कानपुर टु कालापानी / भाग 9 / रूपसिंह चंदेल

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रानी के जाने के बाद सरजू दुखी था। अब सौतेली माँ ने नन्हकू की जिम्मेदारी उसे सौंप दी थी। वह दिनभर उसे टांगे इधर-उधर घूमता रहता। प्रायः वह उसे लेकर गंगा किनारे की ओर निकल जाता। भूख से नन्हकू चीखता तब लौटता और लछिमी की डांट सुनता। भूख उसे भी लगी होती, लेकिन वह अपनी परवाह नहीं करता था।

दो वर्ष बीत गए. रानी ने बालक को जन्म दिया। पिता ने लछिमी को रानी के लिए लड्डू आदि बना देने के लिए कहा। लड्डू और बहुत-सी पौष्टिक सामग्री तैयार करवाकर पिता ने सरजू को बारामऊ भेजा। परम्परा के अनुसार मायके से ऎसी चीजें भेजी जातीं थीं जो जच्चा के शरीर को पुष्ट करती थीं। उन चीजों को लेकर पिता नहीं जाता था। मिट्टी के घड़ों को सुन्दर प्रकार से सजाया गया। सजाने के लिए घड़ों पर हल्दी और भिगोकर पीसे गए चावलों के लेप से चित्रकारी की गई. इस काम में हाथ बटाने के लिए रामरिख सिंह की पत्नी और मोहल्ले की अन्य स्त्रियाँ जुटी थीं। पौष्टिक सामग्री बनवाने में भी उन सबने हाथ बटाया था। घड़ों को सकोरों से ढककर उनके चारों ओर गीले आटे को लेप दिया गया था जिससे रास्ते में घड़ों में धूल प्रवेश न करे।

बिपिन सिंह ने सरजू के जाने के लिए एक तांगा की व्यवस्था की थी। लेकिन बाद में तय हुआ था कि तांगा मसवानपुर होकर जाएगा, जहाँ दुर्गा प्रसाद और शिव प्रसाद के बच्चे भी सरजू के साथ जाएगें। तांगा में पाखरी डाली गयी, फिर उसके ऊपर गलीचा, जिससे मिट्टी के घड़े ऊबर-खाबर रास्ते में हिचकोले खाने से टूटे नहीं।

मसवानपुर से दोनों चाचाओं के बच्चों को लेकर सरजू बहन के घर पहुँचा। बच्चे तीन दिन बारामऊ में रहे। तांगा बच्चों को छोड़कर नवाबगंज लौट गया था। तीन दिन बाद जसवंत सिंह सभी को मसवानपुर छोड़ गए. सभी ने रानी के बेटे के नाक-नक्श के विषय में पूछा, लेकिन सरजू ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया था। वह बस इतना ही बता पाया कि गोल-मटोल है बालक। कुछ दिनों बाद बिपिन भी नाती को बारामऊ जाकर देख आए और रानी को रानी घाट चलने का आग्रह किया, लेकिन शंकर सिंह ने यह कहकर जाने नहीं दिया कि बालक बहुत छोटा है और एक साल का होने के बाद वे स्वयं रानी और पोते को रानीघाट छोड़ जाएगें।

लेकिन वह दिन देखने के लिए बिपिन नहीं रुके. एक दिन वह थाने से घर लौटे तब बुखार में तप रहे थे। वैद्य को बुलाया गया। दवा दी गई लेकिन बुखार कम नहीं हुआ। मसवानपुर सूचना भेजी गई. दुर्गा और शिव ही नहीं सुजान सिंह बैलगाड़ी जोतकर बिपिन को देखने आए. हालत खराब होती गयी।

