कार्यशाला
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जो चाहे आपका हुस्ने-करिश्मा-साज़ करे. सूफ़ी कविता का बीज-बिन्दु इश्क है जिसे अनन्य प्रेम भी कह सकते हैं. आशिक की दीवानगी इसमें रूह फूंकती है. 'मैमंता घूमत रहै, नाहीं तन की 'वाली स्थिति ही इस इश्क को व्याख्यायित कर पाती है आशिक इस इश्क में स्वयं को इस प्रकार समर्पित कर देता है कि 'मेरा मुझ में कुछ नहीं, जो कछु है सो तेरा' का स्वर सहज ही गूंजने लगता है. यहाँ देवालय, काबा, मक्का, काशी इत्यादि अपना अर्थ खो बैठते हैं. शेष रह जाता है तो केवल इश्क़, और यह इश्क़ अलग अलग रंगों में नहीं बांटा जा सकता. अब कुछ प्राचीन सूफ़ी कवियों के दोहे उद्धृत किए जा रहे हैं जिनके प्रकाश में सूफ़ी दोहों की ग़ज़ल के समकक्ष प्रचलित परम्परा को समझा जा सकता है. बाबा फरीद [ 1173-1265 ] साईँ सेवत गल गई, मास न रह्या देह तब लग साईँ सेवसां, जब लग हौं सौं गेह फ़रिदा रत्ती रत्त न निकलै, जौ तन चीरै कोय जौ तन रत्तय रब सेओं, तिन तन रत्त न होय मैं जाना दुःख मुज्झ कों,दुक्ख सेआये जग्ग ऊचे चढ़ के देखया, घर घर ईहे अग्ग हमीदुद्दीन नागौरी [ 1193-1274 ] जो बिस्तरै तो सबै सकत, जो संकुचै तो सोय एक पुरुख के नाम दस, बिरला जानै कोय जोगन क्यों नहिं जानई, तिस गुन किज्जह कायं बहल न जोगी हाथ, परतीतह आरायं औखदि भेजन धनि गई, ओऊ हुई बिरहीन औखदि दोख न जानई,नारी न चेतै तीन बू अली क़लंदर [मृ0 1323 ] सजन सकारे जायंगे, नैन मरेंगे रोय बिधना ऐसी रैन कर, भोर कधूं ना होय सार हिरदै नहि मानियों , पीऊ कै नहिं ठाँव किनहु न बूझै बात ओई,धनी सुहागन नांव अमीर खुसरो [ 1253-1325 ] पंखा होकर मैं डुली, साती तेरा चाव मनजहि जलते जनम गया, तेरे लेखन बाव गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस उज्जल बरन, अधीन तन, एक चित्त दो ध्यान देखत में तो साधु है, निपट पाप की खान खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग तन मेरो, मन पीऊ को दोउ भये इक रंग यह्या मनियरी [मृ0 1380 ] काला हंसा निर्मला, बसै समंदर तीर पंख पसारै बिख हरै, निर्मल करै सरीर बाट भली पर सांकरी, नगर भला पर दूर नांह भला पर पातरा, नारी कर हिय चूर सागर,कुएँ,पाताल जल, लाखन बूंद बिकाय बज्र परै या मथुरा नगरी, कान्हा प्यासों जाय शाह मीरानजी बीजापूरी [ मृ0 1496 ] जिस मारग जिउ संचरै, सो ही मारग सार मारग छोड़ कुमारग चले, तन का रखा बिचार करैं जभैं वह तीरथ पट्टन, योग उभालें ध्यान पांचों चीज़ रिया सों राखैं, क्योंकर दीजे मान बुद्धि कहै कुछ खेल्या लोड़ी, बाचें ऐसी बात इश्क कहै यह खेल खिलाना, सब है उसके हात बुद्धि कहै यों तस्लिम हो ना, तू कुछ परत रहै इश्क कहै जिउ देना बेहतर, दुःख यह कौन सहै सय्यद मुहम्मद जौनपूरी [ 1433-1504 ] चंदर कहै तराइन कों, सूरज देखौ आय ऐसा भगवन बीहटे, दिष्टि पाप झर जाय तुव रूपै जग मोहिया, चन्द तराइन भान उनहि रूप फुनि होन कों, वाही न होवै आन हियरो नित्त पखाल तू, कांपड़ धोय मधोय ओझल होय नछूत सी, सुख निंदरी ना सोय शेख बाजन [ मृ0 1506 ] भंवरा लेवे फूल रस, रसिया लेवे बास माली पहुंचे आस कर, भंवरा खड़ा उदास प्रीत हिए दरवेश की, जिस देवे करतार इस जग म्याने राज कर, उस जग उतरै पार गौर अंध्यारी डर बड़ा, बाजन है मुफलिस हियरा काँपै जिउ डरै, यह दुःख आखौं किस
