कार्यक्षेत्र में मिलने वाले दुःख / कमलेश कमल

Gadya Kosh से
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क्या आपने यह ग़ौर किया है कि कुछ लोग बुध्दि, वाक्-चातुर्य आदि में किसी से कम नहीं होते, उनका डील-डौल भी आकर्षक ही होता है...फ़िर भी वे कार्यस्थल में समान्यतया उखड़े-उखड़े या दुःखी रहते हैं, अलग-थलग और वंचित मिलते हैं। दूसरी तरफ़ उनसे कहीं कम प्रतिभासम्पन्न कर्मी होते हैं, जो आराम से सफलता कि सीढ़ियाँ चढ़ते रहते हैं और सुखी मिलते हैं। क्या आपने इसके कारणों पर कभी चिंतन किया है?

इसके मनोवैज्ञानिक और आध्यात्मिक पक्षों के विश्लेषण से कुछ बातें स्पष्ट उभरकर सामने आती हैं-


1.बात सिर्फ़ योग्यता कि होती ही नहीं है, अपितु सामंजस्य की भी होती है। दुःखी कर्मी कहीं न कहीं सामंजस्य नहीं बिठा पाता है। जो उसकी जानकारी है, योग्यता है और जो उसकी मान्यता है, अपेक्षा है, उम्मीदें हैं; उनका वह अपने कर्म से या कार्य-क्षेत्र की पारिस्थितिकी से सामंजस्य नहीं बिठा पाता है। वह अपने को अपने पद से अधिक के योग्य मानेगा या माहौल को हीन मानेगा या अपने काम को, अपनी नौकरी को अपने सपनों की पूर्ति में बाधक समझेगा।

ध्यातव्य है कि जैसे ही यह सामंजस्य नहीं बैठेगा, व्यक्ति कार्य में मन रमाने की जगह द्वंद्व (conflicts) से भर जाएगा। उसका मन लाभ-हानि, मान-अपमान, सुख-दुःख आदि द्वंद्वों में उलझ जाएगा।

तथ्य यह है कि दुःख निरोध के लिए सामंजस्य बिठाने की आवश्यकता सबको रहती है और सदा बनी रहती है। ऐसा नहीं है कि ज़्यादा प्रतिभासंपन्न कर्मियों को नहीं होती या आरम्भ में होती है, बाद में नहीं होती। होने वाले बदलावों यथा बॉस एवं सहकर्मियों का बदलना, जवाबदेही का बदल जाना, स्वयं का स्थानांतरण या फिर नियम या तकनीकी बदलावों से भी शीघ्र सामजंस्य हो जाए ऐसी कोशिश होनी चाहिए। दुःख से तभी बचा जा सकता है।

2. दुःखी कर्मी अपनी प्रतिभा के बावजूद उत्पादकता से अधिक असुरक्षा, अव्यवस्था और असहजता उत्पन्न करते हैं। कार्यप्रणाली, नियमों आदि से ख़ुद को ढालने की जगह जब अपनी सुविधा के लिए इन्हें ही बदल देने की कोशिश होती है या इनसे शिकायत होती है तो विरोध, प्रतिरोध आदि मिलता है जो अन्ततः दुःख का कारण बनता है।

महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान के साथ कर्म तो होना ही चाहिए, कार्य से प्रेम भी होना चाहिए। आप IAS नहीं बन सके, इसलिए शिक्षक बनना पड़ा, तो बच्चों और विद्यालय को इसका फ़ायदा मिलना चाहिए न कि नुक़सान।

हो सकता है कि आपको योग्यता से कम मिला हो, पर जो मिला है उससे प्रेम नहीं करेंगे या उसके साथ न्याय नहीं करेंगे, तो आप निश्चित रूप से अपने लिए दुःख का चक्र निर्मित करेंगे।

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो अपने काम को अपनी योग्यता से कम मानना कभी-कभी अचेतन मन में नफ़रत की परतें निर्मित कर सकता है। यह अपने सहकर्मियों के प्रति ईर्ष्या भी उत्पन्न कर सकता है कि उन्हें कम प्रयास से और कम योग्यता में ज़्यादा मिल गया। ऐसी मान्यता स्वयं के भविष्य के प्रति लालच और निराशा का एक मिश्रित भाव भी निर्मित कर सकता है।

ऐसी स्थिति में सुख और आनंद की प्राप्ति के लिए मन दुःख और बेचैनी के विपरीत जाल में फँस जाता है। हर कोई जानता है कि ये नकारात्मक और स्याह भावनाएँ हैं, जिनसे नकारात्मक ऊर्जा निर्मित होती है। ऐसे में, इसकी प्रतिक्रिया में क्या सकारात्मक और प्रेमपूर्ण ऊर्जा उसे प्राप्त हो सकती है? सम्भव ही नहीं है! इस सूक्ष्म नियम को शांत चित्त से ही समझा जा सकता है। अशांत चित्त से तो बस शिकायतें ही की जा सकती हैं।

