्तापनपाद की कहानी सुनाई थी न एक दिन उत्तानपाद की राजधानी यहीं थी। ऎसा कहा जाता है कि इसी टीले पर ध्रुव ने तपस्या की थी। देश में उनके नाम का यही एक मात्र मंदिर है।” शिव बोले और मंदिर में रह रहे परिवार की ओर मुड़कर पूछा, “इस मंदिर में कोई पूजा आदि के लिए आता है?”
“बाबू, कभी कभार कोऊ आ जात है।”
“फिर आप लोगों की गुजर कैसे होती है?”
“मैं तो मजूरी करके गुजर बसर करता हूँ मालिक। आज मेला है न इसलिए मजूरी के लिए नहीं गवा।”
“ओह!” शिव प्रसाद सिंह ने जेब से कुछ पैसे निकालकर उस व्यक्ति को दिया और टीला से नीचे उतरने लगे।
“अब मैं तुम्हें वह पौराणिक आश्रम दिखाउंगा, जिसे बाल्मीकि आश्रम कहा जाता है।”
“बाल्मीकि आश्रम !” सरजू की उत्सुकता बढ़ी। “वहाँ कोई सन्यासी रहते हैं?” उसने पूछा।
“रहते थे। आज भी कोई साधु रहता होगा। पता नहीं। लेकिन राम के समय बाल्मीकि नामके संत थे, जिनका आश्रम है वह। उन्होने ही रामायण लिखी थी।”
“जिसे आप बांचते रहते हैं चाचा।” शिवप्रसाद ने रामचरित मानस बांचने योग्य की शिक्षा पा रखी थी।
“नहीं। वह तो तुलसी बाबा की लिखी हुई रामचरित मानस है। बाल्मीकी ने रामायण संस्कृत में लिखी थी।”
सरजू चुप चाचा के साथ चलता रहा। कुछ देर में ही वे बाल्मीकि आश्रम में थे। आश्रम में चारों ओर कमरे बने हुए थे। बीच में बड़ा-सा प्रांगण था। कुछ लोग भगवा वस्त्र पहने प्रांगण में टहल रहे थे। उनकी तरह कुछ और दर्शक वहाँ घूम रहे थे।
“यह सीता रसोई है” एक कोठरी की ओर इशारा करते हुए हुए शिव ने कहा। दोनों रसोई की ओर बढ़े। वहाँ रसोई जैसा कुछ नहीं था। एक ओर मिट्टी का चूल्हा बना हुआ था।
“चाचा, सीता जी यहाँ खाना पकाती रही होंगीं” शिव के चेहरे की ओर देखते हुए सरजू ने पूछा, “लेकिन चाचा सीता जी की रसोई यहाँ कैसे?”
“राम ने एक धोबी के आरोप के बाद उन्हें निकाल दिया था महल से और वह यहाँ बाल्मीकि आश्रम में आकर रही थीं।”
“अयोध्या पास है चाचा?”
“न बहुत दूर है ।”
“सीता जी इतनी दूर पैदल चलके आईं?” बालक सरजू के प्रश्न बढ़ते जा रहे थे।
“सुना है कि लक्षण उन्हें यहाँ छोड़ गए थे।”
सरजू चुप हो गया।
उसने घूमकर रसोई देखी और वहाँ रसोई जैसा कुछ भी न देख मन ही मन सोचता रहा कि सीता जी की रसोई आज भी है यह तो कमाल है। वह अपने को रोक नहीं पाया। पूछ ही लिया, “चाचा, तब ते सीता जी की रसोई बनी हुई है। कितने साल हुए सीता जी को मरे।?”
“हजारों साल हो गए.” शिव ने सरजू के सिर पर हाथ फेरा, “कौन जानता है कि सीता जी यहाँ रहीं या किसी और जगह और कौन जानता है कि आश्रम यहाँ था या किसी और जगह।”
वे एक अन्य कोठरी के सामने थे, जिसके विषय में लिखा गया था कि वह सीता की कोठरी थी। उसके बगल में बाल्मीकि की कोठरी थी।
सरजू ने देखा कुछ स्त्रियाँ सीता की कोठरी के सामने फल और फूल रख रही थीं।
वहाँ से वे लोग बाजीराव पेशवा के बनवाए उस स्थल पर पहुँचे जिसे स्वर्ग- सीढ़ी कहा जाता था। यह एक स्तंभ था, जिसमें हजारों आले बनाए गए थे। सरजू ने शिव से पूछा, “चाचा, ये आले किस काम के लिए हैं।”
“कहते हैं दीपावली के दिन इन आलों में दीपक जलाए जाते थे, जिन्हें देखने के लिए पूरा बिठूर इकट्ठा होता था। यह सब बाजीराव पेशवा के समय में होता था।”
“बाजीराव पेशवा यहाँ के राजा थे?”
