कालचक्र / कमलेश पुण्यार्क

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मन्थर गति से घूमने वाले काल का पहिया कुछ तेजी से घूमकर अचानक थम-सा गया; थम ही तो गया। चमचमाते स्टेनलेस परिवार के लिए अल्युमिनियम भी महँगा पड़ने लगा। पूर्व वैभव की चमक में आँखें चौंधिया-सी गयी और दैव ने झपट्टा मार कर सब कुछ छीन लिया। सर्वस्व स्वाहा हो गया। कुछ गया अदालती भैंसों के पागुर में, कुछ गया कानून के मर्यादा-पुरूषों के खाकी खलीतों में, कुछ गया दादाजी की जीर्ण हो आयी पगड़ी की रक्षा में, कुछ गया पिताजी के सड़े गुर्दे के इलाज में। सोलह वर्षों की कमाई- स्नातकोत्तर उपाधि का बोझ थामे भैया के पैर में छाले पड़ गए- नौकरी की तलाश में(जो अब डिग्री-प्राप्ति का ‘देवासुर-संग्राम’विजय करके मुचकुन्द की तरह ससुराल-गुहा में सोने चले गए हैं। )

विचारों को एक झटका सा लगा...सामने आदेशपाल खड़ा नजर आया। उसे देखते ही मुझे कर्तव्यवोध हुआ,अपनी उपस्थिति का भान हुआ। मेरे कुछ पूछने के पहले ही वह स्वयं पूछ बैठा-‘क्या चाहते हो?’

‘हो’ ‘हैं’ नहीं। किन्तु हो-हैं के शाब्दिक प्रयोग के विश्लेषण का यह समय स्वयं में ही अनुचित लगा।

‘साहब मेरे भाई है,उनसे मिलना चाहता हूँ। ’- अचानक ही मुंह से निकल गया।

‘साहब भाई हैं?’- आदेशपाल की सिकुड़ती-फैलती आँखें मेरे कथन की खिल्ली उड़ा रही थी। उसके द्वारा उच्चरित शब्द‘भाई’ इतना लम्बा खिंचा कि उस शब्द के ही अस्तित्वहीन होने की आशंका व्याप गई। ऐसा लगा मानो साहब मेरे तो क्या,किसी के भी भाई हो ही नहीं सकते। तलवारकट मूछों को चुटकी से उमेठता हुआ रूखाई पूर्वक वोला-‘हुँऽह,यहां तो हररोज बीसियों भाई-भतीजे आते रहते हैं। क्या तुम्हें यह मालूम नहीं कि यह अपर सचिव का कार्यालय है,जिसकी कुर्सी पर एक ऐसा अफसर बैठा है,जिसे भाई-भतीजा-वाद से सख्त नफरत है?’

‘मालूम है मेरे भाई! सबकुछ मालूम है;सिर्फ यही नहीं मालूम है,कि भाई को ‘भाई’ कहना गुनाह क्यों है?’- उसके चेहरे को गौर से देखते हुए उसने कहा,फिर सोचने लगा कि अब आगे क्या करना चाहिये। रूखे प्रश्न का रूखा जवाब शायद और रूखापन पैदा कर जाए,और कुछ कहा-सुनी की नौबत आ जाए,किन्तु ऐसा कुछ हुआ नही;क्यों कि भीतर से आयी घंटी की आवाज पर खिंचा आदेशपाल अन्दर चला गया।

थोड़ी देर बाद दरवाजे का पर्दा उठा...गिरा...फिर उठा...।

‘साहब फुर्सत में हैं,मिल सकते है। ’- कहते हुए चपरासी संचिकायें थामें बगल के कक्ष में समा गया।

कुर्ते के आस्तीन से ललाट का पसीना पोंछ,पाँवों को घसीटता,डगमग चाल से आगे बढ़,पर्दा उठा,अन्दर दाखिल हुआ। घबराहट में ऐसा लग रहा था,मानों रोमकूपों में ओस-वृष्टि हो रही हो।

‘अरे!तुम यहां...घर क्यों नहीं चले गये?’- चरणस्पर्श के उत्तर में गम्भीर मुस्कान सहित साहब बोले।

‘काम कार्यालय का है,फिर घर...आपके कार्यालय में चपरासी का एक पद रिक्त है,उसके लिए मैं भी एक उम्मीदवार हूँ। ’---दबे कंठ से निकले काँपते स्वर,साहब को चौंका दिये।

‘तुमऽऽऽ मेरे कार्यालय में ... चपरासीगिरी करोगे...तुम्हारी योग्यता?’

