काम का पहिया / कामतानाथ

Gadya Kosh से
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गुरू रामप्रसाद ने आइक-माइक रिक्शे में पटक दिया और अंदर कोठरी में आकर कुर्ता उतारने लगे। कुर्ता उतारकर उन्होंने उसे खूंटी पर टांग दिया, सुराही से एक गिलास पानी लेकर पिया, तब जेब से खैनी निकाल कर बनाई और चुटकी से उसे होंठ में दबाकर चारपाई पर दीवाल का सहारा लेकर अधलेटे हो गए।

रिक्शेवाला कुछ देर उनकी प्रतीक्षा करता रहा। जब वह लौटर नहीं आए तो उसने अंदर झांककर आवाज दी, ‘नेताजी, चलना नहीं है?’’

गुरू ने सुना, परंतु कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने अखबार उठा लिया था और नाक पर चश्मा चढ़ाकर उसे बांचने लगे थे।

दामोदर प्रसाद अंदर हाल में बैठे विक्टोरिया मिल के बिनता विभाग के फजलुद्दीन का केस स्टडी कर रहे थे। रिक्शेवाले की तीसरी या चौथी आवाज पर वह उठकर बाहर आ गए। चौधरी बाहर दीवाल पर कल की हड़ताल का पोस्टर चिपका रहा था।

‘गुरु कहां गए?’ दामोदर प्रसाद ने चौधरी से पूछा।

‘अभी तो यहीं थे।’ चौधरी ने उत्तर दिया।

दामोदर प्रसाद ने अंदर झांककर देखा। गुरू अपनी कोठरी में चारपाई पर बदस्तूर लेटे अखबार का अध्ययन कर रहे थे।

‘क्यों एनाउन्समेंट करने नहीं जाओगे?’ दामोदर प्रसाद ने पूछा।

गुरू ने कोई उत्तर नहीं दिया।

‘कुछ बोलोगे मुंह से। यह रिक्शा जो बुलाकर खड़ा कर लिया है इसका चार रुपये घंटा यहीं खड़े रहने का भरा जाएगा क्या?’

‘खड़े रहने का भरा जाए या पड़े रहने का भरा जाए, मुझसे मतलब नहीं है। जिसको सौ बार गरज हो वह जाए एनाउन्समेंट करने।’

‘क्यों, हो क्या गया? अभी तो अच्छे खासे टेस्टिंग-टेस्टिंग चिल्ला रहे थे! इतनी देर में आखिर कौन-सी मक्खी छींक गई?’

‘मेरे मुंह न लगो। अपना काम करो जाके। मैं न जाऊंगा कहीं। जिसको नेतागीरी करनी हो वह जाए एनाउन्समेंट करने।’

दामोदर प्रसाद समझ गए कि अब साक्षात् कार्ल मार्क्स ही क्यों न आ जाएं गुरू न उठेंगे। लेकिन वह यह नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर इतनी देर में हो क्या गया। अभी थोड़ी देर पहले जब तक माइक नहीं आया था, गुरू सड़क पर बेचैन टहल रहे थे। कभी ऊंट की तरह गर्दन उठाकर चौराहे की तरफ ताकने लगते तो कभी यों ही कमर पर दोनों हाथ रखे बरांडे में ही वर्जिश जैसी करने लगते। आखिर जब माइक वाला आया तो खासी फटकार उन्होंने उसे पिलाई तब लाउडस्पीकर सेट करवा कर रिक्शे में बंधवाया और माइक टेस्ट करने लगे-‘हलो, टेस्टिंग, एक, दो, तीन, चार। हलो, टेस्टिंग, चार, तीन, दो, एक।’ और तभी अचानक माइक रिक्शे में पटक कर अंदर चले आए।

दामोदर प्रसाद ने चौधरी से कहा, ‘जाओ तुम पोस्टर छोड़ दो। एनाउन्समेंट पर निकल जाओ।’

‘मुझको लेबर कोर्ट भी तो जाना है। गौरी वाले केस की सुनवाई होनी है आज।’

‘वह मैं देख लूंगा। यह काम जरूरी है। इसे निबटा आओ पहले।’

‘गुरू क्या कर रहे हैं?’