3.सम्भव है कि कर्मी प्रतिभाषाली हो, कई गुणों का स्वामी हो, पर जिस कार्य के लिए नियुक्त हुआ हो, उसके लिए अपेक्षित किसी योग्यता को न रखता हो। उदाहरण के लिए, हो सकता है कि कोई कर्मी गणित और इंग्लिश का विद्वान हो, पर उसमें उतना अपेक्षित धैर्य न हो कि वह लगातार कंप्यूटर पर बोरिंग प्रतीत होने वाले अपने कार्य को कर सके। अगर कर्मी व्यवहार में मूर्ख और जल्दबाज़ है, तो वह आक्रामक लक्षण प्रदर्शित करेगा। अगर कर्मी विनम्र और संकोची है तो घबड़ाहट और वंचित के लक्षणों को प्रदर्शित करेगा जबकि अगर निडर है तो उदासीनता प्रदर्शित करेगा।

उपर्युक्त उदाहरण में जो आक्रामक कर्मी है, वह अपनी अयोग्यता को छिपाने में व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय कर देगा, जबकि उससे कम ऊर्जा में अल्प समय में ही अपेक्षित योग्यता अर्जित की जा सकती है। (इस उदाहरण में कंप्यूटर के उपयोग में धैर्य या ऐसा ही कुछ) ।

देखा जाता है कि आक्रामक कर्मी कभी-कभी चिढ़कर अपने अधीनस्थ या सहकर्मियों का अपमान कर सकते हैं, जिसे भूलना सामान्य लोगों के लिए कठिन होता है। ध्यान देने वाली बात है कि इसकी जगह अगर वे बिना किसी का अपमान किए सिर्फ़ कोई ग़लती कर दें, तो लोग धीरे-धीरे उस ग़लती को भूल जाते हैं। सदा ही आक्रामक और अविनीत व्यक्ति की तुलना में निकम्मे और कम प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ज़्यादा पसंद किए जाते हैं।

4. यह भी सम्भव है कि कोई कर्मी इतना प्रतिभाषाली हो कि बॉस और सहकर्मियों को ही असुरक्षा और हीन भावना से भर दे, अपनी प्रतिभा से उन्हें अभिभूत करने की बजाय आतंकित कर दे। ऐसे कर्मी तब दुःख पाते हैं, जब वे प्रतिभासंपन्न तो होते हैं, पर व्यवहारकुशल नहीं होते, विनयशीलत नहीं होते। वे अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाने के चक्कर में अपनी सदाशयता पर प्रश्न चिह्न लगा बैठते हैं।

ऐसे में दुःख से बचने का उपाय यही है कि वे अपनी महत्त्वाकांक्षा को दूसरे के निकट व्यक्त न करें, स्वयं तक सीमित रक्खें, आत्म-प्रदर्शन से बचें और विनयपूर्वक बॉस से कम चमकते हुए स्वयं को कार्यक्षेत्र के लिए अनिवार्य साबित कर लें। अपने कार्य का श्रेय बॉस को या अन्य सहकर्मियों को भी दें। कार्यक्षेत्र के लिए अनिवार्य बना लेने से आशय है कि आप समाधान प्रदाता हैं, किसी परेशानी में आपकी तरफ़ लोग देखें और कम से कम कुछ ऐसा हो जो आप ही सबसे अच्छी तरह कर सकते हैं।

जो ऐसा नहीं कर पाते पर प्रतिभा का दम्भ रखते हैं, वे बॉस के कोप और सहकर्मियों द्वारा पीठ-पीछे की आलोचना और उपेक्षा के शिकार होते हैं। ध्यान यह रखना होता है कार्यक्षेत्र के लिए आपकी योग्यता नहीं, अपितु आपका कार्य-निष्पादन और सहकर्मियों के लिए वे स्वयं महत्त्वपूर्ण होते हैं, आप नहीं।

5.आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखें तो किसी भी व्यक्ति का प्रसन्न या अप्रसन्न रहना उसके चरित्र, उसके स्वभाव, उसकी आदत, उसकी प्रकृति पर निर्भर करता है, न कि बाह्य परिस्थितियों पर।

जो विवेकसंपन्न हैं, वे घटित घटनाओं को समग्रता में देखते हैं-फ़ायदा क्या है या कभी भविष्य हो सकता है? सीख क्या मिली? आगे की संभावना क्या बनी? क्या-टूटा और क्या जुड़ सकता है, क्या बन सकता है? क्या बीत गया और क्या शुरू हो सकता है? वे समझते हैं कि दुपहरी ढल कर शाम और शाम बढ़कर रात भले हो जाए, इतना पक्का है कि रात बीतेगी, सुबह होगी और दुपहरी भी होगी ही।

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि लोगों द्वारा स्वीकार्यता तभी मिलती है जब हम स्वयं को, अपनी परिस्थितियों को, अपने कार्यक्षेत्र को स्वीकार कर लें और विनयपूर्वक कर्म में जुटे रहें। साथ ही, बॉस और सहकर्मियों से उचित दूरी भी बनाए रक्खें। कोई दिक़्क़त आ भी जाए तो याद रक्खें कि समस्या उतनी ही बड़ी होती है, जितनी बड़ी हम उसे समझते हैं। आवश्कयता है-अंतःकरण की शांति के साथ इन नियमों के अवलोकन की, इन्हें समझने की और अमल में लाने की।