कारगिल विजय दिवस के उपलक्ष्य में / मनीषा कुलश्रेष्ठ
आज भी वो दिन याद करती हूँ तो अजीब से मिश्रित भाव से भर जाती हूँ। बहुत कठिन दिन थे वो। मेरे पति भारत की पश्चिमी सीमा से लगे शहर में पोस्टेड थे। बच्चों की छुट्टियों के दिन थे। बहुत सारे अफसर छुट्टी पर थे‚ हमें भी छुट्टी से वापस बुला लिया गया था। 49 डिग्री तापमान के दिनों में बच्चे गर्मी की छुट्टियों की दोपहरी में चुपचाप इनडोर खेल खेल कर बिता रहे थे। भारत विश्व कप के नशे में डूबा था। 'कमोन इण्डिया' 'कुछ कर दिखाना है।' के नारों से क्रिकेटर्स की हौसला अफजाई हो रही थी। मुफ्त पेप्सी–कोला बंट रहे थे। उधर बर्फानी संघर्षों से जूझते सैनिक बर्फ गला कर पानी बना बना कर पी रहे थे।
कारगिल संघर्ष शुरू हो चुका था। हर दिन एक दुखद समाचार लेकर आता। उधर कारगिल में स्कवाड्रन लीडर अजय आहूजा की सीमा पार पाकिस्तानियों के हाथों मारे जा चुके थे। फ्लाईट लेफ्टीनेन्ट नचिकेता को बंदी बना लिया गया था। र्मीएट हेलिकॉप्टर को कारगिल में रॉकेट लांचरों से उड़ा दिया गया था। आर्मी के शहीद अफसरों‚ जवानों की संख्या बढ़ती जा रही थी। मन थे कि उदासी से घिरे थे। कुछ हमारे पड़ौसी और पति के साथी वायुसेना अधिकारी भी कारगिल जा चुके थे। थल सेना ने पश्चिमी सीमाओं पर अपना मोर्चा संभाल लिया था। इस ओर पश्चिमी सीमा पर पूरा रेड अलर्ट था। सुबह 5 बजे से लड़ाकू मिग्स तैयार और लैस खड़े हो जाते थे कि न जाने कब आदेश हो…
सुबह चार बजे के गए हुए पतिदेव रात बारह बजे लौटते या लौटते ही नहीं। लौटते तो बस खाना खाकर सो जाते। मैं उनकी स्पदिंत पसीने में भीगी हथेली हाथ में लिये रात भर जागती। इनके शब्दों को विश्लेषित करती… “बस मनु कभी भी कुछ भी हो सकता है। इवेक्यूएशन के आडर्स आते ही तुम चली जाना। मुझे न जाने कब कहाँ भेज दिया जाए।”
फिर भी इनके शब्द हताश नहीं होते‚ जोश से कहते …”हम पूरी तरह तैयार हैं। उधर से ज्यादा दबाव पड़ा तो बस इस सीमा से… ऐसा अवसर बार-बार थोड़े ही मिलता है।” मैं डरती‚ सहमे हुए बच्चों को सहेजती।
“मम्मी पाकिस्तान क्या बहुत गंदा आदमी है? डरना नहीं पापा उसे भगा देंगे।”
क्या कहती एक ढाई साल की बच्ची को। रैन्चेज़ह्य खाईयाँहृ खुद गए थे‚ खिड़कियों पर काले कार्बन चिपकाने में पूरा दिन लग गया था। रोज़ रात ब्लैक आउट हो जाता।
एक दिन पतिदेव का फोन आया कि “……सायरन बजते ही बाहर आ जाना…”
मैं कुछ पूछती तभी फोन कट गया। हम सभी पहले ही एक जगह एकत्रित हो गये। पर सायरन नहीं बजा। उस रात ये जल्दी घर आ गए‚ कारगिल संघर्ष युद्ध की विभीषिका में बदलते–बदलते बस थम गया था। पर पूरे चौदह दिन जिस यंत्रणा में बीते वे भूलने लायक नहीं हैं। अंतत: शहीदों की शहादत काम आई और भारत ने कारगिल से पाक सैनिकों और घुसपैठियों को खदेड़ दिया। पर बहुत सारे वीरों की वीरता की स्मृतियाँ‚ आज भी मन को भिगो जाती हैं। और कुछ न सही …इस विजय दिवस पर मैं एक चिराग रोशनी का जलाना नहीं भूलती।