‘गुरू नखरा कर रहे हैं। पहली मर्तबा थोड़े है यह। तुम्हें आदत मालूम नहीं है उनकी।’ और वह गुरू की ओर मुड़कर बोले, ‘कसम है तुमको भी जो अब चारपाई से उठे। जब तक हड़ताल न हो जाए इसी पर पड़े रहना।’

‘इस पर क्यों पड़ा रहूंगा,’ गुरू ने कहा, ‘कोई अपाहिज हूं क्या? जो मर्जी आएंगी करूंगा।’

‘हां, जो मर्जी आए करना। मगर हड़ताल की मीटिंग, सभा या किसी मिल गेट पर न आना जो असली मर्द की औलाद होना तो।’

‘जाओ-जाओ अपना काम देखो। मेरे मुंह न लगो नहीं तो अभी यहीं धो के रख दूंगा।’

चौधरी माइक लेकर रिक्शे में बैठ चुका था। ‘दोस्तो, आपसे अपील है, गुजारिश है, कि कल की हड़ताल को कामयाब बनाने के लिए आज शाम परेड के मैदान में आयोजित आम सभा में भारी संख्या में शामिल हों। दोस्तों...।’

रिक्शा आगे बढ़ गया तो दामोदर प्रसाद वापस हाल में आ गए।

गुरू अखबार बिस्तर पर रखकर रोशनदान में बने गौरेया के घोंसले को निहारने लगे थे। पूरी जिंदगी उन्होंने पार्टी के लिए होम कर दी थी। न शादी-ब्याह किया, न तंदुरुस्ती देखी, न पैसा। अभी पिछले महीने अपनी पेंशन से रुपये बचाकर हॉल में पंखा लगवाया था उन्होंने नहीं तो गर्मी के दिनों में बैठना दूभर होता था यहां। मीटिंग, सभा में मजदूरों की हालत खराब हो जाती थी। पिछले वर्ष सामने की सड़क ठीक कराई थी। जगह-जगह बड़े-बड़े गढ़े बन गए थे जिनमें अक्सर पानी भर जाता। दिन-भर सूअर लोटते रहते। कार्पोरेशन को लिखते-लिखते हारकर एक दिन गुरू खुद मूलगंज से मजदूर पकड़ लाए। बाजार से तीन-चार बोरी गिट्टी, मौरंग, सीमेंट वगैरह लाए। साथ में खुद जुट गए दुर्मुट लेकर और शाम तक पूरी सड़क ठीक कर दी।

आज से पचास साल पहले, सत्रह साल की उम्र में वह गांव से भागकर इस शहर में आए थे। कुछ दिन पहलवानी और दादागिरी की, तब कुछ दिनों विक्टोरिया मिल में काम किया। उसके बाद लाल इमली में काम करने लगे। उन दिनों मिलों में सारे हाकिम अंग्रेज हुआ करते थे। बड़े दिन पर मिल बंद रहता लेकिन मजदूरों को उस दिन का वेतन नहीं मिलता। इसी बात को लेकर गुरू ने मांग उठाई कि हमें बड़े दिन की छुट्टी नहीं चाहिए। हमारी मर्जी के खिलाफ मिल बंद किया जाए तो हमें उस दिन का पूरा वेतन दिया जाए। नहीं तो हम मिल में काम करेंगे, हमें अड़े-बड़े दिन से कोई मतलब नहीं। इसी मांग को लेकर गुरू ने हड़ताल की नोटिस दे दी। अंग्रेज हाकिम ने गुरू को बुलाकर डराया-धमकाया और नौकरी से निकाल देने की चेतावनी दी। इस पर गुरू ने जम कर उसे शुद्ध हिंदुस्तानी में गालियां दीं। गोरे हाकिम ने गुरू को वहां से निकल जाने का आदेश दिया तो गुरू और तैश में आ गए। उन्होंने कहा, ‘निकलूंगा मैं नहीं, निकलोगे तुम। यह मिल तुम्हारे बाप की नहीं है। इसमें इस देश की पूंजी लगी है। और इस मिल से ही नहीं इस देश से भी निकाले जाओगे तुम।’ इतना कहकर गुरू ‘वंदे मातरम्’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे लगाने लगे। नतीजा यह हुआ कि गुरू को पकड़ कर तुरंत जेल भेज दिया गया। मगर दूसरे दिन से ही मिल में हड़ताल हो गई। सारा काम ठप्प हो गया।