Posted by डॉ0 परवेज़ फातिमा at 9:34 AM 0 comments Labels: आलेख Tuesday, June 3, 2008 हसरत मोहानी / प्रो. शैलेश ज़ैदी भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में हसरत मोहानी [ 1875-1951] का नाम भले ही उपेक्षित रह गया हो, उनके संकल्पों, उनकी मान्यताओं, उनकी शायरी में व्यक्त इन्क़लाबी विचारों और उनके संघर्षमय जीवन की खुरदरी लयात्मक आवाजों की गूंज से पूर्ण आज़ादी की भावना को वह ऊर्जा प्राप्त हुई जिसकी अभिव्यक्ति का साहस पंडित जवाहर लाल नेहरू नौ वर्ष बाद 1929 में जुटा पाये. प्रेमचंद के शब्दों में यदि कहा जाय तो " वे [ हसरत ] अपने गुरु [ बाल गंगाधर तिलक ] से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी का डंका बजाया, जब कांग्रेस का गर्म-से-गर्म नेता भी पूर्ण स्वराज का नाम लेते काँपता था." हसरत मोहानी ने मार्क्सवादी दर्शन में पराधीनता से मुक्ति के स्रोत तलाश किए. उनकी राजनीतिक चेतना उनकी रचनात्मक विलक्षण प्रतिभा से मिलकर उन रास्तों का निर्माण करने लगी जो खतरनाक ज़रूर थे किंतु ब्रिटिश राज से मुक्ति के लिए ज़रूरी थे. थामस मान की यह बात हसरत की समझ में अच्छी तरह आ गई थी कि "गैर-राजनीतिक होना किसी भी दृष्टि से गैर-प्रजातांत्रिक होने से कम नहीं है." यह निश्चित करना बहुत आसन नहीं है कि हसरत मोहानी बुनियादी तौर पर शायर थे या राजनीतिज्ञ ? उनकी शायरी राजनीति के झरने में धुली हुई थी और उनकी राजनीति उनकी रचना-धर्मिता की मोहक सुगंधों से ज़िंदगी के नए आयाम तलाश करने का हौसला प्राप्त कर रही थी. जेल में चक्की पीसना राजनीति के मार्ग का एक पड़ाव था और चक्की पीसते हुए शेर गुनगुनाना और ग़ज़ल कहना उस पड़ाव को गतिशील देखने का एक माध्यम था - है मश्के-सुखन जारी, चक्की की मशक्क़त भी इक तुर्फा तमाशा है, हसरत की तबीयत भी अंग्रेज़ सरकार हसरत को लाख बंदी बना ले, हसरत की आत्मा और उनके विचारों को बंदी नहीं बना सकती. इतना दृढ़ संकल्प हसरत के बाद केवल फैज़ अहमद फैज़ में देखा जा सकता है. रूह आजाद है, ख़याल आजाद जिसमे-हसरत की क़ैद है बेकार गोर्की के सम्बन्ध में लेनिन ने कहा था " वह स्वभाव से राजनीतिज्ञ नहीं था किंतु उसे मात्र एक रचनाकार भी नहीं कहा जा सकता. उसकी राजनीतिक चेतना पूरी तरह जागृत थी और व्यावहारिक राजनीति में उसकी सरगर्मियां उसे राजनीतिकों की पंक्ति में भी खड़ा कर देती हैं" ठीक यही बात हसरत मोहानी के लिए भी कही जा सकती है. स्वभाव से वे एक संत थे, विचारों से साम्यवाद के पक्षधर और चरित्र से एक धर्मनिष्ठ मुसलमान. यह एक ऐसी त्रिवेणी थी जिस से इंक़लाब की धारा का फूटना लाज़मी था. गोर्की को दिसम्बर 1905 में कारागार के कष्टों से मुक्ति के लिए रूस से भाग कर स्वीडेन और डेनमार्क होते हुए जर्मनी में शरण लेनी पड़ी थी. किंतु हसरत के इन्क़लाबी संस्कारों में पलायन के लिए कोई स्थान नहीं था. उनकी दृष्टि में गिरफ्तारी के दुखों से उनका परिचय भी नहीं था. कारण यह था कि उनके समक्ष आज़ादी का जो लक्ष्य था वह इस दुःख को इतना छोटा कर देता था कि इसका होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता था और फिर 'कैदे-वफ़ा' में ऐशो-आराम की सारी दौलत समाई प्रतीत होती थी - मायए-इशरते-बेहद है गमे-कैदे-वफ़ा मैं शानासा भी नहीं रंजे-गिरफ्तारी का हसरत मोहानी का विश्वास था कि जिस व्यक्ति ने देश की आजादी जैसे बड़े उद्देश्य के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया हो वह क़ैद की बंदिशों में भी हमेशा आजाद रहेगा - आजाद हैं क़ैद में भी हसरत हम दिल-शुदगाने-ख़ुद-फरामोश हसरत की इन्क़लाबी सोंच भारत की मुक्ति के लिए बेचैन थी. नैराश्य इस मार्ग में अवरोधक था और हौसला इस रास्ते की बुनियादी शर्त. उनका विश्वास था कि ब्रिटिश राज जितना अत्याचार करता जाएगा, देश भक्ति