“हाँ, उनका शासन पूना के आसपास था। अंग्रेजों से युद्ध में हार जाने के बाद अंग्रेजों ने उन्हें इधर कहीं आ बसने के लिए कहा था। उनका राज्य छीन लिया था और उन्हें पेंशन बाँध दी थी। पेशवा ने बिठूर को चुना था और उजड़े बिठूर में एक बार फिर रौनक वापस लौट आयी थी। “
सरजू दत्तचित्त सब सुनता रहा था। उसके मन में अनेक प्रश्न घुमड़ रहे थे। पूछा, “चाचा, आपको तो बहुत कुछ पता है।”
“हाँ, मैंने कुछ पढ़ा है और कुछ सुना है। जैसे तुम आज मुझसे सुन रहे हो।” कुछ देर तक दोनों उस स्वर्ग-सीढ़ी को अपलक देखते रहे। तभी सरजू बोला, “चाचा, सीढियों से ऊपर चलें?”
“क्यों नहीं?” और दोनों सीढ़ियाँ चढ़ने लगे।
सरजू सीढ़ियाँ चढ़ते उन्हें गिन रहा। ऊपर पहुँचकर बोला, “अड़तालीस सीढ़ियाँ हैं चाचा।”
“तुम्हें गिनती अच्छी आती है।”
“जी.”
“चलो, इस बार भइया से कहकर तुम्हें विद्यालय में भर्ती करवा दूंगा।”
सरजू कुछ नहीं बोला। वह बहुत ही कुशाग्र बुद्धि था। यह बात उसे भी मालूम थी, लेकिन उसे विद्यालय नाम से डर लगता था और पढ़ाई से वह बचना चाहता था।
ऊपर पहुँचने के बाद शिवप्रसाद बोले, “दूर सामने जो गाँव तुम्हें दिखाई दे रहा है वह रमेल है।”
सरजू गाँव की ओर देखने लगा। गाँव पूरी तरह स्पष्ट नहीं था। कुछ ऊँचे मकान दिखाई दे रहे थे।
“इस गाँव का पुराना नाम रणमेल था। कहते हैं इसी गाँव के पास राम की सेना और लव-कुश के बीच युद्ध हुआ था। युद्ध में लव-कुश की जीत हुई थी। उसके बाद पिता पुत्रों का मेल हुआ था। इसलिए इस गाँव का नाम पड़ा था रणमेल।”
“मतलब?”
“मतलब” क्षण भर के लिए अचकचा गए शिव। उन्होंने ऎसे प्रश्न की कल्पना नहीं की थी। लेकिन तत्काल बोले, “रण का मतलब है लड़ाई युद्ध और मेल का मतलब तुम जानते ही हो।”
“जी, लड़ाई के बाद मेल-मिलाप।”
“बहुत होशियार हो।” नीचे उतरते हुए शिव बोले, “हमें वापस चलना चाहिए. बहुत देर हो गयी। सभी परेशान होंगे।”
“जी.”
लौटते हुए शिव प्रसाद ने कहा, “आज भी तात्या टोपे के परिवार के लोग यहाँ रहते हैं।” कुछ सोचकर शिव आगे बोले, “नाना साहब के एक मंत्री थे अजीमुल्ला खां। बहुत बुद्धिमान व्यक्ति थे। कहते हैं बहुत सुन्दर थे। यहाँ जो क्रान्ति हुई थी उसके पीछे उन्हीं का दिमाग़ था, ऎसा कहते हैं।”
“उनका घर भी होगा यहाँ। उनके परिवार के लोग होंगे अभी भी। मुझे उनका घर दिखाएँ चाचा।” सरजू भावुक हो उठा था।
“बताते हैं कि अजीमुल्ला खां ने शादी नहीं की थी। नाना साहब ने उनके लिए रहने का इंतज़ाम किया होगा, इसलिए उनके बारे में लोगों को कुछ भी जानकारी नहीं है।”
“हम तात्या टोपे के घर को देखें?”
“फिर कभी देखने आना मेरे साथ। दोपहर हो गयी। सभी परेशान होंगे।”
“ठीक चाचा”
और दोनों बैलगाड़ियों की ओर बढ़ गए थे।