कानून का दरवाजा / सुकेश साहनी
"वकील बाबू, हम गंगा जल उठा के कहिसकित हय कि हमार बेटवा कुछु नहीं किहिस हय। आज पूरे सात दिन होइगे...वहिका जेल ते अब तो छुड़ा लेव।" बूढ़ा गिड़गिड़ा रहा था।
जिला प्रशासन की गाड़ियाँ शहर में दोपहर एक बजे से कर्फ्यू लगने की घोषणा करती हुई इधर-उधर दौड़ रही थी, पर बूढ़ा इससे बेख़बर वकील के आगे-पीछे हो रहा था।
"बाबा, सब ्रकरो...मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ।" कोर्ट में प्रवेश करते हुए वकील ने कहा।
मजिस्टेªट साहब और वकील एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। वे शहर के हालात के बारे में बातें करने लगे। बातचीत अंग्रेज़ी में ही हो रही थी। बूढ़ा मुँह बाए उन दोनों को देखे जा रहा था, उसकी समझ में वकील बाबू जमानत के लिए हाकिम से बहस कर रहे थे। मारे ख़ुशी के उसकी आँखें भीग गईं।
बात पूरी होते ही मजिस्टेªट ने कोर्ट छोड़ दिया। कर्फ्यू लगने में अब आधा घण्टा ही बचा था, वहाँ खड़े लोगों की भीड़ तेजी से बाहर की ओर बढ़ रही थी।
"जमानत होई गई?" बूढ़े ने पूछा।
"तुमने देखा, मैंने कितनी मेहनत से बहस की थी। सबकी बोलती बंद हो गई थी। अब कोर्ट ही उठ गया तो मैं क्या करूँ? मेरी फीस निकालो..."
"जमानत नहीं होई पाई," बूढ़े का चेहरा एकदम से बुझ गया। थोड़ी देर बाद थकी-थकी आवाज़ में बोला, "बेटा, भगवान तुम्हें सुखी रखे, तुम तो बहुत अच्छी बहस किए... हमरी क़िस्मत ही फूटी रही!"
उसने बंडी के जेब से सौ-सौ के नोट निकाले, जो वकील साहब ने झपट लिए। नोट जेब में ठूँसते हुए वे अपने स्कूटर की ओर तेजी से लपके।
"अब हम कब आइ?" बूढ़ा पूछ रहा था।
वकील साहब ने लापरवाही से कुछ कहा जो उनके स्कूटर की घरघराहट में दबकर रह गया। उन्हें बहुत जल्दी थी। आज उनके बेटे 'जिमी' का जन्मदिन था। कर्फ्यू लगने से पहले वह 'बर्थडे केक' खरीदते हुए घर पहुँच जाना चाहते थे।
-0-