की भावना उतना ही और अधिक बल पकड़ती जायेगी. उनका ख्याल था कि 'कोशिशे-जाते-खास' (आत्म-निर्भर प्रयास) की जो भूमिका है वह गैरों के संघर्ष पर तकिया करने से कहीं अधिक शक्तिशाली है. हसरत का सम्पूर्ण जीवन स्वाधीनता प्राप्ति के उद्देश्य के लिए समर्पित था. यही कारण है कि जी तोड़ मेहनत, दुःख और पीड़ा, विपत्तियाँ और अपमान सब झेलकर भी वे हमेशा स्वयं को मंजिल से निकट और बहुत निकट महसूस करते रहे. इस महान उद्देश्य के प्रति उनका यह अटूट विश्वास जहाँ एक ओर कारागार के कष्टों से उन्हें मुक्त रखता है वहीं दूसरी ओर सत्य की जीत में उनके विश्वास को और भी गहरा देता है. उनके इन्क़लाबी स्वर में हर लम्हा एक नई शक्ति जन्म लेती है. उनके हौसले धूमिल नहीं पड़ते और उनका जीवट शत्रु के प्रबल वर्चस्व के समक्ष निर्भीक डटे रहने की प्रेरणा देता है. मैं गल्बए-आदा से डरा हूँ न डरूँगा ये हौसला बख्शा है मुझे शेरे-खुदा ने हसरत के साधना मार्ग में शहीद का दर्जा बहुत ऊँचा है. उन्हें पता है की 'ज़ेबाइशे-फ़र्के-आशिक़' (आशिक़ के सिर की शोभा) के लिए दस्तारे-जूनून (दीवानगी की पगड़ी) में गम के पेवंद का होना ज़रूरी है. कदाचित इसीलिए वो किसी अत्याचार की शिकायत नहीं करते. बल्कि शुक्र अदा करते हैं - यूं शुक्रे-जौर करते हैं तेरे अदा-शनास गोया वो जानते ही नहीं हैं गिला है क्या. इस स्थल पर शुक्रे-जौर अर्थात अत्याचार के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन का भाव, सौन्दर्य-बोध को एक नया अर्थ देता है और इस अर्थ की खनक एक दुसरे शेर में और भी मुखर हो उठती है- जो चाहो सज़ा दे लो, तुम और भी खुल खेलो पर हमसे कसम ले लो, की हो जो शिकायत भी यहाँ शब्दों की ध्वनियाँ मस्ती और छेड़-छाड़ का रंग पैदा करती हैं. वतन की मुहब्बत से शराबोर हसरत मोहानी एक ऐसे कारसेवक हैं जो शिकवा-शिकायत करना अपने सम्प्रदाय के विरुद्ध समझते हैं- हैं रज़ाकार तो हम पर भी बहरहाल है फ़र्ज़ शुक्रे-हक लब पे रहे, शिक्वए आदा न करें हसरत ने अपने रस्ते का चुनाव किसी से पूछ कर नहीं किया था और राजनीति में उनकी रूचि किसी विवशता या दबाव का परिणाम नहीं थी. वस्तुतः वो सोई हुई कौम को जगाना ज़रूरी समझते थे. बी.ए. करने के बाद वो चाहते तो आसानी से एक अच्छी नोकरी कर सकते थे. किंतु उन्हें तो देश की सेवा का रास्ता पसंद था. कबीर की भांति वो 'जे घर फूंके आपना चलै हमारे साथ' के पक्षधर थे. सम्पूर्ण देश में छटपटाहट और बेचैनी के फलस्वरूप भड़कती हुई आग के शोले उनकी आंखों के सामने थे - "दहका हुआ है आतिशे-गुल से चमन तमाम." फिर क्या था हसरत को कातिल के रु-ब-रु खड़े होने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई. 1907 के उर्दूए-मुआल्ला में, जिसके वो संपादक भी थे, उन्होंने बाल गंगा धर तिलक के व्यक्तित्व पर एक ऐसा लेख लिखा जिस से सही अर्थों में स्वयं उनके व्यक्तित्व का परिचय भी मिलता है. उन्होंने लिखा था- "उन्होंने (तिलक ने) अपनी सारी उम्र और सारी हिम्मत मुल्क की खिदमत में सर्फ़ कर दी. ऐशो-आराम और मॉल को हाथ से देना बखुशी गवारा किया, पर एलान- कलमए-हक से बाज़ नहीं आए." अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय का वह दौर जिसमें हसरत ने यहाँ शिक्षा पायी, देश भक्तों से भरा हुआ था. मुहम्मद अली जौहर, शौकत अली, राजा महेन्द्र प्रताप सब इसी दौर की पैदावार थे, और किसी की कुर्बानी और त्याग किसी से कम नहीं था. ये वो लोग थे जिन्होंने महात्मा गाँधी को भी अपने व्यक्तित्व से आकृष्ट किया. 