दूसरे विश्वयुद्ध का जमाना था। मिल से कपड़े-कम्बल आदि बनकर जवानों को मोर्चों पर भेजे जा रहे थे। मिल में हड़ताल हो गई तो गोरे हाकिम का माथा चकराया। उसने बहुत हाथ-पांव मारे मगर हड़ताल बराबर बनी रही। अंततः उसने हारकर कम्युनिस्ट नेताओं से मदद मांगी। हिटलर के खिलाफ कम्युनिस्ट अंग्रेजों की मदद कर रहे थे। अतः वे मान गए। मगर मजदूरों ने उनकी भी एक न सुनी। उन्होंने साफ कह दिया कि जब तक गुरू रामप्रसाद लौट कर नहीं आते, काम का चक्का जमा रहेगा। कामरेड प्यारेलाल, बालकृष्ण शर्मा, मौलाना युसुफ जैसे जाने-माने कम्युनिस्ट नेताओं ने बीच-बचाव किया। जेल जाकर गुरू रामप्रसाद से भेंट की उन्होंने। अंग्रेज हाकिम को भी समझाया-बुझाया। अंततः सरकार ने हार मानकर गुरू को बिना शर्त रिहा कर दिया। मिल में पुनः काम शुरू हो गया। मगर गुरू ने काम करने से इंकार कर दिया। उन्होंने कसम खाई कि भीख मांग लेंगे मगर जीते जी अंग्रेजों की नौकरी नहीं करेंगे।

अंग्रेज इस देश से चले भी गए मगर गुरू ने दोबारा नौकरी नहीं की। सारा जीवन पार्टी को समर्पित कर दिया। वह अधिक पढ़े-लिखे नहीं थे। फिर भी उन्हें मजदूर सभा का ज्वाइंट सेक्रेटरी बना दिया गया। बाद में वाइस प्रेसीडेंट और तब प्रेसीडेंट बने। कितनी ही बार वह जेल गए। अंग्रेज सरकार के जमाने में तो गए ही, बाद में कांग्रेस सरकार के जमाने में भी जाने कितनी बार महीनों जेल की रोटियां खाईं उन्होंने।

इस बीच कितने ही लोग पार्टी में आए, अपना उल्लू सीधा किया और चलते बने। कुछ वैचारिक मतभेद का बहाना बना कर चले गए। कुछ वैसे ही निकल गए। मगर गुरू आज तक अपनी आस्था से नहीं डिगे। नतीजा यह हुआ कि गुरू मजदूर सभा के छोटे-से दायरे में पड़े रहे, और लोग आगे निकल गए। कोई एम. पी. हो गया, कोई एम. एल. ए. या एम. एल. सी। और गुरू वही ठनठन गोपाल। क्या मिला उन्हें आज तक इस पार्टी से? सरकारी पेंशन? वह गुरू ने अपने बलबूते पाई। स्वतंत्रता संग्राम में जेल जाने के कारण। उसमें पार्टी का क्या योगदान! हां एक बार रूस घूमने को मिला। पर वह भी यहां वालों की कृपा से नहीं। यहां के नेताओं से कह-कहकर तो उनकी जबान घिस गई मगर किसी ने कोई तवज्जोह नहीं दी। जबकि पार्टी में जिनकी जुम्मा-जुम्मा पांच साल की मेम्बरी भी नहीं थी वह भी रूस घूम आए थे। नेताओं के बच्चे तो पूरी तरह से जवान भी नहीं होने पाते थे कि पढ़न के लिए रूस चले जाते थे। मगर गुरू को किसी ने घास नहीं डाली। तभी एक बार गुरू कामरेड देसाई से टकरा गए। गुरू ने उनसे सीधे सवाल किया, ‘कामरेड क्या इस पार्टी में भी सिर्फ पैसे वालों की ही कदर है?’