“बैद्य जी की दवा से भइया ठीक होंगे, मुझे संदेह है” शिव प्रसाद ने कहा।

“इन्हें इसी समय हमें अंग्रेज डॉक्टर को दिखाना चाहिए.” मोहल्ले के लोगों से डॉक्टर की जानकारी ली गई. एक पड़ोसी ने सीसामऊ में डॉक्टर की जानकारी ही नहीं दी बल्कि साथ चल पड़ा। सीसामऊ बैलगाड़ी ले जाई जाए या तांगा की व्यवस्था की जाए इस पर कुछ देर विचार हुआ और अंत में तांगा ले जाना तय हुआ। कठिनाई से नवाबगंज से तांगा बुलाया गया। जब वे बिपिन को लेकर डॉक्टर फ्रैंक के यहाँ पहुँचे, वह दवाखाना बंद करके जाने वाला था। वह एक भला डॉक्टर था। उसने कंपाउण्डर को ताला बंद करने से रोक दिया। सीढ़ियाँ उतरकर तांगा के निकट पहुँचा और मरीज की हालत देख तुरंत बिपिन को क्लीनिक के अंदर लाने के लिए साथ के लोगों को कहा।

शाम तक बिपिन और अन्य सभी लोग दवाखाना में रहे। डॉक्टर फ्रैंक दवा देकर लंच के लिए घर चले गए थे, उनके घर में ही उनका दवाखाना था। वह एक बड़ा मकान था, जिसके दो कमरों को डॉक्टर ने मरीजों के लिए रखा हुआ था। एक में उसका दवाखाना था और दूसरे में आपतकाल में आए मरीजों के लिए तीन बिस्तर डाल रखे थे। बिपिन को दूसरे कमरे में रखा गया। शाम तक बुखार कुछ कम हुआ। डॉक्टर फ्रैंक ने दो दिन की दवा देकर उन्हें घर भेज दिया।

लेकिन दूसरे दिन रात बिपिन को हृदयाघात हुआ। उनकी चीख से लछिमी और सरजू जाग गए. आधी रात बीत चुकी थी। चारों ओर सन्नाटा था। लछिमी ने सरजू को रामरिख के घर भेजा। सुनते ही रामरिख और उनका परिवार दौड़ा आया। रामरिख ने बेटे को थाने दौड़ाया, जिससे कोई सहायता मिल सके. बेटा दौड़ता हुआ वापस लौटा और बताया कि वहाँ एक सिपाही मिला उसे और वह भी सो रहा था। थानेदार अपने गाँव गया हुआ था, जो शिवराजपुर के पास था। बिपिन सिंह की पीड़ा बढ़ती जा रही थी। इस बार रामरिख थाने गए और अपने साथी सिपाही की सहायता से थाने से कुछ दूर सो रहे एक इक्केवाले को जगाया। इक्का सवारी ढोने के लिए नहीं था, लेकिन मरीज को डॉक्टर फ्रैंक के यहाँ ले जाने के लिए उस गहन रात में वही उपलब्ध था। इक्का से हर तरह का बोझ ढोया जाता था। इक्केवाले ने समझाने का प्रयास किया, लेकिन पुलिस के सामने किसी की कहाँ चलती है। ऊँघते इक्केवाले ने सो रहे घोड़े को किसी प्रकार जगाया। दिन भर का थका घोड़ा और इक्केवाला मन मारकर रामरिख के साथ बिपिन के घर पहुँचे। इक्के में दो दरियाँ बिछायी गयीं, जिससे मरीज को परेशानी न हो। इक्के में रामरिख और सरजू बिपिन के साथ बैठे। घर में पैसे नहीं थे, उसकी व्यवस्था रामरिख ने की। कुछ की व्यवस्था उनकी पत्नी ने की। उन्होंने अपने पास जोड़कर रखे चांदी के सिक्के और पांच गिन्नियाँ पति को दे दीं।

रामरिख ने अपने बेटे को मसवानपुर भेजा दुर्गा और शिव को संदेश देने के लिए.