4 जनवरी 1908 को जब हसरत को दो वर्ष की क़ैद बा मशक्क़त और पाँच सौ रूपए का जुर्माना हुआ, उनके चेहरे पर चिंता की कोई लकीर नहीं पाई गई. उनकी दूध पीती बच्ची बहुत बीमार थी, किंतु हसरत ने स्वयं को कानून के हवाले कर दिया. इलाहाबाद जेल में जब सुप्रिनटेनडेंट ने उनकी आंखों का चश्मा दाखिल दफ्तर कर दिया और उन्हें लगभग अँधा बना दिया, उन्होंने धैर्य से काम लिया और उफ़ तक नहीं की. इसी ज़माने में उनके पिता का निधन हो गया और उन्हें इस घटना की सूचना तक नहीं दी गई. जुर्माने की रक़म न भर पाने के कारण उनका दुर्लभ पुस्तकालय नीलाम कर दिया गया और रद्दी की तरह बेशकीमती पुस्तकों को ठेलों और बैलगाडियों पर लादकर ले जाया गया, किंतु हसरत के माथे पर सिल्वटें नहीं उभरीं. उन्होंने दोस्तों के सुझाव के बावजूद राजनीति से अलग होना पसंद नहीं किया. वो तिलक की भांति आज़ादी को अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानते थे. मुंशी प्रेमचंद ने 1930 में उनके सम्बन्ध में ठीक ही लिख था "मुसमानों में गालिबन हसरत ही वो बुजुर्ग हैं जिन्होंने आज से पन्द्रह साल क़ब्ल, हिन्दोस्तान की मुकम्मल आज़ादी का तसव्वुर किया था और आजतक उसी पर क़ायम हैं. नर्म सियासत में उनकी गर्म तबीअत के लिए कोई कशिश और दिलचस्पी न थी" हसरत मोहानी ने अपने प्रारंभिक राजनीतिक दौर में ही स्पष्ट घोषणा कर दी थी "जिनके पास आँखें हैं और विवेक है उन्हें यह स्वीकार करना होगा कि फिरंगी सरकार का मानव विरोधी शासन हमेशा के लिए भारत में क़ायम नहीं रह सकता. और वर्त्तमान स्थिति में तो उसका चन्द साल रहना भी दुशवार है." कुछ ही वर्षों के अंतराल से भारत के सम्बन्ध में ऐसी ही एक घोषणा गोर्की ने भी की थी -"अब वह समय आ गया है जब भारतीयों के लिए आवश्यक हो गया है कि सामजिक और राजनीतिक रचनात्मक कार्य वे अपने हाथों में ले लें क्योंकि भारत में अंग्रेज़ी राज के दिन पूरे हो चुके हैं." रोचक बात ये है कि गोर्की के लिए गांधी आदर्श थे और हसरत के लिए लेनिन, स्वराज के 12 जनवरी 1922 के अंक में हसरत मोहनी का एक अध्यक्षीय भाषण दिया गया है. यह भाषण हसरत ने 30 दिसम्बर 1921 को मुस्लिम लीग के मंच से दिया था- "भारत के लिए ज़रूरी है कि यहाँ प्रजातांत्रिक शासन प्रणाली अपनाई जाय. पहली जनवरी 1922 से भारत की पूर्ण आज़ादी की घोषणा कर दी जाय और भारत का नाम 'यूनाईटेड स्टेट्स ऑफ़ इंडिया' रखा जाय." ध्यान देने की बात ये है कि इस सभा में महात्मा गाँधी, हाकिम अजमल खां और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे दिग्गज नेता उपस्थित थे. सच्चाई यह है कि हसरत मोहानी राजनीतिकों के मस्लेहत पूर्ण रवैये से तंग आ चुके थे. एक शेर में उन्होंने अपनी इस प्रतिक्रिया को व्यक्त भी किया है- लगा दो आग उज़रे-मस्लेहत को के है बेज़ार अब इस से मेरा दिल हसरत मोहानी का मूल्यांकन भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में अभी नहीं हुआ है. किंतु मेरा विश्वास है कि एक दिन उन्हें निश्चित रूप से सही ढंग से परखा जाएगा. रोचक बात यह है कि इस स्वभाव का व्यक्ति शायरी की दुनिया में अपनी रूमानी गजलों से पहचाना गया. गुलाम अली ने उनकी ग़ज़ल चुपके चुपके रत दिन आंसू बहाना याद है को अपना मधुर स्वर देकर अमर बना दिया. पाठकों की रूचि के लिए यहाँ प्रस्तुत हैं हसरत की पाँच ग़ज़लें. [ 1 ] भुलाता लाख हूँ लेकिन बराबर याद आते हैं इलाही तर्के-उल्फ़त पर, वो क्योंकर याद आते हैं न छेड़ ऐ हम-नशीं कैफ़ीयते-सहबा के अफ़साने शराबे-बेखुदी के मुझको साग़र याद आते हैं रहा करते हैं कैदे-होश में ऐ वाय नाकामी वो