‘क्या बात है?’ कामरेड देसाई ने पूछा तो गुरू ने बताया, ‘पिछले चालीस साल में मैं पार्टी की सेवा कर रहा हूं। होलटाइमर हूं पिछले दस-बारह साल से। पार्टी से एक पैसा भी नहीं लिया। उल्टे अपनी पेंशन के पैसे से पार्टी की मदद की है। मेरी भी इच्छा है कि एक बार रूस घूम आऊं। दस साल से बराबर सबकी खुशामद कर रहा हूं मगर और पैसे वाले लोग, डाक्टर, वकील वगैरह जिनकी साल दो साल की मेम्बरी भी नहीं होती, चले जाते हैं और मैं यहीं बैठा हूं। साठ साल का होने को आ रहा हूं। जिंदगी का कोई ठीकाना है, आज हूं कल नहीं। बस एक बार महान लेनिन के दर्शन करना चाहता हूं। सुना है क्रेमलिन में उनकी लाश शीशे में बंद रखी है। मगर लगता है मेरी यह इच्छा पूरी नहीं होगी।’ कामरेड देसाई ने उस समय तो कुछ नहीं कहा मगर दिल्ली लौटने के पंद्रह दिनों के अंदर ही गुरू के नाम उनका तार आया जिसमें उन्हें तुरंत दिल्ली बुलाया गया था। गुरू और लोगों से तार की बात छिपा गए और गांव जाने का बहाना बनाकर दिल्ली चले आए। सब इस बात पर चौंके जरूर कि आज तक गुरू कभी गांव नहीं गए थे, यह अचानक उन्हें गांव जाने की क्या सूझी? मगर असल बात की भनक भी उन्हें नहीं लगी।

गुरू दिल्ली पहुंचे तो रूस जाने के लिए उनके कागज बनकर तैयार थे। तीसरे या चौथे दिन हवाई जहाज पकड़ना था। गुरू कोई तैयारी करके नहीं गए थे। लेकिन उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई। कामरेड देसाई ने ही हाथों-हाथ उनका पासपोर्ट बनवाया, किसी कामरेड ने उन्हें अपनी पतलून दी तो किसी ने अपना ओवरकोट, किसी ने कमीज तो किसी ने कुछ और सामान। हां जूते जरूर उन्होंने नए खरीदे और निश्चित दिन हवाई जहाज में बैठकर मास्को के लिए रवाना हो गए।

मास्को पहुंचने पर सबसे पहले गुरू की डाक्टरी हुई। और सब तो ठीक था मगर उनके दांतों में पायरिया था। इसी कारण उनके कई दांत गिर चुके थे। शेष दांत भी उन लोगों ने उखाड़ दिए और उनके लिए नकली दांतों का एक सुंदर सेट बना दिया। सेट बनने में तीन-चार दिनों का समय लगा। इस बीच गुरू बिना दांत के ही घूमते रहे। उसके बाद दांत लगाकर घूमे। तीन हफ्तों का उनका टूर था। उन्होंने जमकर रूस घूमा। जार्जिया, ताशकंद, बुखारा, मास्को, लेनिनग्राद आदि अनेक स्थानों का भम्रण किया उन्होंने। काले सागर के बरफ जैसे ठंडे पानी में स्नान किया। जमीन के नीचे वाली मेट्रो रेल में यात्रा की। कितने ही कारखाने और सामूहिक फार्म देखे। और सबसे बढ़कर क्रेमलिन में लेनिन की समाधि देखी। पारदर्शी शीशे के केस में उन्होंने इस महान क्रांतिकारी को दाहिने हाथ की मुट्ठी ऊपर उठाए हुए लेटे देखा तो उन्हें लगा कि उनका जीवन धन्य हो गया। भारत के और उनके नगर के भी कितने ही साथी उन्हें वहां मिले। लुमुम्बा विश्वविद्यालय में अचानक कामरेड लतीफ की लड़की भी उन्हें मिल गई जिसे उन्होंने गोद में खिलाया था। दूर से ही वह उन्हें देखकर ‘गुरू अंकल, गुरू अंकल’ चिल्लाती हुई आई और उनसे लिपट गई। गुरू बहुत प्रसन्न हुए।

