कानपुर टु कालापानी / भाग 8 / रूपसिंह चंदेल
सौतेली माँ के आने के बाद सरजू और रानी को घर अच्छा लगने लगा था। उससे पहले पिता जब थाने चले जाते दोनों भाई-बहन अकेले रहते और दिनभर उस बड़े मकान में दोनों का मन नहीं लगता था। उन्हें गाँव याद आता जहाँ दुर्गा प्रसाद और शिव प्रसाद के बच्चों के साथ वे खेलते। भरा-पूरा परिवार था। दोनों को लगने लगा था कि उन दोनों ने वहाँ आकर ग़लती की थी। वे गाँव जाना चाहते लेकिन पिता से कहने का साहस जुटा नहीं पाते थे।
बिपन सिंह ने जब दूसरा विवाह किया उनकी उम्र छत्तीस वर्ष थी। उनका पहला विवाह जब हुआ वह बीस वर्ष के थे और पुलिस में नौकरी कर रहे थे। उनकी पहली पत्नी अर्थात सरजू और रानी की माँ केवल पांच फीट लंबी थीं। सरजू के बाबा भी लंबे थे जबकि सरजू अधिक लंबाई न पा सका। जबकि रानी परिवार के अन्य लोगों की भांति अच्छी लंबाई ले रही थी।
बिपिन सिंह को दूसरी पत्नी से दो साल बाद एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम नन्हकू रखा गया। वास्तव में वह घर में पुकारने का नाम था, लेकिन वही नाम उस बालक के साथ चिपक गया था । नन्हकू के जन्म के बाद सौतेली माँ लछिमी देवी के स्वभाव में परिवर्तन शुरू हो गया था। वैसे उनका नाम लक्ष्मी देवी था, लेकिन पिता लछिमी और मोहल्ले वाले लछिमी बहू पुकारते थे।
घर से लगभग एक मील की दूरी पर नवाबगंज में एक स्कूल था और पुराना स्कूल था, जहाँ आठवीं तक पढ़ाई होती थी। सरजू का नाम स्कूल में लिखाने के लिए बिपिन सिंह वहाँ के हेड मास्टर मि। विल्सन से मिले थे। विल्सन बहुत सख्त अध्यापक था। वह चाहता था कि उसके स्कूल में जो भी बच्चा पढ़ने आए उसे अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान होना चाहिए. विल्सन के अलावा अन्य जो अध्यापक थे वे सब भारतीय थे। उनमें एक थे पंडित राम आसरे शुक्ल। शुक्ल रावतपुर के रहने वाले थे और बिपिन सिंह के परिचित थे। बिपिन सिंह सरजू के प्रवेश के लिए शुक्ल से मिले । शुक्ल ने आश्वासन दिया कि वह मिस्टर विल्सन से बात करेंगे। एक दिन शुक्ल बिपिन सिंह को लेकर विल्सन के पास गए. विल्सन टूटी-फूटी हिन्दी बोल लेता था। बिपिन सिंह के नवाबगंज थाने में तैनाती और राम आसरे शुक्ल की पहचान का होने के कारण उसने सरजू को प्रवेश की अनुमति तो दे दी, लेकिन शर्त रखी कि तीन माह में बालक को अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान पाना होगा। यदि वह नहीं पा सका तो प्रेवेश रद्द कर दिया जाएगा।
सरजू को जब पता चला कि पिता उसे स्कूल में प्रवेश दिलाने वाले हैं वह परेशान हो उठा। उसका मन बिल्कुल ही पढ़ने का न था, लेकिन पिता के समक्ष उसकी एक न चली और वह उसे कान पकड़कर एक दिन शुक्ल के पास जा पहुँचे। शुक्ल बालक को लेकर विल्सन के पास पहुँचे और सरजू को अंग्रेज़ी ज्ञान की जिम्मेदारी स्वयं पर ली। प्रवेश मिल गया।