दस्ते-खुद्फ़रामोशी के चक्कर याद आते हैं नहीं आती तो याद उनकी महीनों भर नहीं आती मगर जब याद आते हैं तो अक्सर याद आते हैं हकीकत खुल गई हसरत तेरे तर्के-मुहब्बत की तुझे तो अब वो पहले से भी बढ़कर याद आते हैं [ 2 ] देखना भी तो उन्हें दूर से देखा करना शेवए-इश्क़ नहीं हुस्न को रुसवा करना इक नज़र ही तेरी काफ़ी थी के ऐ राहते-जाँ कुछ भी दुशवार न था मुझको शकेबा करना उनको याँ वादे पे आ लेने दे ऐ अब्रे-बहार जिस तरह चाहना फिर बाद में बरसा करना शाम हो या के सेहर याद उन्हीं की रख ले दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना कुछ समझ में नहीं आता के ये क्या है हसरत उनसे मिलकर भी न इज़हारे-तमन्ना करना [ 3 ] है मश्के-सुखन जारी चक्की की मशक्क़त भी इक तुर्फा तमाशा है हसरत की तबीयत भी जो चाहे सज़ा दे लो, तुम और भी खुल खेलो पर हमसे क़सम ले लो ,की हो जो शिकायत भी ख़ुद इश्क़ की गुस्ताखी, सब तुझको सिखा देगी ऐ हुस्ने-हया-परवर, शोखी भी, शरारत भी उश्शाक के दिल नाज़ुक, उस शोख की खू नाज़ुक नाज़ुक इसी निस्बत से , है कारे-मुहब्बत भी ऐ शौक़ की बेबाकी , वो क्या तेरी ख्वाहिश थी जिसपर उन्हें गुस्सा है, इनकार भी, हैरत भी [ 4 ] कैसे छुपाऊं राजे-ग़म, दीदए-तर को क्या करूं दिल की तपिश को क्या करूं , सोज़े-जिगर को क्या करूं शोरिशे-आशिकी कहाँ, और मेरी सादगी कहाँ हुस्न को तेरे क्या कहूँ, अपनी नज़र को क्या करूं ग़म का न दिल में हो गुज़र, वस्ल की शब हो यूं बसर सब ये कुबूल है मगर, खौफे-सेहर को क्या करूं हां मेरा दिल था जब बतर, तब न हुई तुम्हें ख़बर बाद मेरे हुआ असर अब मैं असर को क्या करूं [ 5 ] फिर भी है तुमको मसीहाई का दावा देखो मुझको देखो, मेरे मरने की तमन्ना देखो जुर्मे-नज्ज़रा पे क्यों इतनी खुशामद करता अब वो रूठे हैं ये लो और तमाशा देखो हम न कहते थे बनावट से है सारा गुस्सा हंसके, लो फिर वो उन्होंने मुझे देखा, देखो मस्तिए-हुस्न से अपनी भी नहीं तुमको ख़बर क्या सुनो अर्ज़ मेरी, हाल मेरा क्या देखो घर से हर वक्त निकल आते हो खोले हुए बाल शाम देखो न मेरी जान, सवेरा देखो खानए-जाँ में नमूदार है इक पैकरे-नूर हसरतों आओ रूखे -यार का जलवा देखो सामने सब के मुनासिब नहीं हम पर ये अताब सर से ढल जाय न गुस्से में दुपट्टा देखो मर मिटे हम तो कभी याद भी तुमने न किया अब मुहब्बत का न करना कभी दावा देखो
Posted by डॉ0 परवेज़ फातिमा at 9:45 AM 0 comments Labels: आलेख / आलोचना Sunday, June 1, 2008 पुरानी शराब / मीर तकी मीर की ग़ज़लें परिचय
मीर तकी मीर का जन्म आगरे में 1723 ई0 में हुआ. उस समय तक उर्दू शायरी अपनी किशोरावस्था में थी. पिता की देख-रेख में शिक्षा पाकर मीर ने इश्क के बारीक रहस्यों को समझा और उसके परिष्कृत मूल्यों को अन्तःकीलित किया जो आगे चलकर उनकी गजलों में इस प्रकार मुखर हुआ कि उनकी शायरी की आतंरिक ऊर्जा बन गया. मीर सही अर्थों में उर्दू ग़ज़ल के अद्भुत शिल्पकार हैं. गालिब को भी उनकी कला का लोहा मानना पड़ा. उनके शेरों में ज़िंदगी के खट्टे मीठे अनुभव और दुःख-दर्द की लयात्मकता कुछ यूं रची-बसी मिलती है कि पाठक उसके साथ अंतरंग हुए बिना नहीं रह पाता. मीर के समय तक शायरी की भाष के लिए 'उर्दू' शब्द प्रयोग में नहीं आया था. यह स्थिति ग़ालिब के समय तक बनी हुई थी. वे अपनी उर्दू गजलों को हिन्दी का नाम देते थे और स्वयम को मीर की भाँति रेखता का उस्ताद समझते थे. 