जगह-जगह उनके सम्मान में छोटे-बड़े आयोजन हुए। जार्जिया में तो वह एक जगह फंस गए। उनके अनुरोध पर उनकी दुभाषिया लड़की उन्हें एक किसान परिवर में ले गई। गुरू के सम्मान में उस परिवार की लड़िकयों ने डांस किया और डांस करते-करते उन्होंने गुरू को भी खींच लिया। गुरू ने डांस करना तो दूर रहा कभी डांस देखा भी नहीं था। फिर भी वोडका के नशे में गुरू कुछ देर नाचे।

तीन हफ्ते बाद गुरू मास्को हवाई अड्डे पर अपने रूसी और भारतीय मित्रों को ‘दसबिदानिया’ और ‘पशीवा’ कहते हुए लौटै तो वह एक दूसरे ही आदमी थे।

यहां आकर मजदूर सभा के सड़ियल दफ्तर में गुरू बढ़िया पतलून, ओवरकोट और सिर पर फर की टोपी, जो उन्होंने समरकंद में खरीदी थी, पहने घुसे तो सारे साथी उठकर खड़े हो गए। कोई उन्हें पहचान नहीं पाया। गुरू उन्हें इस हालत में देखकर हंसे तो उनकी बढ़िया नफीस रूसी बत्तीसी देखकर लोग और भी चौंके। तब गुरू ने सिर से फर की टोपी उतारकर हाथ में लेते हुए कहा, ‘पशीबा, दसबिदानिया कामरेड्स।’

‘अरे यह तो अपने गुरू हैं।’ लोगों ने कहा, ‘क्या हो गया गुरू तुमको? कहां से आ रहे हो?’

‘स्ट्रेट फ्राम मास्को।’ गुरू ने अंग्रेजी में उत्तर दिया तो लोगों के आश्चर्य की सीमा नहीं रही।

गुरू अपने साथ वोडका की दो बोतलें लाए थे। उसी दिन प्रोफेसर शुक्ला के घर पर तमाम वरिष्ठ साथियों की मौजूदगी में गुरू ने दोनों बोतलें खोलीं और देर तक रूस यात्रा के अपने संस्मरण सुनाते रहे।

कुछ दिनों गुरू का काफी नक्शा रहा। सभी उनसे सम्मान से बात करते। गुरू भी जब किसी सभा मीटिंग में भाषण देते तो अपनी रूस यात्रा का हवाला देना न भूलते। लेकिन धीरे-धीरे गुरू फिर वही टुकाची गुरू हो गए। रूस से जितना सामान वह लेकर लौटे थे वह भी यार लोग धीरे-धीरे उड़ा ले गए। किसी ने उनकी खुशामद दरामद करके उनका ओवरकोट ले लिया तो किसी ने पतलून और किसी ने फर वाली टोपी। एक घड़ी भी गुरू लाए थे रूस से। वह उन्होंने दामोदर प्रसाद के लड़के को उसके जन्मदिन पर भेंट कर दी। इस तरह वह फिर धोती, कुर्ता और सदरी पर उतर आए और पहले के ही समान उनकी उपेक्षा होने लगी। बस इतनी इज्जत उनकी जरूर बची रही कि मजदूर सभा की मीटिंगों में सदारत के लिए उन्हें बिठा दिया जाता। लेकिन यह तो साथियों की मजबूरी थी। गुरू मजदूर सभा के अध्यक्ष जो थे। वह भी शायद इसलिए कि पार्टी के आंतरिक झगड़ों के कारण सात-आठ साल से नए चुनाव नहीं हो पा रहे थे अन्यथा शायद यह पद उनसे छिन ही जाता। इसके बावजूद आज जब उन्होंने हड़ताल वाले पोस्टर में दामोदर प्रसाद का नाम देखा और अपना नाम नदारद पाया तो उनके तन-बदन में जैसे आग ही लग गई। हड़ताल सभी जनवादी और वामपंथी पार्टियों के संयुक्त आवाहन पर हो रही थी और सभी के मजदूर संगठनों के महासचिव और अध्यक्ष के नाम पोस्टरों में छपे थे। लेकिन मजदूर सभा के नाम पर केवल महासचिव दामोदर प्रसाद का नाम ही छपा था। गुरू को पूरा विश्वास था कि उनका नाम जानबूझ कर नहीं दिया गया है, लेकिन अगर गुरू कुछ कहते तो उनको समझा दिया जाता कि पोस्टर दूसरी पार्टी वालों ने छपवाएं हैं। उन्हीं की गलती है। इसीलिए गुरू खामोश रह गए।