कातर नत निगाहें पलभर के लिए ऊपर उठीं,रुखे होठ थर्राये- ढहती इमारत की कहानी कहने को;फटे कुर्ते की खुली खिड़की से झाँकता डफली सा उदर,कटोरा सा कपोल, कह गया - योग्यता कितनी है;झुकी कमर पर टिका हाथ का अँगूठा योग्यता का प्रमाण-पत्र प्रस्तुत कर रहा था।

उधर साहब ने अतीत में झाँका- यादों का चक्र घनघना कर घूम गया,अनेक चित्र साकार हो उठे। साहब के आँखों के सामने सात पैबन्द लगा झोला लिए एक बालक का बिम्ब उभरा,जो एक भव्य भवन के स्तम्भ के सहारे खड़ा था,जिसकी कातर आँखों में बड़ी-सी चाहत भरी थी तथा झाँक रही थी- याचना। उसी समय वहाँ प्रकट हुई- एक कर्कशा,और उसके साथ ही उसकी बुढि़या सास.....

‘जब देखो,चले आते हैं झोला लटकाए। लगता है जैसे कमाकर रख गए हों इनके बाप-दादे...। ’- कर्कशा का स्वर था।

‘चंचला लक्ष्मी पर घमण्ड नहीं करना चाहिए बहू! यह भीख माँगने नहीं आता है,उधार के नाम पर जितना यह ले जाता है,उतना तो तुम्हारे यहाँ चूहे खा जाते हैं। ’- ऐसा कहते हुए चूहे की बीटों से भरा चावल उसने स्वयं ही लाकर उँडेल दिया था उसके भूखे थैले में।

साहब को याद आया,अपना वह वाल रूप- टूटी खँचिया में गली-कूचे का कूड़ा-कर्कट बीनते हुए। दूसरे ही क्षण वह फूस के छप्पर तले कच्ची मिट्टी की दीवार पर गोबर के उपले थपकाता दिखाई दिया।

कालचक्र थोड़ा और घूमा। गोबर बीनने वाला वालक किशोर हो गया। स्कॉलरशिप की वैशाखी टेकते ‘लोअर,अपर,मिडिल’ फिर हाई स्कूल की चौखट भी लाँघ गया। इसी वैशाखी ने उसे विश्वविद्यालय की उच्चतम उपाधि तक पहुँचा दिया। दृढ़ निश्चय के ‘गुलेल’ से मात खाकर ‘सेवा-आयोग’ की गगन विहारी चिडि़या पैरों के समीप लोटने लगी,साथ ही ईर्ष्या से नाक-भौं सिकोड़े सगे-सम्बन्धी भी तरह-तरह के रंग दिखाने लगे। चावल की चूनी पर पले-बढ़े वालक,जो अब किशोर ही नहीं,युवा हो चुका था; उसे ही ‘श्यामजीरा’ परोसती प्रौढ़ा चाची कहती न अघाती-‘समय है बबुआ!....घर में नहीं था,तुम्हारे लिए ही पड़ोस से उगाह लायी हूँ....। ’

अतीत का प्रत्यालोकन करते-करते अपर-सचिव की गद्दीदार कुर्सी उन्हें चुभती सी लगी,निगाहें थोड़ी बेचैनी से अपने ही कक्ष में भटकी,फिर सटाक से खोला टेबल की दराज़,निकाला चेक-बुक,खटाक से कुछ संख्यायें भरी, और सड़ाक से चेक काट कर आगे बढ़ा दिया- ‘यह लो मेरे भाई! एक क्षुद्र उपहार। गांव जाकर कोई रोजगार शुरूकर दो। दो टके की चपरासीगिरी से परिवार का भरणपोषण कैसे कर पाओगे?’

काँपते हाथ आगे बढ़े। चेक दोनों हाथों से पकड़ कर माथे से लगा लिया। कातर निगाहें भरी गयी संख्याओं पर फिसलती चली गयी, ‘ईकाई...दहाई...सैंकड़ा...हजार...दस हजार....। आँखें चौंधिया गयी। ‘ इतनी बड़ी रकम बाप रे ! इतना तो.....। ’

सोचते क्या हो मेरे भाई! प्रसन्नता पूर्वक घर जाओ...तुम्हारे परिवार का भारी एहसान है मुझ पर...चावल की कन्नी देकर तुम्हारी माँ ने मेरा जो उपकार किया है- सोने की गिन्नी देकर भी उसका बदला नहीं चुकाया जा सकता.....। ’

साहब की आँखें डबडबा आई,चपरासी पद के प्रत्याशी के पैर मानों जमीन से चिपक गये।

‘ओफ! समय !! कैसी है तेरी महिमा.....!! कालचक्र घरघराता नज़र आया। ओफ!क्षणभंगुर भव! द्रुत परिवर्तनशील,विधाता का सुन्दर खिलौना...उसकी सृष्टि...परन्तु कितना नाशवान! जीवन का प्रतिक्षण नष्ट-विनष्ट होता हुआ,कर्तार की मुट्ठी का रेत क्षण-प्रतिक्षण झरता जा रहा है...जो कल था वह आज नहीं,जो आज है वह कल नहीं रहेगा...सृष्टि सनातन है...पुरातन है...सबल है़...सक्षम है...फिर भी रिस रहा है... रिसता जा रहा है...क्षण-प्रतिक्षण!