'अवधी' और 'ब्रज' के कवि अपनी भाषा को 'भाखा' कहते थे. हाँ ब्रज और अवधी के मुसलमान कवि इसके लिए 'हिन्दवी' या 'हिन्दी' शब्द का प्रयोग करते थे. इसीलिए मीर की कविता में हिन्दोस्तानियत का जो सोंधापन है वह अन्य उर्दू कवियों में उतना नहीं झलकता. मीर के छे दीवान उपलब्ध है जिनमे उनके शेरों की संख्या 13585 है. [ १ ] इब्तिदाए-इश्क है रोता है क्या आगे-आगे देखिए होता है क्या काफ्ले में सुबह के इक शोर है यानी गाफिल हम चले सोता है क्या सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं तुख्मे-ख्वाहिश दिल में तू बोता है क्या ये निशाने-इश्क हैं जाते नहीं दाग़ छाती के अबस धोता है क्या गैरते-यूसुफ है ये वक्ते-अजीज़ मीर इसको राएगाँ खोता है क्या [ 2 ] फकीराना आये सदा कर चले मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले कोई नाउमीदाना करते नागाह सो तुम हमसे मुंह भी छिपा कर चले बहोत आरजू थी गली की तेरे सो याँ से लहू में नहा कर चले दिखाई दिए यूं के बेखुद किया हमें आप से भी जुदा कर चले जबीं सिज्दा करते ही करते गई हके-बंदगी हम अदा कर चले परस्तिश की यांतइं , के ऐ बुत तुझे नज़र में सभों की खुदा कर चले कहें क्या जो पूछे कोई हमसे मीर जहाँ में तुम आये थे क्या कर चले [ 3 ] क्या कहूँ तुम से मैं के क्या है इश्क़ जान का रोग है, बला है इश्क़ इश्क़ - इश्क़ है जहाँ देखो सारे आलम में भर रहा है इश्क़ इश्क़ माशूक, इश्क़ आशिक है यानी अपना ही मुब्तला है इश्क़ इश्क़ है तर्ज़ो-तौर इश्क़ के तइं कहीं बन्दा कहीं खुदा है इश्क़ कौन मकसद को इश्क़ बिन पहोंचा आरजू इश्क़-ओ-मुद्दआ है इश्क़ कोई ख्वाहाँ नही महब्बत का तू कहे जिंस-नारवा है इश्क़ मीर जी ज़र्द होते जाते हैं क्या कहीं तुमने भी किया है इश्क़ [ 5 ] पत्ता - पत्ता बूटा - बूटा हाल हमारा जाने है जाने न जाने, गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है आगे उस मुतकब्बिर के, हम खुदा खुदा क्या करते हैं कब मौजूद खुदा को, वो मगरूर,खुदारा जाने है आशिक सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में जी के ज़ियाँ को इश्क़ में उसके, अपना वारा जाने है चारा-गरी बीमारिए-दिल की, रस्मे-शहरे-हुस्न नहीं वरना दिल्बरे-नादाँ भी, इस दर्द का चारा जाने है मेह्रो-वफाओ-लुत्फो-इनायत, एक से वाकिफ इन में नहीं और तो सब कुछ तन्जो-कनाया, रम्जो-इशारा जाने है तश्ने-खूं है अपना कितना, मीर भी नादाँ, तल्खी-कश दमदार आबे-तेग को उसके, आबे-गवारा जाने है
Posted by डॉ0 परवेज़ फातिमा at 6:22 AM 1 comments Labels: विशेष (शायरी) Friday, May 30, 2008 ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो ग़ज़लें [ 1 ] न जाने कब से हैं सहरा कई बसाए हुए हुई हैं मुद्दतें, आंखों को मुस्कुराए हुए ये माहताब न होता, तो आसमानों पर सितारे आते नज़र और टिमटिमाए हुए समंदरों की भी नश्वो-नुमा हुई होगी ज़माना राज़ ये सीने में है छुपाए हुए हर एक दिल में खलिश क्यों है एक मुब्हम सी नक़ाब चेहरे से है वक्त क्यों हटाए हुए इस इंतज़ार में आयेंगे फिर नए पत्ते शजर को अरसा हुआ पत्तियां गिराए हुए हवा के झोंकों में हलकी सी एक खुश्बू है तुम आज लगता है इस शहर में हो आए हुए गुलाब-रंग कोई चेहरा अब कहीं भी नहीं ज़मीं पे अब्र के टुकड़े हैं सिर्फ़ छाए हुए लगे हैं ज़ख्म कई दिल पे संगबारी में के लोग सर पे हैं तूफ़ान सा उठाए हुए किताबें पढ़के नहीं होती अब कोई तहरीक जुमूद अपने क़दम इनमें है जमाए हुए परिंदे जाके बलंदी पे, लौट आते हैं के इन के दिल हैं नशेमन से लौ लगाए हुए अजीब थे वो मुसाफ़िर, चले गए चुपचाप दिलों में अब भी कहीं हैं मगर समाए हुए [ 2 ] शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो