कानपुर टु कालापानी / भाग 7 / रूपसिंह चंदेल
लखनऊ की ओर बढ़ता हुआ सरजू बचपन की यादों में खोया हुआ था। उसके हाथ में लाठी थी। सही मायने वह लाठी नहीं बांस का मज़बूत डंडा था, जिसे वह सोंटा कहता। उसकी चाल दुलकी थी और अनथक वह उन्नाव पार कर चुका था। सूर्य ऊपर चढ़ आया था। उसने निर्णय किया हुआ था कि वह गोमती स्नान के पश्चात ही भोजन करेगा। ऎसा वह हर बार करता था। उसे प्यास लगी हुई थी। उन्नाव से बाहर निकलते ही उसे एक छोटी-सी बस्ती मिली। बस्ती के बाहर एक तलैया थी, जिसमें सुअर लोट रहे थे। पास ही कुछ कुत्ते लेटे अर्द्ध निद्रा में दिखाई दिए उसे। एक घर के बाहर मुर्गों का बाड़ा बना हुआ था, जिसमें कुछ मुर्गे आराम फरमा रहे थे और दो दड़बे के ऊपर सिर ताने खड़े हुए थे। एक इमली का पेड़ था जिसकी छोटी पीली पत्तियाँ नीचे गिरी हुई थीं। कुछ दूरी पर एक कैथे का पेड़ था, जिसमें उसे कुछ फल लटकते दिखे। एक जगह खड़ा होकर उसने चारों ओर नजरें घुमाईं यह देखने के लिए कि वहाँ कोई कुंआ था या नहीं। बस्ती की बायीं ओर उसे एक कुंआ दिखा, जिसकी जगत से हटकर एक गड्ढे में भरे पानी में भी दो सुअर उलट- पलट रहे थे। तभी उसने एक युवती को बाल्टी लेकर कुंआ की जगत पर चढ़ते देखा। वह उसी ओर लपका प्यास मिटाने की आस में। उससे पहले कभी उसे वहाँ तक पहुँचते प्यास नहीं महसूस हुई थी।
कुंआ के पास पहुँचकर उसने युवती से पूछा, “पानी मिलेगा?”
युवती ने उसे घूरकर देखा, फिर अपनी ओर। उसने देखा कि युवती ने गंदे घाघरे पर उतना ही गंदा जंफर पहन रखा था।
कुछ देर तक चुप्पी पसरी रही दोनों के बीच। वह सोचने लगा कि क्या युवती गूंगी है या बहरी कि उसने उसकी बात ही नहीं सुनी। हो सकता है वह गूंगी और बहरी दोनों हो। लेकिन आंखों से सामने मुझे तो देख ही रही है। इशारे से पूछ भी सकती है कि मुझे क्या चाहिए!
तभी रस्सी में बाल्टी बाँधती युवती बोली,”भले घर के लग रहे हो।”
“तो?”
“हम धानुक हैं यह बस्ती धानुकों की है।”
“मतलब पानी नहीं पिलाओगी?” सरजू ने पूछा।
“मैंने अपनी जाति बतायी। तुम बाबू लोग हमारे हाथ का पानी कैसे पिओगे? हाथ की बात भी छोड़ो, हमारी बाल्टी और हमारे कुंआ का पानी ।”
युवती की बात काट सरजू बोला, “तुम्हारे और मेरे शरीर में अलग खून बह रहा है क्या?”
“वह सब मैं का जानूं। मैंने अपनी बात बता दी। तुम्हें पानी पिला दूं और लोग आकर यहाँ तमाशा करें ना बाबा।”
“अरे मैं परदेशी हूँ बहन!”
युवती चौंकी। ’बहन!’ किसी ऊँची जाति के किसी व्यक्ति ने उसे आज तक इस प्रकार नहीं पुकारा था। यह बालक उसे बहन कह रहा है। तेरह –चौदह साल का बालक कितना अच्छा है। युवती सोचती रही।
“पानी मिली?” सरजू का हलक सूख रहा था।
“तुम कौन जात हो?” युवती ने पूछा।
“ठाकुर”
“यानी छतरिय?”