लगभग सारी दोपहरी गुरू अपनी कोठरी में पड़े रहे। अपनी पेंशन का आधा पैसा वह दामोदर प्रसाद को दे देते थे जिसके बदले में उनके घर से दोनों वक्त उनके लिए खाना आता था। आज उनका लड़का खाना लेकर आया तो गुरू ने तबियत ठीक न होने का बहाना बनाकर उसे वापस कर दिया।

पांच बजे से परेड मैदान में सभा होनी थी। साढ़े चार के आसपास गुरू उठे। मुंह धोया, कुर्ता-सदरी पहनी और परेड की ओर चल दिए। लेकिन वह सभास्थल पर नहीं गए बल्कि उससे थोड़ी दूर चाय के एक स्टाल पर जाकर बैठ गए। सभा में मजदूरों का जमाव शुरू हो गया था। माइक पर जोरों से नारे लगाए जा रहे थे-

दुनिया के मजदूरों-एक हो।

दुनिया के मेहनतकशों-एक हो।

कल का दिन याद रहे-कारखानों में हड़ताल रहे।

काम का पहिया-जाम करेंगे।

कौन करेगा-हम करेंगे।

बोल मजूरा हल्ला बोल-हल्ला बोल हल्ला बोल।

रोटी चाहिए हल्ला बोल-हल्ला बोल हल्ला बोल।

कपड़ा चाहिए हल्ला बोल-हल्ला बोल हल्ला बोल।

दो-एक मजदूर उधर से निकले तो उन्होंने गुरू से सभास्थल पर चलने को कहा मगर गुरू ने टाल दिया। ‘तुम चलो हम आते हैं।’

काफी देर तक नारे लगते रहे। तब सभा की कार्यवाही शुरू होने से पहले लोगों से ‘शांत हो जाएं।’ ‘अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लें।’ आदि की अपील होने लगी। तभी एनाउन्समेंट हुआ, ‘गुरू रामप्रसाद जहां भी हों मंच पर आ जाएं। एनाउन्समेंट सुनकर गुरू के बदन में झुरझुरी-सी हुई, मगर गुरू अपना दिल मजबूत किए चुपचाप बैठे रहे। उन्हें दामोदर प्रसाद के सुबह वाले शब्द याद आए कि असली मर्द की औलाद होना तो हड़ताल संबंधी किसी मीटिंग, सभा में न आना। तभी चौधरी भागा-भागा उनके पास आया। ‘चलिए न आपको बुलाया जा रहा है।’

‘तुम जाओ अपना काम करो।’ गुरू ने उसे झिड़क दिया, ‘मुझको आना होगा तो खुद चला आऊंगा। न्योता भेजने की जरूरत नहीं है।’