फ़त्हयाब न था के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया के वक्त, साथ कभी, मेरे हम-रकाब न था समंदरों को, मेरे ज़र्फ़ का था अंदाजा जभी तो, उनके लिए मैं, फ़क़त हुबाब न था ज़बां पे कुफ्ल लगा कर, न बैठता था कोई वो दौर ऐसा था, सच बोलना अज़ाब न था गुज़र गया वो भिगो कर सभी का दामने-दिल कोई भी ऐसा नहीं था जो आब - आब न था मैं हर परिंदे को शाहीन किस तरह कहता हकीक़तें थीं मेरे सामने, सराब न था तवक्कोआत का फैलाव इतना ज़्यादा था के घर लुटा के भी अपना, वो बारयाब न था
Posted by डॉ0 परवेज़ फातिमा at 8:39 PM 0 comments Labels: ग़ज़ल (उर्दू / हिन्दी) परवीन शाकिर की ग़ज़लें [ 1 ] आवाज़ के हमराह सरापा भी तो देखूं ऐ जाने-सुखन मैं तेरा चेहरा भी तो देखूं दस्तक तो कुछ ऐसी है के दिल छूने लगी है इस हब्स में बारिश का ये झोंका भी तो देखूं सहरा की तरह रहते हुए थक गयीं आँखें दुःख कहता है अब मैं कोई दर्या भी तो देखूं ये क्या के वो जब चाहे मुझे छीन ले मुझसे अपने लिए वो शख्स तड़पता भी तो देखूं अबतक तो मेरे शेर हवाला रहे तेरा मैं अब तेरी रुसवाई का चर्चा भी तो देखूं [ 2 ] इक शख्स को सोचती रही मैं फिर आइना देखने लगी मैं उस की तरह अपना नाम लेकर ख़ुद को भी लगी नयी नयी मैं तू मेरे बिना न रह सका तो कब तेरे बगैर जी सकी मैं आती रहे अब कहीं से आवाज़ अब तो तेरे पास आ गयी मैं दामन था तेरा के मेरा माथा सब दाग मिटा चुकी मैं [ 3 ] आंखों ने कैसे ख्वाब तराशे हैं इन दिनों दिल पर अजीब रंग उतरते हैं इन दिनों रख अपने पास अपने महो-मेह्र ऐ फ़लक हम ख़ुद किसी की आँख के तारे हैं इन दिनों दस्ते-सेहर ने मांग निकाली है बारहा और शब ने आ के बाल संवारे हैं इन दिनों इस इश्क ने हमें ही नहीं मोतदिल किया उसकी भी खुश-मिज़ाजी के चर्चे हैं इन दिनों इक खुश-गवार नींद पे हक़ बन गया मेरा वो रतजगे इस आँख ने काटे हैं इन दिनों वो क़ह्ते-हुस्न है के सभी खुश-जमाल लोग लगता है कोहे-काफ पे रहते हैं इन दिनों [ 4 ] थक गया है दिले-वहशी मेरा, फ़र्याद से भी दिल बहलता नहीं ऐ दोस्त तेरी याद से भी ऐ हवा क्या है जो अब नज़मे-चमन और हुआ सैद से भी हैं मरासिम तेरे, सय्याद से भी क्यों सरकती हुई लगती है ज़मीं याँ हर दम कभी पूछें तो सबब शहर की बुनियाद से भी बर्क थी या के शरारे-दिले-आशुफ्ता था कोई पूछे तो मेरे आशियाँ-बरबाद से भी बढ़ती जाती है कशिश वादा-गहे हस्ती की और कोई खींच रहा है अदम-आबाद से भी [ 5 ] कू-ब-कू फैल गयी बात शनासाई की उसने खुश्बू की तरह मेरी पिज़ीराई की कैसे कह दूँ के मुझे छोड़ दिया है उसने बात तो सच है मगर बात है रुसवाई की वो कहीं भी गया, लौटा तो मेरे पास आया बस यही बात है अच्छी मेरे हरजाई की तेरा पहलू, तेरे दिल की तरह आबाद रहे तुझ पे गुज़रे न क़यामत शबे-तन्हाई की उसने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है जाग उठती हैं अजब ख्वाहिशें अंगडाई की
Posted by डॉ0 परवेज़ फातिमा at 6:39 PM 0 comments Labels: विशेष पसंदीदा शायरी / नासिर काज़मी पाँच ग़ज़लें [ 1 ] गए दिनों का सुराग लेकर किधर से आया, किधर गया वो अजीब मानूस अजनबी था, मुझे तो हैरान कर गया वो बस एक मोती सी छब दिखाकर, बस एक मीठी सी धुन सुनाकर सितारए-शाम बनके आया, ब'रंगे-ख्वाबे-सेहर गया वो खुशी की रुत हो के गम का मौसम, नज़र उसे ढूंडती है हरदम वो बूए-गुल था के नग्मए-जाँ, मेरे तो दिल में उतर गया वो न अब वो यादों का चढ़ता दर्या, न फुर्सतों की उदास बरखा युंही ज़रा सी कसक है दिल में, जो ज़ख्म गहरा था भर गया वो कुछ अब संभलने