तय हुआ कि स्कूल के बाद राम आसरे शुक्ल सरजू को अंग्रेज़ी पढ़ाने के लिए घर आया करेंगे। दूसरे दिन से ही शुक्ल घर आने लगे। स्कूल सुबह सात बजे शुरू होकर डेढ़ बजे समाप्त हो जाता था। शुक्ल जी दो बजे के लिए चल देते थे। यह सिलसिला दूसरे दिन से ही प्रारंभ हो चुका था। बिपिन सिंह ने लछिमी को कह रखा था कि वह शुक्ल जी के लिए दोपहर का भोजन तैयार कर दिया करे। भोजन के बाद सरजू की अंग्रेज़ी की पढ़ाई शुरू होनी थी। स्कूल से छूटकर सरजू पहले घर पहुँचता, शुक्ल जी बाद में। लछिमी शुक्ल से परदा करती इसलिए रानी शुक्ल के लिए थाली सजाती। भोजन के बाद सरजू को पकड़ा जाता। सरजू परेशान होता। समझ नहीं पाता कि वह कैसे राम आसरे शुक्ल और स्कूल से अपने प्राण बचाए. पढ़ाई का सिलसिला एक सप्ताह भी नहीं चला। सरजू ने दोनों से बचने के लिए उपाय निकाल लिया था।
उस दिन स्कूल से लौटते समय रास्ते में पड़ने वाले जामुन के पेड़ पर जामुन तोड़ने के लिए वह चढ़ गया। एक डाल पर बैठकर उसने कुछ दूरी पर लटकते जामुन के गुच्छे को तोड़ने की कोशिश की। उस दिन तय किया था कि वह देर तक जामुन के पेड़ पर चढ़ा रहेगा। वह चाहता था कि उसका इंतज़ार करके जब शुक्ल जी लौट जाएगें तब वह घर जाएगा और कोई बहाना बना देगा। इसप्रकार दो-चार बार करेगा तो शुक्ल जी आना बंद कर देंगे और उसे स्कूल से छूट मिल जाएगी। दूसरी डाल के एक गुच्छे को तोड़ने के लिए जैसे ही उसने हाथ बढ़ाया वह डाल टूट गयी जिसपर वह बैठा हुआ था। नीचे की डालों पर गिरता हुआ वह ज़मीन पर आ गिरा। पीठ और हाथ पैरों पर काफ़ी चोट आयी। वह बेहोश हो गया। उसे जब होश आया, घर में अपने को पड़ा पाया। घर में शोक छाया हुआ था। पास ही एक मोढ़े पर वैद्य जी बैठे हुए थे। पिता उसकी चारपाई पर बैठे थे और रानी सहमी हुई उसके सिरहाने खड़ी हुई थी।
उसने वैद्य जी की आवाज़ सुनी,”चिन्ता की कोई बात नहीं ठाकुर साहब। चोट है, ठीक होने में महीना लग जाएगा, लेकिन आप चिन्ता बिल्कुल न करें।”
वैद्य जी ने उसकी चोटों पर लेप लगाया, खाने और पीने की दवाएँ दीं और तीन दिन बाद आकर देखने की बात कहकर चले गए. पिता ने कुछ नहीं कहा और थाने के लिए चले गए. पिता के जाते ही सौतेली माँ ने उसे सुनाना शुरू किया और बहुत सुनाया। वह चुप चोट के दर्द से कराहता रहा। बाद में रानी ने बताया कि पंडित राम आसरे शुक्ल जब पेड़ के सामने से निकले तब उसे बेहोश देख उनके होश उड़ गए थे। वे ही कंधे पर लादकर उसे घर तक लाए थे।
रानी की बात उसने अन्यमनस्क भाव से सुनी थी।
और इस प्रकार वह स्कूल जाने और पढ़ाई से बच गया था।
सरजू की सौतेली माँ का व्यवहार उसके और रानी के प्रति दिन-प्रतिदिन खराब होता जा रहा था। वह उनकी बातों की परवाह नहीं करता था, लेकिन रानी प्रायः रोती रहती थी। एक दिन उसने पिता से रानी की पीड़ा बतायी। सौतेली माँ न केवल घर के सारे काम रानी से करवाती बल्कि काम समाप्त होने के बाद वह नन्हकू को उसकी गोद में डाल देती और पिता के आने तक मोहल्लादारी करती रहती। यदि रानी किसी बात का विरोध करती तब वह उसे इतना डांटती की रानी की आंखें बरसने लगतीं। यह सब देख सरजू बहुत कष्ट अनुभव करता और आख़िर उस दिन उसने एकांत पाकर पिता को रानी की परेशानी बतायी थी। सुनकर पिता चुप रहे थे।