चौधरी चला गया। गुरू भी उसके जाते ही उठ खड़े हुए। वह जानते थे कि अगर अधिक देर वह वहां बैठे तो अभी कामरेड भल्ला, प्रोफेसर शुक्ला, अब्दुल रहमान वगैराह आकर उन्हें जबर्दस्ती उठा ले जाएंगे। सभी जानते थे कि उनके सहयोग के बिना और चाहे सभी जगह हड़ताल हो जाए, लाल इमली में नहीं हो सकती। वहां अभी भी गुरू की ही तूती बोलती थी। उनके एक इशारे पर वहां का मजदूर मरने-मारने को तैयार रहता था। इसीलिए उन्हें मंच पर बुलाया जा रहा था। वर्ना कितनी ही बार जब विदेशी डेलीगेशन यहां आया है और प्रोफेसर शुक्ला या डॉ. बंसल के घर पर व्हिस्की की दावतें उड़ी हैं तो किसी को गुरू का सपने में भी ख्याल नहीं आया।

वहां से उठकर गुरू नई सड़क की ओर आ गए। सात बजने वाले थे। गुरू के पांव अपने आप पल्टन गद्दी की ओर मुड़ गए। वहां जाकर उन्होंने सौ ग्राम माल्टा लिया और वहीं खड़े-खड़े बिना आनी-पानी मिलाए गले से नीचे उतार गए और बाहर आकर धनिया के आलू लेकर खाने लगे। आलू खाकर पत्ता उन्होंने वहीं फेंक दिया और देर तक जगमगाती जागती सड़कों पर मजाज के शब्दों में नाशाद-ओ-नाकारा घूमते रहे। तब सौ ग्राम उन्होंने और चढ़ाई और उसे चढ़ाकर रोटी वाली गली में खाना खाने चले गए।

वह जानते थे कि लौट कर अपनी कोठरी में जाएंगे तो साथी लोग उन्हें वहीं घेर लेंगे। अतः डेरे पर न जाकर उन्होंने मूलगंज से स्टेशन के लिए रिक्शा किया और एक नंबर प्लेटफार्म पर आकर एक खाली बेंच पर बैठ गए। काफी देर तक वह वहां बैठे रहे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहां जाएं। शहर में दो-एक ठिकाने उनके और थे मगर उनकी जानकारी भी साथियों को थी। इसीलिए वह वहां भी जाना नहीं चाहते थे। उन्होंने तय कर लिया था कि इस बार वह अपनी अहमियत जताकर ही रहेंगे। यही तो उनकी कमी थी जिसका फायदा लोग उठा रहे थे। तीन सौ रुपये केंद्र से और दो सौ रुपये राज्य से स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की पेंशन मिलती थी उन्हें। इतना पैसा उनके लिए काफी था। किसी भी मायने में वह किसी के मुहताज नहीं थे। आज तक उन्होंने पार्टी को दिया ही दिया था, लिया कुछ नहीं था।

एक बार उन्होंने सोचा कि इसी बेंच पर बैठे-बैठे रात गुजार दें। लेकिन वहां अच्छा-खासा शोरगुल हो रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में गाड़ियां आ-जा रही थीं। आखिर कोई बारह बजे वे उठे और यार्ड में जाकर खाली गाड़ी के एक डिब्बे में लेट कर सो गए।

सुबह कोई साढ़े चार बजे उनकी आंख खुली। वहीं गाड़ी में वह निवृत्त हुए। तब प्लेटफार्म पर आकर दातुन बेचने वाले एक लड़के से दातुन लेकर दातुन-कुल्ला आदि किया और हाथ-मुंह धोकर स्टेशन से बाहर आ गए। सामने एक दुकान पर गरमागरम जलेबियां बन रही थीं। उन्होंने सौ ग्राम जलेबी और सौ ग्राम दही का नाश्ता किया। डकार लेकर पान की दुकान से एक सिगरेट लेकर सुलगाई और वहीं सड़क पर खड़े होकर कश मारने लगे। साढ़े पांच बजने वाले थे। उन्होंने सोचा अब तक सब साथी लोग मिलों के गेटों पर पहुंच चुके होंगे। छः बजे सीटी बोलती है। रात की पारी के लोग बाहर निकलते हैं। सुबह की पारी वाले अंदर जाते हैं।