लगी है जाँ भी, बदल चला रंगे-आसमां भी जो रात भारी थी टल गई है, जो दिन कड़ा था गुज़र गया वो शिकस्तः-पा राह में खडा हूँ, गए दिनों को बुला रहा हूँ जो क़ाफला मेरा हमसफ़र था, मिसाले-गरदे-सफर गया वो हवस की बुनियाद पर न ठहरा, किसी भी उम्मीद का घरौंदा चली जरा सी हवा मुखालिफ़, गुबार बनकर बिखर गया वो वो मयकदे को जगाने वाला, वो रात की नींद उडाने वाला ये आज क्या उसके जी में आई, के शाम होते ही घर गया वो वो जिसके शाने पे हाथ रखकर, सफ़र किया तूने मंज़िलों का तेरी गली से, न जाने क्यों, आज सर झुकाए गुज़र गया वो वो हिज्र की रात का सितारा, वो हमनवा हमसुखन हमारा सदा रहे नाम उसका प्यारा, सुना है कल रत मर गया वो वो रात का बेनवा मुसाफिर, वो तेरा शायर वो तेरा नासिर तेरी गली तक तो हमने देखा था, फिर न जाने किधर गया वो [ 2 ] कुछ यादगारे-शहरे-सितमगर ही ले चलें आए हैं इस गली में तो पत्थर ही ले चलें यूं किस तरह कटेगा कड़ी धूप का सफ़र सर पर खयाले-यार की चादर ही ले चलें ये कह के छेड़ती है हमें दिल-गिरफ्त्गी घबरा गए हैं आप तो बाहर ही ले चलें इस शहरे-बेचराग में जायेगी तू कहाँ आ ऐ शबे- फिराक तुझे घर ही ले चलें [ 3 ] आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो ये क्या के रोज़ एक सा गम एक सी उम्मीद इस रंजे-बेखुमार की अब इन्तेहा भी हो टूटे कभी तो हुस्ने-शबो-रोज़ का तिलिस्म इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो दीवानगी-ए-शौक़ को ये धुन है इन दिनों घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो जुज़ दिल कोई मकान नहीं दह्र में जहाँ रहज़न का खौफ भी न रहे दर खुला भी हो हर शय पुकारती है पसे-परदए- सुकूत लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो [ 4 ] जुर्मे-उम्मीद की सज़ा ही दे मेरे हक में भी कुछ सुना ही दे इश्क में हम नहीं ज़ियादा तलब जो तेरा नाज़े-कम-निगाही दे तूने तारों से शब की मांग भरी मुझको इक अश्के-सुब्ह-गाही दे बस्तियों को दिए हैं तूने चराग दस्ते-दिल को भी कोई राही दे उम्र भर की नवागरी का सिला ऐ खुदा कोई हमनवा ही दे ज़र्दरू हैं वरक ख्यालों के ऐ शबे-हिज्र कुछ सियाही दे गर मजाले-सुखन नहीं नासिर लबे-खामोश से गवाही दे [ 5 ] इन सहमे हुए शहरों की फजा कुछ कहती है कभी तुम भी सुनो, ये धरती क्या कुछ कहती है ये ठिठरी हुई लम्बी रातें कुछ पूछती हैं ये खामोशी आवाज़नुमा कुछ कहती है सब अपने घरों में लम्बी तान के सोते हैं और दूर कहीं कोयल की सदा कुछ कहती है कभी भोर भए, कभी शाम पड़े, कभी रात गए हर आन बदलती रुत की हवा कुछ कहती है नासिर आशोबे- ज़माना से गाफ़िल न रहो कुछ होता है जब ख़ल्के-खुदा कुछ कहती है
Posted by डॉ0 परवेज़ फातिमा at 8:10 AM 0 comments Labels: विशेष Thursday, May 29, 2008 पसंदीदा शायरी / जोश मलीहाबादी नज़्म
क्या हिंद का जिनदाँ काँप रहा और गूँज रही हैं तक्बीरें
उकताए हैं शायद कुछ कैदी और तोड़ रहे हैं ज़ंजीरें
दीवारों के नीचे आ आ कर,यूं जम'अ हुए हैं जिन्दानी
सीनों में तलातुम बिजली का, आंखो में झलकती शमशीरें
भूकों की नज़र में बिजली है, तोपों के दहाने ठंडे हैं
तकदीर के लब पर जुम्बिश है, दम तोड़ रही हैं तदबीरें
आंखों में क़ज़ा की सुर्खी है, बेनूर है चेहरा सुल्ताँ का
तखरीब ने परचम खोला है, सजदे में पड़ी हैं तामीरें
क्या उनको ख़बर थी सीनों से, जो खून चुराया करते थे
इक रोज़ इसी बेरंगी से, झल्केंगी हजारों तस्वीरें
संभलो के वो जिनदाँ गूँज उठा, झपटो के वो कैदी छूट गये
उटठो के वो बैठीं दीवारें, दौडो के वो टूटीं ज़ंजीरें