डाक्टर फ्रैंक के यहाँ ले जाते हुए बिपिन की कराहट बंद हो गयी थी। सरजू और रामरिख ने सोचा कि उनका दर्द कम हो गया है और वह सो गए हैं, लेकिन ऎसा नहीं था। डॉक्टर फ्रैंक सुबह चार बजे जाग जाया करते थे और निवृत्त होकर अपनी कोठी की लॉन में कुछ देर टहलते और कुछ व्यायाम करते थे। उनका यह क्रम सुबह छः बजे तक चलता था। जब रामरिख बिपिन को लेकर उनके बंगले में पहुँचे डॉक्टर टहल रहे थे। गेट पर रामरिख की थाप सुनकर डॉक्टर के नौकर ने लपककर दरवाज़ा खोला, जो गेट के पास कुछ करता हुआ मालिक को टहलता देख रहा था।

डाक्टर फ्रैंक ने देखते ही कहा, “बहुत देर कर दी।”

डाक्टर की बात सुनते ही सरजू चीखकर पिता से लिपट गया, “हमें छोड़कर कहाँ चले गए बापू”।

रामरिख की आंखें भी झरने लगीं। बिपिन को चेक अप करने और उन्हें मृत घोषित करने के बाद डॉक्टर पुनः लॉन में जाकर टहलने लगा था। बिपिन सिंह का मृत शरीर जब घर पहुँचा उजाला हो गया था। सुनते ही लछिमी बिपिन के शरीर पर फैल गयी और चीख चीखकर रोने लगी। माँ को रोता देख नन्हकू भी चीखने लगा। सरजू भी एक ओर खड़ा रो रहा था। सुबह हो चुकी थी। पूरा मोहल्ला एकत्रित हो गया था। हर आँख भीगी हुई थी।

दुर्गा प्रसाद और शिव प्रसाद आ पहुँचे थे। लेकिन बिपिन के घर बाहर एकत्रित भीड़ और रोने-चीखने की आवाजों से उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि बिपिन दुनिया छोड़ चुके थे।

इक्केवाला तब भी वहीं रुका हुआ था। रामरिख उसके पास गए और बोले, “भाई, अपना मेहताना बताओ.”

“साहब, कैसा मेहनताना?”

चौंके रामरिख। “तुम मरीज को लेकर गए और लाए कुछ तो बनता ही है न!।”

“साहब, अगर मरीज को मैं सही सलामत वापस ले आता तब लेता न! गरीब हूँ लेकिन साहब इंसानियत है मुझमें। एक अच्छा खासा भरा पूरा परिवार उजड़ गया ना साहब एकौ पैसा न लेब। मेरे लायक कोई और सेवा हो तो बताएँ।” इक्केवाला घुघचाई आंखों से बोला।

“कुछ देर रुकना अभी आया।”

रामरिख दुर्गा और शिवा के पास पहुँचे, जो घर के बाहर दरी पर पड़े और सफेद चादर से ढके बिपिन के शरीर के निकट बैठे हुए थे। लछिमी और मोहल्ले की अन्य स्त्रियाँ पास बैठी सिसक रही थीं। सरजू पिता के पैरों के पास बैठा रो रहा था। दुर्गा की सलाह पर रामरिख ने अपने बेटे को उस इक्के में सुजान सिंह को ले आने के लिए भेजा। शिव प्रसाद भी साथ गए क्योंकि रानी को सूचना देनी थी। सुजान सिंह दोनों बहुओं और बच्चों के साथ घर को ताला बंद कर अपनी बैलगाड़ी से रानी घाट आ गए. उनकी बैलगाड़ी को रामरिख का बेटा हाँककर लाया था। रास्ते भर सुजान सिंह की बहुएँ रोती आयीं थीं।

