कालखंड के कैलिडोस्कोप में कोरोना / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 17 जून 2020
वर्तमान जितना अधिक स्याह होता है, उतने अधिक उजले भविष्य के हम सपने देखते हैं और महिमा मंडित काल्पनिक अतीत की यादों को सहेजते हैं। मनुष्य कल्पनाशीलता व सकारात्मक दृष्टिकोण से समय का आकल्पन करता है। 20 वर्ष बाद तत्कालीन युवा कोरोना की घटनाओं का विवरण देते समय किस्सागोई करते समय रेखांकित करेगा कि घटना मार्च से सितंबर 2020 की है।
कोरोना दौर में व्यवस्था काहिल (आलसी) क्लब जैसी थी। क्लब का नियम था कि लेटा हुआ व्यक्ति बैठे हुए पर हुक्म चला सकता था और बैठा हुआ खड़े को आज्ञा दे सकता था। अनुभवी सदस्य कक्ष में गोताखोर की तरह आते थे। ऐसे में किसी का सिर दीवार से टकरा जाए व माथे में गुम्बद बनता था, जिसे क्लब के सदस्य काहिली का प्रमाण पत्र ही मानते थे। भारत को युवा देश माना गया था, युवा मौज-मस्ती में थे और मस्ती को नजर न लगे इसलिए काल्पनिक दुख का काजल लगा लेते थे। कुछ ने शरीर पर इतना गुदना कराया कि काजल केवल आंख में ही लग सकता था। कुछ चश्मे-बद्दूर बोलकर काजल लगाने का स्वांग करते थे। कोरोना की एक स्वर्ण रेखा यह रही कि यह वंशानुगत रोग नहीं था व इसके जन्म-जन्मांतर तक चलने का कोई भय नहीं था। जन्म-जन्मांतर की ‘बरैय्या’ नामक फिल्म नहीं बनाई जा सकती। ‘मधुमति’ का अगला भाग नहीं बनाया जा सकता। जिप्सी लोग जीवनभर यात्रा करते थे। उनकी यात्रा देश के विभाजन में हुए विस्थापन या कोरोना दौर में लोगों की घर वापसी की यातना गाथा से अलग थी। जिप्सी समुदाय के लिए चलना जीवन की कहानी, रुकना मौत की निशानी माना जाता था। ये कांच के गोल बर्तन में समय को समग्र रूप में देख लेते थे व उस बर्तन को जामेजम कहते थे। इससे प्रेरित जर्मन लोक-कथा है ‘लीजेंड ऑफ कारमे’। यह एक जिप्सी युवती व राजमहल के सुरक्षा कर्मचारी की दु:खांत प्रेम कथा थी और फिल्मकार ए.आर. कारदार ने इससे प्रेरित ‘जादू’ नामक फिल्म बनाई थी। इस प्रेम-कथा से प्रेरित फिल्में बनीं व नाटक भी यूरोप में खेले गए।
समय को समझने के प्रयास में ‘टाइम मशीन’ व ‘बैक टू फ्यूचर’ जैसी फिल्में बनाई गईं। ‘बैक टू फ्यूचर’ फिल्म में 1985 के पात्रों को टाइम मशीन में बैठाकर 1955 में भेजा जाता है, जहां केंद्रीय पात्र अपने भविष्य के माता-पिता से मिलता है। ‘टाइम मशीन’ के वैज्ञानिक पात्र की बनाई कार में भूतकाल में यात्रा कर सकते हैं। ‘बैक टू फ्यूचर’ की कार कुछ हद तक किशोर कुमार की ‘चलती का नाम गाड़ी’ की कार जैसी 1928 के मॉडल की है। सनकी मिजाज की कार एक जीवित व्यक्ति की तरह प्रस्तुत की गई है। 1955 में पिता का पात्र एक आलसी व्यक्ति है और उसका बेटा पिता के आलस्य को हिकारत से देखता है, परंतु कालांतर में जब यही पुत्र पिता बनता है, तो वह अपने पूर्व के पिता जैसा ही आलसी व निठल्ला है। हम जीवन में जिन प्रवृत्तियों का निरोध करते हैं, उम्रदराज होने पर वैसे ही बन जाते हैं। हमारे पूर्वाग्रह व अंधविश्वास बरगद की टहनियों जैसे झुककर जड़ों को ही मजबूत कर देते हैं। वृक्ष पर लगे फल बासी होकर सड़ सकते हैं, परंतु अंधविश्वास फैलते ही जाते हैं। फिल्म के तीसरे खंड में फिल्मकार रेड इंडियंस को खदेड़ने की साहस कथाओं से संकेत देता है कि सभी भूखंडों पर मूल नागरिक खदेड़े गए हंै। हर देश में मूल निवासी जनजातीय रहते हैं, फिल्मकार नागरिकता के दावों का पूर्व आंकलन कर परखच्चे उड़ा देता है।
20-25 वर्ष बाद आज जन्में शिशु वयस्क हो जाएंगे और वे कोरोना की किवदंतियां गढ़ेंगे। समय के जामेजम में छवियां गड़मड़ा जाएंगी। समय के कैलिडोस्कोप को घुमाने पर उसमें रखे कांच के टुकड़े विचित्र छवियां गढ़ते समय और रिश्तों की भूल-भुलैया से परे आम आदमी के अधिकार में हर पल को सार्थकता से जीना ही एकमात्र रास्ता है।