कानून के दरवाज़े पर / फ़्रांज काफ़्का / सुकेश साहनी

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कानून के दरवाज़े पर एक रखवाला खड़ा हुआ है। उस देश का एक आम आदमी उसके पास आकर कानून के समक्ष पेश होने की इजाज़त माँगता है। मगर वह उसे भीतर घुसने की इजाज़त नहीं देता।

आदमी सोच में पड़ जाता है। फिर पूछता है — 'क्या कुछ समय बाद मेरी बात सुन ली जाएगी?

'देखा जाएगा' — रखवाला कहता है — 'पर इस समय तो कतई नहीं !'

कानून का दरवाज़ा सदैव की भाँति आज भी खुला हुआ है। आदमी भीतर झाँकता है।

उसे ऐसा करते देख रखवाला हँसने लगता है — 'मेरे मना करने के बावजूद तुम भीतर जाने को इतने उतावले हो तो फिर कोशिश करके क्यों नहीं देखते; पर याद रखना, मैं बहुत सख़्त हूँ; जबकि मैं दूसरे रखवालों से बहुत छोटा हूँ। यहाँ एक कमरे से दूसरे कमरे तक हर दरवाज़े पर एक रखवाला खड़ा हुआ है और हर रखवाला दूसरे से ज़्यादा ताकतवर है। कुछ के सामने जाने की हिम्मत तो मुझमें भी नहीं है।'

आदमी ने कभी सोचा भी नहीं था कि कानून तक पहुँचने में उसे इतनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। वह तो यही समझता था कि कानून तक हर आदमी की पहुँच हर समय होनी चाहिए। फ़र के कोटवाले रखवाले की नुकीली नाक, बिखरी-लम्बी काली दाढ़ी को नज़दीक से देखने के बाद वह अनुमति मिलने तक बाहर ही प्रतीक्षा करने का निश्चय करता है।

रखवाला उसे दरवाज़े के एक तरफ़ स्टूल पर बैठने देता है। वह वहाँ कई दिनों तक बैठा रहता है। यहाँ तक कि वर्षो बीत जाते हैं। इस बीच वह भीतर जाने के लिए रखवाले के आगे कई बार गिड़गिड़ाता है। रखवाला बीच-बीच में अनमने अन्दाज़ में उससे उसके घर एवं दूसरी बहुत-सी बातों के बारे में पूछने लगता है, पर हर बार उसकी बातचीत इसी फ़ैसले के साथ खत्म हो जाती है कि अभी उसे अन्दर प्रवेश नहीं दिया जा सकता।

आदमी ने सफर के लिए जो भी सामान इकट्ठा किया था और दूसरा जो कुछ भी उसके पास था, सब रखवाले को खुश करने में खर्च कर देता है। रखवाला उससे सब कुछ इस तरह से स्वीकार करता जाता है मानो उस पर अहसान कर रहा हो।

वर्षो तक आशा भरी नज़रों से रखवाले की ओर ताकते हुए वह दूसरे रखवालों के बारे में भूल जाता है! कानून तक पहुँचने के रास्ते में एकमात्र वही रखवाला उसे रुकावट नज़र आता है। वह आदमी जवानी के दिनों में ऊँची आवाज़ में और फिर बूढ़ा होने पर हलकी बुदबुदाहट में अपने भाग्य को कोसता रहता है। वह बच्चे जैसा हो जाता है। वर्षो से रखवाले की ओर टकटकी लगाए रहने के कारण वह उसके फर कॉलर में छिपे पिस्सुओं के बारे में जान जाता है। वह पिस्सुओं की भी ख़ुशामद करता है ताकि वे रखवाले का मन उसके पक्ष में कर दें। आख़िरकार उसकी आँखें जवाब देने लगती है। वह समझ नहीं पाता कि दुनिया सचमुच पहले से ज्यादा अँधेरी हो गई है या फिर उसकी आँखें उसे धोखा दे रही है। परन्तु अभी भी वह चारों ओर के अंधकार के बीच कानून के दरवाज़े से फूटते प्रकाश के दायरे को महसूस कर पाता है।

वह नज़दीक आती मौत को महसूस करने लगता है। मरने से पहले रखवाले से एक सवाल पूछना चाहता है, जो वर्षो की प्रतीक्षा के बाद उसे तंग कर रहा है। वह हाथ के इशारे से रखवाले को पास बुलाता है; क्योंकि बैठे-बैठे उसका शरीर इस कदर अकड़ जाता गया है कि वह चाहकर भी उठ नहीं पाता। रखवाले को उसकी ओर झुकना पड़ता है क्योंकि क़द में काफ़ी फ़र्क आ जाने की वजह से अब वह काफी ठिगना दिखाई दे रहा है।

'अब तुम क्या जानना चाहते हो' — रखवाला पूछता है — 'तुम्हारी चाहत का कोई अन्त भी है ?'

'कानून तो हरेक के लिए है।' — आदमी कहता है — 'पर मेरी समझ में यह बात नहीं आ रही कि इतने सालों में मेरे अलावा किसी दूसरे ने यहाँ घुसने की कोशिश क्यों नहीं की?'

रखवाले को यह समझते देर नहीं लगी कि वह आदमी अब अपनी अन्तिम घड़ियाँ गिन रहा है। वह उसके बहरे होते जा रहे कान में चिल्लाकर कहता है — 'किसी दूसरे के लिए यहाँ प्रवेश का कोई मतलब नहीं था, क्योंकि कानून तक पहुँचने का यह दरवाज़ा सिर्फ़ तुम्हारे लिए ही खोला गया था और अब मैं इसे बन्द करने जा रहा हूँ।'

अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुकेश साहनी