कायापलट / सुरेश सौरभ

Gadya Kosh से
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हमेशा कोलाहल में डूबे रहने वाले उस स्टेशन पर मरघट-सा सन्नाटा पसरा था। चटख मेकअप किए रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठी वह, अपनी खोजती आंखों से इधर-उधर हैरानी से देख रही थी। तभी दरोगा जी उसकी ओर आते दिखाई दिए। करीब आकर बड़ी मायूसी से बोले-अभी ट्रेनें कम चल रहीं हैं। महामारी की वज़ह से बेकारी छाई हुई है। कोई ग्राहक न मिलेगा फिर काहे इस महामारी का ख़तरा मोल लेते हुए तू यहाँ फालतू में टाइम पास करने चली आई है।

वह हकबकाते हुए बोली-यह पेट बड़ा पापी है, यही ले लाया साहब जी। प्लीज परेशान न करिएगा आप का हफ्ता समय से मिल जायेगा। "

दरोगा नम आंखों से बोला-जब इस महामारी में जीते रहे तभी परेशान करेंगे। अब तो ज़िन्दगी बच जाए यही गनीमत है। ये लो पांच सौ... उसके करीब बेंच पर रखते हुए।

अब थोड़ा संभल कर वह हैरत से बोली-हमेशा मांगने वाला आज दे रहा है। आख़िर सूरज पश्चिम से कैसे उगा साहब जी।

दरोगा-इस महामारी ने उगा दिया और यह सिखा दिया कि गरीब बेसहारों को जो देने में सुख है, वह मांगने या दलाली वसूली में नहीं। इतना कह कर दरोगा बोझिल कदमों से चल दिया। उसकी आंखों की नमी और दिल से निकली सच्ची बात उसके हृदय में उतरती चली गई। पांच सौ का पत्ता उठाते हुए पर्स में रखा तभी कुछ बूंदें टपक कर उसके हाथ पर गिर गईं। ओह! लग रहा बरसात शुरू होने वाली है। ... अरे! नहीं-नहीं ये तो मेरी ही आंखों से चूए आंसू हैं। वह अपने आप में बुदबुदाई। जीआरपी के उस दरोगा को जाते हुए, पीछे से अपलक निहारते हुए अपने दुपट्टे के कोने से आंखों की कोरो को पोंछने लगी।

दरोगा जब उसके पास आ रहा था, तभी उसके पास एक फ़ोन आया था, उसे सूचना मिली कि उसके खून की रिपोर्ट कोरोना पोजिटिव आई है। सुबह घर से निकलते हुए मन में वह बना रहे थे वसूली करने के नये मंसूबे... पर...कायापलट हो गया इस माया नगरी में।