दुर्गाप्रसाद इक्के में बारामऊ गए थे। सूचना मिलते ही उस घर में भी कोहराम मच गया था। रानी रोती बेहोश हो गयी थी। जसवंत ने अपनी बैलगाड़ी जोती और शिव प्रसाद, रानी और बेटे के साथ तुरंत रानी घाट के लिए चल पड़ा। रामरिख का बेटा इक्के से वापस लौटा। मसवानपुर गाँव में भी समाचार फैल गया था। गाँव के लगभग सत्तर लोग बिपिन के यहाँ आ पहुँचे थे। अंत्येष्टि के लिए जब अर्थी उठी तीन बज रहे थे। अर्थी उठने के समय का दृश्य दिल दहला देने वाला था। थानाध्यक्ष भी अपने चार सिपाहियों के साथ अंत्येष्टि के समय पहुँच गया था। बिपिन सिंह अपने उच्च अधिकारियों को बहुत प्रिय थे। इसलिए शहर भी समाचार भेजा गया था और दो भारतीय अधिकारी उनकी अंत्येष्टि में सम्मिलित हुए थे।

बिपिन सिंह की अंत्येष्टि के बाद सुजान सिंह परिवार सहित मसवानपुर लौट गए थे। परम्परा के अनुसार जसवंत भी लौट गए थे, जबकि रानी नहीं गई थी। तय हुआ था कि तेरहवीं मसवानपुर में की जाएगी और उसके लिए शिव प्रसाद ने लोटिया लेने के लिए गंगा घाट में सिर मुंडा लिया था। मात्र सफेद धोती और गले में ग़मछा लपेट शिव हाथ में गंगाजल से भरा लोटा थामे पैदल मसवान पुर लौटे थे। उनके साथ गाँव के कुछ युवक भी थे। दरअसल बिपिन सर्वप्रिय व्यक्ति थे। गाँव में ही उनका बचपन और रानीघाट का मकान बनवाने तक की आयु बीती थी और मकान बने भी बहुत वर्ष नहीं बीते थे। उसके बाद भी समय निकाल कर वह गाँव जाते ही रहे थे।

चार दिन बाद रानी घाट के मकान को ताला बंद करके रानी सौतेली मां,नन्हकू और सरजू के साथ मसवानपुर चली गयी थीं।

अंतिम संस्कार के बाद लछिमी रानीघाट वापस लौट आयी थी। सरजू भी साथ लौटा था, जबकि रानी अपनी ससुराल चली गयी थी।

पुलिस विभाग से बिपिन सिंह के नाम कुछ धनराशि लछिमी को मिली थी। उसे मिलने में छः माह का समय लगा था। इस दौरान सरजू कभी अपने घर, कभी मसवानपुर और कभी बारामऊ जाकर रहा था। वास्तव में पितृविहीन घर उसे काटने को दौड़ता था। हालांकि उसके प्रति लछिमी के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन हुआ था, फिर भी वह रुक नहीं पा रहा था। वह पुलिस वालों से मिला था और उनकी सलाह पर पुलिस कप्तान से मिलने के लिए शहर गया था। वह पिता के स्थान पर पुलिस की नौकरी करना चाहता था, लेकिन कप्तान, जो कि एक अंग्रेज था, ने दो टूक शब्दों के कहा था कि वह बहुत छोटा है और उसे नौकरी नहीं दी जा सकती और उसके पिता के स्थान को उसके अठारह साल का होने तक के लिए खाली नहीं छोड़ा जा सकता।

एक दिन जब वह बारामऊ में था, उसकी सौतेली माँ ने घर में ताला बंद करके चाभी रामरिख के घर छोड़कर नन्हके को संभाल अपने मायके चली गयी थीं। जब वह लौटा उसे घर में ताला बंद मिला। उसने मोहल्ले में पता किया तो ज्ञात हुआ कि लछिमी यह कहकर मायके चली गयी है कि वह उस मकान में किसके सहारे रहे। जीवन जीने का सहारा छिन चुका था और उसे यह जानकारी थी कि बिपिन सिंह और उसके ससुर महीपन सिंह ने अपने हिस्से के खेत अपने भाई को दे दिए थे। रामरिख सिंह के घर से चाबी लेकर सरजू घर के अंदर गया, जहाँ पिता की यादों ने उसे अपने आगोश में दबोच लिया था।