पिता बहुत गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे। कम बोलने वाले। लेकिन जो बोलते वह अर्थपूर्ण होता। वह चुप अवश्य रहे थे, लेकिन अंदर से वह चुप नहीं थे। पिता के चेहरे के भाव से उसने समझ लिया था कि रानी के प्रति सौतेली माँ का व्यवहार उन्हें अंदर से परेशान किए हुए था। अब वह जब भी घर आते बिल्कुल ही चुप रहते थे। वह सौतेली मां, जिसे वे दोनों अम्मा कहते थे, से भी कम बातें करने लगे थे। इसका खामियाजा भी उन दोनों को भुगतना पड़ रहा था। घर के काम के साथ दोपहर की रसोई भी रानी बनाती थी, लेकिन उन दोनों को बिना अम्मा की अनुमति के भोजन की सुविधा नहीं थी। वह सुबह बापू के नाश्ता के बाद अच्छा नाश्ता कर लिया करती थी, लेकिन उस समय भी उन दोनों को इतना ही नाश्ता देती जिससे उन्हें दोपहर भोजन तैयार होने तक तेज भूख लग आती। परन्तु दोनों सौतेली माँ द्वारा दोपहर का भोजन परोसे जाने का इंतज़ार करते और वह दोपहर ढलने के बाद जब स्वयं भोजन कर लेती तब उन्हें देती। यह बात वह पिता से कहना चाहता, लेकिन रानी ने उसे रोक दिया था, “बापू पहले ही तेरी बातें सुनकर दुखी दिखाई दे रहे हैं उन्हें और दुखी न कर। खाना तो मिल ही रहा है मर थोड़े ही जा रहे हैं।”
बिपिन सिंह शांत नहीं थे। वे अगले ही अवकाश के दिन मसवान पुर अपने चाचा से मिलने गए थे। वैसे उन्हें अवकाश कम ही मिलता था। हर दिन नौकरी पर जाना होता। बंगाल में क्रान्तिकारियों की बढ़ती गतिविधियों की ख़बर कानपुर भी पहुँचने लगी थी और कुछ युवक सरकार के विरोध में एक जुट होने लगे थे। सरकार सतर्क थी। इसलिए पुलिस वालों को कभी कभी ही अवकाश मिलता था। आवश्यक काम होने पर बड़े अधिकारी की अनुमति से ही कोई छुट्टी ले पाता। उस दिन किसी प्रकार उन्हें अवकाश मिल गया था। चाचा सुजान सिंह घर पर ही थे। अब वह भी बूढ़े हो चुके थे और खेतों की ओर कम ही जाते थे। घर में ही रहते थे। पिता महीपन की मृत्यु के पश्चात चाचा ही बिपिन सिंह के लिए पिता तुल्य थे। जिस समय वह घर पहुँचे दोपहर हो रही थी। उन्हें आया देख दुर्गा और शिव के बच्चे उनके निकट आकर सरजू,रानी और नन्हकू के बारे में पूछने लगे थे।
भोजन के उपरांत बिपिन ने अपने आने का उद्देश्य बताया। सुनकर चाचा सुजान सिंह ने कहा, “रानी अब तेरह की हो रही है न!।”
“ सोलह की हो चुकी।” बिपिन चाचा को काका कहते थे।
“तुम ठीक कह रहे हो बिपिन बिटिया के लिए लड़का देखा जाना चाहिए. लड़का खोजने में कुछ समय लगेगा और फिर शादी करने में तब तक बिटेवा की उम्र और बढ़ जाएगी। ज़माना खराब है। ज़ालिम अंग्रेजों का शासन हमें लोगों से बात करनी चाहिए.”