‘और चाहे जहां जो भी कर लें, लाल इमली में इनकी दाल गलने वाली नहीं।’ उन्होंने मन ही मन सोचा। लाल इमली के कुछ मजदूरों ने शाम की मीटिंग में जब उनका नाम पुकारा जा रहा था, उन्हें चाय की दुकान पर बैठे देखा था। दो-एक ने उन्हें ‘लाल सलाम’ भी किया था। बात जरूर फैल गई होगी कि गुरू नाराज हैं।

तभी उनके मन में आया चलो चलकर देखते हैं क्या रंग हैं। गेट के सामने नहीं जाऊंगा, दूर से ही देखूंगा, उन्होंने सोचा और सामने खड़े रिक्शे पर चढ़कर बैठ गए। बोले, ‘लाल इमली चलो।’

रिक्शा वाला चल दिया।

परेड चौराहे तक ही रिक्शा पहुंचा होगा कि छः बजे की सीटी बोल गई।

सीटी सुनते ही गुरू जैसे पगला गए।

‘जल्दी चलो भाई जल्दी। और जल्दी। जरा जोर से पैडल मारो न।’

दूर से ही उन्होंने देखा कामरेड भल्ला गेट के सामने लकड़ी के तखतों से बने मंच पर खड़े माइक पर बोल रहे थे, ‘साथियों, आज की इस हड़ताल का हमारी जिंदगी और देश की जिंदगी में एक खास महत्त्व है। आज देश की जो हालत आप देख रहे हैं...।’

लेकिन गुरू के कानों में एक शब्द भी नहीं जा रहा था। उनकी निगाह गेट पर थी जहां साथी पिकेटिंग कर रहे थे। वे गेट के सामने जमीन पर लेटे थे, मगर मजदूर लेटे हुए साथियों को फलांग कर गेट के अंदर घुस रहे थे।

जब तक रिक्शा वहां पहुंचे-पहुंचे गुरू रिक्शे से फांद पड़े। दूसरे ही क्षण वह लपक कर मंच पर चढ़ गए और कामरेड भल्ला को एक ओर ढकेल कर माइक हाथ में लेकर दहाड़े, ‘खबरदार कोई अंदर नहीं जाएगा।’

‘गुरू आ गए, गुरू आ गए।’ चारों ओर शोर मच गया। जो मजदूर गेट के अंदर घुसने की कोशिश कर रहे थे, गुरू को देखकर मंच की ओर बढ़ आए।

‘जो साथी अंदर चले गए हैं वह भी बाहर आ जाएं। फौरन।’ गुरू दोबारा दहाड़े।

और मजदूर अंदर से बाहर आने लगे। देखते-देखते मंच के सामने भीड़ लग गई।

‘सभी साथी नारा लगाएं,’ गुरू ने कहा और जोर से माइक पर दहाड़े, ‘काम का पहिया।’

जबाव आया, ‘जाम करेंगे।’

‘इसी तरह जाम होगा पहिया! मुर्दों वाली आवाज से! इतनी जोर से बोलो कि मिल की दीवारें हिल जाएं।’ वह एक क्षण रुके तब दोबारा नारा दिया, ‘काम का पहिया।’ ‘जाम करेंगे।’

‘हां ऐसे।...कौन करेगा?’

‘हम करेंगे।’

कुछ देर गुरू नारा लगवाते रहे। तब बोले, ‘अब सभी साथी खामोशी से कामरेड भल्ला की बात सुनें।’ और उन्होंने माइक भल्ला की ओर बढ़ा दिया।

कामरेड भल्ला मुस्कुराए। उन्होंने नारा दिया, ‘गुरू राम प्रसाद।’

‘जिंदाबाद।’

तभी गुरू को ध्यान आया कि उन्होंने रिक्शे वाले को पैसे नहीं दिए हैं। वह मंच से उतरकर रिक्शे वाले को खोजने लगे।