“तो? इस कारण मुझे पानी नहीं मिलेगा।”
“हमने मना नहीं किया। लेकिन तुम जानते हो कि ऊँची जात वालों की गंदगी हम साफ़ करते हैं और वह लोग हमें रोटी टपकाकर देते हैं। सालन देने की कटोरी अलग हमसे छू जाते हैं तो सीधे गंगा स्नान के लिए दौड़ जाते हैं और बिराम्हनों का तो कुछ पूछों ही नहीं।”
“मैं यह सब जानता हूँ और मैं इस सबको नहीं मानता। यह सब ब्राम्हणों द्वारा पैदा किया गया है। मैं इस सबके सख्त खिलाफ हूँ अब और बातें नहीं बहन मुझे बहुत दूर जाना है लखनऊ। प्यास से गला सूख रहा है।”
बातें करते हुए युवती ने बाल्टी भरकर पानी ऊपर खींच लिया था।
“चुल्लू बाँधो पानी पियो। कोऊ देखि नहीं रहा है। जल्दी से अपना रास्ता पकड़ो। किसी ऊँची जाति वाले ने देख लिया तो हम लोगों की शामत आ जाएगी।”
सरजू ने स्थिति को समझा और तुरंत थैला और सोंटा एक ओर रख चुल्लू बाँध पानी पीने लगा। बाल्टी से पीने में परेशानी हो रही थी। आधा पानी नीचे गिर रहा और कुछ उसकी कमीज को भिगो रहा। पानी पीकर उसने सीधे खड़े होकर लंबी-सी डकार ली। युवती ने अनुभव से समझ लिया कि बालक खाली पेट था। बोली, “खाली पेट इतना पानी पीने से पेट में दर्द हो जाता है।”
“मेरे पेट में नहीं होता। तुमने प्राण बचा लिए. बड़ा उपकार किया।”
युवती कुछ नहीं बोली। सरजू ने सोंटा और थैला उठाया। थैले में कुछ कपड़े और रात के लिए सत्तू,गुड़ और एक कटोरा था। उसने सिर झुकाकर युवती को नमस्ते की और तेजी से सड़क पर बढ़ गया। विचार पुनः तेजी से उसके दिमाग़ में दौड़ने लगे थे।
रानी घाट में मकान बन जाने के बाद वह,पिता और उसकी बहन रानी उसमें रहने आ गए थे। बाबा की तबीयत खराब रहने लगी थी इसलिए उसके बापू पर बाबा का दबाव था कि बापू दूसरा विवाह कर लें। वह और रानी की देखभाल के लिए बाबा यह ज़रूरी समझ रहे थे। रानी सयानी हो रही थी और घर में सयानी लड़की का अकेले रहना बाबा महीपन सिंह उचित नहीं मानते थे।
कार्तिम पूर्णिमा के मेला के बाद बापू दूसरा विवाह करने के विषय में तेजी से सोचने लगे थे और दो माह में कर भी डाला था बहुत ही सादा विवाह। सौतेली माँ मक्खनपुर गाँव की थीं। बारात में वह नहीं गया था। बारात बैलगाड़ियों में गयी थी और उसे याद है कि गाँव के कुछ लोग ही गए थे। बीमारी के कारण बाबा भी नहीं गए थे। घर से बाबा के छोटे भाई सुजान सिंह, शिव प्रसाद चाचा और दुर्गा चाचा गए थे। दुर्गा चाचा का बेटा भी गया था। चार दिन गाँव में रहने के बाद वे सभी नई माँ के साथ रानीघाट वाले मकान में आ गए थे।
बापू की शादी को एक माह ही बीते थे कि बाबा नहीं रहे थे। बाबा के मरते ही बापू का गाँव जाने का सिलसिला कम हो गया था।