“काका अब इस मसले को आप संभालें। लड़का देखने जाने के लिए मुझे छुट्टी न मिलने वाली। आप तीनों लोग एक अच्छा घर-वर देखकर बताएँ फिर आप जैसा कहेंगे रानी की शादी कर देंगे।”
“तुम चिन्ता न करो मैं कल से ही इस काम में लग जाउंगा।” सुजान सिंह ने हाथ उठाकर बिपिन को निश्चिन्त करते हुए कहा, “हाँ, एक बात सुन लो बिपिन भइया नहीं रहे तो इसका मतलब यह मत लेना कि यह घर तुम्हारा नहीं रहा। रानी की पालकी इसी दरवाज़े से जाएगी।”
“काका, मैं ख़ुद ही यह कहता इस ज़िन्दगी में मैं आप लोगों से अलग कैसे हो सकता हूँ। बाक़ी सरजू के बारे में कुछ कहना जल्दबाजी होगी। वह अभी बहुत छोटा है।”
“मेरा दिल ख़ुश हुआ बिपिन मैं कल से ही इस काम के लिए निकल पड़ूंगा।” सुजान सिंह ने कहा।
शाम ढलने से पहले ही बिपिन रानीघाट लौट आए थे।
काका सुजान सिंह ने कई माह की खोज के बाद बारामऊ गाँव में शंकर सिंह कछवाह के बेटा जसवंत सिंह के साथ रानी का विवाह सुनिश्चित कर दिया। बारामऊ गाँव भौंती से कुछ दूरी पर कालपी रोड से दो फर्लांग की दूरी पर था और मसवानपुर से चार-पांच मील दूर था।
शंकर सिंह कछवाह के एक ही संतान थी जसवंत। जसवंत पिता की भांति किसान था। उस समय उसकी आयु बाइस वर्ष थी। जैत माह में प्रचण्ड गर्मी के दिनों में रानी का धूमधाम से विवाह हुआ। दूल्हा गाँव से ही पालकी पर चढ़कर आया था। बारात को मसवानपुर के स्कूल में ठहराया गया था। तीन दिन रुकी थी बारात। बराती एक घोड़ी भी लाए थे, जिसे अगवानी के दौरान सुजान सिंह के दरवाज़े नचाया गया था। घोड़ी का नृत्य मुग्धकारी था।
आतिशबाजी और ढोल-नगाड़ों के साथ बारात सुजान सिंह के दरवाज़े पहुँची थी। नाश्ता के बाद सभी जनवासे लौट गए थे। जनवासे में ही बारातियों के भोजन की व्यवस्था थी। रात भावरें हुई थीं, लेकिन उन दिनों की परम्परा के अनुसार लड़की को विदा नहीं किया गया था। अगले दिन रात में कानपुर की नर्तकी सुरती बाई को बुलाया गया था। रातभर बाराती हण्डों की रोशनी में सुरती बाई के नाच का आनन्द लेते रहे थे।
तीसरे दिन बिना दुल्हन के बारात बारामऊ लौट गयी थी। शादी के बाद रानी सुजान सिंह के घर ही रही थी। नौ रात्रि में रानी के गौने की रश्म हुई थी। उस समय भी शंकर सिंह बीस लोगों के साथ सुजान सिंह के यहाँ आए थे। गौने का उत्सव भी एक प्रकार से शादी जैसा ही हुआ करता था। अगले दिन रानी सुन्दर ढंग से सजी बैलगाड़ी में अपनी ससुराल बारामऊ के लिए विदा हुई थी।
बेटी को ससुराल भेजकर बिपिन सिंह ने राहत की सांस ली थी।